Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Saturday, March 31, 2012

सेना की साख और सियासत

सेना की साख और सियासत

Saturday, 31 March 2012 12:09

पुण्य प्रसून वाजपेयी 
जनसत्ता 31 मार्च, 2012: बोफर्स तोप ने अपनी चमक करगिल युद्ध के दौरान दिखाई थी। लेकिन इसी तोप की खरीद में हुए खेल ने देश की सत्ता को पलट दिया था। क्या इसके बाद रक्षा-क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने की गंभीर पहल हुई? पचीस बरस बाद सेनाध्यक्ष के सामने कोई चौदह करोड़ रुपए घूस की पेशकश करके भी आजाद घूमता रहे, यह अपने आप में देश के वर्तमान सच को उभार देता है। न तो रक्षामंत्री एके एंटनी औरन ही सेनाध्यक्ष सीधे किसी का नाम लेते हैं। सिर्फ संकेत दिए जाते हैं कि सेना के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने घूस देने की पेशकश की थी। लेकिन भ्रष्टाचार ने दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना में कैसे सेंध लगा दी है यह अब किसी से छिपा नहीं है। मुश्किल यह है कि देश के सेनाध्यक्ष को की गई घूस की पेशकश को भी महज एक घूसकांड मान कर सियासी बिसात बिछाई जा रही है। 
यह स्थिति  देश के लिए खतरनाक हो सकती है। चीन की बढ़ती ताकत या सीमा पर उसकी गतिविधियों के बीच अब श्रीलंका और पाकिस्तान की भारत-विरोधी सैनिक गतिविधियों से ज्यादा खतरनाक भारतीय सेना की उस चमक का खोना है जिसे बीते चौंसठ बरसों से हर भारतीय तमगे की तरह छाती से लगाए रहा। हालत यहां तक आ पहुंची कि सेनाध्यक्ष और रक्षामंत्री आमने-सामने नजर आने लगे। आखिर एंटनी ने स्थिति की गंभीरता भांप कर कहा कि सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों को सरकार का विश्वास हासिल है। 
अगर सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के बयान को समझें तो इसके चार मतलब हैं। पहला, सेनाध्यक्ष की हैसियत को कोई तरजीह घूस की पेशकश करने वाले ने नहीं दी। क्या लॉबिंग करने वाले शख्स के पीछे कोई ताकतवर सत्ता है? दूसरा, सेनाध्यक्ष का टेट्रा ट्रक की गुणवत्ता और कीमत को लेकर एतराज कोई मायने नहीं रखता। यानी पहले भी घूस दी गई और आगे भी घूस दी जाती रहेगी। तो जनरल वीके सिंह की क्या हैसियत! तीसरा जनरल वीके सिंह ने जब इस मामले की जानकारी रक्षामंत्री को दे दी तो उन्होंने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? और चौथा, जब सेना में पहले से सात हजार टेट्रा ट्रक इस्तेमाल किए जा रहे हैं और दो बरस पहले जब सेनाध्यक्ष ने रक्षामंत्री को इस बारे में बताया तो उन्होंने क्या किया? एंटनी का कहना है कि उन्होंने सेनाध्यक्ष को कहा था कि वे कार्रवाई करें। पर क्या रक्षामंत्री ने यह जानने की कोशिश की कि इस मामले में क्या हुआ? क्या सेना के भीतर घूस का खेल कुछ इस तरह घुस चुका है कि सफाई का रास्ता रक्षामंत्री को भी नहीं पता। इसलिए उन्होंने महज आश्चर्य जाहिर कर सेनाध्यक्ष से लिखित तौर पर शिकायत मांग कर अपना पल्ला झाड़ लिया! 
जाहिर है, यह प्रसंग भारतीय सेना की छवि पर एक बट्टा है। पहला संकेत अगर सैनिक साजो-सामान की खरीद के पीछे राजनीतिक सत्ता को खड़ा करता है तो दूसरा संकेत इस खरीद-फरोख्त से होने वाले मुनाफे के दायरे में सैन्यतंत्र को भी घसीट लेता है। सेना पर यह सबसे बड़ा दाग है। सेना में भरती होने के लिए लोगों को प्रेरित करने की खातिर अब विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ता है जिन पर हर बरस करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। लेकिन सेना में शामिल होने की चाहत सबसे निचले स्तर पर, शारीरिक श्रम करने वाले जवानों की भीड़ में जा सिमटी है। अब न तो देश के युवाओं में सेना में शामिल होने का जुनून है और न ही सत्ता 'जय जवान जय किसान' सरीखा नारा लगाने में विश्वास करती है। 
जो दो सवाल सेना को लेकर इस दौर में खड़े हुए वे या तो सेना के आधुनिकीकरण के मद्देनजर निजी क्षेत्र को सैनिक साज-सामान के निर्माण से जोड़ने को लेकर रहे या फिर सेना का इस्तेमाल आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर नक्सलवाद के खिलाफ किया जाए या नहीं, इस पर टिके। और संयोग से इन दोनों सवालों पर सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सरकार का साथ नहीं दिया। अब सेनाध्यक्ष के तर्क सत्ता को रास आएं या नहीं, लेकिन इस दौर में कुछ नए सवाल जरूर उभरे जिन्होंने साफ तौर पर बताया कि देश का मिजाज बोफर्स कांड के बाद पूरी तरह बदल चुका है। 1987 में वीपी सिंह जेब से कागज निकाल कर सत्ता में आने पर बोफर्स के कमीशनखोरों का पता लगाने का वादा करते रहे और राजीव गांधी की सत्ता चली गई। लेकिन अब सेनाध्यक्ष को घूस की पेशकश पर देश में कोई तूफान नहीं उठा, सारा विवाद संसद के हंगामे में सिमट कर रह गया। 
तब ईमानदारी का सवाल सेना में बेईमानी की सेंध लगाने पर भारी पड़ रहा था। लेकिन अब सवाल यह भी है कि देश के विकास-कार्यक्रमों में सेना कैसे बेमतलब होती जा रही है। अफगानिस्तान से लेकर इराक युद्ध और अब ईरान संकट से लेकर इजराइल के साथ सामरिक संबंधों के मद्देजनर जो रुख भारत का है उसमें देश के विकास का मतलब बाजारवाद के दायरे में पूंजी का निवेश ही है। यानी माहौल ऐसा रहे जिससे देश में आर्थिक सुधार की हवा बहे। 

इसके लिए राष्ट्रवाद के मायने बदल चुके हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर संबंध इस दौर में बेमानी हो चुके हैं। इसलिए यह सवाल कितना मौजूं है कि चीन की सक्रियता भारतीय सीमा पर बढ़ी है और श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान का रुख सेना को लेकर इस दौर में कहीं ज्यादा उग्र हुआ है। 
हमारा अधिक ध्यान इस दौर में खुद को एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय बाजार बनाने पर रहा है जहां सेना का मतलब भी एक मुनाफा बनाने वाली कंपनी में तब्दील हो। सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर बजट में   इजाफा इस बात की गारंटी नहीं देता कि अब भारतीय सीमा पूरी तरह सुरक्षित है बल्कि संकेत इसके उभरते हैं कि अब भारत किस देश के साथ हथियार खरीदने का सौदा करेगा। और सामरिक नीति के साथ-साथ विदेश नीति भी हथियारों के सौदों पर आ टिकी है। लेकिन सेनाध्यक्ष को की गई घूस की पेशकश का मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि लॉबिंग करने वाले इस दौर में महत्त्वपूर्ण और ताकतवर हो गए हैं, बल्कि सेना के भीतर भी आर्थिक चकाचौंध ने बेईमानी की सेंध लगा दी है। इसलिए बोफर्स घोटाले तले राजनीतिक ईमानदारी जब सत्ता में आने के बाद बेईमान होती है तो करगिल के दौर में भ्रष्टाचार की सूली पर और किसी को नहीं, सौनिकों को ही चढ़ाया जाता है। 
करगिल के दौर में ताबूत घोटाले में एक लाख डॉलर डकारे जाते हैं। ढाई हजार डॉलर का ताबूत तेरह गुना ज्यादा कीमत में खरीदा जाता है। दो बरस बाद बराक मिसाइल के सौदे में घूसखोरी के आरोप पूर्व नौसेना अध्यक्ष एमके नंदा के बेटे सुरेश नंदा पर लगते हैं और तब के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीज भी सवालों के घेरे में आते हैं। और इसी दौर में किसी नेता और नौकरशाह की तर्ज पर लेफ्टिनेंट जनरल पीके रथ, लेफ्टिनेंट अवधेश प्रकाश, लेफ्टिनेंट रमेश हालगुली और मेजर पीके सेन को सुकना जमीन घोटाले का दोषी पाया जाता है। यानी सेना की सत्तर एकड़ जमीन बेच कर सेना के ही कुछ अधिकारी कमाते हैं। 
इससे ज्यादा चिंताजनक स्थिति क्या हो सकती है कि सबसे मुश्किल सीमा सियाचिन में तैनात जवानों के रसद में भी घपला कर सेना के अधिकारी कमा लेते हैं। सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल एसके साहनी को तीन बरस की जेल इसलिए होती है कि जो राशन जवानों तक पहुंचना चाहिए उसमें भी मिलावट और घोटाले कर राशन आपूर्ति की जाती है। और तो और, शहीदों की विधवाओं के लिए मुबंई की आदर्श सोसायटी में भी फ्लैट हथियाने की होड़ में पूर्व सेनाध्यक्ष समेत सेना के कई पूर्व अधिकारी भी शामिल हो जाते हैं। और सीबीआइ जांच के बाद न सिर्फ पूछताछ होती है बल्कि रिटायर्ड मेजर जनरल एआर कुमार और पूर्व ब्रिग्रेडियर एमएम वागंचू की गिरफ्तारी भी। यानी भ्रष्टाचार को लेकर कहीं कोई अंतर सेना और सेना के बाहर नजर नहीं आता। तो क्या आने वाले वक्त में भारत की सेना का चरित्र बदल जाएगा?
यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सेना का कोई अपना चेहरा भारत में कभी रहा नहीं है। और राजनीतिक तौर पर जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में युद्ध के मद्देनजर जो भी चेहरा सेना का उभरा वह प्रधानमंत्री की शख्सियत तले ही रहा। लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पहली बार सेना का भी अलग चेहरा दिखा। जनरल वीके सिंह अनुशासन तोड़ कर मीडिया के जरिए आम लोगों के बीच जा पहुंचे। क्योंकि दो बरस पुरानी शिकायत सेवानिवृत्ति नजदीक आ जाने के बावजूद यों ही पड़ी रही। और फिर सरकार और सेनाध्यक्ष जनता की नजरों में आमने-सामने नजर आने लगे। 
अपनी उम्र की लड़ाई लड़ते-लड़ते जनरल सिंह सरकार के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देते हैं। लेकिन सियासत और सेना के बीच की यह लकीर आने वाले वक्त में क्या देश की संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं करेगी, क्योंकि आर्थिक सुधार धंधे में देश को देखते हैं और सियासत सिविल दायरे में सेनाध्यक्ष से भी सीबीआइ को पूछताछ की इजाजत दे देती है। ऐसे में यह सवाल वाकई बड़ा है कि पद पर रहते हुए जनरल वीके सिंह से अगर सीबीआइ पूछताछ करती है तो फिर कानून और अनुशासन का वह दायरा भी टूटेगा जो हर बरस छब्बीस जनवरी के दिन राजपथ पर परेड करती सेना में दिखाई देता है, जहां सलामी प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति लेते हैं।
भारतीय सेना राज्य-व्यवस्था का सबसे कर्तव्यनिष्ठ और अनुशासित अंग रही है। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों से इसकी छवि पर आंच आई है। आज भारत हथियारों के आयात में पहले नंबर पर है। फिर भी भारत की रक्षा तैयारियों को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो इसका मतलब है कि बीमारी कहीं गहरी है और इसका निदान किया जाना चाहिए।

No comments:

Post a Comment