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Wednesday, May 8, 2013

कुवैत के बदनसीब बद्दू

कुवैत के बदनसीब बद्दू

Wednesday, 08 May 2013 11:13

अख़लाक़ अहमद उस्मानी 
जनसत्ता 8 मई, 2013: बीस महीने का मुहम्मद कसीम जब मुस्कराता है तो उसके पिता की आंखों में रुके हुए आंसू छलक पड़ते हैं। लार टपकाते उसके गुलाबी होंठ और सफेद दांतों की मिसाल ऐसी है जैसे सुबह की शबनम किसी गुलाब की कली पर मेहरबान होकर बरसी है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों के श्वेत परदे के बीच डोलते काले नैन उसके बाप को दुनिया की किसी भी नेमत से अजीज हैं। लेकिन कसीम नहीं जानता कि वह बेहद बीमार है और उसका घराना गुनहगार। मुहम्मद कसीम के दिमाग की नसें सूख रही हैं। अगर उसे इलाज नहीं मिला तो उस मासूम के गुर्दे काम करना बंद कर देंगे। एक बाप बिक कर भी अपनी औलाद को बचाने के लिए हर वह जतन करेगा, जो वह कर सकता है। मगर कसीम का बाप मजबूर है। वह कुवैत का बद्दू है। उसका शिजरा (वंशवृक्ष) बताता है कि उसके पुरखे यहीं जन्मे और रहे, लेकिन कुवैत के शेख की हुकूमत में बद्दू नागरिक नहीं माने जाते। इसीलिए मुहम्मद कसीम भी इलाज के लिए देश के बाहर नहीं जा सकता। उस बीस महीने के बच्चे का गुनाह यह है कि वह बद्दू के घर पैदा हुआ।
अठारह साल की रानिया की कहानी तो बहुत करुण है। उसका बाप बद्दू है और मां कुवैती। एक जमाने में जब तक सीमाएं खुली थीं, रानिया के पिता ने सऊदी अरब में अपना कारोबार जमाया। इराक  पर हमले के बाद वे कुवैत लौट आए। कुवैत में भारत की तरह ही पिता से संतान की पहचान चलती है। रानिया और उसके दो भाइयों को पढ़ाई के लिए दाखिले की जरूरत थी। लेकिन बतौर बद्दू वे विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं पा सकते थे। एक कानून ने इन तीन भाई-बहनों को जिंदगी बनाने का मौका दिया, लेकिन घर टूटने की शर्त पर।
तलाक  के बाद कुवैती बच्चे अपनी मां की पहचान की बदौलत दाखिला ले सकते थे, लेकिन यह लाभ भी सिर्फ इक्कीस साल की उम्र तक मिल सकता है। दिल पर पत्थर रख कर रानिया के पिता ने उसकी मां को तलाक  दे दिया। बाप को खुद से अलग कर ही रानिया और उसके छोटे भाई मुहम्मद को दाखिला मिला। और जब भी वे इक्कीस साल के हो जाएंगे, फिर बद्दू मान लिए जाएंगे। यह कैसा कानून है, जो बच्चे के करियर के लिए मां-बाप की जुदाई की शर्त रखता है?
यह कहानी अकेले मुहम्मद कसीम और रानिया के घर की नहीं है। कुवैत में राज्य-विहीन यानी गैर-नागरिक माने गए करीब सवा लाख बद्दूओं का यही फसाना है। चमकदार कुवैत में दो तरह के कुवैती रहते हैं। शहरी, आधुनिक और अंग्रेजपरस्त शेख और ठेठ देहात में अपने ऊंटों और भेड़ों के साथ सहारा की रेत फांकते, भटकते बद्दू। बद्दूओं की मिसाल यायावर से दी जा सकती है, लेकिन यह बात तब तक ही कहना मुनासिब था जब तक इराक  ने कुवैत पर कब्जा नहीं किया था। तब तक ये लोग कुवैत से सऊदी अरब, इराक, जॉर्डन, मिस्र से सीरिया तक यों ही फक्कड़ घूमते रहते थे। इनकी बिरादरी और कबीले इन देशों के अलावा लीबिया, ट्यूनिसिया, मिस्र के सिनाय रेगिस्तान, अल्जीरिया, मोरक्को, पूर्वी सहारा रेगिस्तान, इरीट्रिया, संयुक्त अरब अमीरात, फिलस्तीन, इजराइल, मोरिटानिया, बहरीन, कतर, ओमान और यमन में भी यायावरी की जिंदगी गुजारते हैं।
इराक  पर अमेरिकी हमले के साथ ही सऊदी अरब और कुवैत ने इराक  के साथ अपनी सीमा तय कर दी। जिन तीन देशों में बद्दू सबसे ज्यादा तादाद में थे, वहीं बद्दूओं की फक्कड़ी को बांध दिया गया। तंगनजरी के शिकार और नफरत के काबिल समझे जाने वाले बद्दू अपने ही घरों में पराए हो गए। बिल्कुल वैसे ही जैसे महाराणा प्रताप के साथ घर में नहीं रहने की सौगंध खाकर निकले मेवाड़ के गाड़िया लुहार आज तक मकान बना कर नहीं रहते और राजस्थान सरकार के रिकॉर्ड में बेघर अलमस्त गाड़िया लुहार यायावर हैं, नागरिक नहीं।
फर्क इतना है कि राजस्थान के गाड़िया लुहार अगर एक जगह बसने, सम्मान से रोजगार कमाने, बच्चों को स्कूल भेजने, मतदाता पहचानपत्र और पासपोर्ट की मांग करेंगे तो सरकार खुशी-खुशी देगी, मगर कुवैत के बद्दूओं को ऐसा कुछ नहीं मिलेगा। वे बस राज्य-वंचित खानाबदोश हैं और शेख की हुकूमत इसके आगे कुछ सुनना नहीं चाहती।
'बद्दू' हिंदुस्तानी बोलचाल का शब्द है। अरबी में लोग इन्हें बदू, बदवी और बदविय्यून कहते हैं। अरबी में रेगिस्तान के निवासी के लिए सही शब्द 'बदवी' है जो बोलचाल में बिद््दून और बद्दू हो गया। बदवी के अलावा अरबी में 'बादिया' लफ्ज भी प्रचलन में है। इसका मतलब होता है सपाट या रेत। अरबी के भाषाविज्ञानी मानते हैं कि 'बदू' दरअसल बदवी और बादिया का मिलाजुला बोलचाल का शब्द है जिसका अर्थ हुआ 'वह जो रेगिस्तान में रहता है'। कुवैत में बद्दूओं को बिद््दून जिन्सिया यानी अनागरिक बद्दू भी कहा जाता है। अपनी कबीला और नृजातीय संस्कृति के कारण बद्दू अरबी साहित्य में 'असाइर' नाम से भी जाने जाते हैं।
अरब के सहराओं में बद्दूओं के बारे में एक वाक्य बहुत प्रचलित है। 'मैं अपने भाई के खिलाफ  हूं, मैं और मेरा भाई अपने चचेरे भाई के खिलाफ  हैं और मैं, मेरा भाई और मेरे चचेरे भाई अजनबी के खिलाफ  हैं।' इस तरह एकल परिवार का यह रिश्ता खानदान और सगोत्र तक जाकर मजबूत होता है। बद्दू खानाबदोश चरवाहे हैं। खेती और समंदर की मछली मारने और खतरनाक तापमान में व्यापारियों का सामान पहुंचाने का काम बद्दू बखूबी जानते हैं। बदन का खून उबाल देने वाले तापमान और बड़े-बड़े अंधड़ों   में दो जीव ही रेगिस्तान में रास्ता नहीं भूलते।

बद्दू और उसका ऊंट। पानी की कमी की वजह और चौपायों के चारे की जरूरत ने बद्दूओं को हमेशा यायावर बनाए रखा।

इस्लाम के प्रादुर्भाव के साथ ही अरब में लगभग सभी कबीलों ने अपनी पहचान के साथ इस्लाम स्वीकार कर लिया। 1730 में अलसऊद परिवार ने अपने राजनीतिक मकसद के लिए कई बद्दू कबीलों को जोड़ा। बाद में अंग्रेजों के दिए हथियारों से अब्दुल अजीज इब्न सऊद ने 'इख्वान' यानी भाई का नाम देकर साथ लाए गए इन्हीं बद्दूओं को 1930 में सबीला के युद्ध में मार भगाया। अरब में तेल मिलने और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कई बद्दूओं ने बस्तियों में रहना शुरू भी किया। सऊदी अरब ने बद्दूओं के शहरीकरण का अभियान चलाया, जिससे उनकी खानाबदोश गड़रिए की पहचान मिटती चली गई। बद्दूओं के मूल स्वरूप में रहने वाले लोगों में व्यापक बदलाव होने और उनके आधुनिकीकरण के बावजूद अब भी सऊदी अरब में आठ लाख उनतीस हजार बद्दू रहते हैं। लेकिन कुवैत में छूटे हुए बद्दूओं की किस्मत इतनी अच्छी नहीं रही।
इराक  में कथित जनसंहारक हथियारों के नाम पर किए गए 1991 के अमेरिकी हमले ने इराक  ही नहीं, बल्कि बद्दूओं को भी बर्बाद कर दिया। इंग्लैंड में काम करने वाले कुवैती सामुदायिक संगठन का मानना है कि इराक  पर हमले से बहुत पहले, 1960 में ही, कुवैत के तत्कालीन अमीर अब्दुल्लाह तृतीय अलसलीम अलसबाह ने बद्दूओं को घेरने की रणनीति बना ली थी। संवैधानिक अमीरात वाले कुवैत में इस समय सबा चतुर्थ अलअहमद अलजबर अलसबा की हुकूमत है। वहां के बद्दूओं के साथ यह सरकार कैसा भेदभाव करती है यह जानने के लिए एक उदाहरण काफी है। इराक  से आजादी की बीसवीं सालगिरह पर सबा की सरकार ने साल 2011 में घोषणा की कि हरेक कुवैती को एक हजार दीनार (लगभग एक लाख इक्यानबे हजार भारतीय रुपए) और साल भर तक राशन मुफ्त दिया जाएगा।
यह तोहफा किसी भी तरह के प्रदर्शन से बचने के लिए नागरिकों को एक रिश्वत थी, क्योंकि 2008 में मनमाने ढंग से संसद भंग करने पर अमीर सबा चतुर्थ की काफी आलोचना हुई थी। एक हजार दीनार और साल भर का राशन बद्दूओं को छोड़ कर सभी को दिया गया। अठारह फरवरी 2011 की घोषणा में बद्दूओं का जिक्र नहीं था। अगले दिन कुवैत सिटी में हजारों बद्दू जमा हो गए और अपने साथ किए जा रहे सौतेले व्यवहार के खिलाफ  प्रधानमंत्री नासिर मुहम्मद अलअहमद अलसबा के इस्तीफे  की मांग की। साल भर बद्दू छोटे-छोटे प्रदर्शन करते रहे, लेकिन सरकार का दोहरा व्यवहार नहीं बदला।
बद्दूओं का गुस्सा एक हजार दीनार और साल भर के राशन को लेकर नहीं, बरसों से उनके साथ किए जा रहे सौतेले व्यवहार को लेकर था। बद्दूओं के साथ लोकतंत्र समर्थक आम कुवैती भी खड़े हो गए। देश में 21 सितंबर 2011 की ऐतिहासिक रैली में सत्तर हजार लोग शरीक हुए। इस रैली में बद्दूओं का मुद्दा भी उठाया गया। पूरे साल यानी 2012 में कुवैत में विरोध-प्रदर्शन चलते रहे। कई सांसदों को भी गिरफ्तार किया गया और बाद में दबाव में छोड़ दिया गया। इसी 24 मार्च को अब्दुल हकीम अलफदली को एक सौ तीन दिनों की जेल के बाद जमानत पर छोड़ा गया है। अलफदली एक बद्दू सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पिछले साल दो अक्तूबर को कुवैत के ताइमा में प्रदर्शन के बाद अलफदली को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर आरोप है कि वे कुवैती अमीरात के खिलाफ  प्रदर्शन करते हैं। जमानत मिलने के दो सप्ताह बाद तक पुलिस ने अलफदली को नहीं छोड़ा।
इस साल चौबीस मार्च को जब अलफदली जेल से बाहर आए तो एक नायक की तरह उनका स्वागत हुआ। ब्रिटेन में रह रहे कुवैती मूल के बद्दू मुहम्मद अलनेजी का कहना है कि अगर आप कुवैत में बद्दू हैं तो आप जमीन और आसमान के बीच कहीं हैं। 'ताइपे टाइम्स' को लंदन में दिए एक साक्षात्कार में अलनेजी ने कहा कि जब कुवैत आजाद हुआ तो कई बद्दूओं को नागरिकता का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन तब वे इसका मतलब नहीं जानते थे। वे तो बस यह जानते थे कि हम हर कबीले के बच्चे-बच्चे को जानते हैं और साथ लेकर चलना है तो कपड़ा साथ रखो, कागज क्या होता है? आज पचास साल बाद अलनेजी की पत्नी और सात बच्चों को मालूम है कि नागरिकता क्या होती है।
'रिफ्यूजी इंटरनेशनल' ने साल 2007 में कुवैत के बद्दूओं पर एक अध्ययन किया, जिसके मुताबिक  कुवैती बद्दू सरकारी बाबूगीरी से परेशान हैं। उन्हें आवेदन के बावजूद नागरिक पहचानपत्र नहीं दिए जाते, सरकारी नौकरियों में आवेदन नहीं कर सकते, बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं मिलता, जन्म का इंदराज नहीं किया जाता, शादी का प्रमाणपत्र नहीं मिलता, मृत्यु का पंजीकरण नहीं होता, अपने नाम से बद्दू कोई संपत्ति और गाड़ी नहीं खरीद सकता, ड्राइविंग लाइसेंस नहीं मिलता और पासपोर्ट जारी नहीं किया जाता। बीस महीने के बीमार मासूम मुहम्मद कसीम और कॉलेज जाने के लिए परेशान रानिया को भी नहीं। आज कुवैत में जितने बद्दू रहते हैं उतने लोग तो इराक  युद्ध के दौरान वहीं फंस गए। यहां के बद्दू यह भी नहीं जानते कि इराक  में फंसे उनके सवा लाख भाईबंद कैसे होंगे? भारत और पाकिस्तान के बिछड़े तो हर हाल में मिल ही लिए, ये अनपढ़ भोले बद्दू क्या करें?
एक नागरिक होने का सबसे बड़ा हक  'मताधिकार' बद्दूओं को नसीब नहीं। कुवैत का अमीर किसी गरीब बद्दू को नहीं जानता। यह कौन-सी हुकूमत है, जो खुद सोने-चांदी के   बरतनों में खाती है और उसकी अट््ठाईस लाख की आबादी में सवा लाख लोगों की बिरादरी दर-दर मारी फिरती है?
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44126-2013-05-08-05-44-41

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