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Tuesday, May 31, 2016

इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैःदून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है.

 इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैःदून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. 

देहरादून।देश के तमाम विश्वविद्यालय जिस तरह जंग का मैदान बने हुए हैं,उसी तरह देहरादून में स्थित दून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. दून विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त कहा गया था कि यह अकादमिक श्रेष्ठता का केंद्र (centre of excellence) होगा. लेकिन एक लम्बे अरसे से,विशेष तौर पर प्रो.वी.के.जैन के कुलपति रहने के दौरान,विश्वविद्यालय अकादमिक श्रेष्ठता के प्रयासों के लिए नहीं बल्कि मनमानेपन, तानाशाही और नियमों को धता बताने वाले आचरण के लिए ही चर्चा में है.

हिमालयी जनता के जनांदोलनों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता इंद्रेश मैखुरी ने यह जानकारी अपने फेसबुक वाल पर लगायी है।
 इंद्रेश मैखुरी ने लिखा हैः

देश के तमाम विश्वविद्यालय जिस तरह जंग का मैदान बने हुए हैं,उसी तरह देहरादून में स्थित दून विश्वविद्यालय भी छात्र संघर्ष का केंद्र बना हुआ है. दून विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त कहा गया था कि यह अकादमिक श्रेष्ठता का केंद्र (centre of excellence) होगा. लेकिन एक लम्बे अरसे से,विशेष तौर पर प्रो.वी.के.जैन के कुलपति रहने के दौरान,विश्वविद्यालय अकादमिक श्रेष्ठता के प्रयासों के लिए नहीं बल्कि मनमानेपन, तानाशाही और नियमों को धता बताने वाले आचरण के लिए ही चर्चा में है.
कुलपति के रूप में दूसरा कार्यकाल पाए हुए प्रो.जैन ने इस वर्ष के प्रॉस्पेक्टस में छात्र-छात्राओं पर ऐसे प्रतिबंधों की घोषणा कर दी,जिन प्रतिबंधों की टक्कर की पाबंदियां,बड़े-बड़े तानाशाह नहीं लगा सकेंगे. विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के समूह में प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने और उन के सामने बात रखने को अनुशासनहीनता की श्रेणी में डाल दिया गया.छात्र-छात्राओं के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से पुस्तकों को फोटोस्टेट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.धरना,प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लग जाए,बोलने की आजादी न हो,यह तो हर तानाशाह की दिली तम्मना होती है ,सो दून विश्वविद्यालय और उसके कुलपति जैन साहब ने भी अपनी इस चाहत के तहत धरना,प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया.यहाँ तक मीडिया बुलाना भी एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया.आखिर किस बात की पर्देदारी कर रहा है,दून विश्वविद्यालय का प्रशासन कि मीडिया के आने को भी दंडात्मक श्रेणी में रख रहा है?लेकिन दून विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र-छात्राओं ने इन तानाशाही फरमानों की चिंदी-चिंदी उड़ा दी और इन अलोकतांत्रिक तथा अवैध प्रतिबंधों के खिलाफ ही आन्दोलन छेड़ दिया.
31 मई को दून विश्वविद्यालय के इन संघर्षरत साथियों को दून विश्वविद्यालय में कुलपति प्रो.वी.के.जैन के संरक्षण में अयोग्यों को नियुक्त करने की कोशिशों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जीत हासिल हुई.31 मई को स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के अंतर्गत अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के दो पदों के लिए साक्षात्कार आयोजित किया गया था.लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दो पदों के लिए दो ही लोगों को शार्टलिस्ट किया गया .इससे स्पष्ट हो गया था कि एसोसिएट प्रोफेसर के लिए करवाया जा रहा साक्षात्कार "फिक्स मैच" है. चर्चा तो यह भी थी कि जिन दो लोगों को एसोसिएट प्रोफेसर बनाने के लिए दून विश्वविद्यालय 31 मई को साक्षात्कार आयोजित कर रहा है,उन में से एक का चयन अभी कुछ दिन पहले देहरादून में ही स्थित पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर भी नहीं हुआ था और जैन साहब उन्ही हजरत को दून विश्वविद्यालय में दो एसोसिएट प्रोफेसरों(जो कि असिस्टेंट प्रोफेसर से ऊपर का पद है) के पदों में से एक पर, नियुक्त करना चाहते थे.बहरहाल,छात्र-छात्राओं ने साक्षत्कार स्थल को घेर लिया.प्राप्त जानकारी के अनुसार दोनों अभ्यर्थियों के दस्तावेजों में भी फर्जीवाडा पाया गया.छात्रों को डराने के लिए पुलिस बुलाई गयी पर छात्र-छात्राओं के प्रतिरोध के सामने दून विश्वविद्यालय प्रशासन को मजबूरों इंटरव्यू रद्द करना पड़ा.
यह दून विश्वविद्यालय के अन्दर चल रहे फर्जीवाड़ा की बानगी भर है.इस तरह की नियम विरुद्ध नियुक्तियां करने वाले और छात्र-छात्राओं के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले कुलपति प्रो.वी.के.जैन और उनके दरबारियों को किसी सूरत में एक सार्वजनिक धन से चलने वाले विश्वविद्यालय को तबाह करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए.राज्य सरकार,इस बात को सुने या न सुने,लेकिन दून विश्वविद्यालय के बहादुर छात्र-छात्राओं को ही विश्वविद्यालय को बचाने की लडाई निर्णायक मुकाम तक ले जानी होगी.इस संघर्ष में तमाम वामपंथी, न्यायपसंद और भ्रष्टाचार विरोधी संगठन और व्यक्ति दून विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र-छात्राओं के पक्ष में खड़े होंगे.

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আর কত রক্ত ? ।। শিবানী দে।।

আর কত রক্ত ?


 ।। শিবানী দে।।
     
          
(C)Image:ছবি
সেদিন আবারও দিল্লির রাজপথে আফ্রিকীয় নিধন ।  আফ্রিকা একটা বিশাল মহাদেশ,নাইজিরিয়াকেনিয়াকঙ্গোমরক্কো কত দেশ থেকে মানুষ এদেশে আসেসেসব পরিচয় আমাদের এখানে গুরুত্ব পায় না । তার মধ্যে কত ছাত্রকত খেলোয়াড়, কত সরকারিকত ব্যবসায়ীবা শুধুই ভ্রমণকারীতারও কিছু জানবার দরকার নেই। তার মধ্যে কেউ বা হয়তো কোনো অপরাধমূলক কাজে জড়িয়ে থাকতেই পারেযেমন শ্বেতাঙ্গ আগন্তুকদের মধ্যেও থাকে । কিন্তু  শুধু আফ্রিকীয়রা কালো,দেখতে অন্যরকম, (যারা কালো নয়, তাদের কথা আলাদা) সেটাই একমাত্র বিবেচ্য হয়ে থাকেআর যেহেতু তারা তুলনামূলকভাবে গরিব দেশের লোকতাই তাদের কেউ অপরাধ করলে সেই স্টিকার ওদের সার্বজনীন কপালে সাঁটা হয়ে যায় ।
          কেন অন্যরকম দেখতে লোকজন এদেশে মানুষের মর্যাদা পায় না যে কোনো অজুহাতে তাদের উপর অত্যাচারবলাৎকারহত্যা করতে হাত কাঁপে নাবিবেকে বাধে না নাকি বিবেক এখন ধীরে ধীরে লুপ্ত হয়ে যাচ্ছে অন্যরকম চেহারা হলেই মানুষ নিজের স্বজাতিকে এক সাধারণ প্রাণী বলেই ভাবছেখুশি খুশি মেরে ফেলা যায় । মানুষ কেন এত অসহিষ্ণু হয়ে যাচ্ছে সমাজ কি ঠগখুনিতে ভরে যাচ্ছে 
          মাঝখানে কিছুদিন খবরে কাগজে বা টিভিতে এই ধরণের খবর ছিল না । তবে তখন ছিল ভোটের বাজার----অন্য কিছু ঘটে থাকলেও তেমন প্রকাশ্যে আসে নি । এবার একজন আফ্রিকান নিহত,পাথরের ঘায়ে । অন্যজন তার বন্ধুআহত । এরা এখানে এসেছিল পড়াশুনো করতে । শিক্ষিতআরো কিছু শেখার আশায় এসেছে । সামান্য অটো ধরা নিয়ে বচসাহাতাহাতি । ভূমিপুত্রদের নিজেদের স্বার্থে অটো জবরদখল । প্রতিবাদী লোকটি বিদেশিকালোদেখতে অন্যরকমতার সংখ্যার জোর নেই । অতএব তার বাঁচবার অধিকারও নেই ।
       একইভাবে কয়েক মাস আগে বেঙালুরুর রাস্তায় এক আফ্রিকান মহিলাকে নগ্ন করে ঘোরানো হয়েছিল । হায়দরাবাদেও একজন আফ্রিকান খুন হয়েছিল । প্রত্যেকটা শহরে একই চিত্র । অভদ্র অশ্লীল অসহিষ্ণু হিংস্র ভূমিপুত্র । আমাদের জায়গাআমাদের রাজত্ব । আমরা যা ইচ্ছে করতে পারি । অজুহাত দেবতোমরা ড্রাগ পাচারকারীচোর, নেশাখোর-----যা খুশি । প্রমাণের দায়িত্ব আমাদের নেইআমাদের খুশিই আইন ।
       সরকার আবার বড় বড় করে বিজ্ঞাপন দেয়, 'অতিথিদেবো ভব'। এসব বুলি অনেক হাজার বছর পুরোনোতামাদি হয়ে গেছে ।
       তবে আফ্রিকীয় অতিথিদের সান্ত্বনা হতে পারে যে আমাদের এইসব ভূমিপুত্ররা নিজেদের দেশের উত্তরপূর্বাঞ্চলের অধিবাসীদের সঙ্গেও একই ব্যবহার করে । দিল্লি বেঙালুরুতে ওরাও পড়াশুনোর জন্যকাজের জন্য আসে । ওদেরও দেখতে অন্যরকমচালচলন একটু আলাদা, অতএব ওরাও খিল্লিবঞ্চনাশারীরিক পীড়ন,ধর্ষণএমনকি হত্যারও যোগ্য । অজুহাতসে কিছু একটা দিলেই হল । 'ওরা ড্রাগখোরড্রাগ পাচার করে,ওদের মেয়েরা ছেলেদের মধ্যে বেশ খোলামেলাস্বাধীনভাবে মেলামেশা করে । যেহেতু ওদের মেয়েরা ছেলেদের সঙ্গে ঘোরে, অতএব ওরা একশ শতাংশ ধর্ষণের যোগ্য ।ওদেরও বেশি সংগঠন নেইকাজেই প্রতিবাদের তেমন জোর নেই ।
     ভূমিপুত্রদের ভাবখানা এরকমযে 'আমরাই এখানকার মালিকআমরা যাকে খুশি ল্যাজায় কাটতে পারি,মুড়োয় ও কাটতে পারি । আমাদের গায়ে হাত দেবে ওদের সামর্থ্য নেই । পুলিশ কি করবে পুলিশ তো আমাদেরই লোক ।তাই এতসব করেও এইসব খুনে ঠগরা পার পেয়ে যায় ।
     পশ্চিমী দেশগুলোতে বৈষম্য মোটামুটি একমাত্রিক বা দ্বিমাত্রিকসেখানে ধনী-গরিব, সাদা- কালো/বাদামির মধ্যে বর্ণবৈষম্য । আমাদের দেশে বৈষম্য বহুমাত্রিক । এখানে ধনী-দরিদ্রসাদা-কালো,  ককেশীয়-মঙ্গোলীয়, উচ্চবর্ণ-দলিতহিন্দু-মুসলমাননারী-পুরুষ, (রাজনৈতিক দলগুলোর আর নাম করলাম না) বৈষম্যের মাত্রার সংখ্যা নেই । কে কাকে কখন আক্রমণ করবেকার ঘাড়ে ঝাঁপিয়ে পড়বে তার কোনো হদিশ নেই । কারণের দরকারও বড় একটা হয় নাছুতো থাকলেই যথেষ্ট । জোর যার বেশিতারই অন্যের উপর কর্তৃত্বের অধিকার । সেই কর্তৃত্ব কখনো লুটদখলদারিকখনো বলাৎকার কখনো হত্যাকখনো বা সবকিছু একসঙ্গে । আক্রমণ আজকাল আর পারস্পরিক নয়, সামূহিকযূথবদ্ধ । আক্রমণকারীরা যেন ক্ষুধার্ত হায়নার পাল । একসঙ্গে ঝাঁপিয়ে পড়ে, মাঝেমাঝে মনে হয় গোটা দেশটাই জঙ্গলে পরিণত হতে যাচ্ছে । শুভবুদ্ধিসম্পন্ন মানুষের স্বর চাপা পড়ে যাচ্ছে। চারদিকে শুধুই হুংকার আর আক্রমণের নেশা, 'দেখে নেবোবুঝে নেবো'র হুমকি ।
    প্রতিবেশী দেশগুলো থেকেও একই ধরণের খবর আসতে থাকে ।
    আমরা কি ফিরে যাচ্ছি হব্‌স্‌(Hobbes) কথিত প্রকৃতির রাজ্যে যেখানে প্রতিটি মানুষ প্রতিযোগী,জান্তবহিংস্রসমাজহীনএকা মনে হয় কোনো শিক্ষাশিল্পসাহিত্যসুকুমারকলা, সঙ্গীত এই অবস্থা থেকে মানুষের উত্তরণ ঘটাতে পারবে না । হয় নৈরাজ্যনয় প্রশাসন ও পুলিস ----এই-ই শেষ কথা ।  ভয়,সন্ত্রাস ও মৃত্যুর ছায়ায় বেঁচে থাকাটাই বোধ হয় আজ মানুষের নিয়তি ।
ঈশানের পুঞ্জমেঘ

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For my friends in Universities! While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot. There might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice. Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai. Palash Biswas

For my friends in Universities!

While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot. There might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice.


Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai.

Palash Biswas

I visited Mahatma Gandhi Hindi University campus on 29th May last during my Nagpur stay.It was burning as Bidrav bears the burn year round and the Sun seems to be the most merciless for the peasantry there often opting suicide under free market economy and we dare not to address the Agrarain crisis or we intend not at all.But Amalendu Upadhyaya,the Hastakshep editor had to be introduced to the students.We landed right into Gorakh Pandey Hostel and spent a few hours interacting with them as the stayed in the campus despite summer vacation.We would like to visist every university and every student if possible.


 I am glad that my young friends seem to be as much as concerned as we are.As I said that Gautam Buddha enacted the original revolution on the base of his observation that ROG SHOK TAAPO ZARA MRITYU are the ultimate realities of life and each reality has a cause.If there is some cause than it might be solved. 


Karan hai to nivaran bhi hai.Samasya hai to samaadhan bhi hai.


We should not be disappointed at any point as we may change the course of history and if our concern and our commitment are genuine,the unprecedented crisis might call for an unprecedented attempt to bring about the most wanted change.


No problem would be solved until we reach the resort of love and peace which is possible only when we have enough courage to fight for equality and justice.


This attempt should not be individual attempt and we must stand united rock solid to achieve the ultimate objective in defence of humanity and the nature.


We may have difference in opinion,ideology,identity as we belong to a nation of diverse culture and realities.We have to strike the chemistry to unite the Nation.


 For me,I see the model of an ideal society in our universities where our children live rather in a society which might be called casteless classless.It looks not like a patriarchal society either as the girls students are respected and they may participate in free discourse which is the soul of universities.


We have to discuss the problems as well as difference with an open mind to make new ways for tolerance and democracy.


Fascism has no way in universities and it is the ultimate republic which we must defend,we the people of India.


 Whereas the life out universities is bound to be hell losing with all sort of complexities,violence and dominance,monopoly,identity class and in fight for power,economic problems,unemployment and displacement,discrimination and apartheid,gender bias and so on.


Thus,the students who want to continue the freedom for humanity,freedom in medium,genre language ,freedom for expression,job security and democratic environment must do the extra course and it is all about the defence of humanity and nature.


This are the basic elements for civilization.We have to invent not only better technologies and theories to sustain life and universe,we have to connect every citizen irrespective of his or her status and identity.


While you need medical help just to save your life suppose you are on a operation table,you never afford to ask first the identity of a doctor or nurse.If you do so,it might be fatal.While you board train,bus,plane ,you never mind whosoever might be the driver or pilot.Ther might be many more examples.In practical life,it is quite impossible to bear the identity everywhere we have to discard it so often and we do not understand that it must be discarded as final settlement and we may achieve the dream objective of equality and justice.


 We could not reach the university in time and we could not reach the girl hostels.I am awefully afraid.girls and women should be considered ,represented in every sphere of life an if some of them deserve they should lead us as we have so many worthy executives these days in any field.


I have no job and I have no shelter.No pension to sustain myself but I would like to visit the universities as an outsider time and again and I believe that the youth and courage may provide me with an extra span of life.


 I am available for universities and colleges and students may interact with me in any language and in any medium.Perhaps I may be useful for career,academic and professional grooming across the discipline specifically with my experience in corporate as well as alternative media.I am looking for such proposal from private parties as I may not expect a government job.


 I have no resource but I am habitual to bear the burn of the heat as I belong to the roots and I a belong to the Himalayas and I am ready to face the adversaries and hope whenever I get an opportunity,I would reach you and would expect to see you all standing united to make this universe a better universe.




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'हस्तक्षेप' के लिए कैंपस से लेकर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदि मुद्दों पर जरूर लिखेगें..


Rajneesh Kumar Ambedkar


"हस्तक्षेप" (जिसे हम वैकल्पिक मीडिया कह सकते हैं) के संपादक अमलेंदु उपाध्याय और पलास विस्वास जी गोरख पांडेय छात्रावास, म.गां.अं.हिं.वि., वर्धा आए। उनके साथ खाने पर तमाम सारे सामाजिक मुद्दों पर बातचीत हुई। उसके बाद में छात्रों से विस्तारित बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि देश के विकास का रास्ता छात्र-नौजवानों के द्वारा विश्वविद्यालयों से होकर जाता है। इसलिए छात्रों को हमेशा एक बेहतर समाज बनाने में अपना सहयोग करना चाहिए....आज बगैर अम्बेडकरवादियों को साथ में लिए हम भारत देश का समावेशी विकास नहीं कर सकते हैं। आज के समय में ज्वलंत प्रश्न जैसे आरक्षण (प्रतिनिधित्व) व सहभागिता और जाति के प्रश्नों पर बातचीत करना ही होगा। इसलिए छात्रों को समाज की सामाजिक समस्याओं पर लिखना चाहिए। इसके लिए 'हस्तक्षेप' जनता और सरकार तक आपकी आवाज को पहुँचाने का काम करेगा। हम सभी ने उनको अश्वासन दिया कि हम लोग 'हस्तक्षेप' के लिए कैंपस से लेकर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदि मुद्दों पर जरूर लिखेगें.....इस अवसर को मुहिया कराने के लिए आभार-Sanjeev Majdoor Jha, Photo Click by Bhagwat Prasad sir ji.



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मोदी सरकार का सबसे बड़ा घोटाला ======================= उत्तराखंड जिसके लिए उसका ऋणी है! Laxman Singh Bisht Batrohi

मोदी सरकार का सबसे बड़ा घोटाला 
=======================
उत्तराखंड जिसके लिए उसका ऋणी है!

Laxman Singh Bisht Batrohi 

अपने दो साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री मोदी ताल ठोककर कहते हैं कि पिछली कांग्रेस सरकार घोटालों की सरकार थी जब कि भाजपा सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है पिछले दो वर्षों के शासन काल में एक भी घोटाले का न होना.
एकाएक सुनने पर यह बात बेहद आकर्षक लगती है, इसकी सत्यता को हमारे देश के आर्थिक और राजनीतिक विशेषज्ञ जांचेंगे मगर एक उत्तराखंडी के नाते मैं कह सकता हूँ कि अपने दो वर्षों के कार्यकाल में मोदी सरकार ने एक ऐसा घोटाला किया है, जिसकी तुलना के लिए भारतीय इतिहास में शायद ही कोई और उदहारण मिले. विगत 18 मार्च को हुए कांग्रेस के 9 विधायकों का अपहरण करके उन्हें वर्तमान सरकार को तोड़ने के लिए इस्तेमाल करना उनकी अद्भुत रणनीति का प्रदर्शन है जिसने एक साथ अनेक नज़ीरें स्थापित कीं. 
भारतीय इतिहास में शायद पहली बार एक मामूली राजनेता को देश की सर्वोच्च न्याय संस्था के द्वारा फेवर मिला और भारत के आम लोगों के बीच यह विश्वास जगा कि इस स्वार्थी और छीना-झपटी के दौर में कोई जगह ऐसी भी है, जहाँ वे कठिन समय में शरण ले सकते हैं.

यह तो तस्वीर का एक पहलू है. दूसरा और उल्लेखनीय पहलू यह है कि इस घोटाले ने भले ही भाजपा की झोली में वृद्धि न की हो, सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के बहाने उत्तराखंड के समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है. सीधे-सरल, इकतरफा सोच के माने जाने वाले उत्तराखंड के लोगों के दिमाग में सच में इतनी निष्ठुर कल्पना कभी आ ही नहीं सकती थी. मुझे याद है, परंपरागत उत्तराखंडी समाज में दुश्मनी प्रदर्शित करने के भी कुछ नियम होते थे. इन नियमों को 'दुश्मनी की नैतिकता' भी कहा जा सकता है. 
हमारे पुराने समाजों में अगर किसी को पीटना या नुकसान पहुँचाना होता था, तो एक अघोषित नियम होता था कि उसे इतना मारना कि वह काम करने लायक न रहे लेकिन उसके प्राण मत लेना. जो प्राण दे नहीं सकता उसे प्राण लेने का कोई अधिकार नहीं है. चूंकि लोग एक बंद दुनिया में रहने के आदी थे, पढ़े-लिखे भी नहीं थे, इसलिए प्रकृति की गोद में पलने वाले लोगों के क्रोध का प्रदर्शन भी विचित्र प्रकार का हुआ करता था जो कालांतर में उन्ही के लिए हानिकारक भी हुआ करता था. ऐसे लोगों के लिए 'लाट-किकड़' संबोधन का प्रयोग किया जाता था, जो सरल, कुछ हद तक बेवक़ूफ़ मगर खुद को तीसमारखां समझने वाले लोग होते थे.
अठारह मार्च को बागी बने इन नौ 'लाटों-किकडों' ने अंततः अपनी जातीय अस्मिता का परिचय दे ही दिया. इतिहास किस तरह लौट-लौट कर सबक सिखाता है, यह भी मोदी सरकार के इस राजनीतिक घोटाले ने सिद्ध कर दिखाया. 
इस प्रकरण से भले ही वर्तमान सरकार को निश्चय ही लाभ मिलेगा, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए, मगर उत्तराखंडी समाज की परंपरागत छवि को इससे जबरदस्त नुकसान पहुँचा है जिसकी भरपाई हो पाना शायद ही संभव हो पाए.



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रोहित वेमुला, प्रणव धनावड़े हम शर्मिंदा हैं, द्रोणाचार्य अब तक जिंदा है!


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TaraChandra Tripathi भाषा ही क्या देश के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. विजय माल्या, ललित मोदी, डकारें हजारों करोड़, जेल जाये हजार के उधार वाला अधमरा किसान.


TaraChandra Tripathi


अस्मिताबोध भाषाओं के लिए की संजीवनी है. जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों में स्वाभिमान होता है, उनकी भाषाएँ, संख्यात्मक दृष्टि से दुर्बल होने के बावजूद जीवित रहती हैं. पर जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों का अस्मिताबोध क्षीण होता है, उनकी भाषाएँ बोलने वालों की अपेक्षाकृत विशाल संख्या के बावजूद काल कवलित हो जाती हैं.
जो समाज अपनी भाषाओं को स्वयं बचाने की अपेक्षा सरकार का मुँह जोहते हैं, उनकी भाषाओं को राजनीति खा जाती है.. उत्तराखंड भाषा संस्थान इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है. यह संस्थान बना था उत्तराखंड की संकटग्रस्त लोक भाषाओं को बचाने के लिए. सरकार को लगा कि वोट बैंक तो उर्दू और पंजाबी में है. अत: यह विज्ञपित किया गया कि ये दोनों भाषाएँ भी बहुत खतरे में हैं. इन्हें बचाना भी बहुत जरूरी है.
निश्शंक जी भले ही रूढ़िवादी और कुटिल राजनीतिज्ञ थे, लेकिन लोक भाषाओं को बचाने के लिए उन्होंने भाषा संस्थान की तत्कालीन निदेशक श्रीमती सविता मोहन को स्वतंत्र अधिकार दे रखा था. उनके जमाने में लोक भाषा अनुसंधान त्था रचनाकारों के प्रोत्साहन की अनेक योजनाएँ क्रियान्वित हुईं. निश्शंक क्या गये, शंक के आते ही भाषा संस्थान भैंस के मरे पाडे सा रह गया, जिसके द्वारा देहरादूइन में ही अड़े रहने का जुगाड़ लगाये, अफसरों को एक ठिकाना और मिल गया.
अब सुना है कि सरकार प्राथमिक पाठशालाओं में लोक भाषाओं को पाठ्यक्रम में लगाने जा रही है. पर किन पाठशालाओं में, सम्पन्नों के स्कूलों में तो हिन्दी भी लतियायी जा रही है, फिर लोक भाषाओं की क्या विसात कि वे उनके गेट तक भी पहुँच पायें. बलि के बकरे तो हमारी प्राथमिक पाठशालाओं के बच्चे ही बनेंगे. जो वैसे भी अध्यापकों की बेरुखी से बौद्धिक मरणासन्नता से उबर नहीं पा रहे हैं.
यदि इन बच्चों के बलिदान से कोई भाषा बचने वाली है तो उसका विलुप्त होना ही श्रेयस्कर है. क्योंकि भाषा जीवन के लिए है न कि जीवन भाषा के लिए.
किसी भी भाषा की विलुप्ति में सम्पन्न वर्ग सर्वाधिक उत्तरदायी होता है. उसकी देखा-देखी विपन्न वर्ग भी अपनी भाषाओं की उपेक्षा करने लगता है. अत: लोक भाषाओं को बचाने की सर्वाधिक दायित्व भी उन्हीं का है. अत: यह सर्वथा अनुचित है कि भाषा को मिटायें सम्पन्न और भाषा को बचाने के .लिए मिटें विपन्न.
भाषा ही क्या देश के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. विजय माल्या, ललित मोदी, डकारें हजारों करोड़, जेल जाये हजार के उधार वाला अधमरा किसान.


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बोलताना पलाश बिस्वास ,Live from Nagpur Mahanayak Manch



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10 th anniversary of Dainik Jantecha Mahanayak at bezanbagh ground, nagpur on dated 28 may 2016


dr.gurudas yedewar palash bishwas dwara
सत्कार मूर्ती ashok wanjari 
सत्कार मूर्ती anil wasnik
सत्कार मूर्ती meghanath katkar


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त्रासदी-पूर्ण व्यवस्था और हस्तक्षेप' (एक परिचर्चा)........



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"EXPRESS Kolkata".....West Bengal,Punjab,Kerala.Uttarakhand, Chennai,Jharkhand....Bihar....in occasion of retirement of Palash Biswas.Photo by Sumit Guha

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Thursday, May 26, 2016

तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए। मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है। मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं। जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा। जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाह

तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।





जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।

दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


पलाश विश्वास

दैनिक जनतेचा महानायक या आंबेडकरी चळवळीतील अग्रगण्य दैनिकाचा दशकपूर्ती सोहळा येत्या शनिवारी नागपूर येथे संपन्न होत आहे. उत्तर नागपुरातील इंदोर परिसरातील बेझनबाग मैदानात हा भव्य सोहळा आयोजित करण्यात आला आहे. या सोहळ्यासाठी एक्ष्प्रेस वृत्तसमुहात मागील ३५ वर्षापासून कार्यरत असलेले कलकत्ता येथील प्रसिद्ध पत्रकार पलाश बिस्वास प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहणार आहेत. त्याचप्रमाणे दिल्ली येथील सुप्रसिद्ध पत्रकार व हस्तक्षेप या वेब पोर्टलचे संपादक अमलेन्दु उपाध्याय हे सुद्धा प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित होत आहेत.


आज रात की गाड़ी से नागपुर रवाना हो रहा हूं।


मिशन यह है कि बाबासाहेब के दीक्षाभूमि में अंबेडकरी आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों,बाबासाहेब के अनुयायियों को हमारे वैकल्पिक मीडिया के अनिवार्य अभियान में शामिल करना है।


वहां जनतेचा महानायक के दशकपूर्ती महोत्सव के मौके पर नागपुर के इंदौरा मैदान में 28 मई को सार्वजनिक सभा में वैकल्पिक मीडिया के हमारे युवा और समर्थ संपादक अमलेंदु उपाध्याय महाराष्ट्र की आम जनता के मुखातिब मुख्य वक्ता होंगे।


स्वागत कीजिये कि जनतेचा महानायक के संपादक सुनील खोब्रागड़े अब वैकल्पिक मीडिया के नये सिपाहसालार होंगे।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।


इसके साथ ही कृपया गौर करें कि  भारत विभाजन के बाद बंगाल की कुल आबादी के बराबर भारतभर में जो दलित बंगाली शरणार्थी छितराये हुए हैं , उनका बहुत बड़ा हिस्सा दंडकारण्य के आदिवासी भूगोल में बसे हैं।


बांग्ला भाषा उनकी मातृभाषा है और वे अपने इतिहास भूगोल और मातृभाषा से भी बेदखल हैं और उनकी चीखों को कहीं दर्ज नहीं किया जाता।मैं भी उन्हीं लोगों में से हूं जिन्हें बांग्ला में अपनी जमीन कभी मिली नहीं है और हिंदी में मेरा प्राण बसा है।


हर भारतीय भाषा और दुनियाभर में मनुष्यता की हर भाषा और हर बोली अब बांग्ला के साथ मेरा मातृभाषा है और बंगाल के इतिहास और भूगोल से बेदखली के बाद यही मेरा असल वजूद है।


बाबासाहेब की दीक्षा भूमि के आसपास महाराष्ट्र के विदर्भ में ऐसे मूक दलित बंगाली शरणार्थी भी बड़ी संख्या में बसे हैं और जनचेता महानायक का मुख्य सस्करण भी मुंबई से निकलता है।विदर्भ के माओवादी ब्रांडेड आदिवासी बहुल चंद्रपुर,गड़चिरौली और गोंडिया में मेरे ये स्वजन बसे हैं तो नागपुर भी मेरा उतना ही घर है जितना समूचा दंडकारम्य,अंडमान निकोबार,उत्तराखंड और यूपी।भारत के चप्पे चप्पे में हमारे वे लोग बसे हैं,जिनके लिए मेरे पिता जिये और मरे और वे सारे मेरे अपने परिजन है।उनकी अभिव्यक्ति के लिए वैकल्पिक मीडिया का यह अनिवार्य मिशन और जरुरी है।


हस्तक्षेप के साथ महानायक के समन्वय के आधार पर जो हम मराठी में हस्तक्षेप का विस्तार कर रहे हैं तो इसी मौके पर नागपुर की पवित्र दीक्षाभूमि से ही हस्तक्षेप का बांग्ला संस्करण भी लांच होना है।क्योंकि हमारी लड़ाई के लिए हमें हस्तक्षेप हर कीमत पर जारी रखना है चाहे हमें जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़े।


हमें उम्मीद है कि हमारे तमाम स्वजन,मित्र समर्थक सहकर्मी और जनप्रतिबद्ध परिचित अपरिचित इस मुहिम में देर सवेर हमारे साथ होगें।बाबासाहेब ने इस देश का संविधान रचा और मेहनतकशों के हकहकूक के स्थाई बंदोबस्त भी उनने किया तो बाबासाहेब के अनुायायियों का साथ हमें मिलना ही चाहिए और बाबासाहेब का मिशन आगे बढाना ही हमारा अनिवार्य कार्यभार है तो हमें उनका साथ भी हर कीमत पर चाहिए।जनतेचा महानायक हमारा आधार है।हम इसे राष्ट्रव्यापी बनाने का काम भी करेंगे।


इसी तरह हर भारतीय भाषा में अब देर सवेर हस्तक्षेप होगा और इसका सारा बोझ हम अमलेंदु पर लादने जा रहे हैं।हम हस्तक्षेप को हर बोली तक विस्तृत करना चाहते हैं ताकि वह लोकजीवन और लोकसंस्कृति की धड़कन तो बने ही,उसके साथ ही जनपक्षधरता के लिए नये माध्यम,विधा,व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ सके।


संपादकीय ढांचा जस का तस होगा और हम बाकी वैकल्पिक मीडिया और पूरे देश के साथ हस्तक्षेप को नत्थी करने के मिशन में हैं और हमें आपका बेशकीमती साथ,समर्थन और सहयोग चाहिए क्योंकि हम बाजार के व्याकरण के विरुद्ध विज्ञापन निर्भरता की बजाये आपके समर्थन के भरोसे यह आयोजन कर रहे हैं।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।



अब आप मानें या न मानें मेरे जीवन में सबसे बड़े आदर्श मेरे गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी,मेरे असल बड़े भाई आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट और राजीव लोचन साह अपनी अविराम सक्रियता के बावजूद बूढ़े हो चुके हैं और हम भी अब चंद दिनों के मेहमान हैं।


इनके मुकाबले मेरी हालत बहुत ज्यादा खराब है क्योंकि तमाम वजहें हैं कि मैं अपने पहाड़ और अपने गांव के रास्ते को मुड़कर देख भी नहीं सकता और मैं अपने घर और अपनी जमीन से बेदखल हूं और फिलहाल एक बेरोजगार मजदूर हूं जिसके लिए सर छुपाने की भी जगह नहीं है और निजी समस्याएं इतनी भयंकर हैं कि उनसे निबटने के लिए कोई रक्षाकवच कुंडल वगैरह नहीं है मेरे पास।


ऐसे समय में इस रिले रेस का बैटन अब हमारे युवा ताजा दम साथियों के पास है।


जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागड़,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े,अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


फिर अपना फोकस तय करना होगा क्योंकि मुक्तबाजार में मुद्दे भी वे ही तय कर रहे हैं और जनता के मुद्दे सिरे से गायब हैं।हम भटक नहीं सकते।इस तिलिस्म को तोड़ना है तो इसके तंत्र मंत्र यंत्र से बचने की दक्षता सजगता अनिवार्य है वरना हम लड़ ही नहीं सकते।कभी नहीं।सावधान।


वे अपने एजंडा लागू करने के लिए इंसानियत के मुल्क को खून के महासमुंदर में तब्दील कर रहे हैं सिर्फ भारत में ही नहीं,दुनियाभर में तो यह मोर्चाबंदी इस विश्वव्यवस्था के खिलाफ विश्वव्यापी होनी चाहिए और इस चुनौती का सामना उन्हें करना है।


हम हरचंद कोशिश में हैं कि अपने जनप्रतिबद्ध तमाम साथियों को एकजुट करें और दुनिया जोड़ने की बात तो बाद में करेंगे अगर आगे भी जियेंगे,फिलहाल देश जोड़ना बेहद जरुरी है।तुरंत जरुरी है।


गौरतलब है कि राजाधिराज मान्यवर डोनाल्ड ट्रंप के राज्य़ाभिषेक से पहले नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था।


आज उस सपने की विरासत,उस किसान आदिवासी मेहनतकश मजदूर के बदलाव की लड़ाई,राष्ट्र को जनवादी लोकतांत्रिक बनाने के कार्यभार का जो हुआ सो हुआ,तय यह है कि सत्तर के दशक की हमारी जिस पीढ़ी ने दुनिया बदलने की कसम ली थी,उसके बचे खुचे लोग अब अलविदा की तैयारी में हैं।


दूसरी तरफ भारत में जो असल सर्वहारा हैं,जो बहुसंख्य हैं,जो जल जमीन जंगल के साथ साथ नागरिक और मानवाधिकार से भी इस स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लगातार बेदखल हो रहे हैं और जिनके लिए मुक्तबाजार की यह व्यवस्था नरसंहारी है,वे लोग ख्वाबों की उस लहलहाती फसल से भी बेदखल हैं।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


जातिव्यवस्था के बने रहते हम भारत के लोग न देशभक्त हैं और न राष्ट्रवादी और न लोकतांत्रिक और हम एक अनंत रंगभेदी वर्चस्व के आत्मघाती गृहयुद्ध में स्वजनों के वध के लिए महाभारत जी रहे हैं।

जाति व्यवस्था के बने रहने पर न समता संभव है और न न्याय और समरसता का धर्मोन्माद आत्मघाती है।


धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह मनुस्मृति अनुशासन बंटी हुई मेहनतकश जनता के नरकंकालों का बेलगाम  कारोबार है तो जाति उन्मूलन के बाबासाहेब का एजंडा ही प्रतिरोध का प्रस्थान बिंदू है क्योंक बंटे हुए हम न अलग अलग जी सकते हैं और न हमारा कोई जनमत या जनादेश है और बच निकलने का कोई राजमार्ग।


दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।


संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


यह धर्मध्वजा मुक्तबाजार का है,इसे आस्था में निष्णात मनुष्यता को समझाना बेहद मुश्किल है क्योंकि इतिहास की मृत्यु हो गयी है और विचारधारा भी बची नहीं है।


यह समझाना भी बेहद मुश्किल है कि मुक्तबाजार के व्याकरण के मुताबिक धर्म और नैतिकता,भाषा और संस्कृति,लोक जीवन का भी अवसान हो गया है।हम बेरहम बाजार में नंगे खड़े हैं और क्रयशक्ति ही एकमात्र सामाजिक मूल्य है।


अब हम मनुष्य भी नहीं रहे हैं।


हम बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक नागरिक अनागरिक हैं और हमारा कोई वजूद नहीं है।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


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तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए। मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है। मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं। जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा। जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाह

तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में 28 मई को बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।





जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागडे,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,कस्तूरी, दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े, अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।

दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


पलाश विश्वास

दैनिक जनतेचा महानायक या आंबेडकरी चळवळीतील अग्रगण्य दैनिकाचा दशकपूर्ती सोहळा येत्या शनिवारी नागपूर येथे संपन्न होत आहे. उत्तर नागपुरातील इंदोर परिसरातील बेझनबाग मैदानात हा भव्य सोहळा आयोजित करण्यात आला आहे. या सोहळ्यासाठी एक्ष्प्रेस वृत्तसमुहात मागील ३५ वर्षापासून कार्यरत असलेले कलकत्ता येथील प्रसिद्ध पत्रकार पलाश बिस्वास प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित राहणार आहेत. त्याचप्रमाणे दिल्ली येथील सुप्रसिद्ध पत्रकार व हस्तक्षेप या वेब पोर्टलचे संपादक अमलेन्दु उपाध्याय हे सुद्धा प्रमुख पाहुणे म्हणून उपस्थित होत आहेत.


आज रात की गाड़ी से नागपुर रवाना हो रहा हूं।


मिशन यह है कि बाबासाहेब के दीक्षाभूमि में अंबेडकरी आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों,बाबासाहेब के अनुयायियों को हमारे वैकल्पिक मीडिया के अनिवार्य अभियान में शामिल करना है।


वहां जनतेचा महानायक के दशकपूर्ती महोत्सव के मौके पर नागपुर के इंदौरा मैदान में 28 मई को सार्वजनिक सभा में वैकल्पिक मीडिया के हमारे युवा और समर्थ संपादक अमलेंदु उपाध्याय महाराष्ट्र की आम जनता के मुखातिब मुख्य वक्ता होंगे।


स्वागत कीजिये कि जनतेचा महानायक के संपादक सुनील खोब्रागड़े अब वैकल्पिक मीडिया के नये सिपाहसालार होंगे।


मराठी जनता अपने साहित्य.संस्कृति और पत्रकारिता की बहुरंगी विरासत के प्रति हिंदी दुनिया के मुकाबले बहुत ज्यादा संवेदनशील है तो हमें खुशी हो रही है कि हम नागपुर में बाबासाहेब की दीक्षाभूमि पर खड़ी जनता के बीच वहां हस्तक्षेप का मराठी और बांग्ला में विस्तार करने जा रहे हैं।


इसके साथ ही कृपया गौर करें कि  भारत विभाजन के बाद बंगाल की कुल आबादी के बराबर भारतभर में जो दलित बंगाली शरणार्थी छितराये हुए हैं , उनका बहुत बड़ा हिस्सा दंडकारण्य के आदिवासी भूगोल में बसे हैं।


बांग्ला भाषा उनकी मातृभाषा है और वे अपने इतिहास भूगोल और मातृभाषा से भी बेदखल हैं और उनकी चीखों को कहीं दर्ज नहीं किया जाता।मैं भी उन्हीं लोगों में से हूं जिन्हें बांग्ला में अपनी जमीन कभी मिली नहीं है और हिंदी में मेरा प्राण बसा है।


हर भारतीय भाषा और दुनियाभर में मनुष्यता की हर भाषा और हर बोली अब बांग्ला के साथ मेरा मातृभाषा है और बंगाल के इतिहास और भूगोल से बेदखली के बाद यही मेरा असल वजूद है।


बाबासाहेब की दीक्षा भूमि के आसपास महाराष्ट्र के विदर्भ में ऐसे मूक दलित बंगाली शरणार्थी भी बड़ी संख्या में बसे हैं और जनचेता महानायक का मुख्य सस्करण भी मुंबई से निकलता है।विदर्भ के माओवादी ब्रांडेड आदिवासी बहुल चंद्रपुर,गड़चिरौली और गोंडिया में मेरे ये स्वजन बसे हैं तो नागपुर भी मेरा उतना ही घर है जितना समूचा दंडकारम्य,अंडमान निकोबार,उत्तराखंड और यूपी।भारत के चप्पे चप्पे में हमारे वे लोग बसे हैं,जिनके लिए मेरे पिता जिये और मरे और वे सारे मेरे अपने परिजन है।उनकी अभिव्यक्ति के लिए वैकल्पिक मीडिया का यह अनिवार्य मिशन और जरुरी है।


हस्तक्षेप के साथ महानायक के समन्वय के आधार पर जो हम मराठी में हस्तक्षेप का विस्तार कर रहे हैं तो इसी मौके पर नागपुर की पवित्र दीक्षाभूमि से ही हस्तक्षेप का बांग्ला संस्करण भी लांच होना है।क्योंकि हमारी लड़ाई के लिए हमें हस्तक्षेप हर कीमत पर जारी रखना है चाहे हमें जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़े।


हमें उम्मीद है कि हमारे तमाम स्वजन,मित्र समर्थक सहकर्मी और जनप्रतिबद्ध परिचित अपरिचित इस मुहिम में देर सवेर हमारे साथ होगें।बाबासाहेब ने इस देश का संविधान रचा और मेहनतकशों के हकहकूक के स्थाई बंदोबस्त भी उनने किया तो बाबासाहेब के अनुायायियों का साथ हमें मिलना ही चाहिए और बाबासाहेब का मिशन आगे बढाना ही हमारा अनिवार्य कार्यभार है तो हमें उनका साथ भी हर कीमत पर चाहिए।जनतेचा महानायक हमारा आधार है।हम इसे राष्ट्रव्यापी बनाने का काम भी करेंगे।


इसी तरह हर भारतीय भाषा में अब देर सवेर हस्तक्षेप होगा और इसका सारा बोझ हम अमलेंदु पर लादने जा रहे हैं।हम हस्तक्षेप को हर बोली तक विस्तृत करना चाहते हैं ताकि वह लोकजीवन और लोकसंस्कृति की धड़कन तो बने ही,उसके साथ ही जनपक्षधरता के लिए नये माध्यम,विधा,व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ सके।


संपादकीय ढांचा जस का तस होगा और हम बाकी वैकल्पिक मीडिया और पूरे देश के साथ हस्तक्षेप को नत्थी करने के मिशन में हैं और हमें आपका बेशकीमती साथ,समर्थन और सहयोग चाहिए क्योंकि हम बाजार के व्याकरण के विरुद्ध विज्ञापन निर्भरता की बजाये आपके समर्थन के भरोसे यह आयोजन कर रहे हैं।


आप तनिक भी हमारी या हमारे मिशन की परवाह करते हों तो हस्तेक्षेप के पोर्टल के टाप पर ललगे  पे यू एप्स बटन पर तुरंत जो भी आप पे कर सकें तुरंत कीजिये।यह समर्थन मिला तो हम जरूर कामयाब होंगे।वरना हमारी मौत है।



अब आप मानें या न मानें मेरे जीवन में सबसे बड़े आदर्श मेरे गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी,मेरे असल बड़े भाई आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट और राजीव लोचन साह अपनी अविराम सक्रियता के बावजूद बूढ़े हो चुके हैं और हम भी अब चंद दिनों के मेहमान हैं।


इनके मुकाबले मेरी हालत बहुत ज्यादा खराब है क्योंकि तमाम वजहें हैं कि मैं अपने पहाड़ और अपने गांव के रास्ते को मुड़कर देख भी नहीं सकता और मैं अपने घर और अपनी जमीन से बेदखल हूं और फिलहाल एक बेरोजगार मजदूर हूं जिसके लिए सर छुपाने की भी जगह नहीं है और निजी समस्याएं इतनी भयंकर हैं कि उनसे निबटने के लिए कोई रक्षाकवच कुंडल वगैरह नहीं है मेरे पास।


ऐसे समय में इस रिले रेस का बैटन अब हमारे युवा ताजा दम साथियों के पास है।


जनांदोलन और जनमोर्चे पर क्या होगा,हम नहीं जानते लेकिन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर अमलेंदु उपाध्याय, यशवंत सिंह, अभिषेक श्रीवास्तव, रेयाजुल हक, साहिल, प्रमोद रंजन, चंदन,सुनील खोब्रागड़,डा.सुबोध बिश्वास,अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, ज्ञानशील,शरदेंदु बिश्वास,संजय जोशी,दिलीप मंडल,संजीव रामटेके,प्रमोड कांवड़े,अयाज मुगल जैसे कार्यकर्ताओं के हाथ बैटन है और उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका के लिए खुद को जल्द से जल्द तैयार होना होगा और आपस में समन्वय भी बनाना होगा।


फिर अपना फोकस तय करना होगा क्योंकि मुक्तबाजार में मुद्दे भी वे ही तय कर रहे हैं और जनता के मुद्दे सिरे से गायब हैं।हम भटक नहीं सकते।इस तिलिस्म को तोड़ना है तो इसके तंत्र मंत्र यंत्र से बचने की दक्षता सजगता अनिवार्य है वरना हम लड़ ही नहीं सकते।कभी नहीं।सावधान।


वे अपने एजंडा लागू करने के लिए इंसानियत के मुल्क को खून के महासमुंदर में तब्दील कर रहे हैं सिर्फ भारत में ही नहीं,दुनियाभर में तो यह मोर्चाबंदी इस विश्वव्यवस्था के खिलाफ विश्वव्यापी होनी चाहिए और इस चुनौती का सामना उन्हें करना है।


हम हरचंद कोशिश में हैं कि अपने जनप्रतिबद्ध तमाम साथियों को एकजुट करें और दुनिया जोड़ने की बात तो बाद में करेंगे अगर आगे भी जियेंगे,फिलहाल देश जोड़ना बेहद जरुरी है।तुरंत जरुरी है।


गौरतलब है कि राजाधिराज मान्यवर डोनाल्ड ट्रंप के राज्य़ाभिषेक से पहले नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के पचासवें साल की शुरुआत आज से हो रही है। इसे हम बसन्त गर्जना या बज्रनाद के रूप में जानते हैं। तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन की कड़ी में किसानों के इस आंदोलन ने जनवादी भारत का सपना देखा था जिसकी बुनियाद मजदूर किसान राज था।


आज उस सपने की विरासत,उस किसान आदिवासी मेहनतकश मजदूर के बदलाव की लड़ाई,राष्ट्र को जनवादी लोकतांत्रिक बनाने के कार्यभार का जो हुआ सो हुआ,तय यह है कि सत्तर के दशक की हमारी जिस पीढ़ी ने दुनिया बदलने की कसम ली थी,उसके बचे खुचे लोग अब अलविदा की तैयारी में हैं।


दूसरी तरफ भारत में जो असल सर्वहारा हैं,जो बहुसंख्य हैं,जो जल जमीन जंगल के साथ साथ नागरिक और मानवाधिकार से भी इस स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लगातार बेदखल हो रहे हैं और जिनके लिए मुक्तबाजार की यह व्यवस्था नरसंहारी है,वे लोग ख्वाबों की उस लहलहाती फसल से भी बेदखल हैं।


जनता के बेशकीमती ख्वाबों की बहाली अब जनप्रतिबद्धता का सबसे बड़ा कार्यभार है और इसलिए बाबासाहेब का जाति उम्मूलन का मिशन सबसे ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि जाति व्यवस्था की नींव पर ही यह धर्मोन्माद का तिलिस्म मुक्त बाजार है।


जातिव्यवस्था के बने रहते हम भारत के लोग न देशभक्त हैं और न राष्ट्रवादी और न लोकतांत्रिक और हम एक अनंत रंगभेदी वर्चस्व के आत्मघाती गृहयुद्ध में स्वजनों के वध के लिए महाभारत जी रहे हैं।

जाति व्यवस्था के बने रहने पर न समता संभव है और न न्याय और समरसता का धर्मोन्माद आत्मघाती है।


धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह मनुस्मृति अनुशासन बंटी हुई मेहनतकश जनता के नरकंकालों का बेलगाम  कारोबार है तो जाति उन्मूलन के बाबासाहेब का एजंडा ही प्रतिरोध का प्रस्थान बिंदू है क्योंक बंटे हुए हम न अलग अलग जी सकते हैं और न हमारा कोई जनमत या जनादेश है और बच निकलने का कोई राजमार्ग।


दुनिया के लिए आज सबसे बुरी खबर है कि डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन जीत चुके हैं और व्हाइट हाउस के तमाम दरवाजे और खिड़कियां उनके लिए खुले हैं उसीतरह जैसे अबाध पूंजी के लिए हमने अगवाड़ा पिछवाड़ा खोल रखा है।


संजोगवश आज ही भारत के चक्रवर्ती महाराज के राज्याभिषेक की दूसरी वर्षी के मौके पर भारत में विज्ञापनों की केसरिया सुनामी है।भारत और अमेरिका ही नहीं,सोवियत संघ के विघटन के बाद टुकटा टुकड़ा लेनिन का ख्वाब और गिरती हुई चीन की दीवार पर भी धर्मध्वजा फहरा दिया गया है।


यह धर्मध्वजा मुक्तबाजार का है,इसे आस्था में निष्णात मनुष्यता को समझाना बेहद मुश्किल है क्योंकि इतिहास की मृत्यु हो गयी है और विचारधारा भी बची नहीं है।


यह समझाना भी बेहद मुश्किल है कि मुक्तबाजार के व्याकरण के मुताबिक धर्म और नैतिकता,भाषा और संस्कृति,लोक जीवन का भी अवसान हो गया है।हम बेरहम बाजार में नंगे खड़े हैं और क्रयशक्ति ही एकमात्र सामाजिक मूल्य है।


अब हम मनुष्य भी नहीं रहे हैं।


हम बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक नागरिक अनागरिक हैं और हमारा कोई वजूद नहीं है।


मनुष्यता बची नहीं रहेगी तो प्रकृति और पृथ्वी के बचे होने की कोई उम्मीद भी नहीं है।


तनिको पांव जमाके रखिये जमीन पर दोस्तों कि आसमान गिर रहा है जमीन को खाने के लिए।



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