Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Wednesday, May 15, 2013

किस्सा कुर्सी का

किस्सा कुर्सी का

Wednesday, 15 May 2013 09:36

अरुण कुमार 'पानीबाबा'

जनसत्ता 15 मई, 2013: वर्तमान लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा कर सकेगी, इसकी संभावना लगातार क्षीण हो रही है। कई नेताओं के बयानों से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि अगली लोकसभा के लिए आम चुनाव नवंबर, 2013 से आगे नहीं टाले जा सकते। आम चुनाव कभी भी हों, आज ताजे-चटपटे गरमागरम समोसे जैसा विषय तो अगले प्रधानमंत्री पद के लिए शुरू हो चुकी खुली दौड़ का है। अब यह दिन के उजाले जैसा दिखने लगा है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए होड़ खुले मैदान में हो रही है। आम जनता भी इस वाद-संवाद में चटखारे लेकर भागीदारी कर रही है। 
स्मृति टटोलने पर याद पड़ता है कि राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में एक लाख करोड़ के खर्चे और बड़े घोटाले के समाचारों के बाद, जैसे ही 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले का भंडा फूटा, यह चर्चा भी चल पड़ी कि कठपुतली या नामित प्रधानमंत्री की परंपरा देश के लिए हानिकारक है। बस उसी परिप्रेक्ष्य में 'अगला प्रधानमंत्री कौन' का तब्सिरा शुरू हो गया। 
शुरुआती दौर की छिटपुट चर्चा में भारतीय जनता पार्टी की सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम सुनाई पड़ने लगे। यह सूचना तो अभी उजागर हुई है कि सुषमा अपनी उम्मीदवारी गंभीरता से ले रही थीं और हाल में दिवंगत शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे से आशीर्वाद भी ले चुकी हैं। 
बहरहाल, इन दो नामों के अलावा भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की इस पद के लिए महत्त्वाकांक्षा लंबे समय से चर्चित विषय है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दूसरे प्रमुख घटक जनता दल (एकी) के सेनानायक और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार काफी अरसे से अपने को योग्य और उपयुक्त उम्मीदवार मानते रहे हैं। जद (एकी) अध्यक्ष और राजग संयोजक शरद यादव ने उम्मीदवारी का एलान तो नहीं किया, पर अपनी काबिलियत के बारे में आश्वस्त हैं। 
कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी की असमंजस के दलदल में धंसी मानसिकता आम जानकारी का विषय है। वे निजी लवाजमे के घोषित उम्मीदवार हैं- बरसों से प्रयास पूर्वक दौड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। 
पिछले बरस उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को अनोखी जीत मिलने के बाद से वरिष्ठ नेता मुलायम सिंह भी प्रथम पंक्ति के उम्मीदवार हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बारह बरस के कथित सुशासन के बाद अपने प्रदेश की जनता से यही जनादेश मांगा था कि गुजरात मॉडल का सुशासन पूरे देश में लागू होना चाहिए। गुजरात की जनता ने भारी बहुमत से इस प्रस्ताव को पारित किया है कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बनें। 
प्रधानमंत्री पद के लिए सत्तामूलक प्रतिस्पर्धा की यह खिचड़ी लगभग एक बरस से चूल्हे पर चढ़ी है। मगर राष्ट्रीय राजनीति के पंचायती कड़ाह से खदबदाहट तभी सुनाई पड़ी जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोदी को संघ का औपचारिक उम्मीदवार घोषित कर दिया। 
लाखों करोड़ के घोटालों के उजागर होने का सिलसिला चला तो भ्रष्टाचार और कालेधन के विरोध में गैर-सरकारी सामाजिक सक्रियतावादी अण्णा हजारे और दवा विक्रेता योग प्रशिक्षक रामदेव के आंदोलन भी आंधी तूफान की तरह उभरे और प्रचंड धूल का गुब्बार खड़ा कर शांत हो गए। दोनों प्रयासों का मूल चरित्र अराजनीतिक होने के कारण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के स्थायी सतत आक्रामक स्वरूप की संभावना ही नहीं बन सकी। इसलिए जितनी जनचेतना जागृत हुई उसका संचित लाभ गैर-कांग्रेसी दलों को उनके सामर्थ्य के अनुरूप मिल गया। उत्तर प्रदेश में यह लाभ सपा को मिला तो गुजरात में भाजपा के खाते में जमा हो गया। 
देश के स्तर पर भाजपा प्रमुख विरोधी दल है। उस प्रतिष्ठा के अनुरूप भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का बड़ा लाभ उसी को मिला। फलत: भाजपा की उम्मीदें जगने लगीं, हौसला बढ़ने लगा, तभी पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। संघ परिवार के हाईकमान संघ प्रमुख वगैरह को अपनी भूमिका याद आने लगी। अन्य सत्तावादी गुटों की अपेक्षा संघ परिवार में सत्ता का प्रयोग काफी हद तक विकेंद्रित है, पर मूल सत्ता का स्रोत संघ हाईकमान में निहित रहता है। मुद्दा चाहे संगठन निर्माण और उसमें पदभार संरचना का हो और चाहे नीति निर्धारण का, अंतिम निर्णय संघ हाईकमान ही कर सकता है। गुरु गोलवलकर के समय से यही परिपाटी स्थापित है।
पिछले बरस के अंतिम दिनों में पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए रस्साकशी शुरू हुई तभी ये संकेत आने लगे कि संघ हाईकमान भाजपा का अध्यक्ष फिर नितिन गडकरी को बनाना और मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करना चाहता है। जैसे ही ये सूचना संकेत प्रामाणिक स्तर पर औपचारिक हुए, भारतीय राजनीतिक कड़ाह में साल-दो साल से पक रही खिचड़ी खदबदाने लगी।
संघ परिवार ने पहला चुनाव भारतीय जनसंघ नाम का दल गठित कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में लड़ा था। अगले ही वर्ष जनसंघ संस्थापक की असमय मृत्यु के बाद दल की कमान पूरी तरह से गुरुजी के कब्जे में चली गई और दल का चरित्र आरएसएस के राजनीतिक औजार या मुखौटे जैसा सिकुड़ गया। आपातकाल के बाद 1977 में बनी जनता पार्टी के प्रयोग को विफल कराने के बाद जब जनसंघ का भाजपा के रूप में पुनर्गठन हुआ तब भी इस परिस्थिति में कुछ फेरबदल नहीं हुआ। 1990 के दशक में भाजपा की हैसियत में विस्तार होना शुरू हुआ और 1988 में जब वह केंद्रीय सत्ता में आई तब थोड़ा समय ऐसा आया   कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पद की मर्यादा, गरिमा और औपचारिकता का सम्मान करते हुए स्वायत्त आचरण का प्रदर्शन किया था। 
उस दौर में जो संघ बनाम भाजपा सरकार तनातनी हुई उसी का यह नतीजा हुआ कि मौका मिलते ही संघ हाईकमान ने भाजपा नेतृत्व के पर कतरने शुरू कर दिए। इसी प्रक्रिया के तहत आडवाणी की हैसियत नियंत्रित करके यह प्रामाणिकता से सिद्ध कर दिया कि भाजपा नेतृत्व के लिए सजावटी स्वायत्तता का अनुशासन अनिवार्य शर्त है। नागपुर के व्यापारी नितिन गडकरी से पार्टी चलवा कर दिखा दी। 

संघ नेतृत्व द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नामांकन साधारण या दुविधाग्रस्त निर्णय नहीं था। यह भी कि संघ नेतृत्व के लिए किसी भी सूरत में यह सरल निर्णय नहीं था। मोदी के व्यक्तित्व, चरित्र, क्षमता, योग्यता, उपलब्धि, महत्त्वाकांक्षा आदि को जितना करीब से संघ नेतृत्व ने देखा-परखा है उसका न तो किसी बाहरी व्यक्ति को अनुमान है और न ही इस संबंध को जानने की कोई सरल प्रक्रिया है। प्रयास तो नदारद ही है।
असमंजसकारी तथ्य यह है कि मोदी प्रशासन और कार्यशैली की जितनी सकारात्मक ख्याति पड़ोसी राज्यों- राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में सुनाई पड़ती है वह गुजरात की जनता में व्याप्त संतुष्टि, प्रशंसात्मक 'जनमत' की तुलना में बहुत ज्यादा है। मोदी की कार्यशैली और कड़े अनुशासन के किस्से अमदाबाद, वडोदरा, भरुच, मेहसाणा, पालनपुर आदि में सुनने को मिलते हैं उससे कहीं ज्यादा और बड़ी-बड़ी कहानियां राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के शहर-कस्बों में सुनने को मिलती हैं।
अमदाबाद से पंद्रह सौ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश की राजधानी पहुंचने तक ऐसे किस्सों का विस्मयकारी विस्तार हो जाता है। लखनऊ में तो ऐसे प्रशासनिक और पुलिस अफसर भी मिलते हैं जो दो-चार बरस के लिए गुजरात आदर्श का अभ्यास करने वहां जाने को तत्पर हैं। 
चंद सक्रियतावादी आलोचकों की बात छोड़ दें, आम जनता में न तो मोदी नेतृत्व से असंतोष है न कटु आलोचना। मगर कट्टर समर्थक भी यह दावा नहीं करते कि गुजरात में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है। इतना तो सभी स्वीकार करते हैं कि विशिष्ट कारोबारी वर्ग के लिए जितनी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं उतनी व्यवस्था आमजन के लिए न भी हो तो सरकारी अमले की पहले जैसी धींगा-मुश्ती अब नहीं है। आम नागरिक को पटवारी, तहसीलदार की कचहरी में काम का 'वाजिब' दाम तो चुकाना ही पड़ता है, अब पहले जैसी लानत-मलामत बिल्कुल नहीं सहनी पड़ती। 'दस्तूरी' राजी-खुशी तय हो जाती है और लेन-देन होता है।
साधारणतया सरकारी कर्मचारियों में कहीं कोई असंतोष नहीं झलकता। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अवश्य रोष व्यक्त करते हैं। उनकी 'दस्तूरी' और 'इनाम' में कमी आई है। 'लोग चाय भी हिकारत से पिलाते हैं।' भ्रष्टाचार के संबंध में सर्वाधिक निंदात्मक रपट अंतर-प्रांतीय ट्रक चालकों की है। ये ड्राइवर हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, कर्नाटकी या अन्य कोई हो सकते हैं। इनके अनुभव के मुताबिक गुजरात में सड़क से सफर देश भर में सबसे महंगा है। पालनपुर के उत्तरी छोर से दक्षिण में वापी तक के गलियारे की दूरी छह सौ किलोमीटर से कम है। इसके लिए हजार-पंद्रह सौ रुपए प्रति सौ किलोमीटर का खर्चा तो अवश्य चुकाना पड़ता है। 
इसके विपरीत तथ्य यह है कि गुजरात में सड़कें ही बेहतर नहीं, सुरक्षा भी बहुत अच्छी है। महाराष्ट्र की सड़कें भी खराब हैं और सुरक्षा का बंदोबस्त नदारद है। राजमार्गों पर ठगी की प्रथा पनप गई है। वहां के पुलिसकर्मी ठगों के सहयोगी की भूमिका में ही मिलते हैं। तात्पर्य यह है कि 'गुजरात में' सड़क सफर बेशक महंगा, लेकिन महाराष्ट्र जैसी अराजकता बिल्कुल नहीं।
ट्रक चालकों के विपरीत, जो गुजराती आम बसों-रेलगाड़ियों में मिलते हैं वे अपने मुख्यमंत्री की प्रशासनिक योग्यता की प्रशंसा में कतई कंजूसी नहीं करते। ऐसे तमाम आलोचकों को सिर्फ कोसते हैं, जो तरह-तरह से मोदी की राह में रोड़े अटकाने का प्रयास कर रहे हैं- विशेष रूप से दिल्ली की कांग्रेस और सरकार। कानून के अमल में कड़ाई से आए 'अच्छे परिणामों' को सभी स्वीकार करते हैं। केवल मुसलमान चुप रहते, या दबे स्वर में इतना ही कहते हैं- सब बरोबर है, अब बारह बरस से अमन ही है, धंधा कारोबार ठीक चलता है। 
सामान्यतया गुजरात, पड़ोसी राज्यों का मुसलमान राजनीतिक संवाद से परहेज करता है। उत्तर प्रदेश के मुसलमान की तरह मुखर नहीं है। हिंदू का ध्रुवीकरण निचले तबकों तक व्याप्त है। 
विस्तृत चर्चा विश्लेषण में यह मुखरित हो जाता है कि आमजन की नजरों में कानून, शांति भंग करने की जिम्मेदारी बिहार, उत्तर प्रदेश के प्रवासियों की हुआ करती थी। 2002 के सबक के बाद 'ऐसे तमाम शरणार्थी या तो प्रदेश छोड़ गए या सुधर गए'। केवल भाजपा कार्यकर्ता या समर्थक नहीं, आम हिंदू नागरिक की समझ से शहरी अमन का मसला सांप्रदायिक चेतना से जुड़ा है। अब केवल गुजरात नहीं, देशभर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मंदिर, मस्जिद, सिविल कोड- जैसे किसी मुद्दे की आवश्यकता नहीं है, केवल मोदी का नाम, व्यक्तित्व, कृतित्व, सक्रियता अपने आप में पर्याप्त है। 
अयोध्या रथ यात्रा के दिनों में (1990-91) आडवाणी राजनीतिक हिंदुत्व के प्रतीक रूप में स्थापित हुए थे। उस तुलना में 'मोदी करिश्मा' कई गुना विशाल और दीर्घकाय है। इस   वस्तुस्थिति को अन्य राजनीतिक दल, विद्वान, पर्यवेक्षक देख-समझ सकें या न समझ सकें, संघ हाईकमान इस वस्तुस्थिति से भली-भांति अवगत है और वह इस मौके की अनदेखी नहीं करना चाहता।
गुजरात विधानसभा चुनावों में तीसरी बार मिली प्रभावशाली विजय मोदी करिश्मे के सफल प्रयोग का प्रमाण है। मोदी ने हिंदुत्ववादी छवि के साथ चुस्त-दुरुस्त प्रशासन और विकासवाद की वक्तृता को कुशलता से संशलिष्ट करके एक अनोखे करिश्मे का चमत्कार प्रस्तुत किया है। अब संघ परिवार हिंदुत्व के नारे के बिना ही बड़ी सहजता से मोदी नेतृत्व के सहारे घोर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ उठा सकेगा।         (जारी)
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44655-2013-05-15-04-07-26

No comments:

Post a Comment