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लगता नहीं पुराने रंग में कभी लौट पाएगा नंदीग्राम

लगता नहीं पुराने रंग में कभी लौट पाएगा नंदीग्राम

Monday, 19 March 2012 10:08

प्रभाकर मणि तिवारी 
कोलकाता, 19 मार्च। उस भयावह घटना को भले पांच साल बीत गए हों पर नंदीग्राम के घाव अब तक हरे हैं। नंदीग्राम यानी पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले का एक छोटा सा कस्बा। 
'केमिकल सेज' के लिए जमीन के अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों पर 14 मार्च 2007 को पुलिस ने जो अंधाधुंध फायरिंग की थी उसमें 14 किसान मारे गए थे। उस समय सरकार ने जिन लोगों के खिलाफ सरकारी कामकाज में बाधा डालने के लिए मुकदमा किया था उनमें से पांच अब भी जेल में हैं। कई दूसरे लोगों के खिलाफ अब भी मामले चल रहे हैं। नंदीग्राम के कोई एक दर्जन लोग उस गोलीकांड के दिन से ही गायब हैं। उनकी राह तकते परिजनों की आंखें पथरा गई हैं लेकिन आस अब तक नहीं टूटी है। उस गोलीकांड ने नंदीग्राम को देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुर्खियोंं में ला दिया था। कहा जाता है कि समय सबसे बड़ा मरहम है। लेकिन उस घटना के पांच साल बीतने के बावजूद इलाके के लोगों के घाव नहीं सूख सके हैं। इलाके में ऊपर से देखने पर तो जीवन सामान्य नजर आता है। लेकिन उस दिन की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें बहने लगती हैं। 
नंदीग्राम इलाके में इन पांच वर्षों में कुछ भी नहीं बदला है। इलाके में लगता है समय मानों ठहर-सा गया है। सड़कें टूटी-फूटी हैं। इलाके से शहर तक जाने के पर्याप्त साधन नहीं हैं। बीमारी की हालत में दूरदराज जिला मुख्यालय स्थित अस्पताल तक जाने के लिए अब भी रिक्शा वैन का ही सहारा है। इन पांच वर्षों के दौरान सीपीएम से लेकर तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने वादे तो थोक में किए, लेकिन उन्हें हकीकत में नहीं बदला। अब उस गोलीकांड की पांचवीं बरसी पर नंदीग्राम पहुंची मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इलाके के विकास के लिए एकमुश्त कई परियोजनाओं का एलान किया है। इस समारोह में मुख्यमंत्री अपने लाव-लश्कर के साथ नंदीग्राम पहुंची थीं। उनकी सभा में भीड़ तो जुटी, लेकिन वह भीड़ किसी उम्मीद के साथ नहीं लौटी। इनमें इलाके में नए स्कूल-कालेज और अस्पताल खोलना शामिल है। मुख्यमंत्री ने वहां एक अस्पताल का शिलान्यास किया। उन्होंने जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ दायर मामलों को वापस लेने का भी एलान किया है। ममता ने कहा कि सरकार आर्थिक तंगी से गुजर रही है। लेकिन वह नंदीग्राम के विकास में कोई कमी नहीं छोड़ेगी। सरकार ने इस दिन को किसान दिवस के तौर पर मनाने का एलान किया है।
मुख्यमंत्री का यह एलान फरजाना बीबी की आंखों के आंसू पोंछने में नाकाम है। फरजाना को आज भी वह दिन याद है। उस दिन पुलिस फायरिंग के बाद उनके बेटे मोहम्मद अकरम का आज तक कुछ पता नहीं चला। उसकी लाश भी नहीं मिली। वे कहती हैं कि सुबह नाश्ते के बाद मेरा बेटा घर से यह कह कर निकला था कि अभी आता हूं। उसके बाद पुलिस की फायरिंग का शोर मचा और पूरा इलाका युद्धक्षेत्र में बदल गया। उस दिन से आज तक अपने जवान बेटे का इंतजार कर रही हूं। अब तो मेरी आंखों के आंसू भी सूख गए हैं। 22 साल की नसीमा बानो को तो ब्याह कर नंदीग्राम आए अभी साल भी नहीं हुआ था जब वह घटना हुई थी। तब वे गर्भवती थीं। लेकिन उस दिन से गायब उनके पति शकील का कोई सुराग नहीं लग सका है।

नंदीग्राम के हर घर में ऐसी कितनी ही कहानियां बिखरी पड़ी हैं। मोहम्मद शेख ने उस फायरिंग में अपना इकलौता जवान बेटा खो दिया था। वे आरोप लगाते हैं कि मेरे बेटे के हत्यारे पुलिस वाले आज भी खुले घूम रहे हैं। सरकार ने उनको कोई सजा नहीं दी। स्थानीय लोगों का आरोप है कि बीते पांच वर्षों में किसी ने उनकी कोई सुध नहीं ली। वे कहते हैं कि तमाम दलों के नेता वोट मांगने तो इलाके में आए थे। लेकिन वह लोग कोरे आश्वासन देकर ही लौट गए। नंदीग्राम आंदोलन के जारी हिंसा में बेघर लोगों के घर पर अब तक छत नहीं बन सकी है। कमाई का कोई साधन नहीं है। खेती और मेहनत-मजदूरी से जो चार पैसे मिलते हैं उससे परिवार का पेट पालें या छत बनवाएं, इस सवाल का जवाब लोग अब तक नहीं तलाश सके हैं। कई लोग तो अब भी स्कूलों में बने शिविरों में रह रहे हैं। ऐसे ही एक युवक नईम बताता है कि पहले तो कुछ दिनों तक सरकार की ओर से खाने-पीने का इंतजाम किया गया था। बाद में वह बंद हो गया। अब हम लोग अपनी कमाई खाते हैं। लेकिन जाएं तो जाएं कहां? हमारा घर तो आंदोलन में ध्वस्त हो गया।
इलाके में कई घरों की दीवारों पर पुलिस और सीपीएम काडरों की ओर से की गई फायरिंग के दौरान लगी गोलियों के निशान ताजा हैं और लोगें को उस घटना की याद दिलाते रहते हैं। नंदीग्राम आंदोलन के दौरान और उसके बाद उपजे हालात का सबसे ज्यादा खमियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ा। नंदीग्राम हाईस्कूल में पढ़ने वाले फारुख की एक साल की पढ़ाई उस आंदोलन ने लील ली। उसके जैसे सैकड़ों दूसरे भी हैं। अब फारूख उस घटना से उबर कर अपनी पढ़ाई पूरी करने में जुटा है। लेकिन किशोरावस्था में देखी हुई उस घटना की यादें अब भी उसे अक्सर कचोटती रहती हैं। वह कहता है कि किसी तरह पढ-लिख़ कर बढ़िया नौकरी करना चाहता हूं। ताकि घरवालों को इस कष्ट से मुक्ति दिला सकूं।
उस घटना के बाद से सैकड़ों परिवार घर-बार छोड़ कर पड़ोसी हल्दिया शहर में चले गए थे। उनमें से कुछ तो बाद में लौट आए। लेकिन ज्यादातर अब भी लौटने की हिम्मत नहीं जुटा सके हैं। इलाके के एक बुजुर्ग नईमुद्दीन कहते हैं कि अब नंदीग्राम में वह बात नहीं रही। पहले हम बेहद शांत और आसान जीवन जी रहे थे। लेकिन 14 मार्च की घटना ने हमारा जीवन ही बदल दिया। नंदीग्राम से सटे सोनाचूड़ा और आसपास के गांवों में भी हालात ऐसे ही हैं। वहां टूटे-फूटे घर भी उस तूफान से होने वाली बर्बादी की मूक दास्तां सुनाते नजर आते हैं। ऐसे में सरकार के तमाम वादों और दावों के बावजूद नंदीग्राम का अपने पुराने रंग में लौटना मुश्किल ही नजर आता है।

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