मीडिया का चिट फण्ड काल
भारतीय मीडिया के 'विकास' में चिट फण्ड कम्पनियों के 'योगदान' को सम्मानित करने का समय आ गया है
आनंद प्रधान
चैनलों और अखबारों में इन दिनों पश्चिम बंगाल की चिट फण्ड जैसी कम्पनी- शारदा की हजारों करोड़ रूपये की धोखाधड़ी और घोटाले की खबर सुर्ख़ियों में है। रिपोर्टों के मुताबिक, शारदा समूह की कम्पनियों ने बंगाल और उसके आसपास के राज्यों के लाखों गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से विभिन्न जमा स्कीमों में लुभावने रिटर्न के वायदे के साथ हजारों करोड़ रूपये लूट लिये।
हालाँकि पश्चिम बंगाल या अन्य दूसरे राज्यों में कथित चिट फण्ड या ऐसी ही दूसरी निवेश कम्पनियों द्वारा लोगों को झाँसा देकर उनकी गाढ़ी कमाई लूटने की यह पहली घटना नहीं है। लेकिन हर बार की तरह इस मामले में भी जब शारदा समूह की कम्पनियाँ लोगों को बेवकूफ बनाने और उनका पैसा हड़पने में लगी हुयी थीं तो न सिर्फ राज्य और केन्द्र सरकार, रिजर्व बैंक और सेबी, पुलिस और प्रशासन आँखें बन्द किये रहे बल्कि अखबार और चैनल भी सोते रहे। यह अकारण नहीं था।
रिपोर्टों के अनुसार, इस मामले में सत्ताधारी तृणमूल और काँग्रेस से जुड़े नेताओं, सांसदों, मन्त्रियों और अधिकारियों के अलावा पत्रकारों-मीडिया मालिकों के नाम उछल रहे हैं जिन्होंने इस लूट में खूब माल उड़ाया और ऐश की। मजे की बात यह है कि अब यही चैनल और अखबार ऐसे हंगामा काट रहे हैं, जैसे उन्हें इस घोटाले के बारे में पहले कुछ पता ही नहीं था।

हार्डकोर वामपंथी छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आये आनंद प्रधान का पत्रकारिता में भी महत्वपूर्ण स्थान है. छात्र राजनीति में रहकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में AISA के बैनर तले छात्र संघ अध्यक्ष बनकर इतिहास रचा. आजकल Indian Institute of Mass Communication में Associate Professor . पत्रकारों की एक पूरी पीढी उनसे शिक्षा लेकर पत्रकारिता को जनोन्मुखी बनाने में लगी है साभार–तीसरा रास्ता
यह सिर्फ संयोग नहीं है कि शारदा समूह का सीएमडी और चेयरमैन सुदीप्तो सेन न सिर्फ खुद कई चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं का मालिक था बल्कि उसने बंगाल और असम में कई और मीडिया समूहों में भी निवेश कर रखा था।
यही नहीं, वह इस क्षेत्र के अखबारों और चैनलों का एक बड़ा विज्ञापनदाता भी था। सच यह है कि वह बंगाल का उभरता हुआ मीडिया मुग़ल था जिसके चैनलों और अख़बारों ने तृणमूल के पक्ष में हवा बनाने में खासी भूमिका निभायी। लेकिन शारदा और सुदीप्तो का असली धंधा मीडिया नहीं था बल्कि उसने चैनल और अखबार अपनी साख बनाने, अपनी फर्जी निवेश/ रीयल इस्टेट/ ट्रेवल कम्पनियों के लिये राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण हासिल करने और पत्रकारों/ मीडिया का मुँह बन्द करने के लिये शुरू किये थे।
शारदा समूह और सुदीप्तो अपवाद नहीं हैं। इससे पहले भी कुबेर से लेकर जेवीजी जैसी कई चिट फण्ड कम्पनियों में लोगों का सैकड़ों करोड़ रुपया डूब चुका है जो मीडिया बिजनेस में भी खूब धूम-धड़ाके के साथ उतरे थे। इनाडु से लेकर सहारा जैसी कई कम्पनियों इसी रास्ते आगे बढ़ीं।
यही नहीं, आज भी बंगाल और पूर्वोत्तर भारत से लेकर पूरे देश में ऐसी दर्जनों छोटी-बड़ी कम्पनियाँ हैं जो लाखों-करोड़ों लोगों को लुभावने और ऊँचे रिटर्न का झाँसा देकर इस या उस स्कीम में पैसे बटोर रही हैं, उसका कुछ हिस्सा अख़बारों और चैनलों में और कुछ हिस्सा राजनेताओं, अफसरों और पत्रकारों में निवेश कर रही हैं।
नतीजा यह कि इन चिट फण्ड/ निवेश कम्पनियों की मदद से आय दिन नये चैनल और अखबार खुल रहे हैं, पत्रकारों और संपादकों को नौकरियां मिल रही हैं और चौथा खम्भा 'मजबूत' हो रहा है। सच पूछिये तो पिछले एक-डेढ़ दशकों में मीडिया कारोबार के 'विकास और विस्तार' में इन चिट फण्ड और निवेश कम्पनियों का 'भारी योगदान' रहा है।
भारतीय पत्रकारिता के 'चिट फण्ड काल' के 'विकास' में उनके इस 'योगदान' को देखते हुए किसी मीडिया समूह को सुदीप्तो सेन, शारदा, कुबेर, जेवीजी आदि के नामों से पत्रकारिता पुरस्कार शुरू करने चाहिए। उन्हें स्पांसरशिप की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। कोई न कोई 'सहारा' मिल ही जायेगा।
('तहलका' के 15 मई के अंक में प्रकाशित)

No comments:
Post a Comment