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Friday, January 22, 2010

नक्सलवाद: समस्या बनाम आंदोलन

बहस

 

नक्सलवाद: समस्या बनाम आंदोलन

अनिल चमड़िया


मनमोहन सिंह जब से देश के प्रधानमंत्री बनें है तब से वे इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है. साठ के दशक के अर्थशास्त्री मनमोहन सिह भी शिक्षण संस्थानों में डिग्री लेने वाले देश के दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह पहले नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों में रहे हैं.

माओवादी पोस्टर

पंजाब के मशहूर नक्सलवादी नेता हाकाम सिंह की माने तो उन्होने यदि मनमोहन सिंह को बचाने की कोशिश न की होती तो वे उस समय नक्सलवादियों के समर्थक होने के आरोप में जेल में होते. पंजाब के नक्सलवादी नेता हाकाम सिंह के बारे में देश के कई बड़े संसदीय नेताओं ने जैसा वर्णन किया है उससे उनकी बातों पर भरोसा नहीं करने का कोई कारण नहीं समझ में आता है. तमिलनाडु के राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रह चुके स्वर्गीय हरकिशन सिंह सुरजीत का कहना है कि हाकाम सिंह समाऊ देश के महान क्रांतिकारी थे.

मनमोहन सिंह ने दिल्ली में उच्चाधिकारियों के साथ एक बैठक में कहा था कि नक्सलवाद अब बुद्दिजीवियों का आकर्षण नहीं रहा.लेकिन उन्होने नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए इस तथ्य का उल्लेख किया था कि देश के 180 से ज्यादा जिलों में नक्सलवाद फैल चुका हैं. मनमोहन सिंह जब बार-बार नक्सलवाद के प्रभाव में आने वाले जिलों की बढ़ती तादाद का उल्लेख करते हैं तो हाकाम सिंह समाऊ की बताई कहानी याद आने लगती है.

हाकाम सिंह ने पंजाब की मशहूर लेखिका जसबीर कौर को चंडीगढ़ में एक बैंक लूटने के प्रयास की घटना का उल्लेख किया था. हाकाम सिंह के अनुसार तब पुलिस ने उन पर मनमोहन सिंह को इस मामले में शामिल होने की बात को कबूल करने के लिए दबाव बनाया था. लेकिन उन्होने इस दबाव में आने से इंकार कर दिया था. मनमोहन सिंह उस समय पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे. पंजाब के नक्सलवादी आंदोलन के नायक शीर्षक पुस्तक में पंजाबी के मशहूर लेखक सुदर्शन नट ने कई कहानियों को शामिल किया है.इसमें सुरजीत सिंह बरनाला, हरकिशन सिंह सुरजीत के अलावा पूर्व प्रधानमत्री चन्द्रशेखर और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक अजमेर सिंह औलख, सीपीआई के पूर्व सासंद जगजीत सिंह आनंद (आनंद पंजाबी दैनिक नवां जमाना के संपादक भी रह चुके हैं), पूर्व न्यायाधीश आर के त्यागी, सीपीआई एम एल लिबरेशन के पोलित ब्यूरो के सदस्य स्वपन मुखर्जी और पंजाबी विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के पूर्व अध्यक्ष गुरूभगत सिंह आदि के संस्मरण हैं.

पुस्तक के पेज नंबर 204 और 205 में हाकाम सिंह की 1991 में सुनाए गए इस किस्से को भी शामिल किया गया है. मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे. हाकाम सिंह ने आपातकाल के दिनों को याद करते हुए बताया है कि चंडीगढ़ में एक बैंक के लूटने के प्रयास की घटना में नक्सलवादियों के होने की आशंका पुलिस वालों को थी.पुलिस उस समय तो किसी को इस घटना के आरोप में गिरफ्तार नहीं कर सकी लेकिन पुलिस के यहां यह मामला फाइलों में पड़ा रहा. जब हाकाम सिंह को गिरफ्तार किया गया तो पुलिस ने उनसे कई मामलों में पूछताछ की. इसमें बैंक कांड भी शामिल था.

हाकाम सिंह ने एक रणनीति ये बनाई कि पुलिस को वे केवल उन्हीं नामों के बारे में बताएंगे जो या तो भूमिगत हो गए है या फिर शहीद हो गए हैं. वे संपर्क और सहानुभूति रखने वालों को किसी भी तरह बचाने की सोच रहे थे. पुलिस बैंक लूट कांड मामले में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर (मनमोहन सिंह) के नाम पर जोर देकर ये कहने की कोशिश कर रही थी कि उन्होने उसकी डुप्लीकेट चाबी बनाई है, जिस चाबी से बैंक को लूटने का प्रयास किया गया. लेकिन हाकाम सिंह ने साफ तौर पर कहा कि वे किसी ऐसे व्यक्ति को न तो जानते हैं और ना ही उनसे उनकी मुलाकात हुई है. पुलिस ने उन्हें तस्वीर भी दिखाई.

तर्कशील प्रकाशन अंबाला द्वारा 2004 में प्रकाशित इस पुस्तक में कई दिलचस्प कहानियों के बीच हाकाम सिंह बताते है कि उन्होने तस्वीर देखकर सोचा कि दूसरे बुद्दिजीवियों और अर्थशास्त्र के शिक्षकों की तरह ये जरूर नक्सलवाद का समर्थक होगा.बहुत दबावों के बाद हाकाम सिंह ने पुलिस के सामने एक ऐसा दांव फेंका कि वह काम आ गया.

उन्होने पुलिस वालों से पूछा कि आपलोगों को इस मामले की जांच का भार कैसे दे दिया गया जबकि आपको कुछ बुनियादी बातों की ही जानकारी नहीं है. पुलिस वाले आश्चर्यचकित होकर हाकाम सिंह को देखने लगे.

पुलिस ने पूछा कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं. तब हाकाम सिंह ने कहा कि वे कम से कम उन नक्सलवादियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्धयन क्यों नहीं करते है जिन्हें या तो मारा गया है या फिर पुलिस ने जिन्हें गिरफ्तार किया है. हाकाम सिंह ने पुलिस को बताया कि नक्सलवादी आंदोलन के साथ सिखों में व्यवसायी समुदाय जिन्हें बापा सिख कहा जाता है, के किसी भी सदस्य को जब नहीं पाते हैं तो भला ये शख्स इस आंदोलन से कैसे हो सकता हैं. मजे कि बात कि मनमोहन सिंह के व्यवसायी जाति से होने की बात को हाकाम सिंह पक्के तौर पर नहीं जानते थे लेकिन उन्होने अनुमान लगाया था.

दरअसल ये कहानी और लंबी है. लेकिन जिस संदर्भ में इसका उल्लेख किया गया है उसके लिए पर्याप्त है. संदर्भ नक्सलवादी आंदोलन और उसे आज सबसे बड़ा खतरा बताने के विषय से जुड़ा है. मनमोहन सिंह इसके बाद 7 अप्रैल 1980 से 14 सितंबर 1982 तक योजना आयोग के सदस्य सचिव थे तब उन्होने बिहार के ग्रामीण अंचलों में उभर रहे असंतोष का अनुभव करने के लिए एक अध्ययन टीम के साथ उन इलाकों का दौरा किया था. उनकी उस रिपोर्ट के हवाले से नक्सलवाद के विस्तार के कारणों पर प्रकाश डाला गया था.

इस तरह दो स्तरों पर मनमोहन सिंह की नजरों में नक्सलवाद को खतरे के रूप में नहीं देखा जा रहा है. लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें सबसे ज्यादा खतरा नक्सलवाद में ही दिखाई दे रहा है.
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इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ

 
 

Sandeep Diwan (Sandeepdeewan) Raipur, Chhattisgah

 
 यह आलेख आपके अद्मय साहस और जीजीविषा को दर्शाता है। आपका प्रयास खोजपूर्ण, तथ्यपूर्ण, गंभीर और प्रशंसनीय है। समस्या की जड़ तक पहुँचने से ही समस्या का हल होगा। लेकिन इसे विडंबना ही कहें कि इस दिशा में कभी कभार ही गंभीर प्रयास किए जाते हैं। जिस दिन जनता जनार्दन इन बातों का समझ जाएगी, समस्या का समाधान निश्चत ही हो जाएगा। लेख के माध्यम से आपने अद्भुत जानकारी प्रदान की है जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। साथ ही ऐसी रोचक लेख परोसने के लिए धन्यवाद। 
   
 

kalu rajpura

 
  लेखक बहुत सवाल करता है. माओवाद क्या है कौन नहीं जानता है. Indian history में है. state बनाम people. State बहुत मज़बूत है. तब लोग powerless हैं. 
    
 

harpreet rajasthan

 
 लेख अच्छा है सर. 
    
 

arvindpant (pantarvind71@yahoo.com) joshimath uttarakhand

 
 नक्सलवाद, माओवाद से प्रभावित इलाकों में ये समस्या क्यों उतपन्न हुई इस को यदि पहचानने की सिर्फ इच्छा ही सत्ताधीश व्यक्त करे तो ये आयातीत विचार नष्ट करने के लिए पहली लड़ाई होगी. ये लड़ाई पुलिस या सेना नहीं बल्कि जनता के माध्यम से लड़ी जानी चाहिए क्योंकि आखिर गुमराह हुए नवयुवक किसी बड़े घराने या अफसरों की संतान नहीं है. 
    
 

अभय लोकरे (abhaylokre@gmail.com) बालाघाट

 
 आम आदमी की समस्या यह है की उसे किसी न किसी रूप में कष्ट झेलने ही है | ये कष्ट चाहे तो नक्सलवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से |ये दोनों मिलकर आम आदमी की ऐसी की तैसी करने पर आमादा हैं |

नक्सलबाड़ी से चल कर आज यंहा तक के सफ़र को देखे तो यह समझ आता है की विचारधारा नाम की कोई चीज अब नहीं है |शुद्ध व्यापार बन्दूक के बल पर |

प्रशासन को इस बात की फ़िक्र ज्यादा है की कंही यह नक्सलवाद की समस्या हल न हो जाय |गलती से अगर हल हो गई तो इस मद में आने वाले पैसे की बन्दर बाट बंद न हो जाएगी .भला सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को कोई हलाल करता है क्या ?
 
    
 

Ramesh Kumar (rk140676@gmail.com) Azamgarh

 
 नक्सली आतंकवादी हैं या क्रांतिकारी मैं इस पर बहस नहीं करना चाहता. मैं अभी हाल की घटना का उल्लेख करना चाहूंगा. झारखंड में एक पुलिस वाले की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी. जब राहुल गांधी उस परिवार से मिलने गए तब उस पुलिस अधिकारी की विधवा से बातचीत के दौरान नक्सली समस्या के समाधान का उपाय पूछा. जानते हैं आप कि उस अशिक्षित महिला ने यह कहा : "जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं मसलन रोटी, कपड़ा, रोज़गार, दवा जैसी ज़रूरत की चीज़ों को आम लोगों तक पहुँचा दीजिए नक्सली समस्या खत्म हो जाएगी". 
    
 

अनिरुद्ध जगदलपुर

 
 दीपक जी आप जो कह रहे हैं एसी एक भी सफल माओवादी/मार्क्सवादी सरकार आज तक नहीं हुई। जब आप माओवादियों के द्वारा दिखाये जा रहे बडे बडे सपनों की बात करते हैं तो ये भूल जाते हैं कि जो मारे रहे हैं जंगलों में वे आदिवासी हैं। बस्तर में वारंगल से घुसा माओवाद वही के लोगों का विरोध का भी सामना कर रहा है क्योंकि जिन सपनों की बात कर रहे हैं वे खोखले हैं सच्चाई माओवादियों की सबके सामने आ गयी है। सृजनगाथा में जयप्रकाश मानस जी का लेख छपा है उसकी कुछ बाते काबिलेगौर है -
बंदूक की नाल कनपटी पर अड़ाकर मैं भी आपको हाँकने लगूँ तो आप भी मेरी बात करने लगेंगे । जिसे आप सहानुभूति कह रहे हैं वह भ्रम है, यह सहानुभूति नहीं, मौत के भय से उपजा दबाब है, वह तैयार की गई फौज की विवशता है जहाँ अब वह दोनों तरह से खाई से घिर चुका है।

शायद आप यह भी जानते हैं कि माओवाद जो हिंसा के रास्ते जन-समस्याओं का हल ढूँढता है मूलतः और अंततः अमानवीय और अतिवादी धारणा है जहाँ समतामूलक समाज और स्वतंत्रता आधारित समाज व्यवस्था की कोई संभावना नहीं। आपके पास किसी माओवादी देश में भारतीय प्रजातंत्र जैसी किसी व्यवस्था की सूचना या अनुभव है तो मुझे ज़रूर बतायें जो नागरिकों की भारत जैसी स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उन आदिवासियों को माओवादियों के चंगुल से मुक्त ही नहीं करना चाहते जो फ़िलहाल भूलवश और प्राणभय से उनके साथ थे और अब उनकी असलियत जानकर उनसे मुक्ति चाह रहे हैं।
आप हिंसा, हथियार, हत्या की अनुमति भी प्रजातंत्र में देने के पक्षधर हैं । फिर यदि सलवा-जुडूम के लोग नक्सली हिंसा के ख़िलाफ़ हथियार उठा लें तो उसे कैसे ग़लत कह रहे हैं?
दरअसल माओवादी ग़रीब और आदिवासियों के अधिकार और न्याय के लिए लड़ते होते तो इस तरह निहत्थे आदिवासियों को जबरन माओवादी वेशभूषा पहनाकर गुरिल्ला ट्रेनिंग नहीं दे रहे होते, उन्हें संघम सदस्य बनाकर मुठभेड़ में उन्हें आगे रखकर इस तरह मरवा नहीं रहे होते। आपको क्या पता कि लूटने, माल असबाब लूटने, पुलिस और अर्धसैनिक बल से लड़ने के वक्त बंदूक की नोक पर ऐसे सीधे-सरल और शांतिप्रिय आदिवासी युवक और गाँववालों को आगे रखा जाता है और वह भी सिर्फ़ लाठी, टँगिया और भाला आदि पकड़वाकर ताकि यदि मारे जायें तो सिर्फ़ ये ही मारे जायें और नक्सली कमांडर सदैव बचे रहें।
यदि आप माओ को ठीक से पढ़े हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा है कि विरोधियों के ख़िलाफ़ हर समय दुष्प्रचार होता रहे ताकि सामान्य जन के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता रहे ।
क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि ये माओवादी क्योंकर चुनाव में भाग नहीं लेते ? उल्टा चुनाव का बहिष्कार करते हैं । चुनाव में व्होट देनेवाले आदिवासी मतदाता के ख़िलाफ़ फ़रमान जारी करते हैं कि ख़बरदार जो किसी ने मतदान किया तो, गला रेंत दी जायेगी और मुंडी पेड़ में टाँग दी जायेगी । इसे आप क्या तानाशाही नहीं कहेंगे ? इसे आप क्या नादिरशाही नहीं कहेंगे?
 
   
 

deepak sharma (sharmadeepak1982@rediffmail.com) ranchi

 
 There is no doubt that naxalism or maoism is a struggle of deprived people. I am going to say another thing. Poor people, who do not have anything to loose, fight every struggle. Why? Because leaders of these struggles tell poor that this struggle will give you everything, in this time, you do not have. Poor have no way except fighting. They do not have to eat, wear, live. What do Maoists? They tell poor that when communism will come. Every man will have got to eat, to wear, to live. Deprived people start to see dream. They think about a country, where no one will die due to hunger. No women will compel to work as a sex worker to full the stomach of her children. No young people or student will be killed in fake encounter. There will be a system of common people in country. There will be rule of worker, common people and farmers. The eyes of poor start twinkling. For making injustice free society, they became ready to give up their lives and ready to kill anyone, who is declared, their class enemy. I am not impressed with the work of CPI Maoist. Their cadres are not working properly or their leaders most probably engaged in private work because in the country where, 20 percent people have got control on the whole system. Where, there have been 1, 50,000 suicidal cases of farmers in five years. They (Maoist) have got only small presence. It is the story of their failures. They are not working properly. Even as, government is bothered due to the expansion of Maoist but I am worried about the slow progress. I dare to say to the government that the soil of India is potential for the revolution. It is the lack of the Maoist that they could not expend their struggle otherwise the condition of country is fully in the favour of a historical revolution. If ruler of the country wants to save the present system then they must start to give the share of deprived people, poor and oppressed. If not then the common people do not have to loose anything.  
    
 

अनिरुद्ध जगदलपुर

 
 चपरासी से ले कर साहब कहाँ नहीं लूटते हुजूर, क्या दिल्ली में नहीं लूटते या बम्बई में नहीं लूटते। पुलिस वाले क्या शहरों में पशुओ जैसा व्यवहार नहीं करते। दमन आम आदमी का पूरे देश में है लेकिन नक्सलवाद केवल जंगल में है इस लिहाज से राजीव जी की बात में दम है कि कि वीरप्पन भी जंगलों में हुआ, फूलन भी बीहडों में हुई और नक्सल भी जंगलों में मिलेंगे क्योंकि ये उनके सहज पनाहगाह हैं।

माओवादियों को जनसमर्थन होता तो ये मैदानों में भी पाये जाते - सहज स्वीकार्य? वहाँ क्या तथाकथित शोषण नहीं समाजवाद है? महेन्द्र कर्मा, बलीराम कश्चम, मनकू राम अच्छे नेता सिद्ध हुए हैं बस बाहरी लोगों को उनकी बात सुननी ही नहीं है क्योंकि उन्हे तो अपनी मर्जी चलानी है।

तिब्बत में हाल ही में आन्दोलन हुआ था जिसका जवाब जिस तरह से चीन नें दिया था किसी दिन ये माओवादी सफल हो गये तो हमारे यहाँ भी यही होगा जिसने जबान खोली उसकी तो लग जायेगी।
 
    
 

bhoopen () bhilai

 
 ये विचार बहुत ही वास्तविक है. अगर नक्सलवाद समस्या है तो इसे इसी नज़रिए से दूर किया जा सकता है. क्योंकि बस्तर में इस समस्या का कारण आदिवासियों का दमन ही है. देखिए बस्तर में एक सीट सामान्य हुई और वहां एक व्यापारी जीता वहां एक भी आदिवासी खड़ा नहीं हुआ. एक चपरासी से लेकर साहब सभी लूटते हैं. पुलिस वाले शहरों में आम आदमी से जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं तो वहां जंगलों में तो मानवता की हद पार कर लेते होंगे. 
    
 

अनिल कुमार दिल्ली

 
 मुझे तो राजीव जी की बात में तथ्य भी दिख रहा है और सत्य भी। अमित जी शायद पटना और दिल्ली से हम माओवाद को फैशन बना सकते हैं लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। अब तो देश भर को नक्सलवाद से सहानुभूति रही भी नहीं।  
    
 

amit kumar patna

 
 राजीव जी के प्रलाप पर यों तो कुछ कहना ज़रूरी नहीं लगता क्योंकि उनको तथ्यों से कुछ लेना-देना नहीं है. लेकिन वे बस्तर की ओर से बोलने का जो बचकानापन दिखा रहे हैं, यह तथ्य बोलने को बाध्य करता है.

जिन्हें सलवा जुडूम आदिवासियों का आन्दोलन लगता है, उन्हें उसको दिए जा रहे सरकारी-कारपोरेट फंड क्यों नहीं दीखते?

और ये कौन माओवादी हैं जो बस्तर को बैसाखी दे रहे हैं? क्या बस्तर की अपनी रीढ़ नहीं है? राजीव जी का 'बस्तरवाद' यही है शायद कि वे बस्तर को रीढ़विहीन कर के देखते हैं. उन्हें लगता हैकि बस्तर को-या देश के किसी भी इलाके के कमज़ोर तबके को-माओवादियों और चीन की बैसाखी ज़रूरी है.

और जवानों के मानवाधिकार की बात करते हैं? क्या ये जवान इसराइल और अमेरिकी हथियारों से लैस होकर मानवाधिकार की स्थापना के लिए निकले होते हैं? वे क्यों हैं वहां? क्या वे किसी दुश्मन देश से युद्ध पर निकले हैं? और अगर यह युद्ध है तो आपको अपनी जगह इसमें तय करनी होगी. तब आपसनक भरे प्रलाप से स्पेस को गन्दा नहीं कर सकते.

चीन की नीतियों का भारत में विरोध करने वाले ससे अधिक माओवादी ही है-न सिर्फ विरोध करने वाले, बल्कि अपनी जान भी देने वाले. कुछ जानकारियां लेकर भी कोई बोले तो एक बात होती है.
और अगर पूरे देश के प्रतिनिधित्व का दावा विश्व बैंक का एक दलाल और एक धोखेबाज कंपनी का वकील और एक जनसंहारों की आरोपित कंपनी का मैनेजर कर सकता है तो बस्तर में आदिवासियों के आंदोलनों को सेन-राव करें तो इसमें बुराई क्या है?
 
   
 

राजीव रंजन प्रसाद (rajeevnhpc102@gmail.com) बस्तर

 
 मनमोहन पर उंगली उठाना एक साजिश की तरह लगता है शायद नक्सलवाद के खिलाफ प्रधानमंत्री के सकारात्मक कदमों को दूषित करने का प्रयत्न।

नक्सलवाद को एक ऑर्गेनाईज्ड क्राईम की तरह से ही देखा जाना चाहिये। आंतरिक आवाजे ऐसी नहीं होती जिसका दावा नक्सलवाद के समर्थक पत्रकार और प्रचारक बुद्दिजीवी करते हैं। बुनियाद में देखें तो आप बस्तर में "आन्दोलन" के नाम पर "मनमानी" करते सुकारू और बुदरू को नहीं पायेंगे "राव" और "सेन" को पायेंगे। यह एक एंक्रोचमेंट है "सेफ प्लेस" पर। बस्तर के आदिवासियों को माओवाद का पाठ पढाते ये लोग घातक हैं वहाँ कि संस्कृति और उनकी अपनी स्वाभाविक व्यवस्था के लिये। हालात नक्सलियों द्वारा आतंक फैला कर पैदा किये गये हैं जिन्हे आदिमं के हर घर से लडने के लिये एक आदिम जवान चाहिये होता है...उसकी मर्जी हो तब भी और नहीं हो तब भी।

नक्सली आतंकवादियों के मानवाधिकार पर केवल इतना ही कहूँगा कि उनके तो मानवाधिकार हैं लेकिन रोज बारूदी सुरंगों के विस्फोट में मारे जा रहे जवान और हजारों निरीह आदिम हैं उनके अधिकारों की बात करते समय हमारे माननीय पत्रकारों को क्या साँप सूंघता है? जो बस्तर का इतिहास जानते हैं उन्हे पता है कि यहाँ का आदिम दस से अधिक बार (भूमकाल) स्वत: अपने अधिकारों के लिये खडा हुआ और उसने न केवल अपने "राजतंत्र" बल्कि "अंग्रेजों" की भी ईंट से ईंट बजा कर अपने अधिकार हासिल किये। (हो सकता है यह सलवा जुडुम भी एसा ही एक आन्दोलन हो जो उनका "स्वत: स्फूर्त" हो क्योंकि इसके पैरोकार आन्ध्र या बंगाल के भगोडे अपराधी नहीं हैं कमसकम वहीं के आदिम और आदिवासी नेता हैं) उसे अपनी लडाई के लिये किसी माओवादी संगठन की बैसाखी नहीं चाहिये।

असल में चश्मा बदल कर देखने की आवश्यकता है। बैसाखी आदिमो को नहीं दी गयी है बस्तर तो बिल है जिसमे छुपे माओवादी अपनी कायरता को लफ्फाजी से छुपाते रहे हैं....यह जान लीजिये कि वीरप्पन भी जंगलों में हुआ, फूलन भी बीहडों में हुई और नक्सल भी जंगलों में मिलेंगे क्योंकि ये उनके सहज पनाहगाह हैं। माओवादियों को जनसमर्थन होता तो ये मैदानों में भी पाये जाते - सहज स्वीकार्य? वहाँ क्या तथाकथित शोषण नहीं समाजवाद है?

यह सच है कि माओवादी विचारों के जरिये ही चीन की सत्ता बची है और वह दुनिया का ताकतवर देश है लेकिन एसा देश जिसके भीतर मानवाधिकारों की क्या स्थिति है यह भी दुनिया जानती है (माफ कीजियेगा कुछ पत्रकार और कुछ बुद्धिजीवी नहीं जानते)। उसी चीन नें तिब्बत का जो लाल सलाम किया है उस पर तो किसी माओवाद समर्थक पत्रकार और बुद्धिजीवी को अब आपत्ति नहीं होगी? और नेपाल पर इतराने जैसी भी कोई बात नजर नहीं आती...
http://raviwar.com/news/249_maoist-manmohan-singh-anilchamadia.shtml

मुद्दा

 

ज़मीन गरम है

पुरुषोत्तम ठाकुर, भुवनेश्वर से



नारायणपटना इलाके में इन दिनों दहशत का माहौल है. असल में पिछले महीने की 20 तारीख को उड़ीसा के कोरापुट जिले के इस नारायणपटना थाने में हुई पुलिस फायरिंग में चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेता वाड़ेका सिंगना समेत दो आदिवासियों की मौत के बाद से ही इलाके में दहशत का माहौल है. आरोप है कि 20 नवंबर को कोई 300 लोगों ने नारायणपटना थाने पर प्रदर्शन करते हुए पुलिस के हथियार छिनने की कोशिश की, जिसके बाद पुलिस फायरिंग में दो आदिवासी मारे गये और बड़ी संख्या में लोग घायल हो गये.

चासी मुलिया आदिवासी संघ


हालांकि चासी मुलिया आदिवासी संघ का दावा है कि घटना से एक दिन पहले अर्धसैनिक बल के जवान आसपास के गांवों में कांबिग ऑपरेशन के नाम पर आदिवासियों के साथ मारपीट कर के आये थे, जिसके खिलाफ आदिवासी अपना विरोध जताने पहुंचे थे. निहत्थे आदिवासी जब नारायणपुर थाने के थानेदार से बात कर लौट रहे थे तो उन पर पीछे से गोलियां बरसाई गईं.

पुलिस आदिवासियों पर माओवादियों के उकसावे में आ कर हिंसक कार्रवाई की बात कह रही है तो आदिवासी नेताओं का आरोप है कि पुलिस हर असहमति और विरोध को 'माओवाद' प्रचारित कर उसका दमन करने की कोशिश कर रही है. चासी मुलिया आदिवासी संघ इस बात से साफ इंकार करता है कि उसके माओवादियों से कोई संबंध हैं.

ताज़ा घटना के बाद आज तक पुलिस ने 72 आदिवासियों को गिरफ्तार किया है और उनमें से कम से कम 15 ऐसे लोग हैं, जिन पर माओवादी होने का शक है. लगातार चल रही इन गिरफ्तारियों से गांवों में अब सन्नाटा पसरा हुआ है. गांव में मर्द और नौजवान पुलिस के डर से भाग गये हैं. हर रोज सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण थाने पहुंच रहे हैं और लिख कर दे रहे हैं कि चासी मुलिया आदिवासी संघ के साथ उनका कोई संबंध नहीं है.

विद्रोह, आंदोलन और सीएमएएस
इस साल की शुरुवात में सीएमएएस यानी चासी मुलिया आदिवासी संघ पहली बार तब चर्चा में आया, जब उसने नारायणपटना में 2000 एकड़ ज़मीन और बंधुगांव में 1500 एकड़ ज़मीन गैर आदिवासियों से 'वापस' छुड़ा कर उस पर कब्जा कर लिया. संघ का दावा था कि ये जमीनें गैर आदिवासियों ने ग़लत तरीके से हथियाए थे. संघ ने इन ज़मीनों को भूमिहीन लोगों को बांट दिया, जिनमें गैर आदिवासी भी थे. बाद में इन ज़मीनों पर सामूहिक खेती की गई. इन खेतों से जब धान की फसल कटाई शुरु हुई तो विवाद शुरु हो गया, जिसकी परिणति नारायणपटना थाना कांड के रुप में सामने आयी.

जिन खेतों के लिए सारा विवाद हुआ, उन खेतों में धान की फसल खेतों में ही खड़ी-खड़ी खराब हो रही है. संघ के लोग भागे-भागे फिर रहे हैं और दूसरी ओर इन ज़मीनों के गैर आदिवासी 'मालिक' भी खेत में घुसने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं.

आखिर संघ चाहता क्या है ? आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच संघर्ष के पीछे का सच क्या है ? क्या चासी मुलिया आदिवासी संघ के पीछे सशस्त्र माओवादी हैं ? कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब की तलाश में हम फायरिंग से कुछ ही दिन पहले पहुंचे थे नारायणपटना.

ज़मीन का सच
" मैं बहुत खुश हूँ, क्योंकि मैं अब तक भूमिहीन खेतिहर मजदूर था लेकिन अब मैं भी 80 सेंट ज़मीन का मालिक बन गया हूँ." हालांकि 80 सेंट ज़मीन, ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा भर है लेकिन एक भूमिहीन आदिवासी के लिए ज़मीन का महत्व क्या है, यह बात 50 साल के आदिवासी किसान मुसरी मादिंगी की आँखों की चमक से समझा जा सकता है.

नारायणपटना और बन्धुगाँव क्षेत्र में चासी मुलिया आदिवासी संघ की अगुवाई में हो रहे बहुचर्चित भूमि आन्दोलन के चलते जिन लोगों को फायदा हुआ है, उनमें मुसरी भी एक हैं. नारायणपटना-बन्धुगाँव मार्ग पर नारायणपटना से 2 किलोमीटर की दूरी पर पाचिंगी गाँव में सड़क के दाहिनी ओर मिटटी के एक खपरैल घर में अपनी 8 बेटियों, एक बेटे और पत्नी के साथ मुसरी रहते हैं.

उनकी एक बेटी की शादी हो चुकी है और एकमात्र बेटा नारायणपटना में ड्राईवर का काम करता है. अपने परिवार के गुजारे के लिए मुसरी दूसरे आदिवासियों की तरह सड़क के दूसरी ओर स्थित पहाड़ी पर मक्के की खेती करते हैं. वह साल दर साल इस ज़मीन पर खेती करते आ रहे हैं पर उस ज़मीन का उनके नाम कोई कागजात नहीं है.

" पहले इस ज़मीन पर खेती करने की वजह से फारेस्टर हमें धमकी देने के साथ-साथ काफी परेशान करता रहा है, हमें कंध आदिवासी कह कर कई बार काफी गाली-गलौज किया है, लेकिन अब वह कुछ नहीं कह रहे हैं." मुसरी काफी राहत के साथ एक लम्बी सांस लेते हुए यह सब बताते हैं.

चासी मुलिया आदिवासी संघ का आन्दोलन शुरू होने के बाद से स्थानीय आदिवासियों के प्रति दूसरे लोगों, खासतौर से सरकारी कर्मचारियों के रवैय्ये में आये बदलाव को महसुस करने वालों में मुसरी अकेले नहीं हैं.

" यह संघ आने से बहुत अच्छा हुआ है साहब. हमारे जितने ज़मीन-जायदाद, पेड़-पौधे, डोंगर-पहाड़ सब सरकार और साहूकार मिलकर लूट कर ले जा रहे थे. उस पर रोक लग गयी है. हम आदिवासी तो डोंगर किसानी करके कमाने-खाने वाले लोग हैं, अब फिर से वह सब करके सब खुश हैं." यह बात पट्टामांडा के आदिवासी किसान नारिमदिंगा ने कही.
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