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Wednesday, March 28, 2012

धार्मिक संस्थाओं से राजकीय भेदभाव

धार्मिक संस्थाओं से राजकीय भेदभाव


Tuesday, 27 March 2012 10:55

शंकर शरण 
जनसत्ता 27 मार्च, 2012: भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि हमारा संविधान सेक्युलर नहीं क्योंकि 'यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।' यह तब की बात है, जब संविधान की प्रस्तावना में छेड़छाड़ नहीं हुई थी। आज इस बिंदु पर, धार्मिक भेदभाव और सेक्युलरिज्म पर, एक दोहरी विडंबना पैदा हो चुकी है। एक ओर 1976 में इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में 'सेक्युलर' (और 'सोशलिस्ट' भी) शब्द जोड़ दिया गया जो संविधान निर्माताओं की भावना नहीं थी। वे इन अवधारणाओं और निहितार्थों से बखूबी परिचित थे, इसलिए विचार करने के बाद इन्हें संविधान में स्थान नहीं दिया। मगर विडंबना है कि बाद में एक राजनीतिक चौकड़ी ने छल से इस शब्द का संविधान में प्रवेश करा दिया, वह भी प्रस्तावना जैसे मूल-निर्देशक स्थान पर; जब पूरा विपक्ष जेल में था और मीडिया पर सेंसरशिप थी। 
मगर दूसरी विडंबना उससे कम नहीं, कि जब संविधान को बाकायदा 'सेक्युलर' घोषित कर दिया गया; उसके बाद से राजनीतिक नीति-निर्माण को निरंतर धार्मिक भेदभावपूर्ण रुझान दे दिया गया। सेक्युलरिज्म के ठीक विपरीत, एक हिंदू-विरोधी प्रवृत्ति राजकीय नीति-सी बन गई। इसके अनगिनत प्रमाण और दृष्टांत रोज मिलते रहते हैं। कई नेता, बुद्धिजीवी और न्यायविद इसे महसूस भी करते हैं, मगर कुछ नहीं करते। या कर नहीं पाते। इसे एक अन्य विडंबना समझना चाहिए। विशेषकर इसलिए कि यह सब मुख्यत: हिंदू परिवारों में जन्मे कणर्धारों, विद्वानों और नैयायिकों द्वारा होता है। 
इस जरूरी पीठिका के साथ ही अभी शिरडी सार्इं मंदिर न्यास में पुनर्गठन की प्रक्रिया को ठीक से समझा जा सकता है। हाल में मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ ने शिरडी सार्इं मंदिर के न्यास को भंग कर जिलाधिकारी को नए न्यास का निर्माण करने को कहा। इसके बाद से महाराष्ट्र के कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं में नए न्यास में कब्जे की जोड़-तोड़ शुरू हो गई है। पिछले न्यास में भी सत्रह में से सोलह सदस्य इन्हीं पार्टियों के नेतागण थे। अर्थात, शिरडी सार्इं मंदिर का प्रबंधन शिरडी सार्इं के भक्तों और धर्मप्राण हिंदुओं के हाथों में नहीं है। इसे राजनेताओं ने हथिया लिया है। हमारे न्यायालय यह जानते हैं। 
तब प्रश्न है, भारतीय राज्यसत्ता हिंदुओं को अपने मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने के अधिकार से जब चाहे वंचित करती है, जबकि मुसलिमों, ईसाइयों की संस्थाओं पर कभी हाथ नहीं डालती। यह हिंदू-विरोधी धार्मिक भेदभाव नहीं तो और क्या है? केवल शिरडी सार्इं मंदिर नहीं, केरल से लेकर तिरुपति, काशी, बोधगया और जम्मू तक, संपूर्ण भारत के अधिकतर प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों पर राजकीय कब्जा कर लिया गया है। इनमें हिंदू जनता द्वारा चढ़ाए गए सालाना अरबों रुपयों का मनमाना दुरुपयोग किया जाता है। 
जिस प्रकार, चर्च, मस्जिद और दरगाह अपनी आय का अपने-अपने धार्मिक विश्वास और समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं- वह अधिकार हिंदुओं से छीन लिया गया है! बल्कि कई मंदिरों की आय दूसरे समुदायों के मजहबी क्रियाकलापों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के हिंदू मंदिरों की आय से मुसलमानों को हज सबसिडी देने की बात कई बार जाहिर हुई है। 
यह किस प्रकार का सेक्युलरिज्म है? यह तो स्थायी रूप से हिंदू-विरोधी धार्मिक भेदभाव है, जो निस्संदेह हमारे संविधान के भी विरुद्ध है। सामान्य न्याय-बुद्धि के विरुद्ध तो है ही। यह अन्याय नास्तिक और विशेषकर हिंदू-विरोधी नेहरूवादियों, वामपंथियों ने राजसत्ता का छल से उपयोग कर भारतीय जनता पर थोपा। 
अब दशकों से चलते हुए यह परिपाटी एक स्थापित राजकीय नीति में बदल गई है। वोट-बैंक राजनीति के बढ़ते लोभ से इस पर दूसरे राजनीतिक दल भी कोई आवाज नहीं उठाते। मगर गैर-राजनीतिक स्वर क्यों मौन हैं?
कुछ लोग तर्क करते हैं कि हिंदू मंदिरों, धार्मिक न्यासों पर राजकीय नियंत्रण संविधान-विरुद्ध नहीं है। संविधान की धारा 31(ए) के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्ति का अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1997) के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, 'किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है।' अत: अगर हमारे देश में राज्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उनका संचालन अपने हाथ में ले लिया तो इसमें कुछ गलत नहीं। 
मगर आपत्ति की बात यह है कि संविधान की धारा 31(ए) का प्रयोग केवल हिंदू मंदिरों, न्यासों पर होता रहा है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तियां कितने भी घोटाले, विवाद या गड़बड़ी का शिकार हों, उन पर राज्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी विशेष रिलीजन या मजहब को छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। 
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी 'किसी धार्मिक संस्था' या 'ए रिलीजन' की बात की गई है। मगर व्यवहार में केवल हिंदू मंदिरों, न्यासों पर राज्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। चाहे बहाना सही-गलत कुछ हो। 
इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में केवल हिंदू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह निष्कंटक अधिकार नहीं, जो अन्य धर्मावलंबियों को है। यह सीधा अन्याय है, जो हिंदू समुदाय को अपने धर्म और धार्मिक संस्थाओं का, अपने धन से अपने   धार्मिक कार्यों, विश्वासों का प्रचार-प्रसार करने से वंचित करता है। उलटे, हिंदुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए धन का हिंदू धर्म के शत्रु मतवादों को मदद करने में दुरुपयोग करता है। यह हमारी राज्यसत्ता द्वारा और न्यायपालिका के सहयोग से होता रहा है- इस खुले अन्याय पर कब विचार होगा?

वस्तुत: संविधान की धारा 26 से लेकर 30 तक एक ऐसी विकृति की शिकार है, जिसकी हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना तक नहीं की थी। संविधान निर्माताओं ने संविधान में समुदाय के रूप में 'अल्पसंख्यक' शब्द का अलग से कई बार प्रयोग किया, जबकि 'बहुसंख्यक' का एक बार भी नहीं। (धारा 30 में धर्म और भाषा के संदर्भ में 'अल्पसंख्यक' का उल्लेख है)। न बहुसंख्यक समुदाय के लिए अलग से कोई प्रावधान किया। इसका अर्थ यह नहीं था कि वे अल्पसंख्यक समुदायों को ऐसे अधिकार देना चाहते थे, जो बहुसंख्यकों को न मिलें। बल्कि वे सहज मान कर चल रहे थे कि बहुसंख्यकों को तो वे सभी अधिकार होंगे ही! 
संविधान बनाने वालों की भावना यह थी कि अल्पसंख्यकों को किन्हीं कारणों से उन अधिकारों से वंचित न होना पड़े। इसलिए उन्हें बहुसंख्यकों के बराबर सभी अधिकार मिले रहें, इस नाम पर धारा-30 जैसे उपाय किए गए। धारा 30 (2) को पढ़ कर संविधान निर्माताओं का यही भाव स्पष्ट होता है। पर स्वतंत्र भारत में हिंदू-विरोधी और नास्तिक नेताओं, बुद्धिजीवियों ने धीरे-धीरे, चतुराई से उन धाराओं का अर्थ यह कर दिया कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार हैं। यानी ऐसे अधिकार जो बहुसंख्यकों, यानी हिंदुओं या हिंदी भाषियों को, नहीं दिए जाएंगे। एमजे अकबर ने एक बार स्पष्ट रूप से कहा भी कि बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार देने का अर्थ अल्पसंख्यकों को नीचे उतारना है। 
इस बौद्धिक जबर्दस्ती और अन्याय का व्यावहारिक रूप यह हो गया है कि धारा-25 से लेकर 30 तक की व्याख्या और उपयोग हिंदू समुदाय के धर्म और अधिकारों के प्रति हेय भाव रखते हुए किया जाता है। इसीलिए हिंदू मंदिरों, संस्थाओं और न्यासों को जब चाहे सरकारी कब्जे में लेकर फिर उनकी आय का मनमर्जी उपयोग या दुरुपयोग होता है। 
अत: इस पर खुला विचार होना चाहिए कि हिंदुओं को अपने मंदिर, संस्थान और न्यास संचालित करने का वही मौलिक अधिकार क्यों नहीं है, जो दूसरों को है? अगर किसी मंदिर में विवाद या घोटाला हो, तो दोषी व्यक्तियों को कानूनी प्रक्रिया से कार्यमुक्त या दंडित किया जा सकता है। पर न्यास को हिंदू श्रद्धालुओं के बदले नेताओं, अफसरों से भर कर उस पर राजनीतिक या राजकीय कब्जा करना सरासर हिंदू-विरोधी कृत्य है। यह कानून को हिंदू-विरोधी अर्थ दे देना है।  
दुर्भाग्य से, समय के साथ न्यायालयों ने भी संविधान की 26-30 धाराओं का वह अर्थ कर दिया है, मानो अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हैं जो बहुसंख्यकों को नहीं। मसलन, हज सबसिडी की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर जनवरी 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह एक समुदाय के लिए मजहबी पक्षपात है। पर चूंकि इसमें राजकीय बजट की 'बड़ी रकम' नहीं लगती (केवल 611 करोड़ रुपए सालाना), इसलिए यह संविधान की धारा-27 का उल्लंघन न माना जाए। यह एक विचित्र तर्क था! मगर यह प्रकारांतर से अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार देने जैसा ही है। 
यह तब और अन्यायपूर्ण प्रतीत होता है जब देखें कि केरल, गुजरात और पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक मजहबी संस्थाओं का आतंकवादियों द्वारा दुरुपयोग करने के समाचार आते रहे हैं। चर्च द्वारा माओवादियों और अलगाववादियों को सहयोग देने की खबरें भी कई स्थानों से आई हैं। क्या यह सब मस्जिद और चर्च प्रबंधन में गड़बड़ी नहीं? तब केवल रामकृष्ण आश्रम, तिरुपति, काशी विश्वनाथ या शिरडी सार्इं मंदिर जैसी हिंदू संस्थाओं पर ही राजकीय हस्तक्षेप की तलवार क्यों लटकाई गई? यह स्पष्टत: भारत में हिंदुओं का हीन दर्जा ही है कि वे अपनी धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को उसी अधिकार से नहीं चला सकते जो ईसाइयों और मुसलिमों को हासिल हैं। 
यह चलन न केवल सहज न्याय-विरुद्ध है, बल्कि गैर-सेक्युलर भी है। सेक्युलर राज्य का प्राथमिक अर्थ है कि राज्य धर्म के आधार पर अपने नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। जबकि भारत में धारा 26-30 का सारा व्यवहार इस अघोषित मान्यता पर चलता है कि हिंदू संस्थानों-मंदिरों, शिक्षा संस्थाओं, आश्रमों, न्यासों को चर्च, मस्जिदों, कान्वेंटों और मकतबों की तुलना में कम स्वतंत्रता है। 
दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं, कि वहां अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हों जो बहुसंख्यकों को न हों। मगर भारत में यही चल रहा है। कानूनी और राजनीतिक दोनों रूपों में। धारा 26 से 30 को हिंदुओं के लिए भी लागू करना ही न्यायोचित है। इसमें किसी अन्य समुदाय का कुछ नहीं छिनेगा। केवल यह होगा कि हिंदुओं को भी वह मिलेगा जो दूसरों को मिला हुआ है। समय रहते इस भेदभाव का अंत होना चाहिए।

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