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Monday, September 29, 2025

विस्थापन का इतिहास भूगोल है भूख

पाठ महत्वपूर्ण लघु पत्रिका है। कामरेड शंकर गृह नियोगी की कर्मभूमि में साथी देवांशु यह पत्रिका जब से निकाल रहे हैं,मैं इससे जुड़ा हूं। अस्सी महत्वपूर्ण अंक पाठ के प्रकाशित हो गए हैं। ताजा अंक भूख पर विशेष है। करीब बीस साल से मेरा लिखना नहीं हो पाता। ऐसे निष्क्रिय लेखक से भी आखिर लिखवा ही लिया। यह लेख प्रस्तुत है: विस्थापन का इतिहास भूगोल है भूख पलाश विश्वास हमारे सामने विश्व की सबसे बड़ी जेल गाजा पट्टी का लहूलुहान रोजनामचा है, जहां हर कोई जन्मजात अपनी मातृभूमि, अपनी नागरिकता, नागरिक और मानवाधिकार से वंचित हैं। रोज बच्चे और स्त्रियां, बूढ़े और जवान भोजन की लाइन में बम वर्षा में मारे जा रहे हैं। ये सारे लोग जल जंगल जमीन आजीविका से बेदखल हैं। भूख उनकी जिंदगी का पर्याय है। खून से सने बचपन का सबसे बड़ा सच है भूख।आसमान उनके खिलाफ आग बरसाती है। इस कायनात की कोई नियामत उनके लिए नहीं है। उनका कसूर है आजादी के लिए उनका जज्बा। आइलान का समुद्र तट पर औंधा लेटा चेहरा याद है। याद है वह शरणार्थी बच्चा जो नई जमीन की तलाश में अपने कुनबे के साथ किसी ऐसे देश की तलाश में निकला था,जो भूख के भूगोल में न हो। बहुत पुरानी बात नहीं है। दस साल पहले तीन साल का आइलान कुर्दी अपने पांच साल के भाई और मां के साथ समुद्र में डूब गया। पूरा परिवार 12 अन्य लोगों के साथ जंग से जूझ रहे सीरिया से निकलकर यूरोप जा रहा था। नाव समुद्र में पलट गई। एलन के पिता अब्दुल्ला बच गए। उन्होंने कहा, "मेरे दोनों बच्चे बहुत खूबसूरत थे। वे गोद में सिमटे थे कि नाव डूब गई। मैंने बचाने की कोशिश की, लेकिन हाथों से फिसलते गए। आंखों के सामने समुद्र में समा गए। मैं चाहता हूं कि पूरी दुनिया की नजर इस घटना पर जाए, ताकि दोबारा ऐसा किसी और के साथ न हो।'' बच्चे का शव तुर्की के मुख्य टूरिस्ट रिजॉर्ट के पास समुद्र तट पर औंधे मुंह पड़ा मिला। तस्वीर के सामने आते ही पूरी दुनिया में बहस छिड़ गई। अब्दुल्ला ने अपने दो बेटों-तीन साल के आइलान और चार साल के गालेब और पत्नी रिहाना को खो दिया। रोज पश्चिम एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, मध्य अमेरिका, पश्चिम यूरोप और एशिया के सर्वव्यापी भूख के भूगोल से कंटीली तार की बाड़ या समुद्र पार करते हुए कितने ही आइलान मारे जाते हैं। गाजा का हर मृत बच्चा आइलान है। यूं कहे तो गाजा पट्टी जमीन के किसी एक टुकड़े का नाम नहीं है और न सिर्फ फिलिस्तीन का एक हिस्सा है। हर देश में ऐसी असंख्य गाजा पट्टियां और फिलिस्तीन है, जहां साम्राज्यवाद भूखे बच्चों का आखेट करता है। जैसे अपने खनिज संपदा से अति समृद्ध आदिवासी भूगोल कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश भूख का भूगोल है।ठीक उसी तरह जैसे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन बंगाल और चीन थे। युद्ध और गृहयुद्ध से ध्वस्त देशों में भूख के इस भूगोल पर किसी अर्थशास्त्री की नजर नहीं जाती। वे कभी साम्राज्यवाद को इस भुखमरी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरते। इस महादेश में दो महान अर्थशास्त्री हुए।दोनों को अर्थ शास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। दोनों बंगाल की पृष्ठभूमि से हैं। डॉ अमर्त्य सेन और डॉ मुहम्मद यूनुस। युनूस हालांकि इस वक्त बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया हैं। आर्थिक घोटालों में उनका अर्थशास्त्र डूब गया। बाकी जो बचा था, वह बांग्लादेश मुक्तियुद्ध की विरासत के साथ जमींदोज हैं।दोनों मुक्त बाजार के सबसे बड़े प्रवक्ता और कार्पोरेट साम्राज्यवाद प्रायोजित विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। दोनों ने बंगाल और चीन की भुखमरी पर काम किया है। दोनों ने भुखमरी का कारण असमान वितरण को बताया। दोनों ने इस सुनियोजित नरसंहार के कातिल ब्रिटिश साम्राज्यवाद को इस जघन्य युद्ध अपराध से बरी कर दिया।उन्होंने बंगाल या चीन भुखमरी के लिए कभी ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जिम्मेदार नहीं बताया।शायद इसीलिए दोनों इतने महान हैं। आदिवासी भूगोल में जल जंगल जमीन आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के लिए मुक्त बाजार की विश्वुवस्था का कोई अर्थशास्त्री कॉरपोरेट साम्राज्यवाद को दोषी नहीं ठहराता। बल्कि विस्थापन के सलवा जुडूम की अर्थव्यवस्था के पक्ष में उनके सारे आर्थिक विश्लेषण और आंकड़े हैं। कोई अर्थशास्त्री नहीं बताएगा कि तीव्र विकास की पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की विकास दर में आदिवासी विस्थापन और भूख के भूगोल का कितना योगदान है। जल,जंगल,जमीन, अस्मिता, अस्तित्व, आजीविका, इतिहास भूगोल, नागरिक तथा मानव अधिकारों से बेदखली को बुनियादी ढांचा का विकास कहते हैं, जिसकी नींव में असंख्य लाशें और असंख्य खून की नदियां हैं। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त के राशन को वे संसाधनों की लूट खसोट या आसमान वितरण का नतीजा कभी नहीं बताते।क्योंकि यह सबकुछ सत्ता वर्ग के वर्गहित जाति हित में हैं। वंचित आदिवासी तबकों,दलितों,पिछड़ों के कोई अर्थशास्त्री नहीं होते। सारे अर्थशास्त्री और राजनयिक, राजनेता सत्तवर्ग के हैं।इसलिए भुखमरी के इतिहास भूगोल पर कभी कोई बात नहीं होती। भारत विभाजन के शिकार वे लोग हुए जो बंगाली की भुखमरी के शिकार थे।इस भुखमरी के मुनाफे वाले लोगों ने बंगाल के विभाजन के लिए भारत का विभाजन वैसे ही कराया जैसे दलित,वंचित तबके के खिलाफ बंगाल की भुखमरी को उन्होंने राजनीतिक हथियार बनाया था। बंगाल के इतिहास भूगोल से विस्थापन की असल तारीख भारत का स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 नहीं था। इस तारीख से पहले वंचित तबकों के दलित और मुसलमान एक साथ मिलकर दो सौ साल से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और अस्पृश्यता के सामंती किलों के खिलाफ लड़ रहे थे। चूआड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह, नील विद्रोह, बाउल फकीर संन्यासी विद्रोह, दलित किसानों की हड़ताल, पाबना विद्रोह, राजशाही विद्रोह, संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, किसान मजदूर आंदोलन के समूचे क्रमबद्ध इतिहास और बंगाल में दलितों मुसलमानों के राजनीतिक गठबंधन का पटाक्षेप बंगाल की भुखमरी से हो गया। गोदामों में अनाज सड़ रहा था। अनाज की कमी नहीं थी। बंगाल के सत्ता वर्ग के मसीहा जमींदार तबके के बेटा भूख से बिलबिलाती, कीड़े मकोड़े की तरह मरते गांवों के मध्य अपने ऐशगाहों, बागान बाड़ी और बाईजी महफिल पर लाखों का खर्च कर रहे थे,लेकिन भूख से दम तोड़ते लोगों के लिए उनके पास फूटी कौड़ी नहीं थी। प्रसिद्ध चित्रकार चित्तौप्रसाद और सोमनाथ होड़ ने इस पर खुलकर लिखा है। माणिक बंदोपाध्याय की तमाम कहानियों और उपन्यासों में भूख को हथियार बनाकर बंगाल में हुए इस कत्लेआम की कथा व्यथा दर्ज है। दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था।कोलकाता में जापानी युद्धक विमानों ने कुछ बम जरूर गिराए,लेकिन भूख के समूचे भूगोल पर एक भी बम नहीं गिरा।फिर भी लाखों लोग मार दिए गए। 1943-44 में बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, भारत का पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडीशा) एक भयानक अकाल पड़ा था जिसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जान जान गंवाई थी। ये द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था। माना जाता है कि अकाल का कारण अनाज के उत्पादन का घटना था, जबकि बंगाल से लगातार अनाज का निर्यात हो रहा था। हालांकि, विशेषज्ञों के तर्क इससे अलग हैं। ये विशेषज्ञ कौन है,इनकी पहचान कर लें तो समझ में आएगा कि कोई परमाणु बम, हाइड्रोजन बम भूख के हथियार से बड़ा नहीं है। भूख की नींव पर सामंतवाद और साम्राज्यवाद की पूरी विश्व्यवस्था बहाल तबियत है। दावा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल ने जानबूझकर लाखों भारतीयों को भूखे मरने दिया। बर्मा पर जापान के कब्जे के बाद वहां से चावल का आयात रुक गया था और ब्रिटिश शासन ने अपने सैनिकों और युद्ध में लगे अन्य लोगों के लिए चावल की जमाखोरी कर ली थी, जिसकी वजह से 1943 में बंगाल में आए सूखे में तीस लाख से अधिक लोग मारे गए थे। भारत विभाजन के बाद बंगाल में हुए दंगों में या बांग्लादेश मुक्तियुद्ध में भी इतने लोग मारे नहीं गए। इसलिए वो जहां विभीषिका से बड़ी त्रासदी है बंगाल की भुखमरी और भुखमरी के शिकार लोगों को ही बंगाल के विभाजन के जरिए अपने घर, खेत,गांव, देश, जलवायु, परिवेश, समाज, संस्कृति, मातृभाषा, इतिहास,भूगोल, अस्मिता और अस्तित्व से बेदखल कर दिया गया।बंगाल में भद्रलोक वर्चस्व का यही उपाख्यान विस्थापन का यथार्थ है।जो विश्व के हर देश में वर्चस्व और विस्थापन का इतिहास भी है। आज भी इस महादेश में भूख का भूगोल का भूकंप केंद्र बांग्लादेश, बिहार, झारखंड और ओडीशा है। 1943 के बंगाल में कोलकाता की सड़कों पर भूख से हड्डी हड्डी हुई मांएं सड़कों पर दम तोड़ रही थीं। लोग सड़े खाने के लिए लड़ते दिखते थे तो ब्रिटिश अधिकारी और मध्यवर्ग भारतीय अपने क्लबों और घरों पर गुलछर्रे उड़ा रहे थे। बंगाल की मानव-रचित भुखमरी ब्रिटिश राज के इतिहास के काले अध्यायों में से एक रही है। बंगाल के मुख्यमंत्री पूर्वी बंगाल में व्यापक दंगों के सच को मानने से इनकार करते हुए पूर्वी बंगाल से आए विस्थापितों को भुखमंगे कहकर शरणार्थी मानने से इनकार कर दिया था और उन्होंने बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास में सहयोग से सिरे से इनकार कर दिया था। 1949 में ही बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास के लिए नैनीताल, अंडमान और दंडकारण्य प्रोजेक्ट एक साथ भारत सरकार ने बनाए थे। इनमें नैनीताल पुनर्वास परियोजना 1950 में ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत की पहल पर लागू हो गई थी,लेकिन बंगाल में राजनीतिक विरोध के कारण सिर्फ ढाई हजार परिवार ही 1949 से 1952 तक नैनीताल गए।बंगाली नेताओं के असहयोग के कारण दंडकारण्य प्रोजेक्ट 1960 और अंडमान प्रोजेक्ट 1962 में चालू हो सका।सिर्फ दस प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास हो सका और बाकी नब्बे प्रतिशत को भूख के भूगोल में मरने को छोड़ दिया गया। चीन में क्रांति के बाद कामरेड माओ त्से तुंग के लाल चीन में हुईं भुखमरी से मौतों का किस्सा एक बेमिसाल नजीर है कि भूख के भयानक सच को सत्ता कैसे दबाती है। चिन्नी क्रांति और माओ के ही नक्शेकदम पर सत्तर के दशक में भारत में क्रांति के सपने लेकर वसंत के वज्र निनाद में हजारों नौजवानों ने नक्सलबाड़ी आंदोलन में शहादते दी थी। सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है, माओ के इस कथन के आधार पर वर्ग शत्रुओं के सफाए का अभियान चला था। रातोंरात सोवियत रूस की क्रांति और मार्क्सवाद लेनिनवाद की जगह कामरेड माओ को चारू मजूमदार ने हमारा चेयरमैन कहते हुए गांवों से शहर को घेरने का नारा देकर भारत में भी सशस्त्र कृषि क्रांति का नारा दिया था। लगभग 1959-1961 के दौरान, इसी सपनों के लाल चीन ने एक भयावह अकाल का सामना किया। आधिकारिक सरकारी आँकड़े बताते हैं कि मरने वालों की संख्या 1.5 करोड़ थी, लेकिन आज विद्वानों का अनुमान है कि यह संख्या 2 करोड़ से 4.3 करोड़ के बीच है। सही आँकड़ा शायद कभी पता न चले। यह विषय चीन में अभी भी वर्जित है, जहाँ इसे व्यंजनात्मक रूप से प्राकृतिक आपदाओं के तीन वर्ष कहा जाता है। फिर भी यह स्पष्ट है कि यह अकाल मुख्यतः मानव निर्मित था। यही सच है भूख का।सत्ता चाहे किसी की हो भुखमरी के सच को जिंदा दफन कर दिया जाता है।भूख और भुखमरी पर चर्चा हर देश, काल परिस्थिति में निषिद्व है। भारत में भी। हर साल भूख और कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या करते हैं और भुखमरी लगी रहती है, लेकिन कोई सत्ता इसे स्वीकार नहीं करती। चीन के बाहर बहुत कम लोगों को पता था कि क्या हो रहा है। देश बाहरी दुनिया के लिए बंद था, और आने वाले विदेशियों पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। दरअसल, कई शहरी चीनियों को इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि स्थिति कितनी खराब थी, क्योंकि ग्रामीण इलाकों को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ था। 1965-75 की दस साल की अवधि में, मिरियम और इवान डी. लंदन ने सीमा पार हांगकांग में चीनी शरणार्थियों का साक्षात्कार लिया और सच्ची कहानी पर लगातार रिपोर्टिंग की। उनकी रिपोर्ट्स को चीन पर नज़र रखने वाले कई लोगों ने उत्सुकता से पढ़ा, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया ने ज़्यादातर उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया। आज भारत का समूचा आदिवासी भूगोल भूख और विस्थापन का भूगोल है। जल जमीन जंगल आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखली का भूगोल है जो आजादी से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल प्रेसीडेंसी का सच था। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश राज का सबसे धारदार हथियार बनाए रखा। पलाशी के युद्ध के तुरंत बाद से दो सौ साल तक भारत के किसान और आदिवासी ब्रिटिश राज के खिलाफ लगातार लड़ते रहे। रियासतें और जमींदारियां ब्रिटिश एजेंसियों की तरह अपने राजकाज अलग चल रही थी। इस दोहरे शासन की परिणति थी बंगाल की भुखमरी। आजादी के बाद कारपोरेट राज में बेदखली का वही बुलडोजर राज चल रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राजधानी वॉशिंगटन से गरीबों और बेघरों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया है।गरीबों, बेघरों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ भारत के हर राज्य में कभी विकास के नाम,कभी बुनियादी ढांचे के नाम तो कभी अतिक्रमण हटाओ या सौंदर्यीकरण के नाम यह अभियान शाश्वत सत्य बन गया है। भूख के भूगोल के ही नागरिक हैं गरीब,मेहनतकश लोग,दलित, विस्थापित, आदिवासी और अल्पसंख्यक। राष्ट्र और समाज, प्रेस और मीडिया, भद्र प्रबुद्ध जन,राजनेता की छोड़िए, पत्रकार, कवि, लेखक, पूंजी पोषित सामाजिक कार्यकर्ता भी अब विकास के इस मॉडल के पैरोकार है,जो गरीबों, आदिवासियों, दलितोंवस्थापितों और अल्पसंख्यकों के सफाए को जायज साबित करने में शर्मिंदा महसूस नहीं करते। यह हिमालय के धवल शुभ्र उत्तुंग शिखरों और हिमनदों का भी सच है। विकास के नाम विनाश की इस अर्थव्यवस्था के मिसाइली शिकारियों की निगाह में है हिमालय। जहां सारे संसाधन देशी विदेशी पूंजी, कार्पोरेट के हवाले हैं। चार धाम जैसी परियोजनाओं और ऊंचे पहाड़ों में रईसों के लिए धर्मस्थलों पर भी ऐशगाह बनाने की मुहिम ने भूपारिस्थिकी की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालय का भूख के भूगोल में समाहित कर दिया है। यह असंख्य ग्लेशियरों का घर हैं।ये ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।टूट रहे हैं। गंगोत्री से गंगासागर तक जलप्रलय का सृजन कर रहे है। सबसे ज्यादा बड़े बांध हिमाचल प्रदेश में बनाए गए,जहां व्यापक पैमाने पर विस्थापन हुआ। ऐसा विस्थापन, जिसके एवज में कोई पुनर्वास नहीं होता। जितने विस्थापित भारत विभाजन के कारण बंगाल और पंजाब से आए,उससे कहीं ज्यादा विस्थापन भारत में विकास के नाम भूख के इस भूगोल से हुआ।इसलिए भूख का भूगोल दरअसल विस्थापन का भी भूगोल है। हिमालयी राज्यों की विडंबना है कि इसे विस्थाओं नहीं कहा जाता।गांव के गांव वीरान हैं। न रोजगार है और न आजीविका।जल जंगल जमीन से बेदखल लोग मानव सृजित आपदाओं के शिकार होकर मरते रहते हैं। दुर्गम गांवों तक सिर्फ पगडंडियां हैं।न स्कूल हैं और न अस्पताल। ऊपर से बाढ़,भूस्खलन, भूकंप, भूख और बेरोजगारी। जीने की जिजीविषा में पहाड़ मैदानों पर चल आता है अपनी नदियों की तरह। इसे विस्थापन न कहकर पलायन कहते हुए बेशर्मी से भूख के सच को दबाया जा रहा है। अंधाधुंध बाजारीकरण,शहरीकरण के कारण खेती से बड़े पैमाने पर बेदखल हो रहे हैं लोग।ब्रिटिश हुकूमत और देश आजाद होने के बाद सत्तर के दशक तक हुए औद्योगिकीकरण से भी लोग खेतों से बेदखल हो रहे थे।लेकिन तब उद्योगों में बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिल रहा था।मुक्तबाजार में निजीकरण,उदारीकरण और ग्लोबीकरण के साथ आधुनिकीकरण के नाम हो रहे बाजारीकरण और अंधाधुंध शहरीकरण से हिमालय से हिंद महासागर तक रोजगार सृजन के बजाय लोग रोजगार,आजीविका, जल,जंगल,जमीन और नागरिकता से भी बेदखल हो रहे हैं। भूख और विस्थापन का भूगोल का विस्तार हो रहा हैं। हम इसी भूख के भूगोल और इतिहास के उत्तराधिकारी हैं। हमारे जो पुरखे भूख और महामारी में नहीं मरे,विभाजन विभीषिका और आजादी के जश्न के बीच जो दंगा फसाद से भी बच गए, रिफ्यूजी कैंप के नर्क में भूख और महामारी के शिकंजे से निकलकर जो पुनर्वास उपनिवेश में बस गए और वहां से भी जिनकी बेदखली का चाकचौबंद इंतजाम है, हम उनकी संतान हैं। बंगाल के राणाघाट, काशीपुर कैंप से लेकर मध्यप्रदेश के माना कैंप तक देश में सैकड़ों रिफ्यूजी कैंप में हमारे लोग फिलिस्तीनी शरणार्थियों की तरह बार्सोबर्स तक कैद रहे और आज भी उन्हीं कैंपों में लाखों विस्थापित परिवार आज भी कैद हैं। जिन्हें सड़ा गला पुराना राशन दिया जाता रहा। यहां तक कि उन्हीं कैंपों में कभी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ठहराए गए अमरीकी सैनिकों का छोड़ा हुआ राशन भी। कीड़े मकोड़े की तरह लोगों को तंग संकरे गंदे कमरों में ठहराया गया।स्त्री पुरुष के लिए कहीं कोई अलग इंतजाम नहीं।बच्चों को जानवर उठा ले जाते थे। इस नर्क में महामारी का एक ही इलाज था,लावारिश लाशों को सौ दो सौ की तादाद में एक साथ फूंक देना और अधजली लाशों को नदियों में बहा देना। सरहद हर करके भूख के भूगोल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में दाखिल लोगों में 1947 से 1976 तक रुक रुक कर रिफ्यूजी कैंपों के सफाए अभियान के साथ जिन दस प्रतिशत लोगों को बंगाल से बाहर भारत के 22 राज्यों के आदिवासी इलाकों, जंगलों,पहाड़ों, मरुस्थलों, अभ्यारण्यों और द्वीपों में पुनर्वास की रस्म अदायगी की गई, उन्हें लगभग सर्वत्र बिना सरकारी मदद के, बिना गांव बसाए खुले जंगल में बरसोबरस बाघ का चारा बना दिया गया। हिमालय की तलहटी में नैनीताल की तराई के घने जंगल में 1949 से 1954, 1956 तक मच्छरों, मलेरिया,हैजा, सर्पदंश,खूंखार जानवरों के मुकाबले कंदमूल,जंगली फल खाकर भूख और जंगली जनवरों का चारा बनने से जो पुरखे हमारे पुनर्वास उपनिवेश में बसे, हम उन्हीं की संतान हैं।देशभर के आदिवासी इस भूख और विस्थापन के रिश्ते से हमारे उतने ही अपने हैं जितने दुनिया बढ़ के विस्थापित और गाजा पट्टी के बच्चे। भूख और विस्थापन के भूगोल और इतिहास की कोई सरहद नहीं है। सभी अपना अपना फिलिस्तीन जीते हैं। समाप्त पलाश विश्वास कार्यकारी संपादक,प्रेरणा अंशु, समाजोत्थान संस्थान, दिनेशपुर, उत्तराखंड 263460 06398418084 098360416270 व्हाट्सएप ताजा किताब: पुलिनबाबू: विस्थापन का यथार्थ, पुनर्वास की लड़ाई

Saturday, September 27, 2025

कहां कहां हैं बंगाली विस्थापित?

बंगाली विस्थापित समाज में मातृभाषा, संस्कृति और विरासत के नाम सिर्फ दुर्गा पूजा शेष है। बंगाल में तो खराब मौसम के बावजूद कमर भर पानी में मंडप दर्शन जारी है।पूजा के दौरान निम्न दबाव का खतरा घना हो रहा है।आंध्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़ जहां भी आंधी तूफान आएगा, वहां बड़ी संख्या में विस्थापित समाज है। बंगाल के इतिहास भूगोल से बहिष्कृत देशभर में बिखरे विस्थापित बंगाली समाज में दशहरा तक बंगाली बने रहने का मौका है। त्रिपुरा, असम, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और मुंबई के अलावा बंगाल से बाहर बहिष्कृत बंगालियों की सबसे बड़ी संख्या दंडकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में हैं। ओडिशा के मलकानगिरी के माओवादी पहाड़ और जंगल के इलाके में दो सौ पचास के करीब रिफ्यूजी कॉलोनियों हैं। इससे लगे छत्तीसगढ़ के पखांजूर आदिवासी इलाके में दंतेवाड़ा और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से लगे छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में सौ कालोनियां हैं। ओडिशा के नवरंगपुर जिले के उमरकोट में नब्बे कॉलोनियां हैं। ओडिशा में संबलपुर, पुरी और केंद्रपाड़ा, बालेश्वर में भी बड़ी संख्या में विस्थापित आबादी है बंगालियों की। महाराष्ट्र के गोंदिया, चंद्रपुर और गढ़ चिरौली जिलों में भी बड़ी आबादी है।तेलंगाना के कागजनगर, मध्यप्रदेश के बैतूल और कर्नाटक में भी बंगाली विस्थापितों की बड़ी आबादी है। भारत में कर्नाटक शायद एकमात्र राज्य है,जहां बांग्ला द्वितीय राजभाषा है।बाकी त्रिपुरा और असम के कछाड़ को छोड़कर बंगाल से बाहर किसी राज्य में विस्थापित बंगालियों को मातृभाषा बांग्ला पढ़ने, लिखने, बोलने और सीखने का मौका नहीं है। दुर्गा महिमा यह है कि दुर्गा पूजा के दौरान विस्थापित भी बंगाली बन जाते है। इसलिए दुर्गा पूजा के फोटो और वीडियो शेयर करना जरूरी है ताकि कम से कम यह पता चले कि खान खान हम जिंदा हैं। छत्तीसगढ़ के विस्थापित बंगाली पखांजूर के गांवों पर रील खूब बना रहे हैं। क्या हमें अपने गांवों से मुहब्बत नहीं है? https://www.facebook.com/share/r/19QqEurVMC/

Friday, September 26, 2025

शक्तिफार्म की रामलीला

#पंकज_राय #शक्तिफार्म के हैं,जो 46 साल से #रामलीला में श्रवण कुमार की भूमिका निभा रहे हैं #उत्तराखंड में #तराई को#मिनी_इंडिया कहा जाता है इसकी सांस्कृतिक विविधता और बहुलता के लिए। पेशे से शिक्षक पंकज बाबू शक्तिफार्म में 1959 में बसाए गए #विभाजन_पीड़ित बंगाली विस्थापित समुदाय के सम्मानित व्यक्ति और प्रेरणा अंशु अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz समाजोत्थान परिवार के परम सहयोगी है। तराई के सभी समुदायों के लोग तराई बसने के समय से आपसी सहयोग, प्रेम का साथ रहते हैं और एक दूसरे की सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। #दिनेशपुर, #शक्तिफार्म, #रुद्रपुर जैसे प्रमुख स्थानों पर दुर्गा पूजा, रामलीला और गरबा के साथ शारदीय उत्सव एक साथ मनाया जाता है। पंकज बाबू ने लिखा है: जब मैं पहली बार श्रवण कुमार की भूमिका में अभिनय किया था, तब मैं हाईस्कूल में था और मेरी उम्र 16 वर्ष की थी। रामलीला कब प्रारंभ हुई या सही तिथि तो नहीं बता सकता,लेकिन पचपन साल से अधिक समय से रामलीला शक्तिफार्म में हो रही है।इसके संस्थापक स्वर्गीय शंकर सिंह चाचा जी थे। शक्तिफार्म में सभी भाषा भाषाएं के कलाकारों द्वारा हिंदी में रामलीला खेली जाती है, जिसमें मैं स्वयं पंकज राय सन 1980 से श्री रामलीला में अभिनय कर रहा हूं। सबसे पहले वर्ष 1980 में श्रवण कुमार और लक्ष्मण की भूमिका में अभिनय किया। कई सालों तक करते रहे। उसके बाद राम और श्रवण कुमार का अभिनय किया। फिर भरत और श्रवण कुमार का अभिनय किया। बीच-बीच में चरित्र अभिनेता और अभिनेत्री की भी भूमिका निभाई। रामलीला के पुराने कलाकारों में देवेंद्र मेहरोत्रा, जयन्त मंडल, मनोज राय, अशोक मंडल,विजय बागला,विजय सिंह, विपिन डालमिया, मनोहर लाल गाबा,निहाल सिंह और भी अनेक कलाकारों द्वारा रामलीला मंचन किया जाता है। सबके नाम है बात नहीं पा रहा हूं। जयंत मंडल पिछले 29 सालों से रावण की भूमिका निभा रहे हैं। देवेंद्र मेहरोत्रा भी 40 साल से अधिक समय से दशरथ की भूमिका निभा रहे हैं।आप सूर्पनखा की भूमिका बहुत बेहतर निभाते रहे। रवींद्र अग्रवाल, जगन अग्रवाल, महेद्र अग्रवाल, राजीव अग्रवाल ये भी पुराने कलाकार रहे। राजकुमार डालमिया, सन्नी मित्तल, स्वरजीत गयाली, दुलाल सरकार नरेश अरोरा, सुरेश सिंह आदि भी पुराने कलाकार रहे। वर्तमान में सुमित मंडल (वर्तमान नगर पंचायत अध्यक्ष),राजकुमार डालमिया, नितिन गुप्ता, नितिन जिंदल,शिवम रस्तोगी, रमन जायसवाल, प्रेम अरोरा, पांचू भाई मंच पर मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। शंकर चाचा के जाने के बाद पर्दे के पीछे मुख्य भूमिका संजय गुप्ता निभा रहे हैं। कई वर्षों से व्यवस्थापकों में अजय जायसवाल, दीपक कालरा, राघव सिंह रहे। यह हमारी गौरवशाली विरासत है।इसे बचाए रखने की जरूरत है। इस पोस्ट को पढ़कर लाइक और शेयर जरूर करें ताकि इस सद्भावना और प्रेम की सुगंध दसों दिशाओं में फैले। यह बेहद जरूरी है।

কলকাতার মৃত্যুঘণ্টা

কলকাতার মৃত্যুঘণ্টা কি বেজে গেলো? আপাতত টিভি আর খবরের কাগজ খুললেই দেখা যাচ্ছে, বন্যায় ভেসে যাচ্ছে দক্ষিণবঙ্গ। দামোদর, অজয়, দ্বারকেশ্বর, রূপনারায়ণ—রাঢ়বঙ্গের আপাত নিরীহ নদীগুলি রীতিমত ফুঁসছে! কলকাতায় কিছুদিন আগে অবধি বিভিন্ন জায়গায় জল জমে ছিল, সেই জল থেকে তড়িদাহত হয়ে দু’টি শিশুর মর্মান্তিক মৃত্যু ঘটল। সবাই দেখছেন, হইহই করছেন, ফেসবুকে ‘দুয়ারে দীঘা’, ‘লন্ডন বানাতে গিয়ে ভেনিস’ ইত্যাদি ক্যাপশন জুড়ে দিচ্ছেন। কিছুদিন আগে আনন্দবাজারের ভেতরের পাতায় একটা ছোট্ট খবর বেরিয়েছিল। “বেআইনি দখলদারির চোটে আন্তর্জাতিক মর্যাদা হারানোর আশঙ্কা পূর্ব কলকাতা জলাভূমির”। কেউ দেখেছিলেন এবং সেই নিয়ে হইচই করেছিলেন বলে মনে পড়ে না। এইভাবেই সামনে আসে ফলাফল, পেছনে থেকে যায় কারণগুলো। জলাভূমিতে ভৌতিক রহস্য বা আলেয়ার গল্প আমরা ছোটবেলায় অনেক শুনেছি! কিন্তু গোটা জলাভূমিটাই যদি হয়ে ওঠে এক রহস্য? এরকমই এক রহস্যময় জলাভূমি হল ‘পূর্ব কলকাতা জলাভূমি’। যারা নলবন বা নুনের ভেড়িতে শীতকালে সামান্য উষ্ণতার খোঁজে পিকনিক করতে যান, তারা হয়ত জানেনই না, জায়গাটা একটি আন্তর্জাতিকভাবে সংরক্ষিত ‘সাইট’; শুধু তাই নয়—বাংলা বা ভারতে নয়, সারা পৃথিবীরই একটি বিরল বিস্ময়! খুব সামান্য কয়েকজন হয়ত নামটা জানেন—‘রামসার সাইট!’ জলাভূমি সংরক্ষণ নিয়ে পৃথিবীর অন্যতম শীর্ষ আন্তর্জাতিক চুক্তি। ইরানের একেবারে উত্তরে, কাস্পিয়ান সাগরের তীরে পাহাড়ে ঘেরা রুক্ষ ছোট্ট শহর রামসার, হাজার তিরিশ মত লোকের বসবাস। ১৯৭১ সালের জানুয়ারি মাসে এখানেই বসেছিল জলাভূমি নিয়ে এক আন্তর্জাতিক বৈঠক। তখনও ইরান শাহের অধীনে। ইরান সরকার বৈঠকের আমন্ত্রণ জানিয়েছিলেন, প্রাথমিকভাবে ঠিক ছিল বৈঠক হবে কাস্পিয়ান সাগরের তীরে অন্য এক শহরে—নাম বাবোলসার। কিন্তু ১৯৭০ সালের এপ্রিল মাসে সিদ্ধান্ত বদলে বৈঠক সরিয়ে নিয়ে যাওয়া হয় ১৭৫ কিলোমিটার পশ্চিমে, রামসারে। মাত্র ১৮ টি দেশ প্রতিনিধি পাঠিয়েছিল, আশ্চর্যজনকভাবে, তাতে ছিল ভারতও। তখন রামসারে এয়ারপোর্টও ছিল না। তেহরানে সবাই জমায়েত হলেন, তারপর গাড়িতে করে নিয়ে যাওয়া হল প্রায় আড়াইশো কিলোমিটার দূরে। সম্মেলন শুরু করলেন খোদ ইরানের রাজপুত্র, আবদুল রেজা পহলভী। ৩ ফেব্রুয়ারি সেই সম্মেলনে একটি আন্তর্জাতিক অঙ্গীকার স্বাক্ষরিত হল—যে শহরের নামও কেউ জানত না, সেই শহরের নামে তার নাম হয়ে গেল ‘রামসার কনভেনশন অফ ওয়েটল্যান্ডস’। বর্তমানে এর সদস্যসংখ্যা ১৭১, সদর দফতর সুইজারল্যান্ডে। বর্তমান ভারতে রামসার সাইটের সংখ্যা চল্লিশের বেশি। তালিকায় আছে চিলিকা হ্রদ, মণিপুরের লোকটাক হ্রদ, কোল্লেরু হ্রদ, লোনার ক্রেটার, ভিতরকণিকা, কাশ্মীরের উলার হ্রদ। পশ্চিমবঙ্গ থেকে আছে দু’টি। দ্বিতীয়টি আয়তনে ভারতের বৃহত্তম রামসার সাইট—সুন্দরবন। সুন্দরবন বহুল আলোচিত, চর্চিত এবং দর্শিতও। সারা বছর দেদার লোক বেড়াতে যান, পাঠ্যবইতে বাচ্চারাও পড়ে সুন্দরবনের গুরুত্ব। কিন্তু পশ্চিমবঙ্গের প্রথম রামসার সাইটটি আমাদের চোখের সামনেই যেন অদৃশ্য হয়ে রয়েছে। অদৃশ্যই বটে। কারণ আজ থেকে মাত্র তিরিশ বছর আগেও পুরোটাই ছিল রহস্যে ঘেরা। কীরকম রহস্য? প্রকৃতির এক বিচিত্র রহস্য! ভৌগলিকভাবে কলকাতা ভারতের অন্যতম নিচু শহর। সমুদ্রপৃষ্ঠ থেকে মাপলে চার-পাঁচ মিটারও হবে কিনা সন্দেহ! কলকাতার পশ্চিমে গঙ্গা, অথচ শহরের ঢাল পুবে। প্রতিদিন শহরে প্রায় সাতশো মিলিয়ন লিটার তরল বর্জ্য উৎপন্ন হয়। পৃথিবীর বিভিন্ন বড় বড় শহরে এই পরিমাণ বর্জ্যকে সাফাই করার জন্য কোটি কোটি টাকা খরচ করে নিকাশি প্ল্যান্ট তৈরি করা হয়। কলকাতায় এমন একটিও ‘প্ল্যান্ট’ নেই। ছিলও না কোনোকালে। শহরও অত্যন্ত নিচু অববাহিকায়। তারপরেও, নোংরা জলে সেরকম বিশাল মাপের দূষণের কোনও খবর আসে না। তাহলে ওই অতখানি নোংরা জল যায় কোথায়? ওপরের পুরো প্রশ্নটা আসলে বর্তমানকালের নয়, হবে অতীতের হিসেবে। সময়টা আশির দশক। প্রশ্নটা ঘুরপাক খাচ্ছিল একজন সরকারি অফিসারের মাথায়। তিনি ধ্রুবজ্যোতি ঘোষ। পেশায় রাজ্য সরকারের ইঞ্জিনিয়ার, কলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্র—ইঞ্জিনিয়ারিং-এর পাশাপাশি রীতিমত ইকোলজি বা বাস্তুবিদ্যায় পিএইচডি। রাজ্যে তখন সদ্য এসেছে বামফ্রন্ট সরকার। তাদেরই নির্দেশে এই প্রশ্নের উত্তর খুঁজতে নেমে পড়েছিলেন ধ্রুবজ্যোতিবাবু। চারিদিকে অনুসন্ধান চালালেন। নিকাশি প্ল্যান্টের কার্যপদ্ধতি বুঝতে মুম্বইয়ের ‘দাদার সিউয়েজ প্ল্যান্ট’ ঘুরে দেখে এলেন। কিন্তু কোথাও কিছুই জানা গেল না। কলকাতার বর্জ্য জলের নিকাশি কোথায়, কলকাতার কেউ জানে না। সেই জল কোথায় যায়—তাও কেউ জানে না। অন্যান্য শহরে যে জলের নিকাশিতে কোটি কোটি টাকা খরচ হয়, কলকাতায় যেন সেই জল ম্যাজিকের মত ‘ভ্যানিশ’ হয়ে যায়। শেষে একদিন তিনি নেহাতই ঘটনাচক্রে নিকাশি নালা আর খাল ধরে এগনো শুরু করলেন। দেখতে চান, নালাগুলো যায় কোথায়! এই উত্তর খুঁজতে গিয়েই ধ্রুবজ্যোতিবাবু হাজির হলেন কলকাতার পুবপ্রান্তের এই জলাভূমিতে। আপাতভাবে দেখলে মনে হয় জলাজমি—আমাদের ভাষায়, ‘নুনের ভেড়ি’—কোনো কাজে আসে না। তখন ওইসব এলাকা একেবারেই অনুন্নত, সামান্য রাস্তাঘাটও নেই। কিন্তু সেখানেই ধ্রুবজ্যোতিবাবু পরীক্ষানিরীক্ষা চালানো শুরু করলেন। ফলাফল দেখে রীতিমত ‘চক্ষু চড়কগাছ’ অবস্থা। দ্য গার্ডিয়ান পত্রিকাকে দেওয়া এক সাক্ষাৎকারে ধ্রুবজ্যোতিবাবু জলের মতই সহজ করে ব্যাখ্যা দিয়েছিলেন। “বর্জ্যজল আসলে কিছুই না, ৯৫% জল এবং ৫% জীবাণু। এই বিশাল জলাভূমিতে ওই বর্জ্যজলের জীবাণু জলজ বাস্তুতন্ত্রে শৈবাল ও মাছের খাদ্যে পরিণত হয়। ফলে স্রেফ প্রাকৃতিক বাস্তুতন্ত্রেই সূর্যালোকের অতিবেগুনি রশ্মির সাহায্যে ও সালোকসংশ্লেষ প্রক্রিয়ায় পুরো জল পরিশুদ্ধ অবস্থায় চলে আসে, বিপুল মাছের ভাণ্ডার তৈরি করে—পুরোটাই সম্পূর্ণ বিনামূল্যে—বিন্দুমাত্রও শোধন করাতে হয় না!” প্রায় একার চেষ্টায় ধ্রুবজ্যোতিবাবু কলম্বাসের মত নতুন করে আবিষ্কার করেছিলেন শহরের পুবপ্রান্তের এই বিশাল জলাভূমিকে। যদিও ব্যাপারটা বিশ্বাস করাতে বিস্তর কাঠখড় পোড়াতে হয়েছিল তাঁকে। ততদিনে সেই অগভীর জলাভূমির বেশ খানিকটা ভরাট করে সল্টলেক তৈরি হয়ে গিয়েছে। তৎকালীন বাংলার মুখ্যমন্ত্রী বিধানচন্দ্র রায় দূরদৃষ্টিসম্পন্ন ছিলেন। তবে জলাভূমির গুরুত্বটা তিনিও বুঝতে পারেননি। তবু গঙ্গা থেকে পলি তুলে সেই লবণ হ্রদের প্রায় অর্ধেকটা ভরাট হয়েছিল, বাকিটা ডাক্তার রায় ছেড়ে রেখে দেন। ডাচ সংস্থা নেডেকো ও একদল যুগোস্লাভ ইঞ্জিনিয়ার দুর্দান্ত পরিকল্পনা করে নগর ‘ডিজাইন’ করেছিলেন। ১৯৭২ সালে জাতীয় কংগ্রেসের বার্ষিক অধিবেশন বসেছিল সল্টলেকে, সভাপতি ছিলেন ভাবী রাষ্ট্রপতি শঙ্করদয়াল শর্মা। প্রধানমন্ত্রী ইন্দিরা গান্ধীর থাকার জন্য তৈরি হয়েছিল ছোট্ট একটি বাংলো, নাম দেওয়া হয় ‘ইন্দিরা ভবন’। কিন্তু সেই ইন্দিরা ভবনের পরবর্তী বাসিন্দা—মুখ্যমন্ত্রী জ্যোতি বসু—ক্ষমতায় আসতেই গোলমাল শুরু হয়। ডাঃ রায় ইউরোপের ইঞ্জিনিয়ারদের দিয়ে এলাকা পরীক্ষা করিয়েছিলেন, কিন্তু বিলেত-ফেরত জ্যোতিবাবুর অত ধৈর্য ছিল না। ফলে সল্টলেকের আকার বাড়তে শুরু করল, শুরু হয় অনিয়ন্ত্রিত নগরায়ণ। তখন জোর যার মুলুক তার। প্রোমোটারি শক্তি পাখনা মেলছে। ১৯৯০ সাল নাগাদ জ্যোতিবাবুর সরকার ঘোষণা করেন—ওই জলাভূমি বুজিয়ে একটা বিশাল বড় বাণিজ্যকেন্দ্র স্থাপন করা হবে। রাজ্য সরকারের কর্মী ধ্রুবজ্যোতিবাবু চাইলেও তার বিরোধিতা করতে পারবেন না। অতএব তাঁর পরামর্শে হাইকোর্টে মামলা করল একটি স্বেচ্ছাসেবী সংস্থা 'PUBLIC' (People United for Better Living in Calcutta)। ১৯৯২ সালে দেশের অন্যতম প্রথম পরিবেশবান্ধব রায়টি দিয়েছিল কলকাতা হাইকোর্ট—বিচারপতিরা ঘোষণা করলেন, ওই জলাভূমি বোজানো চলবে না, তাকে সংরক্ষণ করতে হবে। ততদিনে জলাভূমি সংরক্ষণেই মনপ্রাণ সঁপে দিয়েছেন ধ্রুবজ্যোতি ঘোষ। সরকারকে বোঝানোর বহু চেষ্টা করেছিলেন। সটান মুখ্যমন্ত্রীর কাছে গিয়ে দরবার শুরু করেন তিনি। একদিন মুখ্যমন্ত্রীকেই তিনি নিয়ে যান সেখানে। তারপর জলের গুরুত্ব ও প্রাকৃতিক বিশুদ্ধতা বোঝাতে মুখ্যমন্ত্রীর সামনেই সেই তথাকথিত ভেড়ি বা নোংরা জলাভূমি থেকে এক গ্লাস জল তুলে ঢকঢক করে খেয়ে নেন। হাঁ হাঁ করে ওঠেন মুখ্যমন্ত্রী। আশেপাশে যাওয়ার মত কোনও পায়খানাও নেই। পেটখারাপ অনিবার্য। কিন্তু কিছুই হল না। ধ্রুবজ্যোতিবাবু দেখিয়ে দেন, ওই জল খেলেও কিছুই হবে না। ওই জল প্রাকৃতিকভাবে পরিশুদ্ধ। সম্ভবত—ওই জলাভূমি পৃথিবীর সবচেয়ে বড় প্রাকৃতিক জলশোধক! লেখালেখি করতে ভালবাসতেন ধ্রুবজ্যোতি ঘোষ। শুরু করেন পূর্ব কলকাতার জলাভূমি নিয়ে আন্তর্জাতিক মহলে লেখালেখি। তাঁরই প্রায় একক চেষ্টায় খবর পৌঁছয় সুইজারল্যান্ডে, আন্তর্জাতিক জলাভূমি সংরক্ষণ সংস্থার দফতরে। আসেন বিদেশী বিশেষজ্ঞরা। অবাক হয়ে গিয়েছিলেন সকলেই। কারণ এরকম প্রাকৃতিক শোধন ভারত কেন, গোটা দুনিয়াতেও দ্বিতীয়টি নেই। নিজেদের জ্ঞাতে বা অজান্তেই ইংরেজরা এমন একটি জায়গাকে নিজেদের উপনিবেশের রাজধানী বানাতে বেছে নিয়েছিল, যার একদিকে গঙ্গার প্রবাহ, অন্যদিকে প্রাকৃতিক জলাভূমি। কলকাতা ময়দান যদি কলকাতার ফুসফুস হয়, তাহলে এই জলাভূমিই হবে তার কিডনি। অবশেষে ২০০২ সালে এল সেই সুখবর। পশ্চিমবঙ্গের প্রথম ‘রামসার সাইট’ হিসেবে আন্তর্জাতিকভাবে স্বীকৃত হল এই পূর্ব কলকাতা জলাভূমি। স্বীকৃতি এলেও ধ্বংসলীলা থামেনি, চলেছে বছরের পর বছর ধরে। প্রায় তিরিশ হাজার মানুষের জীবিকা সরাসরিভাবে জড়িত এই জলাভূমির সঙ্গে। আজও আমরা জানিই না, রোজ গরম গরম ভাতের সঙ্গে পাতে যে মাছের ঝোল বা ঝাল খাই, তার বেশিরভাগটাই আসে আসলে এই ভেড়ি থেকে। পাশাপাশি, বিপুল পরিমাণ শাকসবজির জোগান দেয় এই এলাকা। স্রেফ এই কারণেই ভারতের সমস্ত মহানগরের মধ্যে বাজার খরচের ব্যাপারে সবচেয়ে সস্তা আমাদের কলকাতা। পাশাপাশি, বিপুল পরিমাণ অক্সিজেনের জোগানও দেয় এই জলাভূমি। কার্যত একটি পয়সাও খরচ না করে দূষিত জল নিয়ে সে ফেরত দেয় টাটকা জল, মাছ, শাকসবজি, অক্সিজেন। এবং এর সবচেয়ে রহস্যময় ভূমিকা হল বন্যা নিয়ন্ত্রণ। যে বিপুল পরিমাণ জলে প্রতিদিন ভেসে যেতে পারত কলকাতা, তার বেশিরভাগটাই টেনে নেয় এই জলাভূমি, তারপর অবশিষ্ট চলে যায় বিদ্যাধরী নদীতে। তাই অন্তত বছর দশেক আগে অবধি মুম্বই বা চেন্নাই নিয়মিত বন্যায় ভেসে গেলেও দিব্যি টিকে যেত কলকাতা। আজ ভেঙে পড়েছে পুরো ব্যবস্থাটাই। চলছে যথেচ্ছ প্রোমোটিং, জলাভূমি ভরাট, নগরায়ণ। চলছে দূষণ। ফলে নজিরবিহীন সংকটের মুখে পূর্ব কলকাতার এই জলাভূমি। প্রকৃতি সামান্য রুষ্ট হলেই আজ ভেসে যাচ্ছে কলকাতা। জমা জলে দুর্গন্ধ ছড়াচ্ছে, জলবাহিত ও মশাবাহিত রোগ বাড়ছে। অজানা জ্বরে হাসপাতাল উপচে পড়ছে। ড্রেনগুলো অবরুদ্ধ। জলে তড়িদাহত হচ্ছেন সাধারণ মানুষ। রোজকার সান্ধ্য আড্ডায় উঠে আসে অনেক ভারি ভারি প্রসঙ্গ—লকগেট কখন খুলবে, কর্পোরেশন পাম্প চালাচ্ছে না কেন ইত্যাদি। অথচ এইগুলোর কোনোটাই যে স্থায়ী সমাধান নয়, তা আমজনতা বুঝতে চান না, রাজনীতিবিদরা বুঝতে দেন না। কারণ বুঝতে দিলে তাঁদের বিপদ। রাজনীতির নেতাদের ব্যবসাটাই দাঁড়িয়ে আছে এই জলাভূমি ভরাটের ওপর। পূর্বতন বাম জমানায় যা ছিল, বর্তমান ঘাসফুল জমানায় তা তেড়েফুঁড়ে বেড়েছে। সরকারের হেলদোল নেই। সম্ভবত সরকার যারা চালান, তাঁদের এতটা গভীরে গিয়ে ভাবার মতও বিদ্যে নেই। বা বলা ভাল, ভাবার দরকারও নেই। এই পাম্প করে জল বের করা বা রাস্তা খুঁড়ে বছরের পর বছর পাইপ বসিয়ে চলা বা লকগেটের ওপর নির্ভর করা—এগুলি সবই আসলে ‘ডায়ালিসিস’ পদ্ধতি। যে পদ্ধতিতে কৃত্রিমভাবে রক্ত পরিশোধন করে কিডনির কাজ চালানো হয়। সকলের অলক্ষ্যে ক্রমশ পাঁক জমে, দূষিত ও বিষাক্ত রাসায়নিক জমে ও ভরাট হয়ে বিকল হয়ে পড়ছে কলকাতার আসল সেই ‘কিডনি’—এই জলাভূমি। জলাভূমি নিয়ে আন্দোলন আমৃত্যু চালিয়ে গিয়েছেন ধ্রুবজ্যোতি ঘোষ। একাধিক বই লিখেছেন, তার মধ্যে ‘ইকোলজি অ্যান্ড ট্র্যাডিশনাল ওয়েটল্যান্ড প্র্যাকটিস’ বইটি কার্যত এই বিষয়ের ‘ইউজার ম্যানুয়াল’ হতে পারে। বইটি সম্ভবত আজ আর পাওয়া যায় না। অত্যন্ত যত্নের সঙ্গে জলাভূমি বা ‘ওয়েটল্যান্ড’-এর সংজ্ঞা, ব্যবহার, বিস্তার, প্রায়োগিক দিক ইত্যাদি সবই ব্যাখ্যা করেছিলেন তিনি। ২০০৫ সালে প্রকাশিত এই বইটিতে মুখবন্ধ লিখে দিয়েছিলেন ভারতের এক প্রখ্যাত কৃষিবিজ্ঞানী। লিখেছিলেন—“...অমর্ত্য সেনের ‘ওয়েলফেয়ার ইকনমিক্স’-এর মতই ধ্রুবজ্যোতি ঘোষের এই আন্দোলনের নাম দেওয়া যেতে পারে ‘ওয়েলফেয়ার ইকোলজি’...”। লেখক—ভারতীয় সবুজ বিপ্লবের জনক প্রোফেসর এম এস স্বামীনাথন। দূর্ভাগ্য যে, তাঁর কথা অমান্য করার ফল কী হতে পারে, তা বহু আন্তর্জাতিক সম্মানে সম্মানিত ধ্রুবজ্যোতি ঘোষ আর দেখে যেতে পারলেন না। ২০১৮ সালেই তিনি আমাদের ছেড়ে চলে যান। ---------------- ক্ষমা করবেন, লেখকের নাম জানা নেই, যিনি লিখেছেন ভীষণ বাস্তব চিত্র তুলে ধরেছেন। অবশ্যই কমেন্ট করবেন আপনাদের সুস্মিতা। #everyone

लाखों फुटपाथ और लावारिश गरीब बस्तियों के रहवासियों का क्या?

कोलकाता में जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। इस देश में नदियों,झीलों,तालाबों को पाटकर जो अंधाधुंध शहरीकरण हुआ है,उसका नतीजा है देहरादून डूबा। अब कोलकाता डूब गया। बादल फटने की खबर की पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन नतीजा और असर, व्यापकता बादल फटने जैसा रहा है। ,गरीब बस्तियां के कोलकाता में 27 साल रहा। जनसत्ता का दफ्तर मुंबई रोड पर महानगर से बाहर एक्सप्रेस भवन बनने से पहले राइटर्स बिल्डिंग,लाल बाजार और राजभाव के बीच था इंडियन एक्सप्रेस समूह का दफ्तर।संपादकीय की नौकरी दैनिक अखबार में। हर साल लाल बाजार और धर्मतल्ला में सड़क नदी बन जाती हैं। गटर खुला रहता हैं। पानी में बिजली आ जाती है। ट्रेन,बस,मेट्रो से उतरकर 1991 से रिटायर होने से कुछ समय पहले तक कोलकाता का बरसात में नजारा कमोबेश यही है। कमर तक गंदे पानी और गटर में से होकर जन हथेली में लेकर दफ्तर पहुंचना होता था।लौटते वक्त जरूर दफ्तर की गाड़ी कोलकाता परिक्रमा करके घर पहुंचा आती है। घरों में लोग सुरक्षित हैं,उन लाखों लोगों के बारे में सोचिए जो फुटपाथ पर रहते हैं, नदी नाले झील तालाब और रेलवे ट्रैक पर बसी बस्तियों में रहते हैं। हर साल रात रात भर इस त्रासदी को जिया है। दुर्घटसव के दौरान भी कितनी ही बार। रिटायर हुआ 2016 में।कोलकाता छोड़ा 2018 में। वाम का शासन देखा।दीदी का राज देखा अब भी दीदी की प्रजा है बेबस जनता। कोलकाता नहीं बदला। जलमग्न तो हर साल होता है। जलसमाधि से पहले कुछ नहीं बदलेगा। बाकी महानगर और दूसरे शहर बदलेंगे? https://www.facebook.com/share/p/1Ktfyd83ta/

ছয় রিপু

ছয় রিপু (বা ষড়রিপু) হলো মানব মনের ছয়টি শত্রু বা প্রবৃত্তি, যা হলো: কাম (ইচ্ছা/লালসা), ক্রোধ (রাগ), লোভ (লোভ), মদ (অহংকার), মোহ (আসক্তি), এবং মাৎসর্য (ঈর্ষা)। এই রিপুগুলো মানুষকে মোক্ষ লাভে বাধা দেয় এবং জন্ম-মৃত্যুর চক্রে আবদ্ধ রাখে বলে হিন্দুধর্মে বিশ্বাস করা হয়। এই ছয়টি রিপু নিচে বিস্তারিতভাবে দেওয়া হলো: কাম (Kama): এটি হলো তীব্র ইচ্ছা বা লালসা, যা মানুষকে বস্তুজগতের প্রতি আসক্ত করে তোলে। ক্রোধ (Krodha): এই রিপুটি হলো মানুষের মনে জাগা তীব্র রাগ বা অসন্তোষের অনুভূতি। লোভ (Lobha): এটি হলো কোনো কিছুর প্রতি অত্যধিক আকাঙ্ক্ষা বা নিজের যা আছে, তার প্রতি অসন্তোষ, অর্থাৎ গ্রাস করার প্রবৃত্তি। মদ (Mada): এই রিপুটি অহংকার বা দম্ভের প্রতীক, যা মানুষকে নিজের শক্তি ও ক্ষমতা নিয়ে গর্বিত করে তোলে এবং অন্যদের ছোট করে দেখার প্রবণতা সৃষ্টি করে। মোহ (Moha): এটি হলো কোনো কিছুর প্রতি অতিরিক্ত আসক্তি, বিশেষ করে মায়ার প্রতি আসক্তি, যা মানুষকে বাস্তবতার সঠিক বিচার করতে বাধা দেয়। মাৎসর্য (Matsarya): এটি হলো অন্যের ভালো দেখতে না পারা বা ঈর্ষা করার মানসিকতা। নিজের সম্পত্তি বা অন্য বস্তুকে আঁকড়ে ধরে রাখা এবং অন্যের সাথে ভাগ করে নিতে অনিচ্ছুক হওয়াকেও এর অন্তর্ভুক্ত করা হয়। ষড়রিপু দমন বা নিয়ন্ত্রণ করতে পারলে আত্মশুদ্ধি লাভ করা যায় এবং মোক্ষ প্রাপ্তির পথে এগিয়ে যাওয়া সম্ভব হয় বলে হিন্দু শাস্ত্রে বলা আছে। আপনি কি মনে করেন?

Thursday, September 25, 2025

दस्तावेज क्यों सबसे जरूरी?

#वंचितों,#विस्थापितों को अपने हक हासिल करने हैं तो #कानूनी_आधार मजबूत करना जरूरी है। कानूनी आधार के लिए #दस्तावेज तैयार करने होंगे।#इतिहास जानना होगा और अपने दावों के पक्ष में #प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे। समस्या यह है कि वंचित और विस्थापित लिखते पढ़ते नहीं हैं तो दस्तावेज तैयार नहीं कर सकते। उन्हें इतिहास,भूगोल, समाज, राष्ट्र व्यवस्था, राजनीति और राजकाज, अर्थव्यवस्था का जान होता नहीं है। उनका सही #राजनीतिकप्रतिनिधित्व भी नहीं होता। इसलिए वे #बंधुआ_वोटबैंक बनकर सरकारी अनुकम्पा और अनुदान पर निर्भर #परजीवी बन जाते हैं। जो पढ़े लिखे लोग हैं, उनकी #जन_इतिहास में दिलचस्पी नहीं होती। दस्तावेज तैयार करने की जरूरत भी नहीं महसूस करते। पिछलग्गू बनकर पद, प्रतिष्ठा, नौकरी और सुविधाएं, धन दौलत, ऐशोआराम की आंधी दौड़ में उनकी जिंदगी बीत जाती है।ऐसे तमाम लोग #सत्ता_राजनीति में स्वाहा हो जाते हैं। विस्थापित,वंचित तबके की मेधा उनके कम में नहीं आती।उनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता। इन्हीं मुद्दों पर सुजय और सजल से चर्चा हुई आज। आज सुबह दो युवा साथी प्रेरणा अंशु के दफ्तर में हमसे मिलने आए।इन दिनों अक्टूबर अंक की तैयारी में हम व्यस्त है,लेकिन कल शाम को ही किशोर मनी ने फोन कर दिया था कि खानपुर नंबर एक से सुजय और संजयनगर महतोष से सजल जरूरी चर्चा के लिए आने वाले हैं। हम उन्हें ज्यादा वक्त नहीं दे पाए। संवाद जारी रखने की बात जरूर की। इसका नतीजा हुआ कि वे Rupesh Kumar Singh की बहुचर्चित विस्थापित बंगाली समाज की आपबीती पर लिखी पुस्तक छिन्नमूल का दूसरा संस्करण खरीदकर ले गए। पहला संस्करण वे पढ़ चुके। उन्होंने गीताजी के हाथों से यह पुस्तक ली। वे विस्थापन के यथार्थ और पुनर्वास की लड़ाई पर केंद्रित हमारी पुस्तक #पुलिनबाबू भी ऑनलाइन अमेजन से मांगा रहे हैं।दोनों किताबें #amazon पर उपलब्ध है। फोटो:#आयुषी

Tuesday, September 23, 2025

Our people settled in Diglipur, Andmsm

डिगलीपुर Diglipur,अंडमान में भी हमारे लोगों का पुनर्वास हुआ डिगलीपुर भारत के अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में उत्तरी अंडमान द्वीप पर स्थित एक शहर है। यह पोर्ट ब्लेयर से लगभग 298 किलोमीटर उत्तर में, एरियल खाड़ी के किनारे बसा है। डिगलीपुर अपने प्राकृतिक सौंदर्य जैसे कि रॉस और स्मिथ द्वीपसमूह, अल्फ्रेड गुफाएँ, मड ज्वालामुखी और सैडल पर्वत के लिए प्रसिद्ध है। उत्तरी और मध्य अंडमान निकोबार द्वीप समूह में पहाड़ों और घने जंगलों के बीच पूर्वी बंगाल के विभाजनपीडित विस्थापितों को बसाया गया। सुनामी की जद में हैं ये द्वीप समूह। As per the population census in 2011, the total number of households listed under Diglipur tehsil was 10,702. दिनेशपुर हाईस्कूल में 1967 से 1970 तक मेरे अंतरंग मित्र थे विष्णु पद मंडल। जो दिनेशपुर से समुद्र लांघकर अंडमान के डिगलीपुर में बस गए।अस्सी या नब्बे के दशक में।तब मैं धनबाद में था या कोलकाता में,याद नहीं आ रहा।क्योंकि स्कूल के बाद नैनीताल पढ़ते वक्त उससे दिनेशपुर में मुलाकात हो जाती थी।धनबाद जाने के बाद उससे कभी मुलाकात नहीं हुई। हमने मिलकर किशोरों की एक संस्था का गठन किया था। नवीन संघ उस संस्था का नाम था।तब हम सातवीं में पढ़ते थे,तब नवीन संघ का गठन हुआ।अध्यक्ष थे मेरे दिवंगत मित्र कृष्णपाद मंडल। उसके नेतृत्व में प्रायमरी में पढ़ते हुए बसंतीपुर में नवीन संघ बना था,जिसमें Nityanand Mandal की बड़ी भूमिका थी।बसंतीपुर में हमारे साथ के सभी लड़के नवीन संघ में शामिल थे। हाईस्कूल में इसे पूरे तराई में विस्तृत करने की योजना थी। तराई नवीन संघ के दो उपाध्यक्ष थे विश्वेश्वर मंडल और विष्णुपद मंडल।कोषाध्यक्ष नित्यानंद थे। 1970 में जब हम आठवीं में थे तो छमाही की परीक्षा में बांग्ला का प्रश्नपत्र हिंदी देवनागरी लिपि में देने के विरुद्ध हमने हड़ताल कर दी थी। इस हड़ताल के नेतृत्व में मैं था।जिला परिषद संचालित इस स्कूल के संचालक मंडल में पिताजी पुलिनबाबू थे,जो हड़ताल के खिलाफ थे। मुझे उन्होंने त्याज्य पुत्र घोषित कर दिया। मेरे सारे सहपाठी और सारे सीनियर मेरे साथ थे।विष्णुपद तब रात दिन मेरे साथ होते थे। क्योंकि तीन महीने तक मैं बसंतीपुर नहीं लौटा और हर रोज किसी न किसी दूसरे गांव में बिताता था। इसी दौरान मैं राधाकांतपुर में विष्णु के ससुराल में भी रहा। उसका गांव मकरंदपुर में था।लेकिन वह बचपन में ही घर जमाई बनकर रहता था। विष्णु राधाकांतपुर में पत्नी और बच्चों को छोड़कर अंडमान चला गया और वहां दूसरी शादी कर ली डिगलीपुर में।पति पत्नी दोनों ज्योतिषी हैं। उनकी कोई संतान नहीं है। हाल में पहली पत्नी के निधन के बाद वह दिनेशपुर लौटा।छह महीने रहा।कब आया,कब गया मालूम नहीं चला।इतने अरसे बाद आया और मुलाकात नहीं हुई। अफसोस। Languages Bengali is the most spoken language in Diglipur tehsil. As of 2011 census, Bengali is spoken as the first language by 72.05 per cent of the tehsil's population. Largest language populations in Diglipur are: Bengali 31,113 Sadri 4,189 Kurukh 1,622 Hindi 1,485 Telugu 1,335 Tamil 1,314 Malayalam 791 Kharia 473 Munda 332. [3] विकिपीडिया के मुताबिक Diglipur (sometimes spelled Diglipore) is the largest town of North Andaman Island, in the Andaman Archipelago, India. It is located on the southern side of Aerial Bay, at 43 metres (141 feet) above sea level, 298 kilometres (185 miles) north of Port Blair. It is crossed by the Kalpong River, the only river of the Andaman islands. Saddle Peak, the highest point in the archipelago,[2] lies about 10 km to the south. Diglipur is also a county (tehsil) of the North and Middle Andaman District of the Andaman and Nicobar Islands union territory. Its area is 884 km2, and its population was 42,877 people as of 2001.[2] डिगलीपुर की प्रमुख विशेषताएँ: भौगोलिक स्थिति: यह उत्तरी अंडमान द्वीप पर स्थित है और कलपोंग नदी यहाँ से गुजरती है, जो इस द्वीपसमूह की एकमात्र नदी है। पर्यटन स्थल: रॉस और स्मिथ द्वीपसमूह: ये दो द्वीप एक पतले रेत के टीले से जुड़े हुए हैं, जो देखने लायक एक जादुई नज़ारा है। अल्फ्रेड गुफाएँ: ये चूना पत्थर की गुफाएँ हैं जहाँ खाद्य स्विफ्टलेट्स (एक प्रकार का पक्षी) अपने घोंसले बनाते हैं। मड ज्वालामुखी: श्याम नगर में निष्क्रिय और सक्रिय मड ज्वालामुखी देखे जा सकते हैं। सैडल पर्वत: अंडमान द्वीपसमूह की सबसे ऊँची चोटी, सैडल पर्वत डिगलीपुर के पास स्थित है। https://www.facebook.com/share/r/1AzsEPxXqo/

Sunday, September 21, 2025

Refugees settled in Kolkata, Delhi,Mumbai and towns countrywide

The majority of East Bengali refugees settled in the city of Kolkata (Calcutta) and various other towns and rural areas of West Bengal, but a significant number also moved to the Barak Valley of Assam and the princely state of Tripura which eventually joined India in 1949. Around 0.5 million were also settled in other parts of India, including the East Pakistan Displaced Persons' Colony (EPDP) in Delhi (subsequently renamed Chittaranjan Park), Odisha, Madhya Pradesh, Bihar and Chhattisgarh. The estimated 0.5 million Bengalis in Delhi and 0.3 million in Mumbai are also largely East Bengali refugees and their descendants. Following the 1947 Partition of India, millions of Bengali refugees—primarily Hindus fleeing East Pakistan (present-day Bangladesh)—were housed in temporary transit centers and relief camps across India. A large number of these refugees eventually settled in permanent colonies, many of which were created through the forceful occupation of land. The peasants of East Bengal did not want to leave their comfort zone in the east. The mainly bcause the soil in East Bengal was alluvial, the climate heavily humid and cash crops like jute grew abundantly. Besides, the peasants did not have any connections in West Bengal. However, with the onset of communal violence in East Bengal, the fear of death and violence drove many a Hindu peasant to evacuate their lands and move westwards. Transit and temporary camps Initial refugee processing and temporary housing were set up in cities and along border railway lines. Some key examples include: Cooper's Camp: A major transit camp in Ranaghat, Nadia district, which housed tens of thousands of refugees, many of whom were later sent to other states. Dhubulia Camp: Another large camp located in Nadia district, which suffered from poor sanitation and disease. Sealdah Station: Thousands of refugees squatted at this busy Kolkata railway station, turning it into a makeshift camp before the government moved them to other locations. Border Transit Points: Temporary camps were also established at border points such as Petrapole, Hasnabad, and Bongaon to process new arrivals. Permanent Liability (P.L.) Camps: Designed for refugees with disabilities or other conditions preventing them from working, some of these camps, such as one in Ashoknagar, West Bengal, continued to operate for decades.

Saturday, September 20, 2025

भारत विभाजन के शिकार भारतीय नागरिकों को विदेशी किसने बनाया?

भारत विभाजन के कारण पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को कानूनी तौर पर भारत सरकार ने विस्थापित माना है। क्योंकि वे अखंड भारत के भरिए नागरिक हैं और अपने ही देश के दूसरे हिस्सों में आए हैं विस्थापित होकर।जनसंख्या स्थानांतरण के तहत वे भारत आए हैं,इसलिए वे विस्थापित हैं,शरणार्थी नहीं। इस हिसाब से वे भारतीय नागरिक हैं।तो फिर भारत विभाजन के 78 साल बाद भी उनके लिए कोई नीति क्यों नहीं है? कोई कानूनी ढांचा क्यों नहीं है? क्यों उन्हें अस्थाई व्यवस्था के तहत सरकारी और प्रशासनिक आदेशों के तहत नागरिक सुविधाएं दी जाती है? जबकि 1955 के नागरिकता कानून के तहत पाकिस्तान से भारत आए विस्थापितों को नागरिक माना गया है। इस कानून को बदलकर उन्हें घुसपैठी किसने बनाया? भारत में कोई शरणार्थी नीति नहीं है। विभाजन पीड़ित बंगाल और पंजाब के शरणार्थी भी विदेशी कानून के दायरे में हैं। लेकिन कानूनी तौर पर ये विस्थापित हैं।शरणार्थियों के कानूनी अधिकार होते हैं, लेकिन इन्हें शरणार्थी नहीं माना गया।आजादी के बाद से अब तक सरकारी और प्रशासनिक आदेशों के तहत इन्हें पुनर्वास आदि कुछ सुविधाएं जरूर दी गई हैं, लेकिन इन्हें कोई कानूनी अधिकार नहीं दिया गया है। 1947 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से, भारत ने पड़ोसी देशों से शरणार्थियों के विभिन्न समूहों को स्वीकार किया है, जिनमें पूर्व ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों से आए विभाजन शरणार्थी शामिल हैं जो अब पाकिस्तान और बांग्लादेश का गठन करते हैं, 1959 में आए तिब्बती शरणार्थी, 1960 के दशक की शुरुआत में वर्तमान बांग्लादेश से आए चकमा शरणार्थी, 1965 और 1971 में अन्य बांग्लादेशी शरणार्थी, 1980 के दशक से श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी और हाल ही में म्यांमार से आए रोहिंग्या शरणार्थी । [ 1 ] 1992 में, भारत को आठ देशों के 400,000 शरणार्थियों की मेजबानी करते देखा गया था। [ 2 ] केंद्रीय गृह मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार , 1 जनवरी, 2021 तक, तमिलनाडु में 108 शरणार्थी शिविरों में 58,843 श्रीलंकाई शरणार्थी और ओडिशा में 54 शरणार्थी शिविर रह रहे थे। भारत में कोई राष्ट्रीय शरणार्थी नीति या कानून नहीं है। अस्थाई व्यवस्था मानवीय आधार पर हैं। लेकिन भारत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के तहत द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का उपयोग करते हुए पड़ोसी देशों से शरणार्थियों को हमेशा स्वीकार किया है : शरणार्थियों का मानवीय स्वागत किया जाएगा, शरणार्थी मुद्दा एक द्विपक्षीय मुद्दा है और सामान्य स्थिति लौटने पर शरणार्थियों को अपने वतन लौट जाना चाहिए। [ 5 ] औपचारिक कानून की कमी के बावजूद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा शरणार्थी संरक्षण के दायित्व को बनाए रखने के लिए मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा के अनुच्छेद 13 का उपयोग किया है । [ 6 ] भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और उसके 1967 के प्रोटोकॉल का सदस्य नहीं है , न ही उसने शरणार्थियों से व्यापक रूप से निपटने के लिए कोई राष्ट्रीय कानून बनाया है। इसके बजाय, वह शरणार्थियों के साथ मुख्यतः राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर व्यवहार करता है, और उनकी स्थिति और ज़रूरतों से निपटने के लिए केवल अस्थायी व्यवस्थाएँ ही मौजूद हैं। इसलिए, शरणार्थियों की कानूनी स्थिति उन सामान्य विदेशियों से अलग नहीं है जिनकी उपस्थिति 1946 के विदेशी अधिनियम द्वारा नियंत्रित होती है । https://en.m.wikipedia.org/wiki/Refugees_in_India

Thursday, September 18, 2025

আমাদেরই নাগরিকত্বের প্রশ্ন কেন ওঠে?

বাঙালি উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্ব নিয়ে প্রশ্ন কেন ওঠে? পলাশ বিশ্বাস ভারতে শরণার্থী আইন নেই। বিদেশি আইন শরনার্থীদের ক্ষেত্রে প্রযোজ্য। আজ বাংলায় ও বাংলার বাইরে ভারত ভাগের বলি বাঙালিদের নাগরিকত্ব নিয়ে প্রশ্ন কেন ওঠে? এই প্রশ্নের জবাব হল, ad hoc ভাবে জনসংখ্যা হস্তান্তর সমস্যার সমাধান করা ছাড়া উদ্বাস্তু সমস্যার স্থায়ী সমাধান ত দূর, পূর্ব বাংলা থেকে ধর্মীয় নির্যাতনের ফলে ভারতে আসা উদ্বাস্তুদের উদ্বাস্তু মানতে অস্বীকার করে ভারতবর্ষের শাসক শ্রেণী ও ভারত ও পশ্চিম বঙ্গ সরকার। পাকিস্তান থেকে ভারত ভাগের ফলে আহত পাঞ্জাবি, শিখ, বাঙালি ও বার্মিজ শরনার্থীদের আইনি স্ট্যাটাস হল ডিসপ্যালসড , রিফিউজি নয়। পাঞ্জাবি ও শিখ উদ্বাস্তুদের ডিসপ্লেসড স্ট্যাটাস থেকে সরাসরি নাগরিকত্ব দেওয়া হয় পাঞ্জাবি ও পাঞ্জাবি সমস্ত রাজনৈতিক দল ও পাঞ্জাবি জনগনের চাপে। কিন্তু পশ্চিম বঙ্গ সরকার ও পশ্চিম বঙ্গের শাসক শ্রেণী ও সমস্ত রাজনৈতিক দল বাঙ্গাল তফসিলি উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্ব দিতে কোনো উদ্যোগ নেই নি। আজও ভারতীয় বিদেশি আইনের আওতায় সমস্ত বাঙালি উদ্বাস্তু। আগে কেন এই প্রশ্ন ওঠেনি। কারণ 1955 সালের ভারতীয় নাগরিকত্ব আইন ভারতে জন্মগ্রহণ করলেই নাগরিকত্বের ব্যবস্থা ছিল। এবং এই আইনে পাকিস্তান থেকে আসা সমস্ত উদ্বাস্তুদের নাগরিক মেনে নেওয়া হয়েছিল। এই আইন সংশোধিত করে নাগরিকত্ব আইন উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্বের ব্যবস্থা শেষ করে জন্মসুত্রে নাগরিকত্বের শর্ত তৈরি হয়।বহিরাগতদের নাগরিকত্ব অর্জন করা অনিবার্য করা হয় এবং বিদেশিদের নাগরিকত্ব দেওয়ার প্রক্রিয়া দেশ ভাগের পরপর যারা ভারতে এসে 2003 সাল পর্যন্ত নাগরিক মর্যাদা পেয়ে আসছিলেন তাঁদের রাতারাতি ঘুসোটিয়া ঘোষিত করা হয়। বলা বাহুল্য, পশ্চিম বঙ্গের সব রাজনৈতিক দলের সমর্থনে এই আইন পাস হয়। উইকিলিকসে লেখা আছে: ভারতে জাতীয় শরণার্থী আইন নেই, তবে ১৯৫৯ সালে জওহরলাল নেহেরুর প্রদত্ত নীতিগুলি ব্যবহার করে প্রতিবেশী দেশগুলি থেকে আসা শরণার্থীদের সর্বদা গ্রহণ করে আসছে: শরণার্থীদের মানবিকভাবে স্বাগত জানানো হবে, শরণার্থী সমস্যাটি একটি দ্বিপাক্ষিক সমস্যা এবং স্বাভাবিক অবস্থা ফিরে আসার পরে শরণার্থীদের তাদের স্বদেশে ফিরে যাওয়া উচিত। [ 5 ] আনুষ্ঠানিক আইনের অভাব থাকা সত্ত্বেও, ভারতের সুপ্রিম কোর্ট সরকার কর্তৃক শরণার্থীদের সুরক্ষার বাধ্যবাধকতা বজায় রাখার জন্য মানবাধিকারের সর্বজনীন ঘোষণাপত্রের ১৪ অনুচ্ছেদ এবং নাগরিক ও রাজনৈতিক অধিকার সম্পর্কিত আন্তর্জাতিক চুক্তির ১৩ অনুচ্ছেদ ব্যবহার করেছে। [ 6 ] ভারত ১৯৫১ সালের শরণার্থী কনভেনশন এবং এর ১৯৬৭ সালের প্রোটোকলের কোনও রাষ্ট্রপক্ষ নয় , এবং শরণার্থীদের সাথে ব্যাপকভাবে মোকাবিলা করার জন্য জাতীয় আইনও প্রণয়ন করেনি। পরিবর্তে, এটি মূলত রাজনৈতিক এবং প্রশাসনিক স্তরে শরণার্থীদের সাথে মোকাবিলা করে এবং তাদের অবস্থা এবং চাহিদাগুলি মোকাবেলা করার জন্য কেবল অ্যাডহক সিস্টেম রয়েছে। অতএব, শরণার্থীদের আইনি অবস্থা সাধারণ বিদেশীদের থেকে আলাদা নয় যাদের উপস্থিতি ১৯৪৬ সালের বিদেশী আইন দ্বারা নিয়ন্ত্রিত । [ উদ্ধৃতি প্রয়োজন ] ১৯৪৭ সালে ভারত বিভাজন ছিল ব্রিটিশ ভারত [ a ] কে দুটি স্বাধীন রাজ্যে বিভক্ত করে, ভারত ইউনিয়ন এবং পাকিস্তান ডোমিনিয়ন । [ 3 ] আজকের ভারত ইউনিয়ন হল ভারত প্রজাতন্ত্র , এবং পাকিস্তান ডোমিনিয়ন হল ইসলামিক রিপাবলিক অফ পাকিস্তান এবং গণপ্রজাতন্ত্রী বাংলাদেশ । এই বিভাজনে জেলাভিত্তিক অমুসলিম (বেশিরভাগ হিন্দু এবং শিখ ) অথবা মুসলিম সংখ্যাগরিষ্ঠতার ভিত্তিতে দুটি প্রদেশ, বাংলা এবং পাঞ্জাব বিভক্ত করা হয়েছিল। এর সাথে দুটি নতুন ডোমিনিয়নের মধ্যে ব্রিটিশ ভারতীয় সেনাবাহিনী , রয়েল ইন্ডিয়ান নেভি , ইন্ডিয়ান সিভিল সার্ভিস , রেলওয়ে এবং কেন্দ্রীয় কোষাগারের বিভাজনও জড়িত ছিল। ১৯৪৭ সালের ভারতীয় স্বাধীনতা আইনে এই বিভাজনটি নির্ধারিত হয়েছিল এবং এর ফলে ভারতে ব্রিটিশ রাজ বা ক্রাউন রুল ভেঙে যায় । ভারত ও পাকিস্তান এই দুটি স্বায়ত্তশাসিত দেশ আইনত ১৪-১৫ আগস্ট ১৯৪৭ সালের মধ্যরাতে অস্তিত্ব লাভ করে। দেশভাগের ফলে ধর্মীয় ভিত্তিতে ১ কোটি ২০ লক্ষ থেকে ২ কোটি মানুষ বাস্তুচ্যুত হয়, [ c ] নবগঠিত রাজ্যগুলিতে ব্যাপক অভিবাসন এবং জনসংখ্যা স্থানান্তরের সাথে জড়িত অপ্রতিরোধ্য শরণার্থী সংকট তৈরি হয় ; ব্যাপক আকারের সহিংসতা ঘটে, দেশভাগের সাথে বা তার আগে প্রাণহানির অনুমান বিতর্কিত হয় এবং কয়েক লক্ষ থেকে দুই মিলিয়নের মধ্যে পরিবর্তিত হয়। [ 1 ] [ d ] দেশভাগের সহিংস প্রকৃতি ভারত ও পাকিস্তানের মধ্যে শত্রুতা এবং সন্দেহের পরিবেশ তৈরি করে যা বর্তমান পর্যন্ত তাদের সম্পর্ককে জর্জরিত করে। ভারত বিভাগ শব্দটি ১৯৭১ সালে পাকিস্তান থেকে বাংলাদেশের বিচ্ছিন্নতা , বা ব্রিটিশ ভারতের প্রশাসন থেকে বার্মা (বর্তমানে মায়ানমার ) এবং সিলন (বর্তমানে শ্রীলঙ্কা ) এর পূর্ববর্তী বিচ্ছিন্নতাকেও অন্তর্ভুক্ত করে না । [ e ] শব্দটি দুটি নতুন রাজ্যে দেশীয় রাজ্যগুলির রাজনৈতিক একীকরণ , অথবা হায়দ্রাবাদ , জুনাগড় এবং জম্মু ও কাশ্মীরের দেশীয় রাজ্যগুলিতে উদ্ভূত সংযুক্তি বা বিভাজনের বিরোধকেও অন্তর্ভুক্ত করে না, যদিও দেশভাগের সময় কিছু দেশীয় রাজ্যে ধর্মীয় ভিত্তিতে সহিংসতা ছড়িয়ে পড়ে। এটি ১৯৪৭-১৯৫৪ সময়কালে ফরাসি ভারতের ছিটমহলগুলিকে ভারতে অন্তর্ভুক্ত করার বিষয়টি, অথবা ১৯৬১ সালে ভারত কর্তৃক গোয়া এবং পর্তুগিজ ভারতের অন্যান্য জেলাগুলিকে অন্তর্ভুক্ত করার বিষয়টিও অন্তর্ভুক্ত করে না । ১৯৪৭ সালে এই অঞ্চলের অন্যান্য সমসাময়িক রাজনৈতিক সত্তা, যেমন সিকিম , ভুটান , নেপাল এবং মালদ্বীপ , বিভাগ দ্বারা প্রভাবিত হয়নি। [ f ] তথ্য সূত্র:https://en.m.wikipedia.org/wiki/Refugees_in_India

पहाड़ में बाढ़ कैसे आ सकती है?

बारिश का कहर जारी है। मानसून जलप्रलय में तब्दील है।पंजाब को याद करें तो दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के सरसों के खेत जमीन से आसमान तक नजर आते हैं। पहाड़ों में भी सरसों उगता था। डीएसबी कॉलेज में पढ़ते हुए जब हम माल रोड पर CRST कॉलेज के ठीक नीचे बंगाल होटल में रहते थे,खुद खाना बनाते थे।रोटी आज भी बना नहीं सकते।चूंकि पढ़ने से फुर्सत बहुत कम मिलती थी। चावल में आलू, या सिर्फ कुम्हड़ा या सिर्फ सरसों का साग उबालकर खाते थे। नाश्ता अक्सर अशोक जलपानगृह में गिर्दा का स्टंट प्रिय माखन आमलेट से होता था। नैनीताल समाचार में नाश्ता और भोजन दोनों अशोक होटल से शानदार आता था। तब लिखने पर कहीं से पैसे आ जाते थे तो पैराडाइज में छोले भटूरे खा लेते थे या अशोक टॉकीज के सामने पंजाब रेस्टुरेंट में पंजाब का खाना। तब भी पहाड़ में भूस्खलन होते थे। बाढ़ आती थी।जैसे अलकनंदा और भागीरथी की बाढ़। मैदान के लोगों को समझ में नहीं आती थी कि पहाड़ के उत्तुंग शिखरों में बढ़ कैसे आती थी। जब मैं देश के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में मुख्य उपसंपादक था कोलकाता पहुंचने से पहले,तब एक मजेदार किस्सा हुआ।संपादकीय में कवि वीरेन डंगवाल और सुनील सह जैसे लोग हमारे साथ थे। हमेशा चूंकि मैने अखबार निकाला, उस वक्त भी सभी संस्करण मैं ही निकालता था। तब भी पहाड़ में बाढ़ आई थी।हमने पहले पेज पर पहाड़ में बाढ़ की खबर लगाई। अगले दिन किसी साथी ने मालिक से शिकायत कर दी। मालिक संपादक भी थे।उन्होंने अपने कमरे में मुझे बुलाकर पूछा,इतने ऊंचे तो पहाड़ होते हैं,वहां बाद कैसे आ सकती है? उन्होंने वीरेन दा को भी बुला लिया था। मैंने संपादक जी को जवाब देने के बजाय वीरेन दा से पूछा, दा क्या पहाड़ों में नदियां नहीं होती? बांध नहीं होते? घाटियां नहीं होती? पहाड़ के बारे में तीस चालीस साल पहले भी पत्रकारों की समझ यही थी। अब तकनीक से लैस पत्रकारों की पहाड़ की समझ कितनी समृद्ध हुई है,मैं नहीं जानता।लेकिन उन्हें पहाड़ के जलवायु, मौसम और भू पारिस्थितिकी की तनिक समझ होती तो विकास का इतना शोर नहीं मचाते। खैर, घाटियों की अब शामत आ गई है। सारी नदियां बंद गई हैं। अंधाधुंध निर्माण इतना तेज हो गया है कि नैनीताल जाने का मन नहीं होता।अल्मोड़ा और पौड़ी जैसे शहर सिरे से बदल गए।गांवों,कस्बों का अंधाधुंध शहरीकरण हो गया।फिरभी रोजगार और आजीविका का यह हाल है कि पहाड़ के गांव वीरान हो रहे हैं और हम बेशर्मी से इसे प्लेन कह रहे हैं। बेदखली और विस्थापन की हकीकत को झुठलाने में न सरकार, न मीडिया और न आंदोलनकारियों को शर्म आती है। भूकंप अब बार बार हो रहे हैं।राजधानी दिल्ली भी बार बार कांपती रहती है। कश्मीर,हिमाचल और उत्तराखंड की क्या कहें,पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तबाही का मंजर दिल्ली के डूब बन जाने के बावजूद नजर नहीं आते। तो साहब बताइए,सरसों के खेत कैसे बचेंगे?

Tuesday, September 16, 2025

They did everything to destroy East Bengal Dalit Refugees

Pl camps exposes the claims of Bengali leaders who did everything to destroy us Palash Biswas West Bengal then Chief minister Dr.Bidhanchandra Roy and other west Begal leaders in West Bengal denied refugee status for the partition victims of East Pakistan Bengali refugees and claimed ther had been no riots in East Bengal and said, these people were actually victims of 1942 Bengal famine who survived and got opportunity for escape to India due to population transfer. It was a false claim. Every family from East Bengal suffered badly in riots. We have documented th first person version of the history recently in two books Chhinnamool based on interviews of the victims and Pulinbabu:Visthapn ka Yatharth,Punrvas ki ladayi which have exposed the Bengali leaders who did everything to destroy the dalit population of East Bengal and rejected them out of Bengali history, geography,environment and culture depriving them of mother tongue, reservation and civic as well as human rights,even citizenship. Anywhere in twenty three states including West Bengal you may visit any Bengali refugee colony and survey how many families lost everything due to riots. Not only Noakhali victims, Bengali refugees coming from anywhere were subjected to ethnic cleansing as they are even after creation of secular Bangladesh. Every family lost most of family members and relations during riots, crossing the border and in refugee camps all over India in malnutrition and pandemic. The conspiracy to wipe out Bengali Dalits is best expressed in the denial of riots and based on that rejection of refugee status as well as citizenship. The narrative is exposed with the truth of PL camps as permanent liability of those irfan women and children who were kept there.PL camps" refers to Permanent Liability camps for Bengali refugees from East Pakistan (now Bangladesh), established after the 1947 partition. These camps, once numerous, are now mainly located in states like West Bengal and Odisha, with the Ashoknagar PL Camp in West Bengal being a well-known example. While some camps have been closed or people have been resettled, a few still house older residents, like the one in Ashoknagar, which continues to provide housing for approximately 400 people. Key aspects of PL camps: Purpose: The Dandakaranya Project and similar schemes were established to rehabilitate refugees from East Pakistan who had lost their homes and were living in temporary camps. Permanent Liability: The term "Permanent Liability" was used by officials for these refugees who were unable to resettle and remained dependent on government support. Legacy: Some of these camps, like the Ashoknagar PL camp, continue to house a small population of elderly refugees who have lived there for decades. Notable examples: Ashoknagar Permanent Liability Camp: Located in the North 24 Parganas district of West Bengal, this camp houses a small, aging population of refugees from the Partition era. Dandakaranya Project: This was a major government initiative to resettle refugees in the Dandakaranya region of Chhattisgarh and Odisha. Geographic Distribution: While initially established to disperse refugees from East Pakistan, these camps were set up in states like West Bengal, Odisha, Chhattisgarh, and other north-eastern states. Inputs from the Wire with thanks Research Article Bakultala P.L. Camp and Victory Colony 1950: A Palimpsestuous Study of Dalit Refugees’ Reclaimed Space https://www.tandfonline.com/doi/full/10.1080/02759527.2025.2493981?af=R The killings Hindu refugees in India, stateless for over 50 years https://timesofindia.indiatimes.com/india/hindu-refugees-in-india-stateless-for-over-50-years/articleshow/113360273.cms CommunalismA Permanent Struggle for the ‘Orphans’ of Bengal Partition https://thewire.in/politics/rights/a-permanent-struggle-for-the-orphans-of-bengal-partition

Sunday, September 14, 2025

আন্দামানে বাঙালি,বাংলা ও বাঙালির সর্বনাশ করেছেন বাঙালি নেতারা

আন্দামানে বাঙালি 2011 সালের জনগণনা অনুযায়ী আন্দামানে 64 হাজার বাঙালি। এরা বেশির ভাগ ভারত বিভাজনের ফলে পূর্ব বঙ্গের ছিন্নমূল তফসিলি নমশূদ্র ও পৌন্দ্র ক্ষত্রিয় বাঙালি।১৯৪৭ সালের ভারত বিভাগের ফলে মানবজাতির ইতিহাসে জোরপূর্বক অভিবাসনের অন্যতম প্রধান ধারা শুরু হয়। দেশভাগের ইতিহাসের প্রভাবশালী আখ্যানগুলিতে মূলত পাকিস্তান থেকে ভারতে অভিবাসনকারী হিন্দুদের একটি ঢেউ এবং পাকিস্তানে পৌঁছানোর জন্য ভারতীয় সীমান্ত পেরিয়ে মুসলিম অভিবাসীদের একটি বিপরীত ধারা হিসেবে এই দেশত্যাগকে বর্ণনা করা হয়েছে। দেশভাগের সত্তর বছর পরেও, ক্ষতি এবং বাস্তুচ্যুতির দীর্ঘ প্রতিধ্বনি এখনও অনেকের জীবনে প্রভাব ফেলছে এবং দেশভাগের খোলা ক্ষতের বেশ কয়েকটি বিকল্প ইতিহাস এখনও লেখা হয়নি। এই বিধান রায়ের পূর্ব 1949 সালে ভারত সরকার তিনটি পুনর্বাসনের প্রকল্প অনুমোদন করে। নৈনিতাল, দণ্ডকারণ্য ও আন্দামান। আন্দামানে পূর্ববঙ্গ থেকে আসা উদ্বাস্তুদের পুনর্বাসনের ব্যবস্থা করা হয়। বাংলা ও ভারত সরকারের প্ল্যান যদি সফল হত তাহলে পশ্চিমবঙ্গ ও ত্রিপুরার পরে আন্দামান হত বাঙালি প্রধান রাজ্য। আমার বাবা উদ্বাস্তু নেতা পুলিন বাবু তখনই দাবি করেন এই তিনটি প্রকল্পের যে কোন একটিতে পুব বাংলার সমস্ত উদ্বাস্তুদের পুনর্বাসনের ব্যবস্থা হোক।বাংলার বাইরে আর একটি বাংলা হলে মাতৃভাষা বাংলা, বাংলার সংস্কৃতি ও ঐতিহ্যের সঙ্গে পুব বাংলার তাফসিলিদের রাজনৈতিক শক্তি বিস্তার হবে।বাংলার বর্ণহিন্দু নেতৃত্ব এই দাবি মানতে নারাজ হয়, তাঁরা পত্র পাঠ তিনটি প্রকল্পই বাতিল করে। 1950 সালে মুখ্যমন্ত্রী হন ডাক্তার বিধান চন্দ্র রায়।তিনি পুব বঙ্গের ছিন্নমূল মানুষদের উদ্বাস্তু মানতে অস্বীকার করেন।তাঁর নিদান ছিল, এই উদ্বাস্তুদের বাংলা এবং আসামের চা বাগানের কুলি করা হোক।সেই অনুযায়ী কুলি কার্ড শুরু হয়। পুলিন বাবু তীব্র বিরোধিতা করে শিয়ালদহ, রানাঘাট ও শিলিগুড়িতে আন্দোলন শুরু করেন,আমরা চাষী, আমাদের চাষের জমি দিতে হবে। বাংলার বাইরে উদ্বাস্তুদের পুনর্বাসনের বাদ সাধে বামেরা। এরা উদ্বাস্তুদের ভূল বোঝাতে শুরু করে যে কালাপানিতে পাঠানো হচ্ছে। এদের জন্যেই আন্দামানের বদলে পূর্ববঙ্গীয় উদ্বাস্তুদের উত্তর প্রদেশ, ওড়িশা,মধ্যপ্রদেশ ও ছত্তিসগড়ে পুনর্বাসন করা হয়। উত্তর প্রদেশের তৎকালীন মুখ্যমন্ত্রী গোবিন্দ বল্লভ পন্ত নৈনিতালে তারাইয়ের জঙ্গলে শুধু বাঙালিদের বসাতে চেয়ে ছিলেন,কিন্ত বামেদের জঙ্গল, বাঘ ও প্রচন্ড শীত নিয়ে তৈরি আশঙ্কায় উদ্বাস্তুরা নৈনিতালে আসতে অস্বীকার করে।মাত্র আড়াই হাজার পরিবার 1951 পর্যন্ত দিনেশপুরে আসেন,ফলে নৈনিতালে পাঞ্জাবি,শিখ উদ্বাস্তু ও উত্তর প্রদেশের স্বাধীনতা সংগ্রামীদের বসতি তৈরি হয়। 1959 সালে শক্তি ফার্ম আবাদ হয় বাঙালি উদ্বাস্তুদের দিয়ে।কিন্তু বাঙালিরা এখানেও সংখ্যালঘু হয়ে যায়,যেখানে আর একটি বাংলা হতে পারত। আন্দামান দ্বীপপুঞ্জ, পশ্চিমে ভারত, এবং উত্তর ও পূর্বে মিয়ানমার কে রেখে বঙ্গোপসাগরে মধ্যে দ্বীপপুঞ্জ গঠন করেছে। বেশিরভাগ দ্বীপগুলি ভারতের কেন্দ্রশাসিত অঞ্চল আন্দামান ও নিকোবর দ্বীপপুঞ্জের অংশ, এই দ্বীপপুঞ্জর উত্তরে কোকো দ্বীপপুঞ্জ সহ অল্প সংখ্যক দ্বীপ মিয়ানমারের অন্তর্ভুক্ত। আন্দামানে বসবাসকারী সমগ্র বাঙালি সম্প্রদায়ের আনুমানিক ৯৮% বাঙালি বসতি স্থাপনকারী এবং তাদের বংশধরদের প্রতিনিধিত্ব করতে পারে। ঔপনিবেশিক যুগ থেকে, দ্বীপপুঞ্জগুলি বিভিন্ন বর্ণ, ভাষা, ধর্ম এবং জাতিগত মানুষের আবাসস্থল হয়ে ওঠে: উপমহাদেশের রাজনৈতিক বন্দী, বিদ্রোহীদের নির্বাসিত সম্প্রদায়, বার্মিজ সংখ্যালঘু, শ্রীলঙ্কান তামিল , রাঁচি থেকে নিয়োগ করা উপজাতি শ্রমিক এবং বনের আদিবাসীদের ধ্বংস করা। যদিও দ্বীপপুঞ্জের বৈচিত্র্যময় বহু-জাতিগত সমাজকে প্রায়শই 'ক্ষুদ্র ভারত' এবং 'বৈচিত্র্যের মধ্যে ঐক্যের' প্রতীক হিসাবে বর্ণনা করা হয়, তবুও বিভিন্ন সম্প্রদায়ের মধ্যে উত্তেজনা এবং কমবেশি অন্তর্নিহিত দ্বন্দ্ব রয়েছে। এই বৈচিত্র্যময় সামাজিক পরিসরের মধ্যে, পুরাতন বাঙালি বসতি স্থাপনকারীরা নিজেদেরকে প্রান্তিক সংখ্যাগরিষ্ঠ হিসাবে উপলব্ধি করে। উদ্বাস্তু পুনর্বাসনে বাঙালি নেতাদের শত্রুতাপূর্ন আচরনের ফলে তফসিলি বাঙালিদের বাংলার ইতিহাস ভূগোল থেকে বহিষ্কৃত করে বাংলার বাইরে বাইশটি রাজ্যে তাঁদের জলে, জঙ্গলে, পাহাড়ে, মারিভূমি, দ্বীপে ছড়িয়ে দিয়ে তাঁদের মাতৃভাষা, সংস্কৃতি, ঐতিহ্য ছিনিয়ে নিয়ে রাজনৈতিক প্রতিনিধিত্ব ও সংরক্ষণ ছিনিয়ে নেওয়া হল। ফলে আজ উত্তরাখণ্ড, উত্তর প্রদেশ,মধ্য প্রদেশ,ওড়িশা, মহারাষ্ট্র, রাজস্থান, অসম, ছত্তিসগড়ে শুধু না বিহার, ঝাড়খন্ডের মত রাজ্যে, মোট বাইশটি রাজ্যে বাঙালিরা নামেই বাঙালি। তিন প্রজন্মে ভাষায় হিন্দির ছাপ পড়েছে। আর দুই প্রজন্মে এরা আর ভাষাতেও বাঙালি থাকবে না। বাংলায় কত বাঙালির বাস? বাংলার বাইরে বাইশ কোটি বাঙালির মাতৃভাষা, সংস্কৃতি, ঐতিহ্য, নাগরিকত্ব ও মানবাধিকার শেষ করে দিলেন যারা, মরিচ ঝাঁপি গনহত্যা ঘটালেন যারা তাঁরা কোন মুখে মাতৃভাষা ও অস্তিত্ব সংকটের দোহাই দেন? অন্যদিকে শ্রীলংকা থেকে আসা তামিল উদ্বাস্তুদের পরে আন্দামানে পাঠায় ভারত সরকার। আজ আন্দামানে বাঙালিদের থেকেও তামিলদের দাপট বেশি। বাঙালিদের ওখানে 1960 এর পরে পাঠানো হয়।সেদিন যদি বামেরা ঝামেলা না করত তাহলে আজ আন্দামান বাঙালি রাজ্য হিসাবে পরিচিত হত। ভারত বিভাজনের পর পূর্ববঙ্গ (বাংলাদেশ) থেকে হাজার হাজার বাঙালি পরিবার আন্দামানে শরণার্থী হিসেবে পুনর্বাসিত হয়েছিল, যা সরকারি প্রকল্পের মাধ্যমে এবং স্বাধীনভাবে সম্পন্ন হয়েছিল। ১৯৫১ সালে যেখানে বাংলায় কথা বলা মানুষের সংখ্যা ছিল মাত্র ২৩৬৩ জন, ১৯৯১ সালের মধ্যে তা ৬৪,৭০৬ জনে বৃদ্ধি পায়। বর্তমানে আন্দামান ও নিকোবর দ্বীপপুঞ্জে বাংলা ভাষা প্রধান এবং সর্বাধিক প্রচলিত ভাষা। বাঙালি উদ্বাস্তু হওয়ার প্রেক্ষাপট: ভারত বিভাজন: দেশভাগের ফলে লক্ষ লক্ষ মানুষ বাস্তুচ্যুত হয় এবং তাদের মধ্যে অনেকেই পূর্ববঙ্গ থেকে ভারতে আশ্রয় নেয়। পুনর্বাসনের উদ্যোগ: ভারত সরকার এই শরণার্থীদের আন্দামান ও নিকোবর দ্বীপপুঞ্জে পুনর্বাসনের ব্যবস্থা করে। সরকারি 'উপনিবেশকরণ প্রকল্প' [sic] এর অধীনে ভারত মহাসাগরের মাঝখানে প্রায় ৪০০০ নিম্ন বর্ণের শরণার্থী পরিবারকে পাঠানোর অসম্ভব সমাধান। আন্দামান ও নিকোবর দ্বীপপুঞ্জের জঙ্গলে আচ্ছাদিত অংশে চাষাবাদ এবং গৃহপালিত করার জন্য। ১৯৪৯ সাল থেকে, সরকারি কর্মকর্তারা আন্দামানের দরিদ্র শিবিরের বাসিন্দাদের কাছে স্থানান্তরের বিকল্পটি প্রচার করতে শুরু করেন যারা প্রায়শই গণ-দাহের অপেক্ষায় মৃতদেহ নিয়ে বাস করতেন। তালিকাভুক্ত পরিবারগুলিকে সাবধানে নির্বাচন করা হয়েছিল যাতে নিশ্চিত করা যায় যে তাদের পর্যাপ্ত সংখ্যক সুস্থ পুরুষ শ্রমিক রয়েছে: কঠোর পরিশ্রমী শ্রমিকদের হাতের প্রমাণ হিসাবে কর্মকর্তাদের দ্বারা কলাস স্পর্শ এবং এবং অনুমোদন করতে হত। ক্যাম্প বন্ধ হয়ে যাওয়ার, নগদ অর্থ প্রদান বন্ধ হয়ে যাওয়ার এবং সম্ভবত দণ্ডকারণ্যের মতো অন্যান্য প্রতিকূল এবং দূরবর্তী অঞ্চলে স্থানান্তরিত হওয়ার হুমকির সাথে সাথে আন্দামানে পুনর্বাসন করা অনেকের কাছেই একমাত্র আসল বিকল্প ছিল, "যেখানে বাঘ শিশুদের ধরতে আসবে"। আন্দামানে বাঙালির জীবনযাত্রা: ভাষা ও সংস্কৃতি: আন্দামানে বাংলা ভাষা প্রধান এবং বহুল প্রচলিত ভাষা। জনসংখ্যার বৃদ্ধি: ১৯৫১ সালে যেখানে মাত্র ২৩৬৩ জন বাংলাভাষী ছিল, ১৯৯১ সালের আদমশুমারি অনুযায়ী তা বেড়ে দাঁড়ায় ৬৪,৭০৬ জন। প্রাথমিক কষ্ট এবং প্রতিকূল জীবনযাত্রার পরিবেশ সত্ত্বেও, বাঙালি বসতি স্থাপনকারীরা সময়ের সাথে সাথে একটি অজানা বন্য স্থানকে একটি পরিচিত আবাসস্থলে রূপান্তরিত করে। পূর্ববঙ্গের হাজার হাজার পরিবার দ্বীপপুঞ্জে পুনর্বাসিত হয়েছিল, উভয়ই স্বাধীন অভিবাসী এবং সরকারী প্রকল্পের সুবিধাভোগী হিসাবে; ১৯৫১ সালে আন্দামান ও নিকোবর দ্বীপপুঞ্জে বাংলাভাষী জনসংখ্যা ছিল মাত্র ২৩৬৩ জন, ১৯৯১ সালের মধ্যে ভারতের আদমশুমারি অনুসারে এই সংখ্যা বেড়ে ৬৪,৭০৬ জনে দাঁড়িয়েছে। আজ দ্বীপপুঞ্জগুলিতে বসবাসকারী জটিল এবং বৈচিত্র্যময় সমাজে বাঙালিরা সংখ্যাগরিষ্ঠ সম্প্রদায়, যাদের মাতৃভাষা বাংলা। এই সংখ্যা সত্ত্বেও, আন্দামানে বাঙালিদের যাত্রা এবং জীবন বেশিরভাগই একটি অলিখিত ইতিহাস। প্রশাসনের ভূমিকা: অনেক সময় স্থানীয় প্রশাসনে বাঙালি জনগোষ্ঠীর প্রতিনিধিত্ব কম থাকে, যদিও তারা একটি বড় অংশ। বর্তমান পরিস্থিতি: সংঘাতের সম্ভাবনা: যদিও বাঙালিরা অনেক ক্ষেত্রে আন্দামানে নিজেদের প্রতিষ্ঠিত করতে পেরেছে, তবে জনসংখ্যাগত এবং প্রশাসনিক ক্ষেত্রে অন্যান্য গোষ্ঠীর সাথে তাদের সংঘাতের সম্ভাবনা তৈরি হয়। আসামের নাগরিক নিবন্ধন তালিকার (এনআরসি) বিরূপ প্রভাব পড়েছে ভারতের আন্দামান-নিকোবর দ্বীপপুঞ্জে। বসবাসের বিতর্কিত বৈধতাপত্র 'ইনারলাইন পারমিট' নিয়ে আপত্তি জানিয়েছে বাঙালিরা। এ নিয়ে স্থানীয় অবাঙালিদের সঙ্গে বাঙালিদের সংঘাতের আশঙ্কা দেখা দিয়েছে। হঠাৎ মাথাচাড়া দিয়েছে বাঙালিবিদ্বেষ। রাজনৈতিক সচেতনতা: বাঙালি ফোরামের মতো সংগঠনগুলি তাদের অধিকার ও দাবি আদায়ের জন্য বিভিন্ন সময় রাজনৈতিকভাবে সক্রিয় থাকে।

Friday, September 12, 2025

लिखने बोलने के लिए रीढ़ और जिगर चाहिए

प्रेरणा अंशु के अक्टूबर अंक के लिए आपदा के शिकंजे में कैद राज्यों खासतौर पर पंजाब,हरियाणा,हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और कश्मीर से जमीनी रपट,कथा रिपोर्ताज चाहिए। जो लोग नेपाल के बारे में बेहतर जानते हैं,वे लोग भी लिखें। अन्य सभी विधाओं में रचनाएं आमंत्रित हैं। लघु पत्र पत्रिकाओं के प्रचार प्रसार में डाक अव्यवस्था का भारी असर हुआ है। डिजिटल परेशान की समस्या सरकारी हस्तक्षेप के कारण बेहद कठिन है।आर्थिक समस्याएं अपनी जगह है। प्रकाशन लागत के साथ डाक खर्च का बढ़ता हुआ खर्च सरदर्द बना हुआ है। इस पर तुर्रा यह की पढ़े लिखे लोग अवसरवादी चुप्पी ओढ़कर शुतुरमुर्ग बन गए हैं। विशेषज्ञ, एनजीओ से जुड़े लोग और वैचारिक लोगों के साथ साथ स्थापित लेखक पत्रकार सच कहने लिखने से या तो हिचकिचाते हैं या लघु पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखना नहीं चाहते।उनसे लिखने का अनुरोध करने का कोई असर नहीं होता। यह हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या है कि जनता के मुद्दों पर सामग्री का बहुत ज्यादा अभाव है और हम जनता के मुद्दों पर नियमित पत्रिका निकालते हैं। बनारस और काशी जैसे प्राचीन नगर जो साहित्यिक सांस्कृतिक केंद्र भी हैं, आपदा के शिकंजे में हैं और वहां भी सन्नाटा पसरा हुआ है। नए लोगों पर भी बाजार का शिकंजा है। आप अगर हमारे साथ हैं तो इन मुद्दों पर अपनी अप्रकाशित रचना नाम,पूरा पता, पिनकोड और मोबाइल नंबर के साथ हमें जल्द से जल्द मेल करें।हमें आपका इंतजार है। सच लिखने बोलने के लिए विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती।एक अदद रीढ़ और एक अदद कलेजा चाहिए। मेरे पिता पुलिन बाबू कहते थे कि जनता की आवाज उठाने के लिए किसी का इंतजार नहीं करना चाहिए।यह हमारे सामाजिक जिम्मेदारी है।जानकारी जुटाई जा सकती है और विशेषज्ञता विशेषज्ञों की बपौती थोड़ी है। सबसे जरूरी है पक्का इरादा और हर सूरत में पीड़ित जनता के साथ खड़े होने का जज्बा। उन्होंने बिना डिजिटल हुए आजीवन संघर्ष किया। आज के जमाने में सारी दुनिया मुट्ठी में है।सिर्फ रीढ़ और कलेजा बेहद कम है। आप हमें गलत साबित करें तो बहुत खुशी होगी।

Wednesday, September 10, 2025

गोविंद बल्लभ पंत न होते तो हम मर खप जाते

जन्म दिवस पर भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत को प्रणाम। राष्ट्र निर्माण और स्वतंत्रता सम्मेलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में पूरा देश जनता है।लेकिन भारत विभाजन के बाद करोड़ों विस्थापन पीड़ितों के पुनर्वास के लिए उनकी ऐतिहासिक पहल के बारे में बहुत कम चर्चा हुई है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान के छिन्नमूल परिवारों का सबसे पहले, सबसे बड़े पैमाने पर सुनियोजित पुनर्वास योजना उनकी पहल से बनी और उन्होंने इस योजना को युद्धस्तर पर लागू किया। हमने अपनी पुस्तक पुलिनबाबू: विस्थापन का यथार्थ, पुनर्वास की लड़ाई में विस्थापितों के पुनर्वास के लिए उनकी ऐतिहासिक भूमिका की सिलसिलेवार चर्चा की है। खासकर बंगाल के राजनेताओं की विस्थापित विरोधी नीतियों को देखते हुए उनकी इस भूमिका को उनके जन्मदिन पर विशेष तौर पर याद करना चाहिए। बंगाली विस्थापित समाज की आपबीती पर लिखी Rupesh Kumar Singh की बहुचर्चित किताब छिन्नमूल में हमारे पूर्वजों की आपबीती में गोविंद बल्लभ पंत की ऐतिहासिक भूमिका की चर्चा है। https://www.amazon.in/gp/product/B0FBNLGVZ6/ref=cx_skuctr_share_ls_srb?smid=A2VGZSQZ1XN2DP&tag=ShopReferral_35fa1b5c-08eb-430b-ba58-fd79ba0bc05f&fbclid=IwdGRzaAMuGERjbGNrAy4YPmV4dG4DYWVtAjExAAEe8pFcN6hDUfLEjUowaAF4DGlRuC2FIR8WuPKaA74NK0VUnHIpb7kAi6Xk9Q8_aem_Oy8TzzmRct9xoozPQcfUYw अफसोस कि गोविंद बल्लभ पंत जी की इस भूमिका पर आज कहीं कोई चर्चा नहीं होती। विभाजन के बाद विस्थापन और बेदखली का सिलसिला तेज हुआ है और पुनर्वास की पतंजी की तरह पहल करने वाला कोई नेता नहीं है। पूरी राजनीति विस्थापन और बेदखली को तेज करने लगी है।पुनर्वास की पहल करने वाला कोई नहीं है। देशभर के विस्थापितों के लिए मसीहा थे गोविंद बल्लभ पंत। उन्हें प्रणाम। 1949 में पूर्वी बंगाल के बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास के लिए भारत सरकार ने तीन बड़ी परियोजनाएं मंजूर की। एक: नैनीताल, दो: दंडकारण्य और तीन अंडमान। 1949 में ही पतंजी ने हिमालय की तलहटी में नेटल जिले की तराई, जो अब जिला ऊधम सिंह नगर है, में पूर्वी बंगाल और पश्चिम पंजाब के विस्थापितों के पुनर्वास की योजना को लागू कर दिया। बंगाल के सारे राजनेता इसके खिलाफ थे।उनके विरोध के चलते तब मात्र ढाई हजार बंगाली विस्थापित परिवार दिनेशपुर आ बसे।बंगाली नेताओं के असहयोग के कारण ही दंडकारण्य प्रोजेक्ट 1960 और अंडमान प्रोजेक्ट 1962 में शुरू हो सका। यही नहीं, पश्चिम बंगाल सरकार,खासकर 1950 में बने बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ विधानचंद्र राय बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने बंगाली विस्थापितों को दार्जिलिंग और असम के चाय बागानों में कूली बनाने का कार्यक्रम लागू करने की कोशिश की।इसके खिलाफ पुलिनबाबू ने सियालदह, राणाघाट और सिलीगुड़ी में जबरदस्त आंदोलन किया।तब जाकर कूली बनाने का कार्यक्रम रद्द हुआ। इसके बाद ही बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास का काम शुरू हो सका। बंगाल सरकार और बंगाली राजनेताओं ने विस्थापितों के पुनर्वास के लिए उन्हें बाहर भेजने का विरोध किया, जबकि इतनी बड़ी तादाद में आए विस्थापितों के पुनर्वास के लिए बंगाल में जमीन न थी।भारत सरकार की तीनों परियोजनाओं के बंगाल में हुए विरोध के कारण सिर्फ दस प्रतिशत बंगाली विस्थापितों का पुनर्वास हो सका। बाकी नब्बे प्रतिशत देश भर में रोजगार और आजीविका के लिए बिखर गए,जिन्हें अब घुसपैठियों बताया जा रहा है। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में पचास के दशक में ही नैनीताल के साथ साथ रामपुर, पीलीभीत, बरेली, बिजनौर, मेरठ, लखीमपुर, बहराइच में बड़े पैमाने पर बंगाली विस्थापितों का पुनर्वास का प्रबंध पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने किया। मैंने अपनी किताब पुलिनबाबू: विस्थापन का यथार्थ, पुनर्वास की लड़ाई में पंडित गोविंद बल्लभ पंत और बंगाली राजनेताओं की भूमिका पर सिलसिलेवार लिखा है। आखिर किताब आ ही गई। 💐💐💐💐 Palash Biswas अमेजन से ऑर्डर करिए। क्षेत्र की आपबीती को समझिए। 🙏🙏🙏 Pulinbabu : Visthapan Ka... https://www.amazon.in/dp/9364073428?ref=ppx_pop_mob_ap_share भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ के कृतित्व के बारे में प्रकाशित एक जरूरी आलेख इस पोस्ट के साथ साभार जोड़ रहा हूं: भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी को हृदय से स्मरण। आजाद भारत में उत्तर प्रदेश का पहला मुख्यमंत्री होना हमेशा ही खुफियापंथी की ओर इशारा करेगा. क्योंकि यहां की राजनीति हमेशा से ही घाघ रही है. आजादी के वक्त भी यूपी में कई धड़े थे. बनारस के नेता यूपी की राजनीति में छाए हुए थे. ऐसे में पहाड़ों में जन्मे गोविंद बल्लभ पंत गोविंद बल्लभ पंत (10 सितंबर 1887- 7 मार्च 1961) का पहला मुख्यमंत्री बनना अपने आप में सरप्राइजिंग है. अल्मोड़ा में जन्मे थे. पर महाराष्ट्रियन मूल के थे. मां का नाम गोविंदी था (कुछ लेख माता का नाम श्रीमती लक्ष्मी पुष्पा एवँ कुछ श्रीमती गंगा देवी बताते हैं ) उनके नाम से ही नाम मिला था. पापा सरकारी नौकरी में थे. उनके ट्रांसफर होते रहते थे. तो नाना के पास पले. बचपन में बहुत मोटे थे. कोई खेल नहीं खेलते थे. एक ही जगह बैठे रहते. घर वाले इसी वजह से इनको थपुवा कहते थे. पर पढ़ाई में होशियार थे. एक बार की बात है. छोटे थे उस वक्त. मास्टर ने क्लास में पूछा कि 30 गज के कपड़े को रोज एक मीटर कर के काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा. सबने कहा 30 दिन. पंत ने कहा 29. स्मार्टनेस की बात है. बता दिये. इसमें कौन सा दौड़ना था। बाद में पढ़ाई कर के वकील बने. इनके बारे में फेमस था कि सिर्फ सच्चे केस लेते थे. झूठ बोलने पर केस छोड़ देते. वो दौर ही था मोरलिस्ट लोगों का. बाद में कुली बेगार के खिलाफ लड़े. कुली बेगार कानून में था कि लोकल लोगों को अंग्रेज अफसरों का सामान फ्री में ढोना होता था. पंत इसके विरोधी थे. बढ़िया वकील माने जाते थे. काकोरी कांड में बिस्मिल और खान का केस लड़ा था. वकालत शुरू करने से पहले ही पंत के पहले बेटे और पत्नी गंगादेवी की मौत हो गई थी. वो उदास रहने लगे थे. पूरा वक्त कानून और राजनीति में देने लगे. 1912 में परिवार के दबाव डालने पर उन्होंने दूसरा विवाह किया. लेकिन उनकी यह खुशी भी ज्यादा वक्त तक न रह सकी. दूसरी पत्नी से एक बेटा हुआ. लेकिन कुछ समय बाद ही बीमारी के चलते बेटे की मौत हो गई. 1914 में उनकी दूसरी पत्नी भी स्वर्ग सिधार गईं. फिर 1916 में 30 की उम्र में उनका तीसरा विवाह कलादेवी से हुआ. अल्मोड़ा में एक बार मुकदमे में बहस के दौरान उनकी मजिस्ट्रेट से बहस हो गई. अंग्रेज मजिस्ट्रेट को इंडियन वकील का कानून की व्याख्या करना बर्दाश्त नहीं हुआ. मजिस्ट्रेट ने गुस्से में कहा,” मैं तुम्हें अदालत के अन्दर नहीं घुसने दूंगा”. गोविन्द बल्लभ पंत ने कहा,” मैं आज से तुम्हारी अदालत में कदम नहीं रखूंगा”. 1921 में पंत चुनाव में आये. लेजिस्लेटिव असेंबली में चुने गये. तब यूनाइटेड प्रोविंसेज ऑफ आगरा और अवध होता था. फिर बाद में नमक आंदोलन में गिरफ्तार हुए. 1933 में चौकोट के गांधी कहे जाने वाले हर्ष देव बहुगुणा के साथ गिरफ्तार हुए. बाद में कांग्रेस और सुभाष बोस के बीच डिफरेंस आने पर मध्यस्थता भी की. 1942 के भारत छोड़ो में गिरफ्तार हुए. तीन साल अहमदनगर फोर्ट में नेहरू के साथ जेल में रहे. नेहरू ने उनके हेल्थ का हवाला देकर उन्हें जेल से छुड़वाया. इससे पहले 1932 में पंत एक्सिडेंटली नेहरू के साथ बरेली और देहरादून जेलों में रहे. जेलों में रहने के दौरान ही नेहरू से इनकी यारी हो गई. नेहरू इनसे बहुत प्रभावित थे. जब कांग्रेस ने 1937 में सरकार बनाने का फैसला किया तो बहुत सारे लोगों के बीच से पंत का ही नाम नेहरू के दिमाग में आया था. नेहरू का पंत पर भरोसा आखिर तक बना रहा इस बीच 1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना पंत ने करवाई और इन्हीं की कोशिशों से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई. 1916 में पंत जी काशीपुर की ‘नोटीफाइड ऐरिया कमेटी में लिए गए. 1921, 1930, 1932 और 1934 के स्वतंत्रता संग्रामों में पंत जी लगभग 7 वर्ष जेलों में रहे. साइमन कमीशन के आगमन के खिलाफ 29 नवंबर 1927 में लखनऊ में जुलूस व प्रदर्शन करने के दौरान अंग्रेजों के लाठीचार्ज में पंत को चोटें आई, जिससे उनकी गर्दन झुक गई थी. 1937 में पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. मदन मोहन मालवीय के पक्के चेले थे. और यहां नेहरू के प्रयोग को सफल किया. उस वक्त कांग्रेस पर अंग्रेजों के कानून में बनी सरकार में शामिल होने का आरोप लगा था. पर पंत की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में दंगे नहीं हुए. प्रशासन बहुत अच्छा रहा. भविष्य के लिए बेस तैयार हुआ. फिर पंत 1946 से दिसंबर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. 1951 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में वो बरेली म्युनिसिपैलिटी से जीते थे. 1955 में केंद्र सरकार में होम मिनिस्टर बने. 1955 से 1961 तक होम मिनिस्टर रहे. इस दौरान इनकी उपलब्धि रही भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन. उस वक्त कहा जा रहा था कि ये चीज देश को तोड़ देगी. पर इतिहास देखें तो पाएंगे कि इस चीज ने भारत को सबसे ज्यादा जोड़ा. अगर पंत को सबसे अधिक किसी चीज़ के लिए जाना जाता है, तो हिंदी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए ही. 1957 में इनको भारत रत्न मिला. गोविंद बल्लभ पंत से जुड़े कुछ किस्से- 1. 1909 में गोविंद बल्लभ पंत को लॉ एक्जाम में यूनिवर्सिटी में टॉप करने पर ‘लम्सडैन’ गोल्ड मेडल मिला था. 2. उत्तराखंड के हलद्वानी में गोविंद वल्लभ पंत नाम के ही एक नाटककार हुए. उनका ‘वरमाला’ नाटक, जो मार्कण्डेय पुराण की एक कथा पर आधारित है, फेमस हुआ करता था. मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के त्याग के आधार पर ‘राजमुकुट’ लिखा. ‘अंगूर की बेटी’ शराब को लेकर लिखी गई है. दोनों के उत्तराखंड के होने और एक ही नाम होने के चलते अक्सर लोग नाटककार गोविंद वल्लभ पंत की रचनाओं को नेता गोविंद वल्लभ पंत की रचनाएं मान लेते हैं. 3. हालांकि, नेता गोविंद वल्लभ पंत भी लिखते थे. जाने-माने इतिहासकार डॉ. अजय रावत बताते हैं कि उनकी किताब ‘फॉरेस्ट प्रॉब्लम इन कुमाऊं’ से अंग्रेज इतने भयभीत हो गए थे कि उस पर प्रतिबंध लगा दिया था. बाद में इस किताब को 1980 में फिर प्रकाशित किया गया. गोविंद बल्लभ पंत के डर से ब्रिटिश हुकूमत काशीपुर को गोविंदगढ़ कहती थी. 4. पंत जब वकालत करते थे तो एक दिन वह चैंबर से गिरीताल घूमने चले गए. वहां पाया कि दो लड़के आपस में स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में चर्चा कर रहे थे. यह सुन पंत ने युवकों से पूछा कि क्या यहां पर भी देश-समाज को लेकर बहस होती है. इस पर लड़कों ने कहा कि यहां नेतृत्व की जरूरत है. पंत ने उसी समय से राजनीति में आने का मन बना लिया. 5. एक बार पंत ने सरकारी बैठक की. उसमें चाय-नाश्ते का इंतजाम किया गया था. जब उसका बिल पास होने के लिए आया तो उसमें हिसाब में छह रुपये और बारह आने लिखे हुए थे. पंत जी ने बिल पास करने से मना कर दिया. जब उनसे इस बिल पास न करने का कारण पूछा गया तो वह बोले, ’सरकारी बैठकों में सरकारी खर्चे से केवल चाय मंगवाने का नियम है. ऐसे में नाश्ते का बिल नाश्ता मंगवाने वाले व्यक्ति को खुद पे करना चाहिए. हां, चाय का बिल जरूर पास हो सकता है.’ अधिकारियों ने उनसे कहा कि कभी-कभी चाय के साथ नाश्ता मंगवाने में कोई हर्ज नहीं है. ऐसे में इसे पास करने से कोई गुनाह नहीं होगा. उस दिन चाय के साथ नाश्ता पंत की बैठक में आया था. कुछ सोचकर पंत ने अपनी जेब से रुपये निकाले और बोले, ’चाय का बिल पास हो सकता है लेकिन नाश्ते का नहीं. नाश्ते का बिल मैं अदा करूंगा. नाश्ते पर हुए खर्च को मैं सरकारी खजाने से चुकाने की इजाजत कतई नहीं दे सकता. उस खजाने पर जनता और देश का हक है, मंत्रियों का नहीं.’ यह सुनकर सभी अधिकारी चुप हो गए. 6. पंत का जन्मदिन 10 सितंबर को मनाया जाता है. पर असली जन्मदिन 30 अगस्त को है. जिस दिन पंत पैदा हुए वो अनंत चतुर्दशी का दिन था. तो वह हर साल अनंत चतुर्दशी को ही जन्मदिन मनाते थे. पर संयोग की बात 1946 में वह अपने जन्मदिन अनंत चतुर्दशी के दिन ही मुख्यमंत्री बने. उस दिन तारीख थी 10 सितंबर. तो इसके बाद उन्होंने हर साल 10 सितंबर को ही अपना जन्मदिन मनाना शुरू कर दिया. 7. जब साइमन कमीशन के विरोध के दौरान इनको पीटा गया था, तो एक पुलिस अफसर उसमें शामिल था. वो पुलिस अफसर पंत के चीफ मिनिस्टर बनने के बाद उनके अंडर ही काम कर रहा था. इन्होंने उसे मिलने बुलाया. वो डर रहा था, पर पंत ने बहुत ही अच्छे से बात की. 8. कहते हैं कि जब नेहरू ने इंदिरा को कांग्रेस का प्रेसिडेंट बनाया तो पंत ने इसका विरोध किया था. पर ये भी कहा जाता है कि पंत ने ही इंदिरा को लाने के लिए नेहरू को उकसाया था. सच क्या है नेहरू जानें. 9. पंत को 14 साल की उम्र में ही हार्ट की बीमारी हो गई. पहला हार्ट अटैक उन्हें 14 साल की उम्र में ही आया था. (लेख द लल्लन टॉप फ़ोटो नवभारत टाइम्स ई खबर)