Thursday, October 2, 2025
ग्लोबल मेंढक ग्लोबल कुआं
#ग्लोबल_मेंढक
#ग्लोबल_कुआं
पलाश विश्वास
कुएं के मेंढकों का पढ़ने लिखने से क्या लेना देना?
पैसा है तो बाजार में अब क्या चाहिए!
देश अब बाजार है।धनबल और बाहुबल से सबकुछ हासिल हो सकता है।
फिर मेंढकों का देश,दुनिया,इतिहास,भूगोल, ज्ञान विज्ञान सबकुछ कुआं है।मजे में टर्राने के सिवा क्या रखा हैं जिंदगी में?जैविकी जीवन का अभिन्न अंग है तकनीक। तकनीक है तो ज्ञान विज्ञान क्यों जरूरी है?
रोजगार के लिए जैसे टर्राना जरूरी है,वैसे टर्राते रहो। न भाषा जरूरी है,न संस्कृति और न ही विरासत।
सभी मिलकर टर्राना, शोर मचाना राजनीति है और सामाजिकता भी है। लेकिन कुएं में जितना भी उछल कूद कर लो, शोर मचा लो, देश दुनिया को क्यों फर्क पड़ेगा?
पैसा है तो दूसरे खूब जान लेंगे।खुद को जानने की जरूरत क्या है? पौध विकसित होती है।उसकी जड़ें जरूरी है।मेंढकों का क्या और कैसा विकास? उनकी जड़ें भी तो कुएं में हैं।रोशनी मिले,न मिले क्या फर्क पड़ता है?
जिन्हें फर्क पड़ता है,वे फिर मेंढक नहीं होते।
वे मेंढकों की बिरादरी से बाहर होते हैं।
कुएं के अंधेरे में उनकी कोई जगह नहीं होती।
तब कुएं का रूप खाप पंचायत में बदल जाता है।
अब तो सारा देश कुआं हुआ जाता है।
इतिहास, भूगोल, ज्ञान, विज्ञान, भाषा, साहित्य की चर्चा होते ही भावनाएं आहत हो जाती हैं और खाप पंचायतें सक्रिय। मेंढक ही फिर अंजाम तय करेंगे।
मध्य युग भी गहन अंधकार से भरा कोई कुआं था।
जीवन जड़ था। ज्ञान विज्ञान नवजागरण से हम उस अंधेरे से रिहा हुए। दो सौ साल में कुआं अब ग्लोबल है।मेंढक भी ग्लोबल हैं। दुनिया के हर हिस्से में मेंढक संख्या में भारी है। पैसों की थैली बहुत भारी है।
दो सौ साल में तमाम आविष्कार हुए।
दो सौ साल पहले तक किसने ब्रह्मांड के बारे में,अंतरिक्ष, समुद्र, भूगर्भीय संरचना, इतिहास,भूगोल, अर्थशास्त्र, दर्शन वगैरह वगैरह कितना जानते थे।
दो सौ साल पहले लोग पैदल थे। आज मंगल तक पहुंच रहे हैं ।कल सौर मंडल से बाहर निकलेंगे।परसो आकाश गंगा के पार चलेंगे।
भूगोल का आविष्कार कब हुआ? हम अब सिर्फ पृथ्वी का हैं नहीं, अंतरिक्ष, समुद्र और भूगर्भीय संरचना का भूगोल जानते हैं।
लाखों साल की सभ्यता का इतिहास जो हम जानते हैं, क्या दो सौ साल पहले के लोगों को मालूम था?
इतिहास लिखा कबसे जा रहा है?
निरंतर तथ्यों पर शोध, प्रकृति के विविध स्वरूप, परिवर्तन के तौर तरीके के अध्ययन, तर्क और विज्ञान से यह संभव हुआ।
यही प्रगति है।
मेंढक लेकिन प्रगति और परिवर्तन के विरुद्ध हैं।
मेंढक इतिहास, भूगोल, इतिहासबोध के विरुद्ध हैं।
मेंढक ज्ञान विज्ञान के विरुद्ध हैं।
मेंढक भाषा, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा के विरुद्ध हैं।
मेंढक मनुष्यता, सभ्यता, प्रकृति के विरुद्ध हैं।
मेंढक अपने कुएं में स्वतंत्र और संप्रभु हैं।
कुएं का गहन अंधकार ही मेंढकों का लोकतंत्र है।
मेंढकों को प्रगति, समता और न्याय की क्या जरूरत?
जरूरत नहीं है तो उपभोक्ता बने रहना, जड़ बने रहने के अलावा मेंढक कर ही क्या सकते हैं?
मेंढक को अगर पानी से भरे बर्तन में
रख कर गर्म करना शुरू किया जाए
तो एक रोचक और दिमाग
को झकझोर देने वाला मंज़र देखने
को मिलेगा I जैसे जैसे
पानी का तापमान बढ़ेगा मेंढक उस
तापमान के हिसाब से अपना शरीर
समायोजित करने लगेगा I
पानी के
क्वथनांक में आ जाने तक
ऐसा चलता रहेगा I मेंढक
अपनी सारी उर्जा पानी के तापमान
से अपने शरीर को समायोजित करने
में लगा देगा ------
पर जैसे ही पानी अपने क्वथनांक
(बोइलिंग पॉइंट) में आयेगा, मेढक
अपने शरीर को उसके अनुसार
समायोजित नहीं कर सकेगा और
वो पानी से बाहर आने की कोशिश
करेगा, पर अब ये संभव नहीं है ----
मेंढक ने अपनी छलाँग लगाने
की क्षमता के बावजूद उसने
सारी ऊर्जा वातावरण के साथ
समायोजन स्थापित करने में खर्च
कर दी I वो पानी से बाहर नहीं आ
पायेगा और मारा जायेगा I
पर मेढक को मारता कौन है ?
उबला हुआ पानी ?????????
नहीं !!
मेढक को मार देती है
उसकी असमर्थता या कह लीजिये
निर्णय लेने
की अक्षमता कि पानी से बाहर आने
के लिए कब छलांग लगानी है I
मेंढकों की मौतें, उनकी जिंदगियां कहीं दर्ज नहीं होती।
मेंढकों के पुरखे नहीं होते।
मेंढकों का कोई आंकड़ा नहीं होता।
मेंढकों का न कोई इतिहास है और न भूगोल।
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