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Wednesday, May 15, 2013

ब्राह्मण मतों के सहारे

ब्राह्मण मतों के सहारे

Tuesday, 14 May 2013 10:24

अपूर्व जोशी 
जनसत्ता 14 मई, 2013: कर्नाटक में कांग्रेस को मिली शानदार जीत को अगले आम चुनाव से जोड़ कर भले ही पार्टी के बड़े नेता अपने सुनहरे भविष्य के दावे कर रहे हों, सच्चाई इसके ठीक उलट है। केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार शीर्ष तक पसर चुके भ्रष्टाचार के चलते अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। ए राजा, कनिमोड़ी, सुरेश कलमाडी आदि के कारनामों से दागदार हो चुकी सरकार कैग की रिपोर्टों के बरक्स खुद का ठीक से बचाव तक नहीं कर पा रही थी कि कोयला खदानों के आबंटन में धांधली को लेकर कैग की ही रिपोर्ट ने उसको एक नए संकट में डाल दिया। इस घोटाले की जांच कर रही सीबीआइ ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में मामले की स्थिति-रिपोर्ट को कानून मंत्री के इशारे पर बदले जाने की बात स्वीकार कर सरकार की फजीहत और बढ़ा दी। 
विपक्षी दल कानून मंत्री के इस्तीफे का दबाव बना ही रहे थे कि रेलमंत्री पवन बंसल ने सरकार और कांग्रेस को नई मुसीबत में डाल दिया। रेलवे बोर्ड में नियुक्ति को लेकर सीबीआइ के खुलासे के बाद संसद नहीं चल पाई। सरकार के पास अपने बचाव का कोई रास्ता नहीं रह गया था। लिहाजा, पवन बंसल और अश्विनी कुमार की मंत्रिमंडल से विदाई जरूरी हो गई। पर ये इस्तीफे भी सरकार के लिए राहत साबित नहीं होंगे। ऐसे में कांग्रेस का नेतृत्व 2014 के आम चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बड़े बदलाव की तैयारी करने जा रहा है। इसकी शुरुआत 26 अप्रैल को वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच लंबी मुलाकात से हुई। इसके बाद से ही इन चर्चाओं ने जोर पकड़ा कि तिवारी एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय होने जा रहे हैं। 
हालांकि इस कथन पर कइयों की यह आपत्ति हो सकती है कि भला तिवारी निष्क्रिय कब हुए थे। जो ऐसा मानते हैं वे भी अपनी जगह सही हैं लेकिन यह कथन पूरी तरह गलत भी नहीं। पिछले कुछ बरसों से नारायण दत्त तिवारी राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेल दिए गए थे। ऐसा होने के पीछे कई कारण रहे जिन पर बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है और नया कुछ कहने को बचा नहीं है। नया है अट्ठासी बरस के इस चिर-युवा का एक बार फिर से राजनीति के अखाड़े में ताल ठोंकना और कांग्रेस आलाकमान की इसमें मौन सहमति होना। तिवारीजी और सोनिया गांधी की मुलाकात के कई अर्थ गुने जा रहे हैं। 
अरसे से कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उपेक्षित तिवारी को अचानक दिल्ली दरबार का बुलावा आना मात्र मिजाजपुरसी तो नहीं हो सकता। तब क्या कारण है कि आजीवन कांग्रेस के वफादार सेवक बन कर रहे तिवारी को राजनीतिक वनवास में भेज चुका कांग्रेस आलाकमान अचानक इतना मेहरबान हो उठा कि न केवल कांग्रेस अध्यक्ष ने उनसे लंबी मुलाकात की बल्कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में उनकी 'वापसी' के संकेत भी तेजी से उछले। इससे इस संभावना को बल मिला है कि कांग्रेस आम चुनाव से पहले कुछ ऐसा अवश्य करने जा रही है जिससे कि उससे छिटक कर पहले भाजपा, फिर बसपा और उसके बाद सपा का दामन पकड़ चुका एक बड़ा वोट बैंक वापस उसके साथ आ जाए।
'पंडितजी' को दिल्ली दरबार का बुलावा इसी रणनीति का हिस्सा है। यानी कांग्रेस तिवारी को साध ब्राह्मण मतदाता को रिझाने का प्रयास करने जा रही है। और बात केवल तिवारी तक सीमित नहीं है; मध्यप्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल के दिन भी बहुरने वाले हैं। कांग्रेस आलाकमान के सलाहकारों का मानना है कि इन दो बुजुर्ग नेताओं की वापसी का सीधा असर आम चुनाव में देखने को मिल सकता है। 
उनके इस आकलन में खोट भी नहीं। देश को अस्सी सांसद देने वाले उत्तर प्रदेश में पिछले दो विधानसभा चुनाव ब्राह्मण को सामने रख लड़ गए। इसको इस तरह समझा जा सकता है कि 2007 में बसपा ने अस्सी ब्राह्मण प्रत्याशी मैदान में उतारे थे तो पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में उसके चौहत्तर ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। पिछले चुनावों में शानदार जीत दर्ज करने वाली समाजवादी पार्टी ने पचास ब्राह्मणों को टिकट दिया जिनमें से इक्कीस विधायक बन गए। बसपा के लोकसभा और राज्यसभा मिलाकर दस सांसद ब्राह्मण हैं। मायावती के खासमखास सिपहसलार सतीश चंद्र मिश्र इन दिनों पूरे उत्तर प्रदेश का दौरा इसी ब्राह्मण वोट को वापस पाने के लिए कर रहे हैं। उनकी हर सभा में इस पर जोर रहता है कि कैसे सोलह प्रतिशत ब्राह्मण मतदाता और चौबीस प्रतिशत दलित मतदाता एक हो जाएं। 
बसपा की इस छटपटाहट को मुलायम सिंह यादव भलीभांति समझ रहे हैं। उन्होंने इसकी काट के लिए कट्टर समाजवादी रहे जनेश्वर मिश्र तक को जातीय राजनीति के दलदल में धकेलने से गुरेज नहीं किया। 
लखनऊ में 360 एकड़ में 'पंडित' जनेश्वर मिश्र के नाम पर पार्क, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को पाठ्यक्रम में शामिल करने से लेकर परशुराम जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने तक, मुलायम सिंह को ऐसा कोई भी कदम उठाने से परहेज नहीं है जिससेवे इस विशाल वोट बैंक पर अपनी पकड़ मजबूती के साथ बना पाएं। अपनी इसी रणनीति के तहत उन्होंने नारायण दत्त तिवारी को साधने का प्रयास किया। 

इसकी शुरुआत पिछले साल अठारह अक्तूबर को हुई, जब देहरादून के वन शोध संस्थान के एक खंडहर-से बंगले में निर्वासित-सा जीवन बिता रहे तिवारी के जन्मदिन को भले ही उनकी अपनी पार्टी के दिग्गजों ने भुला दिया लेकिन मुलायम सिंह यादव ने नहीं भुलाया। मुलायम   सिंह ने न केवल तिवारी को मुबारकबाद दी बल्कि देहरादून छोड़ लखनऊ आने का न्योता भी दे डाला। बतौर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री तिवारी को आबंटित लखनऊ स्थित बंगले को अखिलेश यादव सरकार ने सजाया-संवारा और उन्हें पूरा राजकीय सम्मान दिए जाने के निर्देश भी प्रशासन को दिए। इससे ब्राह्मणों में सपा की पकड़ मजबूत हुई है तो दूसरी तरफ कांग्रेसी खेमे में बेचैनी बढ़ने लगी है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में इस समय सभी दलों के बीच सवर्ण मतों के ध्रुवीकरण को लेकर संघर्ष तेज हो गया है। जाहिर है, इसके चलते फिर से नारायण दत्त तिवारी की पूछ बढ़ गई है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह समझ में आ गया है कि अगर एक बार फिर से सवर्ण और अल्पसंख्यक पार्टी के साथ जुड़ जाते हैं तो शायद 2014 के चुनाव में उसकी स्थिति कुछ बेहतर हो जाए। तिवारी से इसी के मद््देनजर कांग्रेस आलाकमान ने बात की। तिवारी के एक करीबी की मानें तो सोनिया गांधी ने उनसे उत्तर भारत में कांग्रेस के घटते जनाधार पर चर्चा की और मार्गदर्शन चाहा। लेकिन इसके साथ ही इन अटकलों ने भी जोर पकड़ा है कि ब्राह्मण वोट बैंक को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए तिवारी को कोई सम्मानजनक पद दिया जा सकता है। 
जानकारों के अनुसार दोबारा राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव स्वयं तिवारी ने खारिज कर दिया है। ऐसे में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी के लिए बोझ बनते जा रहे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को बाहर का रास्ता दिखा कहीं कांग्रेस आलाकमान नारायण दत्त तिवारी को तो यह जिम्मेदारी नहीं सौंपने जा रहा? राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा साबित हो सकता है। अब तक के सभी छह मुख्यमंत्रियों में तिवारी का प्रदर्शन हर तरह से बेहतर रहा है। उनके समय में राज्य में सबसे ज्यादा पूंजीनिवेश हुआ और रोजगार के अवसर भी सबसे ज्यादा बढ़े। 
हालांकि भ्रष्टाचार में भी उनके कार्यकाल में खासा इजाफा हुआ था लेकिन सिटूजिर्या जमीन घोटाला और जलविद्युत परियोजनाओं में धांधली भाजपा सरकारों के कार्यकाल में भी देखी गई और खुली लूट का जैसा माहौल बहुगुणा के शासनकाल में हो गया है उसे देखते हुए तिवारी अब तक के सबसे बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। 
उत्तराखंड अपने आप में कांग्रेस के लिए ज्यादा महत्त्व नहीं रखता। मात्र पांच लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में नारायण दत्त तिवारी की ताजपोशी का जोखिम कांग्रेस उठा सकती है, क्योंकि यह दांव चल गया तो उसे पूरे देश में और विशेष रूप से हिंदीभाषी राज्यों में सवर्ण मतों का फायदा पहुंच सकता है, जो 2014 में उसकी वापसी का कारण भी बन सकता है। कांग्रेस के भीतर इसलिए भी बेचैनी बढ़ रही है क्योंकि सबसे ज्यादा संसदीय सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने स्पष्ट रणनीति बना कर ब्राह्मणों और मुसलमानों को साधना शुरू कर दिया है। 
पिछले दिनों लोकसभा में बसपा के मुसलिम चेहरा कहे जाने वाले शफीकुर्रहमान बर्क ने वंदे मातरम् को लेकर जो बयान दिया उससे साफ संकेत मिलते हैं कि मायावती, मुलायम सिंह यादव के इस वोट बैंक में सेंध लगाने में जुट गई हैं। 
लोकसभा में वंदे मातरम् का गान एक परंपरा है। इस गीत में कुछ भी सांप्रदायिक नहीं लेकिन जबरन इसे मुसलिम विरोधी करार दिया जाता रहा है। बसपा सांसद ने इसे न गाने की बात कह समाजवादी पार्टी को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। अगर सपा इस मुद्दे पर बसपा का विरोध करती है तो मुसलमान उससे नाराज हो सकते हैं। दूसरी तरफ अगर सपा खामोश रहती है तो उसके द्वारा आयोजित 'परशुराम जयंती समारोह', 'प्रबुद्ध वर्ग सम्मलेन' आदि के चलते जुड़ रहे सवर्ण मतदाता के दूर होने का खतरा सामने है। ये दोनों दल अपने पैंतरे बहुत संभल-संभल कर चल रहे हैं क्योंकि दोनों ब्राह्मण वोट बैंक की अहमियत समझते हैं। इससे चिंतित कांग्रेस भी अब इस खेल में कूदने की तैयारी कर रही है। नारायण दत्त तिवारी की वापसी की संभावना इसी की तरफ संकेत करती है। 
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुख्यालय में भले ही तिवारी के समर्थकों की संख्या कम हो, जमीनी कांग्रेसी उनकी वापसी की चर्चा से प्रसन्न हैं। वे इसे राहुल गांधी के कथन 'मैं ब्राह्मण हूं और पार्टी का महासचिव हूं' से जोड़ कर देख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हार के बाद समीक्षा बैठक में जब पार्टी के कुछ बड़े सवर्ण नेताओं ने अपनी अनदेखी का आरोप लगाया था तो राहुल ने खुद के ब्राह्मण होने की बात कह उन्हें चुप करा दिया था। इन नेताओं का मानना है कि अब आलाकमान सही रास्ते पर आ रहा है और इससे अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी भारी फायदे में रहेगी।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44561-2013-05-14-04-55-06

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