Monday, September 29, 2025
विस्थापन का इतिहास भूगोल है भूख
पाठ महत्वपूर्ण लघु पत्रिका है। कामरेड शंकर गृह नियोगी की कर्मभूमि में साथी देवांशु यह पत्रिका जब से निकाल रहे हैं,मैं इससे जुड़ा हूं। अस्सी महत्वपूर्ण अंक पाठ के प्रकाशित हो गए हैं।
ताजा अंक भूख पर विशेष है। करीब बीस साल से मेरा लिखना नहीं हो पाता। ऐसे निष्क्रिय लेखक से भी आखिर लिखवा ही लिया।
यह लेख प्रस्तुत है:
विस्थापन का इतिहास भूगोल है भूख
पलाश विश्वास
हमारे सामने विश्व की सबसे बड़ी जेल गाजा पट्टी का लहूलुहान रोजनामचा है, जहां हर कोई जन्मजात अपनी मातृभूमि, अपनी नागरिकता, नागरिक और मानवाधिकार से वंचित हैं। रोज बच्चे और स्त्रियां, बूढ़े और जवान भोजन की लाइन में बम वर्षा में मारे जा रहे हैं। ये सारे लोग जल जंगल जमीन आजीविका से बेदखल हैं। भूख उनकी जिंदगी का पर्याय है। खून से सने बचपन का सबसे बड़ा सच है भूख।आसमान उनके खिलाफ आग बरसाती है। इस कायनात की कोई नियामत उनके लिए नहीं है। उनका कसूर है आजादी के लिए उनका जज्बा।
आइलान का समुद्र तट पर औंधा लेटा चेहरा याद है।
याद है वह शरणार्थी बच्चा जो नई जमीन की तलाश में अपने कुनबे के साथ किसी ऐसे देश की तलाश में निकला था,जो भूख के भूगोल में न हो।
बहुत पुरानी बात नहीं है। दस साल पहले तीन साल का आइलान कुर्दी अपने पांच साल के भाई और मां के साथ समुद्र में डूब गया। पूरा परिवार 12 अन्य लोगों के साथ जंग से जूझ रहे सीरिया से निकलकर यूरोप जा रहा था। नाव समुद्र में पलट गई। एलन के पिता अब्दुल्ला बच गए। उन्होंने कहा, "मेरे दोनों बच्चे बहुत खूबसूरत थे। वे गोद में सिमटे थे कि नाव डूब गई। मैंने बचाने की कोशिश की, लेकिन हाथों से फिसलते गए। आंखों के सामने समुद्र में समा गए। मैं चाहता हूं कि पूरी दुनिया की नजर इस घटना पर जाए, ताकि दोबारा ऐसा किसी और के साथ न हो।'' बच्चे का शव तुर्की के मुख्य टूरिस्ट रिजॉर्ट के पास समुद्र तट पर औंधे मुंह पड़ा मिला। तस्वीर के सामने आते ही पूरी दुनिया में बहस छिड़ गई। अब्दुल्ला ने अपने दो बेटों-तीन साल के आइलान और चार साल के गालेब और पत्नी रिहाना को खो दिया।
रोज पश्चिम एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, मध्य अमेरिका, पश्चिम यूरोप और एशिया के सर्वव्यापी भूख के भूगोल से कंटीली तार की बाड़ या समुद्र पार करते हुए कितने ही आइलान मारे जाते हैं। गाजा का हर मृत बच्चा आइलान है।
यूं कहे तो गाजा पट्टी जमीन के किसी एक टुकड़े का नाम नहीं है और न सिर्फ फिलिस्तीन का एक हिस्सा है। हर देश में ऐसी असंख्य गाजा पट्टियां और फिलिस्तीन है, जहां साम्राज्यवाद भूखे बच्चों का आखेट करता है।
जैसे अपने खनिज संपदा से अति समृद्ध आदिवासी भूगोल कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश भूख का भूगोल है।ठीक उसी तरह जैसे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन बंगाल और चीन थे। युद्ध और गृहयुद्ध से ध्वस्त देशों में भूख के इस भूगोल पर किसी अर्थशास्त्री की नजर नहीं जाती। वे कभी साम्राज्यवाद को इस भुखमरी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरते।
इस महादेश में दो महान अर्थशास्त्री हुए।दोनों को अर्थ शास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। दोनों बंगाल की पृष्ठभूमि से हैं। डॉ अमर्त्य सेन और डॉ मुहम्मद यूनुस। युनूस हालांकि इस वक्त बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया हैं। आर्थिक घोटालों में उनका अर्थशास्त्र डूब गया। बाकी जो बचा था, वह बांग्लादेश मुक्तियुद्ध की विरासत के साथ जमींदोज हैं।दोनों मुक्त बाजार के सबसे बड़े प्रवक्ता और कार्पोरेट साम्राज्यवाद प्रायोजित विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। दोनों ने बंगाल और चीन की भुखमरी पर काम किया है। दोनों ने भुखमरी का कारण असमान वितरण को बताया। दोनों ने इस सुनियोजित नरसंहार के कातिल ब्रिटिश साम्राज्यवाद को इस जघन्य युद्ध अपराध से बरी कर दिया।उन्होंने बंगाल या चीन भुखमरी के लिए कभी ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जिम्मेदार नहीं बताया।शायद इसीलिए दोनों इतने महान हैं।
आदिवासी भूगोल में जल जंगल जमीन आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के लिए मुक्त बाजार की विश्वुवस्था का कोई अर्थशास्त्री कॉरपोरेट साम्राज्यवाद को दोषी नहीं ठहराता। बल्कि विस्थापन के सलवा जुडूम की अर्थव्यवस्था के पक्ष में उनके सारे आर्थिक विश्लेषण और आंकड़े हैं।
कोई अर्थशास्त्री नहीं बताएगा कि तीव्र विकास की पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की विकास दर में आदिवासी विस्थापन और भूख के भूगोल का कितना योगदान है। जल,जंगल,जमीन, अस्मिता, अस्तित्व, आजीविका, इतिहास भूगोल, नागरिक तथा मानव अधिकारों से बेदखली को बुनियादी ढांचा का विकास कहते हैं, जिसकी नींव में असंख्य लाशें और असंख्य खून की नदियां हैं। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त के राशन को वे संसाधनों की लूट खसोट या आसमान वितरण का नतीजा कभी नहीं बताते।क्योंकि यह सबकुछ सत्ता वर्ग के वर्गहित जाति हित में हैं।
वंचित आदिवासी तबकों,दलितों,पिछड़ों के कोई अर्थशास्त्री नहीं होते। सारे अर्थशास्त्री और राजनयिक, राजनेता सत्तवर्ग के हैं।इसलिए भुखमरी के इतिहास भूगोल पर कभी कोई बात नहीं होती।
भारत विभाजन के शिकार वे लोग हुए जो बंगाली की भुखमरी के शिकार थे।इस भुखमरी के मुनाफे वाले लोगों ने बंगाल के विभाजन के लिए भारत का विभाजन वैसे ही कराया जैसे दलित,वंचित तबके के खिलाफ बंगाल की भुखमरी को उन्होंने राजनीतिक हथियार बनाया था।
बंगाल के इतिहास भूगोल से विस्थापन की असल तारीख भारत का स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 नहीं था।
इस तारीख से पहले वंचित तबकों के दलित और मुसलमान एक साथ मिलकर दो सौ साल से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और अस्पृश्यता के सामंती किलों के खिलाफ लड़ रहे थे।
चूआड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह, नील विद्रोह, बाउल फकीर संन्यासी विद्रोह, दलित किसानों की हड़ताल, पाबना विद्रोह, राजशाही विद्रोह, संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, किसान मजदूर आंदोलन के समूचे क्रमबद्ध इतिहास और बंगाल में दलितों मुसलमानों के राजनीतिक गठबंधन का पटाक्षेप बंगाल की भुखमरी से हो गया। गोदामों में अनाज सड़ रहा था। अनाज की कमी नहीं थी। बंगाल के सत्ता वर्ग के मसीहा जमींदार तबके के बेटा भूख से बिलबिलाती, कीड़े मकोड़े की तरह मरते गांवों के मध्य अपने ऐशगाहों, बागान बाड़ी और बाईजी महफिल पर लाखों का खर्च कर रहे थे,लेकिन भूख से दम तोड़ते लोगों के लिए उनके पास फूटी कौड़ी नहीं थी।
प्रसिद्ध चित्रकार चित्तौप्रसाद और सोमनाथ होड़ ने इस पर खुलकर लिखा है। माणिक बंदोपाध्याय की तमाम कहानियों और उपन्यासों में भूख को हथियार बनाकर बंगाल में हुए इस कत्लेआम की कथा व्यथा दर्ज है।
दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था।कोलकाता में जापानी युद्धक विमानों ने कुछ बम जरूर गिराए,लेकिन भूख के समूचे भूगोल पर एक भी बम नहीं गिरा।फिर भी लाखों लोग मार दिए गए।
1943-44 में बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, भारत का पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडीशा) एक भयानक अकाल पड़ा था जिसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जान जान गंवाई थी। ये द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था।
माना जाता है कि अकाल का कारण अनाज के उत्पादन का घटना था, जबकि बंगाल से लगातार अनाज का निर्यात हो रहा था। हालांकि, विशेषज्ञों के तर्क इससे अलग हैं। ये विशेषज्ञ कौन है,इनकी पहचान कर लें तो समझ में आएगा कि कोई परमाणु बम, हाइड्रोजन बम भूख के हथियार से बड़ा नहीं है। भूख की नींव पर सामंतवाद और साम्राज्यवाद की पूरी विश्व्यवस्था बहाल तबियत है।
दावा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल ने जानबूझकर लाखों भारतीयों को भूखे मरने दिया। बर्मा पर जापान के कब्जे के बाद वहां से चावल का आयात रुक गया था और ब्रिटिश शासन ने अपने सैनिकों और युद्ध में लगे अन्य लोगों के लिए चावल की जमाखोरी कर ली थी, जिसकी वजह से 1943 में बंगाल में आए सूखे में तीस लाख से अधिक लोग मारे गए थे।
भारत विभाजन के बाद बंगाल में हुए दंगों में या बांग्लादेश मुक्तियुद्ध में भी इतने लोग मारे नहीं गए।
इसलिए वो जहां विभीषिका से बड़ी त्रासदी है बंगाल की भुखमरी और भुखमरी के शिकार लोगों को ही बंगाल के विभाजन के जरिए अपने घर, खेत,गांव, देश, जलवायु, परिवेश, समाज, संस्कृति, मातृभाषा, इतिहास,भूगोल, अस्मिता और अस्तित्व से बेदखल कर दिया गया।बंगाल में भद्रलोक वर्चस्व का यही उपाख्यान विस्थापन का यथार्थ है।जो विश्व के हर देश में वर्चस्व और विस्थापन का इतिहास भी है।
आज भी इस महादेश में भूख का भूगोल का भूकंप केंद्र बांग्लादेश, बिहार, झारखंड और ओडीशा है।
1943 के बंगाल में कोलकाता की सड़कों पर भूख से हड्डी हड्डी हुई मांएं सड़कों पर दम तोड़ रही थीं। लोग सड़े खाने के लिए लड़ते दिखते थे तो ब्रिटिश अधिकारी और मध्यवर्ग भारतीय अपने क्लबों और घरों पर गुलछर्रे उड़ा रहे थे। बंगाल की मानव-रचित भुखमरी ब्रिटिश राज के इतिहास के काले अध्यायों में से एक रही है।
बंगाल के मुख्यमंत्री पूर्वी बंगाल में व्यापक दंगों के सच को मानने से इनकार करते हुए पूर्वी बंगाल से आए विस्थापितों को भुखमंगे कहकर शरणार्थी मानने से इनकार कर दिया था और उन्होंने बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास में सहयोग से सिरे से इनकार कर दिया था।
1949 में ही बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास के लिए नैनीताल, अंडमान और दंडकारण्य प्रोजेक्ट एक साथ भारत सरकार ने बनाए थे।
इनमें नैनीताल पुनर्वास परियोजना 1950 में ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत की पहल पर लागू हो गई थी,लेकिन बंगाल में राजनीतिक विरोध के कारण सिर्फ ढाई हजार परिवार ही 1949 से 1952 तक नैनीताल गए।बंगाली नेताओं के असहयोग के कारण दंडकारण्य प्रोजेक्ट 1960 और अंडमान प्रोजेक्ट 1962 में चालू हो सका।सिर्फ दस प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास हो सका और बाकी नब्बे प्रतिशत को भूख के भूगोल में मरने को छोड़ दिया गया।
चीन में क्रांति के बाद कामरेड माओ त्से तुंग के लाल चीन में हुईं भुखमरी से मौतों का किस्सा एक बेमिसाल नजीर है कि भूख के भयानक सच को सत्ता कैसे दबाती है। चिन्नी क्रांति और माओ के ही नक्शेकदम पर सत्तर के दशक में भारत में क्रांति के सपने लेकर वसंत के वज्र निनाद में हजारों नौजवानों ने नक्सलबाड़ी आंदोलन में शहादते दी थी। सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है, माओ के इस कथन के आधार पर वर्ग शत्रुओं के सफाए का अभियान चला था। रातोंरात सोवियत रूस की क्रांति और मार्क्सवाद लेनिनवाद की जगह कामरेड माओ को चारू मजूमदार ने हमारा चेयरमैन कहते हुए गांवों से शहर को घेरने का नारा देकर भारत में भी सशस्त्र कृषि क्रांति का नारा दिया था।
लगभग 1959-1961 के दौरान, इसी सपनों के लाल चीन ने एक भयावह अकाल का सामना किया। आधिकारिक सरकारी आँकड़े बताते हैं कि मरने वालों की संख्या 1.5 करोड़ थी, लेकिन आज विद्वानों का अनुमान है कि यह संख्या 2 करोड़ से 4.3 करोड़ के बीच है। सही आँकड़ा शायद कभी पता न चले। यह विषय चीन में अभी भी वर्जित है, जहाँ इसे व्यंजनात्मक रूप से प्राकृतिक आपदाओं के तीन वर्ष कहा जाता है। फिर भी यह स्पष्ट है कि यह अकाल मुख्यतः मानव निर्मित था।
यही सच है भूख का।सत्ता चाहे किसी की हो भुखमरी के सच को जिंदा दफन कर दिया जाता है।भूख और भुखमरी पर चर्चा हर देश, काल परिस्थिति में निषिद्व है।
भारत में भी। हर साल भूख और कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या करते हैं और भुखमरी लगी रहती है, लेकिन कोई सत्ता इसे स्वीकार नहीं करती।
चीन के बाहर बहुत कम लोगों को पता था कि क्या हो रहा है। देश बाहरी दुनिया के लिए बंद था, और आने वाले विदेशियों पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। दरअसल, कई शहरी चीनियों को इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि स्थिति कितनी खराब थी, क्योंकि ग्रामीण इलाकों को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ था। 1965-75 की दस साल की अवधि में, मिरियम और इवान डी. लंदन ने सीमा पार हांगकांग में चीनी शरणार्थियों का साक्षात्कार लिया और सच्ची कहानी पर लगातार रिपोर्टिंग की। उनकी रिपोर्ट्स को चीन पर नज़र रखने वाले कई लोगों ने उत्सुकता से पढ़ा, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया ने ज़्यादातर उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया।
आज भारत का समूचा आदिवासी भूगोल भूख और विस्थापन का भूगोल है। जल जमीन जंगल आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखली का भूगोल है जो आजादी से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल प्रेसीडेंसी का सच था। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश राज का सबसे धारदार हथियार बनाए रखा। पलाशी के युद्ध के तुरंत बाद से दो सौ साल तक भारत के किसान और आदिवासी ब्रिटिश राज के खिलाफ लगातार लड़ते रहे। रियासतें और जमींदारियां ब्रिटिश एजेंसियों की तरह अपने राजकाज अलग चल रही थी। इस दोहरे शासन की परिणति थी बंगाल की भुखमरी। आजादी के बाद कारपोरेट राज में बेदखली का वही बुलडोजर राज चल रहा है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राजधानी वॉशिंगटन से गरीबों और बेघरों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया है।गरीबों, बेघरों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ भारत के हर राज्य में कभी विकास के नाम,कभी बुनियादी ढांचे के नाम तो कभी अतिक्रमण हटाओ या सौंदर्यीकरण के नाम यह अभियान शाश्वत सत्य बन गया है। भूख के भूगोल के ही नागरिक हैं गरीब,मेहनतकश लोग,दलित, विस्थापित, आदिवासी और अल्पसंख्यक। राष्ट्र और समाज, प्रेस और मीडिया, भद्र प्रबुद्ध जन,राजनेता की छोड़िए, पत्रकार, कवि,
लेखक, पूंजी पोषित सामाजिक कार्यकर्ता भी अब विकास के इस मॉडल के पैरोकार है,जो गरीबों, आदिवासियों, दलितोंवस्थापितों और अल्पसंख्यकों के सफाए को जायज साबित करने में शर्मिंदा महसूस नहीं करते।
यह हिमालय के धवल शुभ्र उत्तुंग शिखरों और हिमनदों का भी सच है। विकास के नाम विनाश की इस अर्थव्यवस्था के मिसाइली शिकारियों की निगाह में है हिमालय। जहां सारे संसाधन देशी विदेशी पूंजी, कार्पोरेट के हवाले हैं। चार धाम जैसी परियोजनाओं और ऊंचे पहाड़ों में रईसों के लिए धर्मस्थलों पर भी ऐशगाह बनाने की मुहिम ने भूपारिस्थिकी की दृष्टि से अति संवेदनशील हिमालय का भूख के भूगोल में समाहित कर दिया है।
यह असंख्य ग्लेशियरों का घर हैं।ये ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।टूट रहे हैं। गंगोत्री से गंगासागर तक जलप्रलय का सृजन कर रहे है। सबसे ज्यादा बड़े बांध हिमाचल प्रदेश में बनाए गए,जहां व्यापक पैमाने पर विस्थापन हुआ। ऐसा विस्थापन, जिसके एवज में कोई पुनर्वास नहीं होता। जितने विस्थापित भारत विभाजन के कारण बंगाल और पंजाब से आए,उससे कहीं ज्यादा विस्थापन भारत में विकास के नाम भूख के इस भूगोल से हुआ।इसलिए भूख का भूगोल दरअसल विस्थापन का भी भूगोल है।
हिमालयी राज्यों की विडंबना है कि इसे विस्थाओं नहीं कहा जाता।गांव के गांव वीरान हैं। न रोजगार है और न आजीविका।जल जंगल जमीन से बेदखल लोग मानव सृजित आपदाओं के शिकार होकर मरते रहते हैं। दुर्गम गांवों तक सिर्फ पगडंडियां हैं।न स्कूल हैं और न अस्पताल। ऊपर से बाढ़,भूस्खलन, भूकंप, भूख और बेरोजगारी। जीने की जिजीविषा में पहाड़ मैदानों पर चल आता है अपनी नदियों की तरह। इसे विस्थापन न कहकर पलायन कहते हुए बेशर्मी से भूख के सच को दबाया जा रहा है।
अंधाधुंध बाजारीकरण,शहरीकरण के कारण खेती से बड़े पैमाने पर बेदखल हो रहे हैं लोग।ब्रिटिश हुकूमत और देश आजाद होने के बाद सत्तर के दशक तक हुए औद्योगिकीकरण से भी लोग खेतों से बेदखल हो रहे थे।लेकिन तब उद्योगों में बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिल रहा था।मुक्तबाजार में निजीकरण,उदारीकरण और ग्लोबीकरण के साथ आधुनिकीकरण के नाम हो रहे बाजारीकरण और अंधाधुंध शहरीकरण से हिमालय से हिंद महासागर तक रोजगार सृजन के बजाय लोग रोजगार,आजीविका, जल,जंगल,जमीन और नागरिकता से भी बेदखल हो रहे हैं। भूख और विस्थापन का भूगोल का विस्तार हो रहा हैं।
हम इसी भूख के भूगोल और इतिहास के उत्तराधिकारी हैं। हमारे जो पुरखे भूख और महामारी में नहीं मरे,विभाजन विभीषिका और आजादी के जश्न के बीच जो दंगा फसाद से भी बच गए, रिफ्यूजी कैंप के नर्क में भूख और महामारी के शिकंजे से निकलकर जो पुनर्वास उपनिवेश में बस गए और वहां से भी जिनकी बेदखली का चाकचौबंद इंतजाम है, हम उनकी संतान हैं।
बंगाल के राणाघाट, काशीपुर कैंप से लेकर मध्यप्रदेश के माना कैंप तक देश में सैकड़ों रिफ्यूजी कैंप में हमारे लोग फिलिस्तीनी शरणार्थियों की तरह बार्सोबर्स तक कैद रहे और आज भी उन्हीं कैंपों में लाखों विस्थापित परिवार आज भी कैद हैं। जिन्हें सड़ा गला पुराना राशन दिया जाता रहा। यहां तक कि उन्हीं कैंपों में कभी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ठहराए गए अमरीकी सैनिकों का छोड़ा हुआ राशन भी। कीड़े मकोड़े की तरह लोगों को तंग संकरे गंदे कमरों में ठहराया गया।स्त्री पुरुष के लिए कहीं कोई अलग इंतजाम नहीं।बच्चों को जानवर उठा ले जाते थे। इस नर्क में महामारी का एक ही इलाज था,लावारिश लाशों को सौ दो सौ की तादाद में एक साथ फूंक देना और अधजली लाशों को नदियों में बहा देना।
सरहद हर करके भूख के भूगोल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में दाखिल लोगों में 1947 से 1976 तक रुक रुक कर रिफ्यूजी कैंपों के सफाए अभियान के साथ जिन दस प्रतिशत लोगों को बंगाल से बाहर भारत के 22 राज्यों के आदिवासी इलाकों, जंगलों,पहाड़ों, मरुस्थलों, अभ्यारण्यों और द्वीपों में पुनर्वास की रस्म अदायगी की गई, उन्हें लगभग सर्वत्र बिना सरकारी मदद के, बिना गांव बसाए खुले जंगल में बरसोबरस बाघ का चारा बना दिया गया।
हिमालय की तलहटी में नैनीताल की तराई के घने जंगल में 1949 से 1954, 1956 तक मच्छरों, मलेरिया,हैजा, सर्पदंश,खूंखार जानवरों के मुकाबले कंदमूल,जंगली फल खाकर भूख और जंगली जनवरों का चारा बनने से जो पुरखे हमारे पुनर्वास उपनिवेश में बसे, हम उन्हीं की संतान हैं।देशभर के आदिवासी इस भूख और विस्थापन के रिश्ते से हमारे उतने ही अपने हैं जितने दुनिया बढ़ के विस्थापित और गाजा पट्टी के बच्चे।
भूख और विस्थापन के भूगोल और इतिहास की कोई सरहद नहीं है। सभी अपना अपना फिलिस्तीन जीते हैं।
समाप्त
पलाश विश्वास
कार्यकारी संपादक,प्रेरणा अंशु,
समाजोत्थान संस्थान,
दिनेशपुर,
उत्तराखंड 263460
06398418084
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ताजा किताब: पुलिनबाबू: विस्थापन का यथार्थ, पुनर्वास की लड़ाई
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