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Wednesday, May 8, 2013

आखिर मकसद क्या था प्रचण्ड की भारत यात्रा का?

आखिर मकसद क्या था प्रचण्ड की भारत यात्रा का?

आनंद स्वरूप वर्मा

 

अगर तुम अतीत पर पिस्तौल तानोगे,

तो भविष्य तुम्हारे ऊपर तोप से गोले बरसायेगा।

                'मेरा दाग़िस्तानमें रसूल हमज़ातोव

भारत की यात्रा पर आने से एक दिन पहले अँग्रेजी के एक राष्ट्रीय दैनिक में नेपाल के माओवादी नेता प्रचण्ड का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने अपनी चीन यात्रा के बारे में, भविष्य में भारत के साथ आर्थिक सहयोग सम्बंध के बारे में तथा नेपाल के विकास के बारे में बताते हुये यह जानकारी दी कि 2009 में प्रधानमन्त्री की हैसियत से सेनाध्यक्ष कटवाल को हटाये जाने का जो उन्होंने निर्णय लिया वह समझदारी भरा निर्णय नहीं था। इसे उन्होंने अपनी'अपरिपक्वताबताया और इसके लिये पार्टी के भीतर से पैदा दबाव तथा बाहर के कुछ लोगों की वादाखिलाफी को जिम्मेदार ठहराया। बाहर के लोगों की वादाखिलाफी से उनका मंतव्य निश्चित तौर पर नेकपा एमाले के अध्यक्ष झलनाथ खनाल से है जिन्होंने कटवाल को हटाये जाने के प्रचण्ड के प्रस्ताव पर अपनी सहमति दी थी लेकिन इस प्रस्ताव को जैसे ही प्रचण्ड ने कार्यान्वित किया, एमाले ने इसी मुद्दे पर अपना समर्थन वापस ले लिया और उन्होंने प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। जहाँ तक वादाखिलाफी की बात है प्रचण्ड का कहना शत-प्रतिशत सही है लेकिन आन्तरिक दबाव की बात समझ में नहीं आती। निश्चय ही उन्होंने संकेत दिया है कि यह दबाव उन लोगों की तरफ से था जो आज पार्टी से अलग हो गये हैं और उनके अलग होने से प्रचण्ड को 'रूढ़िवादी, अंधराष्ट्रवाद के पोषक और प्रतिगामी' सोच से मुक्ति मिली है।

कटवाल प्रसंग पर जिन तथ्यों को भारत के एक अखबार द्वारा उन्होंने सार्वजनिक किया वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या प्रचण्ड यह बताना चाहते हैं कि इस मुद्दे पर भारत का कोई दबाव नहीं था? क्या तत्कालीन भारतीय राजदूत राकेश सूद के साथ हुयी उन बैठकों को वे भूल गये जिनमें सूद ने उन्हें लगातार धमकियाँ दी थीं कि अगर कटवाल को उन्होंने हटाया तो इसके नतीजे बहुत बुरे होंगेक्या प्रचण्ड यह भूल गये कि उन्होंने खुद ही यह माना था कि एक निर्वाचित प्रधानमन्त्री को सूद जैसे नौकरशाह की धमकी का अर्थ नेपाल की संम्प्रभुता को चुनौती देना था? अगर ऐसा था तो प्रधानमन्त्री पद का शपथ लेने के बाद 2008 में ओलम्पिक खेलों के समापन के अवसर पर उन्होंने चीन की जो पहली यात्रा की उसे भी अपनी भूल बताना चाहिये था। ध्यान देने की बात है कि राकेश सूद नामक उस राजदूत ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति रामबरन यादव को ओलम्पिक के उद्घाटन समारोह में चीन जाने से मना कर दिया था और वह मान भी गये थे। अपनी सफलता की कहानी राकेश सूद ने नेपाल के कुछ अखबारों को बतायी थी और इस बात से प्रचण्ड आहत थे। किसी भी नेपाली प्रधानमन्त्री की पहली राजनीतिक यात्रा भारत के लिये होने की परम्परा को तोड़ते हुये जब प्रचण्ड ने चीन जाने का निर्णय लिया तो सूद द्वारा की गयी यह कारगुजारी भी उनके चेतन-अवचेतन में काम कर रही थी।

प्रचण्ड ने अपनी इस यात्रा में लगातार यह बताने का कोई न कोई अवसर निकाल लिया कि अब उन तत्वों से वह मुक्त हो चुके हैं जिनकी वजह से 'प्रगतिशील राष्ट्रवाद' की अपनी लाइन को वह लागू नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने उन तत्वों को कई मौकों पर कोसा और भारत के सत्ताधारी वर्ग को बताया कि उनकी सोहबत से कितना नुकसान हो रहा था। उन्होंने, जिसे अंग्रेजी में 'इन द कम्पनी ऑफ बैड गाइज' (बुरे लोगों की सोहबत) कहते हैं, उस अर्थ में यहाँ के सत्ताधारी वर्ग को अपने अच्छे होने का यकीन दिलाया। उनके इस प्रयास में काफी हद तक कामयाबी भी मिली।

यहाँ की बुर्जुआ पार्टियों के नेताओं ने उनके शब्दों को ध्यान से सुना और इस बात की प्रशंसा की कि प्रचण्ड सचमुच राजनीति की मुख्यधारा में आ गये हैं। भले ही भारत के मीडिया ने प्रचण्ड की इस यात्रा को कोई महत्व न दिया हो लेकिन प्रधानमन्त्री से लेकर विदेशमन्त्री और राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज आदि सबने प्रचण्ड की प्रशंसा की और शास्त्रीय अथवा 'जड़ सूत्रवादी' कम्युनिस्टों की आलोचना से वे प्रसन्न हुये। नेपाल में कनकमणि दीक्षित को अपना एकमात्र मित्र मानने वाले एक संपादक ने अपने फेसबुक पर लिखा- 'दिल्ली में कल कॉमरेड पुष्प कमल प्रचण्ड का स्वागत साहित्य जगत की ओर से कवि अशोक वाजपेयी ने किया- रंग बिरंगे पुष्प गुच्छ से। एक कलावादी के हाथों एक माओवादी के स्वागत की खबर पाकर मार्क्सवादी संगठनों के लेखक लाल पीले नहीं होंगे? … प्रचण्ड ने यह भी बताया कि पिछले दिनों उनकी माओवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुयी थी जिसमें पार्टी के घोषणापत्र से भारत विरोधी घोषणाओं को निकाल दिया गया है…'। इस दृष्टि से अगर देखें तो प्रचण्ड की यात्रा काफी सफल दिखायी देती है।

मुझे कई वर्ष पूर्व एमाले के बारे में छपी वह खबर याद आती है जिसमें बताया गया था कि किस तरह जब अमेरिकी राजदूत एक बार एमाले के मुख्यालय में गये तो उनके पहुँचने से पहले दीवारों पर मार्क्स, लेनिन और स्तालिन का फोटो हटा दिया गया था। पार्टी ने अमेरिकी राजदूत को समझाना चाहा कि अब वह झापा के सशस्त्र संघर्ष वाली पार्टी नहीं बल्कि एक जिम्मेदार जनतान्त्रिक पार्टी हो गयी है। उन्हीं दिनों पार्टी के एक नेता ने बहुत खुश होकर मेरे एक मित्र को बताया कि कैसे अमेरिकी राजदूत ने उनसे कहा कि 'यू आर नो मोर ए कम्युनिस्ट'

लेकिन यह सफलता सतही तौर पर ही है। भारत के सत्ता प्रतिष्ठान को प्रचण्ड इतना भोला न समझें कि वह चीन के साथ उनकी बढ़ती नजदीकियों पर ध्यान नहीं दे रहा होगा। उन्होंने न जाने क्या सोचकर भारत-नेपाल-चीन के त्रिपक्षीय सहयोग का प्रस्ताव भारत सरकार के सामने पेश किया जिसे भारत सरकार ने बगैर देखे ही नामंजूर कर दिया। यह खबर विदेशमन्त्री सलमान खुर्शीद के हवाले से अखबारों में भी प्रकाशित हुयी। वैसे भी प्रचण्ड से इस परिपक्वता की अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि जिस समय लद्दाख में चीनी सैनिकों की घुसपैठ को लेकर हंगामा मचा हो वैसे समय इस तरह का कोई भी प्रस्ताव पेश करना अदूरदर्शिता ही है। भारत सरकार को यह समझने में भी देर नहीं लगी कि अपनी एक सप्ताह की चीन यात्रा की वजह से कोई गलतफहमी न पैदा हो इसलिये प्रचण्ड यहाँ इतनी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं।

इन सारी बातों के बावजूद यह समझ में नहीं आ रहा कि प्रचण्ड की भारत यात्रा का मकसद क्या था? क्या भारत के शासक वर्ग को यह बताना कि अब वे वैसे कम्युनिस्ट नहीं रह गये हैं जैसे हुआ करते थे। वे अब 'बुरे कम्युनिस्टों को' पार्टी से अलग कर चुके हैं। क्या इस साल के अंत में संविधान सभा के होने वाले चुनावों में अपने मधेसी गठबंधन को बनाए रखने के लिये वह भारत की मदद चाहते थे? प्रचण्ड को पता होना चाहिये कि तमाम ऐतिहासिक और वर्गीय कारणों की वजह से भारत की पहली पसंद नेपाली कांग्रेस ही है। आज गिरिजा प्रसाद कोईराला जैसे नेतृत्व के अभाव में नेपाली कांग्रेस ऐसी दुर्दशा वाली हालत में पहुँच गयी है कि उसके पुराने अभिभावक मित्र भारत ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। नेकपा-एमाले की छवि नेपाल में भी और भारत में भी एक ऐसी पार्टी की है जिसका कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं है। जाहिर है कि भारत भी ऐसी पार्टी को समर्थन क्यों देगा।

नेपाल में आज की तारीख में अगर कोई कद्दावर नेता है तो वह हैं प्रचण्ड जिनको विश्वास है कि अभी अगले कुछ वर्षों तक नेपाल की राजनीति को वह अपने ढंग से संचालित कर सकते हैं। प्रचण्ड को यह भी पता है कि भारत का सत्ता प्रतिष्ठान राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिए से नेपाल की राजनीति को अपने नियन्त्रण में रखना चाहता है। नेपाल की खुली सीमा होने के कारण नेपाल के रास्ते कश्मीर या पाकिस्तान से आतंकवादियों के आने का खतरा तो रहता ही है साथ ही नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव से भारत काफी सशंकित है। राजतन्त्र के समाप्त होने के बाद नेपाल में चीनी पर्यटकों की संख्या पहले के मुकाबले कई गुणा ज्यादा हो चुकी है और आये दिन चीनी 'विशेषज्ञों' का कोई न कोई प्रतिनिधिमण्डल नेपाल पहुँचता रहता है। भारत सरकार को यह भी पता है कि इस स्थिति का लाभ उठाने के लिये प्रचण्ड भारत के साथ सौदेबाजी के मूड में है। इसके लिये प्रचण्ड के उस वक्तव्य का हवाला दिया जा रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भारत ने हमारे विकास कार्यक्रमों के लिये पर्याप्त सहयोग नहीं किया तो हम भी उसकी सुरक्षा चिन्ताओं पर ध्यान नहीं देंगे। इसे भारत का शासक वर्ग ब्लैकमेल करने की भाषा मानता है।

अतीत के इन तेवरों से मुक्त होना आसान नहीं है। भौगोलिक राजनीतिक दृष्टि से नेपाल की अवस्थिति ऐसी है कि वहाँ के किसी भी सत्ता के साथ भारत अपने सम्बंध बेहतर रखना ही चाहेगा। चीन से भारत को कम लेकिन अमेरिका को ज्यादा खतरा दिखायी देता है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर भारत और चीन की नहीं बल्कि अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता है। स्मरणीय है कि जिन दिनों नेपाल में जनयुद्ध चल रहा था अमेरिकी खुफिया सूत्रों ने यह भय प्रकट किया था कि अगर नेपाल में कम्युनिस्टों का शासन आ गया तो चीन के साथ उनके सम्बंध अच्छे हो जायेंगे और चीन वहाँ से हिन्द महासागर में तैनात अमेरिकी नौ-सैनिक बेड़ों पर निगरानी रख सकेगा। जाहिर है कि नेपाल और चीन की बढ़ती नजदीकियाँ भारत से ज्यादा अमेरिका के लिये चिन्ता की बात है। अभी भी चीन के साथ नेपाल के जो सम्बंध हैं उसमें भी अमेरिका के लिये नेपाल की धरती से तिब्बत विरोधी कार्यक्रमों को जारी रखना कठिन हो जाता है। चीन के लिये नेपाल इस वजह से भी बहुत सामरिक है क्योंकि तिब्बत से नेपाल की सीमा लगी हुयी है।

ऐसी स्थिति में प्रचण्ड अगर अपने अतीत को लेकर अफसोस नहीं भी जाहिर करते तो भी भारत की मजबूरी है कि वह नेपाल को नाराज नहीं करता। मधेसी मोर्चे के साथ अपना तालमेल बनाये रखने के मकसद से उन्होंने जिस सीमा तक भारतीय 'विस्तारवाद' के प्रति उदारता दिखायी उसकी बजाय अगर उन्होंने अपने अलग हुये साथियों के साथ तालमेल बनाने की थोड़ी भी कोशिश की होती तो इतनी बड़ी ताकत के रूप में वह उभरकर आते जिसका प्रतिरोध करना किसी के लिये सम्भव नहीं होता। आज हालत यह है कि अब से तीन दिन पहले नेकपा-माओवादी यानी मोहन बैद्य की पार्टी ने चुनाव बहिष्कार का निर्णय लिया है जिससे प्रचण्ड के खेमे में निश्चय ही खुशी होगी। उसे भय था कि अगर किरण के लोग चुनावी मैदान में उतरेंगे तो इनके वोट विभाजित हो सकते हैं। यह सही है कि किरण का बहिष्कार एनेकपा (माओवादी) के चुनावी हित में है लेकिन यह बहिष्कार राष्ट्रीय हित में नहीं कहा जा सकता। अपने बहिष्कार को न्यायोचित बनाने के लिये चुनाव के दौरान या चुनाव से पहले इन लोगों को कुछ ऐसे कार्य करने होंगे जो निश्चित तौर पर कानून और व्यवस्था के लिये दिक्कतें पैदा कर सकते हैं।

नेपाली जनता का यह दुर्भाग्य ही है कि 10 साल के जनयुद्ध और राजतन्त्र की समाप्ति के बाद जो नयी व्यवस्था बननी चाहिये थी वह नहीं बन सकी और जिस पार्टी ने राजतन्त्र को समाप्त करने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी वह अपने को एकजुट नहीं रख सकी। उसका इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य है कि जिस शीर्ष नेतृत्व से वह अपेक्षा करती थी कि न केवल नेपाल में बल्कि एशिया के अन्य देशों में भी कम्युनिस्ट आन्दोलन को आगे ले जाने में उसकी भूमिका होगी, वह खुद दक्षिण एशिया के सबसे प्रभुत्ववादी देश की जी-हुजूरी में लग गया है। जो देश अपनी जनता की परवाह न कर रहा हो वह नेपाल के बदहाल लोगों के लिये उदारता दिखायेगा यह सोचना ही मूर्खता है।

आनंद स्वरूप वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, "समकालीन तीसरी दुनिया" के सम्पादक और जाने-माने मार्क्सवादी विचारक हैं. भारत- नेपाल संबंधों एवं नेपाल में माओवादी आन्दोलन के विशेषज्ञ हैं.

बेशक प्रचण्ड ने अभी यह नहीं कहा है कि 10 साल का जनयुद्ध एक भूल थी लेकिन जिस रास्ते पर वह चल पड़े हैं उसमें चलते हुये किसी दिन अगर आपको यह भी सुनना पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा। मैंने एक सीमित अवधि को ध्यान में रखते हुये पूँजीवादी विकास की एनेकपा (माओवादी) की नीति का हमेशा समर्थन किया था लेकिन इस विश्वास के साथ कि ऐसा करते समय पार्टी का नेतृत्व मार्क्सवाद, लेनिनवाद की मूल प्रस्थापनाओं में विचलन नहीं लायेगा। अगर इस पार्टी ने संविधान सभा को और इसके चुनाव को साधन की जगह साध्य मान लिया है तो पतनशीलता के गड्ढे में गिरने से दुनिया की कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती। वेनेजुएला में ह्यूगो चावेज ने, जो कम्युनिस्ट नहीं थे लेकिन जिन्होंने चिले में अयेंदे की हत्या के बाद पेरिस कम्यून के इस सबक को अच्छी तरह समझ लिया था कि बनी बनायी राज्य मशीनरी को ज्यों का त्यों अपने हाथ में लेकर उत्पीड़ित जनता का भला नहीं किया जा सकता इसलिये उन्होंने बगैर सशस्त्र संघर्ष के उस मशीनरी में क्रमशः बदलाव किया और अपने 14 वर्ष के शासनकाल में काफी कुछ बदल भी दिया। उन्होंने अमेरिका के सामने कभी घुटने नहीं टेके और अपनी नीतियों की वजह से व्यापक जनसमुदाय के बीच ऐसा आधार तैयार कर लिया कि अमेरिका भी हाथ पर हाथ धरे देखता रहा। भारत के धूर्तभ्रष्टनिर्मम और कॉरपोरेट घरानों के हितों की रक्षा करने वाले सत्ताधारी वर्ग से अगर प्रचण्ड यह उम्मीद कर रहे हों कि अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से वह उसे भुलावे में डाल देंगे तो यह उनका बहुत बड़ा भ्रम है। आप यह समझ ही नहीं पायेंगे कि कब आपकी हालत ऐसी कर दी गयी कि आप इतने शक्तिहीन हो जायें कि बैसाखी पर चलना भी मुश्किल हो।

आज यह और शिद्दत से महसूस हो रहा है कि नेपाल के व्यापक जनसमुदाय के हित को ध्यान में रखते हुये मोहन बैद्य को पार्टी से अलग नहीं होना चाहिये था और आन्तरिक संघर्ष की प्रक्रिया को तेज करते हुये कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिये था जो जनयुद्ध और चावेज के बीच का रास्ता हो और जो नेपाल की विशिष्ट परिस्थितियों को समाहित करते हुये एक नया नेतृत्व पैदा कर सके। आप अगर अपने अतीत को लेकर पाश्चात्ताप करेंगे और कोसेंगे- उस अतीत को जिसे गौरवशाली माना जाता है तो भविष्य आप पर तोपों से हमला करेगा ही। अभी भी समय है जब नेपाली माओवादियों को चाहे वे किसी भी पार्टी में क्यों न हों वैचारिक मंथन करते हुये नये रास्ते की तलाश करनी ही होगी।

'समकालीन तीसरी दुनियाके मई 2013 अंक का संपादकीय

पत्रिका मँगाने के लिये आप 0120-4356504 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

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