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Thursday, May 16, 2013

भटकाव का शिकार है माकपा नेतृत्व

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भटकाव का शिकार है माकपा नेतृत्व

Author:  Edition : 

प्रसेनजीत बोस

CPIM-party-congress-2012अप्रैल 2012 में माकपा के कालीकट महाधिवेशन में यह समझ कायम हुई थी कि तीसरे मोर्चे से इतर एक नए वाम जनवादी विकल्प को खड़ा करने का प्रयास किया जाएगा। यह हमेशा ही स्पष्ट रहा है कि कांग्रेस की नवउदारवादी, जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भाजपा तो विकल्प हो ही नहीं सकती। लेकिन दरअसल तीसरे मोर्चा का भी जो प्रयास था वह भी एक सतही गठबंधन था। इसका कोई नीतिगत आधार नहीं था। इसलिए तीसरे मोर्चे के प्रयास टिकाऊ साबित नहीं हुए। हम सब लोगों ने पार्टी की इस समझदारी का स्वागत किया था।

लेकिन कालीकट कांग्रेस के तीन महीने बाद ही माकपा नेतृत्व ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम पर सहमति दे दी। गौरतलब है कि हमारे राष्ट्रपति महोदय इस देश में नव-उदारवाद के झंडाबदार रहे हैं। खास बात यह है कि ऐसा भी नहीं था कि राष्ट्रपति चुनाव में देश की दक्षिणपंथी ताकतों की तरफ से प्रणब मुखर्जी के बरक्स कोई बड़ी चुनौती दी जा रही थी। कालीकट महाधिवेशन में नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ बिना समझौता किए संघर्ष के निर्णय को पार्टी नेतृत्व के इस निर्णय ने धता बता दिया। यह माकपा के अंदर आई अलोकतांत्रिक प्रवृतियों की एक बानगी है। दरअसल ये कदम पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को हाशिये पर धकेलने और बंगाली अस्मिता के तुष्टिकरण के लिए उठाया गया था। प्रणब मुखर्जी को समर्थन देना एक नाटकीय घटनाक्रम के चलते हुआ जिसमें नॉर्थ ब्लॉक से एक फोन राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री को गया और यह कदम उठा लिया गया। यह कालीकट महाधिवेशन में कायम समझ से बिलकुल उलट था। यह एक किस्म का भयानक अवसरवाद है। ऐसा नहीं है कि ये प्रवृति पहली बार इस निर्णय में ही दिखाई दी। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है। लेकिन माकपा के भीतर इसे लेकर लंबे समय से बहस थी। और उम्मीद थी कि माकपा इसका हल जरूर निकाल लेगी। पर अब जब इसकी उम्मीद बिल्कुल भी नजर नहीं आती, तो इसीलिए हम पार्टी से अलग होने को मजबूर हुए हैं।

माकपा की पिछले चुनावों की हार एक व्याख्या की मांग करती है। इसे दो स्तर पर समझना जरूरी है। पहला यह कि विकास के मुद्दे को लेकर पार्टी नेतृत्व चीन से अधिक प्रभावित दिखाई देता है। बंगाल का वाम नेतृत्व वहां पर चीन का विकास मॉडल लागू करने पर आमादा दिखा। दूसरा बुर्जुआ लोकतंत्र की अपनी ढांचागत चुनौतियां हैं। माकपा इन चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह से नाकाम रही। भ्रष्टाचार, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की गैर मौजूदगी और अवसरवादी तत्वों की भरमार जैसी प्रवृतियां इसी बात को साबित करती हैं।

इसके अलावा सीपीएम की पिछले चुनावों की हार भी एक व्याख्या की मांग करती है। इसे दो स्तर पर समझना जरूरी है। पहला यह कि विकास के मुद्दे को लेकर पार्टी नेतृत्व चीन से अधिक प्रभावित दिखाई देता है। बंगाल का वाम नेतृत्व वहां पर चीन का विकास मॉडल लागू करने पर आमादा दिखा। आज चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की औसत संपत्ति अमेरिकी राजनेताओं से अधिक है। माकपा में चीन में तेजी से बढ़ रही इस आर्थिक असामनता को लगातार नजरंदाज किया गया। विकास बुनियादी तौर पर एक वर्गीय प्रश्न है। माकपा का वर्गीय दृष्टिकोण लगातार भोथरा हुआ। इसी वजह से वहां की सरकार की पक्षधरता किसानों की जगह टाटा और अंबानी और अन्य पूंजीपतियों की तरफ दिखी। और दूसरा कि बुर्जुआ लोकतंत्र की अपनी ढांचागत चुनौतियां हैं। माकपा इन चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह से नाकाम रही। भ्रष्टाचार, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की गैर मौजूदगी और अवसरवादी तत्वों की भरमार जैसी प्रवृतियां इसी बात को साबित करती हैं। इन सब कारणों से पार्टी में एक समानांतर अफसरशाही की प्रवृतियां बढ़ी और वो जनता से दूर होती गई। हाल में ही हुई टीपी चंद्रशेखर की हत्या से यह बात साफ हो गई कि माकपा के झंडे तले एक माफिया तंत्र पैदा हुआ है। माकपा के इस अवसरवाद और दक्षिणपंथी भटकाव पर पार्टी के अंदर बहुत से लोगों ने लगातार सवाल खड़े किए, लेकिन नेतृत्व लगातार इस मसले पर उदासीन बना रहा।

हथियारबंद संघर्ष का दौर खत्म हो गया है

नक्सलबाड़ी आंदोलन के लगभग डेढ़ दशक के बाद कई साथी संसदीय राजनीति की तरफ लौटे। आज भी माओवादी आंदोलन में इस विषय पर तीखी बहस जारी है। आज हम देख रहे हैं कि हथियार के दम पर परिवर्तन चाहने वाले आंदोलन भी लगातार भटकाव का शिकार हो रहे हैं। इस्लामिक दुनिया के तमाम संघर्ष इसके उदहारण है। माओवादी आंदोलन के बारे में जो जानकारी हमें मिलती है उसके हिसाब से उस आंदोलन में भी बड़ी संख्या में अवसरवादी लोगों की घुसपैठ हो रही है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में हथियारबंद लड़ाई का गौरवपूर्ण इतिहास रहा। परंतु वहां के लोगों ने सटीक समय पर लोकतंत्र के प्रति अपना नजरिया बदला है। हालांकि वहां की परिस्थियां थोड़ी उलझ गई हैं, फिर भी लड़ाई की दिशा प्रगतिशील है। हमें नेपाल और लातिन अमेरिकी देशों से सीखने की जरूरत है।

सत्तर के दशक में वामपंथी आंदोलन में हुए विभाजन के अपने संदर्भ थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाम आंदोलन में हो रही बहसों का असर यहां के वाम आंदोलन पर पड़ा। आज नव-उदारवाद के दो दशक बाद की परिस्थितियां वैसी नहीं हैं जो सत्तर के दशक में रहीं थी। आज कोई सोवियत यूनियन नहीं है। चीन और उत्तर कोरिया में समाजवाद ने नाम पर कैसा समाजवाद चल रहा है?

पिछले दो दशकों में दुनिया का सबसे बड़ा वाम आंदोलन लातिन अमेरिका में खड़ा हुआ। इसी तरह का आंदोलन योरोप में भी धीरे-धीरे आकार ले रहा है। ग्रीस इस आंदोलन के अगुआ दस्ते में है। यह एक नए तरह का वामपंथी आंदोलन है जो कि वाम की तमाम नकारात्मक विरासतों को छोड़ कर नए तरीके से लड़ाई लड़ रहा है। एकल पार्टी व्यवस्था, केंद्रीकरण, विचार और अभिव्यक्ति पर पाबंदी जैसे मुद्दों पर इन आंदोलनों में एक बेहतर जनवादी समझदारी पैदा हुई है।

दुनिया भर में बीसवीं सदी के समाजवाद के अपने संदर्भ थे। आज की परिस्थितियों में पहले वाला फ्रेमवर्क अप्रासंगिक हो गया है। नव-उदारवाद के वर्गीय ढांचे पर पडऩे वाले प्रभाव को समझाना जरूरी है। मजदूर वर्ग में बिखराव हो रहा है। असंगठित क्षेत्र लगातार बड़ा हो रहा है। विस्थापन बढ़ा है। नए उभरते मध्यवर्ग की भूमिका को समझाने की जरूरत है। साम्राज्यवाद अपने नए और शक्तिशाली रूप में हम सब के सामने है। इसके अलावा सांप्रदायिकता और भारत तथा नेपाल की विशिष्ट परिस्थिति में जाति भी वर्ग संघर्ष जितने ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं।

ऐसे में एक व्यापक जनवादी आंदोलन खड़ा करने की बात लंबे समय से चल रही है। जिसमें देशभर की तमाम वाम और जनवादी ताकतों को एक किया जा सके। दूसरा, आज तक जितने भी ऐसे प्रयास हुए हैं वो सिर्फ संसदीय वाम ताकतों को महज चुनावों के लिए एकजुट करने पर केंद्रित रहे हैं। जो भी ताकतें लोकतंत्रीकरण, सामाजिक न्याय और सेक्युलरिज्म के पक्ष में हैं तथा नव-उदारवाद और सम्राज्यवाद के विरोध में खड़ी हैं उनकी व्यापक एकता की आवश्कता है। हम इस व्यापक एकता की बहस को और खोलना चाहते है। इसके लिए संकीर्णतावाद से परे हट कर एक ऐसे मंच की जरूरत है जिस पर तमाम संघर्षशील ताकतें एकजुट हो सकें।

- रोहित जोशी और विनय सुल्तान की बातचीत पर आधारित।

(प्रसेनजीत बोस : एसएफआई के छात्र नेता रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव में माकपा द्वारा यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन करने का उन्होंने खुला विरोध किया। जिसके चलते वह माकपा से अलग हो गए।)

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