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Wednesday, May 8, 2013

सत्ता हस्तांतरण का सच

सत्ता हस्तांतरण का सच

Monday, 06 May 2013 10:16

कुसुमलता केडिया 
जनसत्ता 6 मई, 2013: अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासकों ने सत्ता का हस्तांतरण जिन परिस्थितियों में, जिस परिवेश में और जिन अपेक्षाओं के साथ किया, उनको लेकर सत्तारूढ़ लोगों ने 1947 के बाद बहुत तरह के किस्से रचे और फैलाए हैं। कोशिश की गई है कि सच को इन किस्सों के जाल से लपेट कर ढंक दिया जाए। पर इससे कुछ राज्यकर्ताओं का हित भले हो, राष्ट्र का बहुत बड़ा अहित हुआ है। स्वयं कांग्रेस पार्टी का भी इससे अहित ही हुआ है। क्योंकि कांग्रेस एक राष्ट्रीय मंच थी, जिसमें देश के प्रबुद्ध समाज का बहुत बड़ा अंश धीरे-धीरे जुड़ गया था। इसके लक्ष्य राष्ट्रीय थे और इसके दावे भी संपूर्ण राष्ट्र की सेवा के थे। इसके सभी शीर्ष नेता लोकतांत्रिक थे और उनमें से कोई भारत में अपने मतवाद की तानाशाही चलाने के कतई पक्ष में नहीं था। पर 1946 से घटनाओं ने जिस तेजी से मोड़ लिया, उससे अप्रत्याशित घटित होता चला गया। बहुत तेजी से मोड़ आए और तेज रफ्तार में अनेक लोगों को संभलने का वक्त ही नहीं मिला। सब कुछ उन लोगों के द्वारा एक सीमा तक निर्धारित किया जाता रहा, जो देश छोड़ कर जा रहे थे।
इतिहास के तथ्य बताते हैं कि महानतम भारतीयों में से एक, रासबिहारी बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की थी और वह एक बड़ी शक्ति बन गई थी। विदेशों में रह रहे देशभक्तों द्वारा किया गया यह महान कार्य वस्तुत: भारत की स्वाधीनता और भारत से ब्रिटिश शासन के उन्मूलन की दिशा में एक निर्णायक कदम था। मार्च 1942 में तोक्यो में हुए सम्मेलन में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई थी और भारत पर अन्यायी और आततायी ब्रिटिश हस्तक्षेप को समाप्त करने का न्यायपूर्ण संकल्प लिया गया था। बाद में बैंकाक में एक और सम्मेलन हुआ। इसके बाद 13 जून 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय महादेश (उपमहाद्वीप) से बाहरी और अजनबी हथियारबंद गिरोहों के झुंड यानी उपनिवेशवादी अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की घोषणा की। 
अंतत: 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर में स्वाधीन भारत सरकार की घोषणा कर दी गई। इस स्वाधीन भारत सरकार का घोषित लक्ष्य था- कि भारत की पवित्र भूमि से सशस्त्र ब्रिटिश गिरोहों और उनके समर्थकों को निकाल बाहर किया जाए। लगभग आधे भारत में छल-बल से सत्ता राजनीति के संचालन में 1858 ईस्वी के बाद किसी तरह काबिज ब्रिटिश गिरोहों को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कभी भी भारत का शासक नहीं माना। तथ्यत: वे भारत के शासक थे भी नहीं। क्योंकि संपूर्ण विश्व में किसी राष्ट्र के शासक होने के जो सार्वभौम आधार मान्य हैं, उनमें से एक भी आधार पर ब्रिटिश लोग भारत के शासक नहीं ठहरते। वे अजनबी और बाहरी आतताइयों का झुंड ही ठहरते हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार भी वे लोग कभी भी भारत के शासक नहीं माने जा सकते। 
स्वाधीन भारत सरकार के पास वे सभी तत्त्व थे, जो कि एक स्वाधीन सरकार के होने के लिए आवश्यक हैं। उसका अपना एक राजचिह्न था, जो छलांग लगाते हुए सिंह का था, जो कि शताब्दियों से अनेक भारतीय शासकों का राजचिह्न रहा है। इसके साथ ही उसका अपना राष्ट्रध्वज था, जो चरखे सहित तिरंगा ही था। उसके द्वारा अपने राष्ट्रीय क्षेत्र का मानचित्र भी प्रसारित हुआ था, जिसमें उसके अधीनस्थ क्षेत्र और वे क्षेत्र जिन पर स्वाधीन भारत सरकार का दावा है, दर्शाए गए थे। अंडमान निकोबार में इसका अपना स्वाधीन शासन था। इनमें से अंडमान को शहीद द्वीप और निकोबार को स्वराज द्वीप नाम दिया गया था। 
इस सरकार के द्वारा अपने सिक्के भी ढाले और चलाए गए थे। उसकी अपनी एक नागरिक संहिता थी और एक विधिवत न्यायालय गठित किया गया था। अनेक देशों ने उसे मान्यता दे रखी थी। सोवियत संघ ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को ही स्वाधीन भारत सरकार का प्रधानमंत्री मान्य किया। नवंबर 1943 में हुए एशिया सम्मेलन में तोक्यो में स्वाधीन भारत सरकार का प्रतिनिधि शामिल हुआ था। स्वाधीन भारत सरकार ने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
इंडियन नेशनल आर्मी की शक्ति लगातार बढ़ती गई। जापान में रह रहे भारतीय उसमें शामिल हुए। वहां के भारतीयों ने इस स्वाधीन भारत सरकार को राजकोष के लिए धन भी दिया, जो भारतीय नागरिकों के कर के रूप में दिया गया था। इसका उद्देश्य इंडियन नेशनल आर्मी की युद्ध की शक्ति को पोषित करना घोषित किया गया था। इंडियन नेशनल आर्मी ने इम्फाल पर कब्जा कर लिया और पूर्वी भारत में आगे बढ़ने लगी और शीघ्र ही दिल्ली पर कब्जा करने की घोषणा की। तेज बारिश के कारण इस सेना का दिल्ली कूच बाधित हुआ। ब्रिटेन ने भारी बमवर्षा के द्वारा उसके अभियान को बाधित किया, लेकिन मुख्य आवश्यकता तो भारत के भीतर से समर्थन की थी।
वर्ष 1937 के बाद भारत के कई प्रांतों में कांग्रेस की निर्वाचित सरकारें आ गई थीं, इसलिए इन सरकारों को अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर अपनी जनता का लोकतांत्रिक प्रतिनिधि माना जा रहा था। इनका समर्थन पाने पर ही भारत में ब्रिटिश शासन की वैधता का दावा किया जा सकता था। देश में तब तक अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसा प्रचंड वातावरण बन गया था कि 1942 में अहिंसा के महान पुजारी महात्मा गांधी को भी 'करो या मरो' और 'अंग्रेजो भारत छोड़ो'- इन दो नारों के साथ एक प्रचंड आंदोलन का आह्वान करना पड़ा। लेकिन 1942 में ही कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए और वह आंदोलन समाप्त हो गया। लगभग दस-बारह युवक-युवतियां अवश्य कुछ भूमिगत गतिविधियां चलाते रहे। पर वस्तुत: शांतिवादी धारा दिसंबर 1942 तक पूरी तरह हार चुकी थी। 

दूसरी ओर ब्रिटेन के पक्ष को प्रथम महायुद्ध की ही तरह द्वितीय महायुद्ध में भी सफलता मिली, तो मुख्यत: भारतीय सेनाओं के कारण। भारत में सेनाओं की हजारों वर्ष पुरानी व्यवस्थित परंपरा रही है, किसानों और वनवासियों सहित संपूर्ण देश के लोगों में अपने सपूतों को सेना में भेजने का गौरव और उत्साह रहा है। अनेक जगह स्त्री सेनाएं भी संपूर्ण इतिहास में होती रही हैं। इसलिए भारतीय सैनिक परंपरा से ही कुशल योद्धा हैं। दूसरी ओर उन्नीसवीं शताब्दी तक ब्रिटेन में कोई व्यवस्थित सेना नहीं थी। अलग-अलग जागीरदारों के झुंड थोड़े-से लोगों को तलवार आदि चलाना सिखाते रहते थे और उन्नीसवीं शताब्दी में कुछ जगह बंदूक चलाने का भी निजी तौर पर प्रशिक्षण दिया जाने लगा था। प्रथम महायुद्ध के आते ही ब्रिटेन में इसीलिए जबर्दस्त घबराहट फैल गई और फिर ताबड़तोड़ हर नवयुवक और प्रौढ़ को सेना में भर्ती करने का बलपूर्वक अभियान चलाया गया। उन्हें शीघ्रता में प्रशिक्षण दिया गया। उन ब्रिटिश सैनिकों की देशभक्ति असंदिग्ध थी, लेकिन युद्ध कौशल पूरी तरह नया-नया अर्जित किया गया था। 
इसीलिए दोनों ही महायुद्धों में ब्रिटिश पक्ष की जीत में भारतीय सैनिकों की ही निर्णायक भूमिका रही। तब भी, द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन बुरी तरह जर्जर हो गया। ऐसे में नेताजी के नेतृत्व में स्वाधीन भारतीय सेना का नगालैंड से म्यांमा की सीमा तक बढ़ता दबाव उनकी घबराहट बढ़ाने के लिए काफी था। अंग्रेजों ने तेजी से भारत में अपने मित्रों की तलाश बढ़ा दी। साथ ही घोषणा की कि वे शीघ्र ही सत्ता का हस्तांतरण करके जाएंगे। आखिरकार उन्होंने यह घोषणा भी कर दी कि कांग्रेस 1946 में जिस व्यक्ति को अपना अध्यक्ष चुनेगी, उसे ही भारत का अगला प्रधानमंत्री ब्रिटेन के द्वारा मनोनीत किया जाएगा और उसको ही अपनी सत्ता विधिवत सौंप कर वे जाएंगे। 
ऐसी स्थिति में मौलाना आजाद का कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना ब्रिटिश पक्ष को बिल्कुल स्वीकार नहीं था। मगर प्रदेश कांग्रेस समितियों और कांग्रेस कार्यसमिति ने जिन लोगों को अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया, उनमें से किसी का नाम इंग्लैंड को पसंद नहीं आया। हालांकि उनमें सरदार पटेल और डॉ राजेंद्र प्रसाद के नाम भी थे, जो कि ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश शिक्षा के बड़े प्रशंसक माने जाते थे। पर इंग्लैंड को कुछ और चाहिए था। 
ब्रिटिश शासकों ने महात्मा गांधी के साथ अपनी आध्यात्मिक मैत्री का वास्ता दिया और उनसे मंत्रणाओं के कई दौर चले, जिसका परिणाम यह निकला कि गांधीजी ने कार्यसमिति से अपील की कि अगला अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को चुना जाए। हालांकि नेहरू के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा था। जो भी हो, गांधीजी के आग्रह को स्वीकार कर लिया गया और नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। बाद में उन्हें सत्ता की जिम्मेदारी सौंपने के दौरान वह दायित्व आचार्य जेबी कृपलानी को दिए जाने का भी निश्चय किया गया।
जवाहरलाल नेहरू ने स्वाधीन भारत सरकार की सेना यानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सेना के विरुद्ध इम्फाल के मोर्चे पर स्वयं तलवार लेकर जाने और लड़ने की घोषणा की। इससे स्पष्ट है कि वे ब्रिटिश पक्ष के कितने आत्मीय हो चुके थे और ब्रिटिश पक्ष के लक्ष्यों के प्रति उनमें कैसी गहरी श्रद्धा थी कि वे उसके लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को तैयार थे। हालांकि उनके युद्ध कौशल के विषय में कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। 
'ट्रांसफर ऑफ पॉवर' के दस्तावेजों में भी कई स्पष्ट संकेत हैं कि नेहरू ने ब्रिटिश पक्ष के साथ निम्नांकित बिंदुओं पर पूर्ण सहमति जताई: 
एक, नेताजी सुभाषचंद्र बोस को युद्धबंदी माना जाएगा और उन्हें मिलते ही ब्रिटेन को युद्धबंदी के रूप में सौंप दिया जाएगा। दो, 2021 आजाद हिंद फौज और उसके अधिकारियों पर चले मुकदमे के विषय में शासन के स्तर पर कोई भी सार्वजनिक प्रसारण नहीं किया जाएगा, सूचना नहीं दी जाएगी और उसके तथ्य सार्वजनिक नहीं किए जाएंगे। तीन, भारत ब्रिटिश कॉमनवेल्थ (संयुक्त संपदा) का अभिन्न अंग बना रहेगा। इस प्रकार भारतीय संपदा पर औपचारिक तौर पर ब्रिटिश स्वामित्व आंशिक रूप से स्वीकार होगा। चार, भारत में ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण की भरपूर सुविधा सुलभ कराई जाएगी और महात्मा गांधी के इस आग्रह का बिल्कुल भी पालन नहीं किया जाएगा कि 'धर्मांतरण हलाहल विष है और स्वाधीन भारत सरकार उसे पूरी तरह गैर-कानूनी करार देगी।' पांच, भारत में सभी ब्रिटिश कानून यथावत जारी रहेंगे। स्वाधीन भारत की संसद उन सब कानूनों को वैधता प्रदान कर दे, इसका नेहरू जिम्मा लेते हैं। छह, भारत में अंग्रेजी को पूर्ण महत्त्व प्राप्त होगा और ब्रिटिश शिक्षा और ब्रिटिश ज्ञानकोश से भारतीय शिक्षित समाज को सदा संबद्ध रखा जाएगा। सात, ब्रिटिश संसदीय प्रणाली भारतीय लोकतंत्र के लिए एक मॉडल मान्य होगी।
इस प्रकार इन सब सहमतियों के मध्य सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया और नेतृत्व का निर्धारण हुआ। इतिहास के इन तथ्यों को सार्वजनिक विमर्श का अंग बनाया जाना जरूरी है। नेहरू ने सत्ता संभालने के बाद इतिहास के इन तथ्यों को सार्वजनिक चर्चा से बाहर रखने की प्रेरणा दी। इसके साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि कांग्रेस मुख्यत: नेहरूवादी यानी समाजवादी बनी रहे और उसमें राष्ट्रीय विचार की अन्य धाराओं का प्रतिनिधित्व समाप्त होता जाए। इस प्रकार वह राष्ट्रीय मंच न रह कर कम्युनिस्ट अर्थों वाली एक पार्टी बनती जाए।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/43959-2013-05-06-04-46-56

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