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Thursday, March 29, 2012

सिनेमा जिंदा कला है, यहां मरी हुई सोच के साथ मत आइए

http://mohallalive.com/2012/03/29/irrfan-interact-with-jnu-crowd/

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सिनेमा जिंदा कला है, यहां मरी हुई सोच के साथ मत आइए

29 MARCH 2012 ONE COMMENT

♦ विनीत कुमार

जेएनयू में इरफान से बात करने के लिए बड़ी तादाद में युवा पहुंचे थे। उनके सवाल पर्चियों की शक्‍ल में मॉडरेटर के पास पहुंच रहे थे। इरफान ने धैर्य के साथ सबका जवाब दिया। कई किस्‍से सुनाये, जो धीरे-धीरे, एक एक करके हम मोहल्‍ला लाइव में प्रकाशित करेंगे। फिलहाल विनीत कुमार ने कुछ एफबी नोट्स लिये थे, जो यहां रख रहा हूं। साथ ही जेएनयू के छात्र उदय शंकर ने कुछ तस्‍वीरें लीं, उसे भी शेयर कर रहा हूं: मॉडरेटर

अभी थोड़ी देर पहले, इरफान को सुन और देखकर लौटा हूं। वो जेएनयू आये थे। लगभग दो घंटों तक सवाल और जवाब का दौर चला। तकरीबन हर तरह के सवाल पूछे गये। उनको सुनने के बाद मेरा ये इम्प्रेसन है कि 'विवादों' न फंसने की कला वो अच्छी तरह जानते हैं। वो ये भी अच्छी तरह जानते हैं कि किस तरह दूसरे को नीचा दिखाये बिना भी अपने को स्थापित किया जा सकता है। जिंदगी का एक शानदार अनुभव, मुझे ये जरूर कहना चाहिए!

फेसबुक पर महताब आलम


अलग अलग तस्‍वीर देखने के लिए चटका लगाएं। फेसबुक का लिंक खुलेगा, आपको लॉगइन करने की जहमत उठानी होगी।

बॉलीवुड में दो-चार मुद्दे आधारित फिल्में बनी नहीं कि लोगों को सिनेमा के जरिये सामाजिक बदलाव का भ्रम शुरू हो जाता है। भला हो इरफान का कि उन्होंने साफ-साफ शब्दों में कहा – जो लोग इश्यू बेस्ड फिल्में बनाकर कन्सर्न की बात करते हैं, वो आडंबर से ज्यादा कुछ नहीं है। वो ऐसा अपनी पहचान बनाने के लिए करते हैं।

… इरफान की फिल्में आमतौर पर मेनस्ट्रीम में होते हुए भी असाधारण भले होती हों, लेकिन अपनी पूरी बातचीत में उन्होंने कहीं से भी असाधारण होने का दावा नहीं किया। सबसे अच्छी बात कि उन्होंने बेलौस अंदाज में कहा – जो लोग अलग कर रहे हैं, अपनी पहचान बनाने के लिए, स्पेस के लिए… सोशल कमिटमेंट के तहत नहीं। ऐसे में उनका दो टूक अंदाज एक साथ खींचता भी था और निराश भी करता था। इरफान, आप भी ऐसी ही बात करेंगे?

… मुद्दे आधारित जो फिल्में बनती हैं, उनमें एनटरटेनमेंट नहीं होता और जिन फिल्मों में एनटरटेनमेंट होता है, उनमें कोई मुद्दा नहीं होता। कोशिश होनी चाहिए कि हम सिनेमा को इन दोनों के बीच संतुलन में रखें। आखिर सिनेमा एक जिंदा कला है।

… एक रात मैं होटल में रुका था। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं वारेन हेस्टिंग्स का सांड निकालकर पढ़ने लगा। पढ़ने के बाद बहुत देर तक रोता रहा। मैं सचमुच उदय प्रकाश की कहानी पर फिल्म करना चाहता हूं। इरफान ने बहुत सम्मान से कहा, वो हिंदी में सबसे ज्यादा उदय प्रकाश को पसंद करते हैं। वो गजब के लेखक हैं।

… कभी अनुराग कश्यप ने नामवर सिंह की बहुत तारीफ की थी और साझा किया था कि पाश पर बात करने के लिए जब-जब फोन करता, बड़े इत्‍मीनान से नामवरजी सब बताते। कितना ज्ञान और समझ हैं उन्हें … और आज इरफान ने उदय प्रकाश की खुले दिल से तारीफ की। अच्छा लगता है जब हिंदी की लहालोट और छक्का-पंजा की दुनिया के बाहर भी हमारे रचनाकारों, आलोचकों की तारीफ होती है।

… आधी हकीकत आधा फसाना में प्रहलाद ने बड़ी श्रद्धा से लिखा कि राज कपूर से मिलने के लिए उन्होंने कितनी झंझटें उठायी और वो मिले। मुझे लगता है लेखक भक्त की मुद्रा में इतनी झंझटें उठाये बिना ही लिखते रहें तो सिने सितारे उन्हें कहीं ज्यादा सम्मान देंगे, पढ़ेंगे और उनका महत्व समझेंगे। लेकिन नहीं, अधिकांश लेखकों की उपलब्धि इसी में जाकर अटक जाती है कि हजारों की भीड़ में स्टार उन्हें अलग से पहचानता है कि नहीं …

(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्‍ण मीडिया विश्‍लेषक। ओजस्‍वी वक्‍ता। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्‍लॉग राइटर। कई राष्‍ट्रीय सेमिनारों में हिस्‍सेदारी, राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। हुंकार और टीवी प्‍लस नाम के दो ब्‍लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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