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Sunday, March 4, 2012

बनारस में लोकसंपदा

बनारस में लोकसंपदा 



Sunday, 04 March 2012 16:20

अशोक वाजपेयी 
बनारस में लोकसंपदा 
जनसत्ता 4 मार्च 2012: बनारस में संस्कृत का सुरम्य वैभव और भोजपुरी की उच्छल लोकधर्मिता सदियों से एक साथ रहे हैं। उनमें जो संवाद और साहचर्य है उसका कोई नोटिस वहां के वर्तमान विद्वानों और अकादेमिक विशेषज्ञों ने लिया हो, इसकी जानकारी नहीं है। शास्त्र और लोक के बीच आवाजाही का जिक्र बहुत होता है, लेकिन उसे समझने-बूझने की कोई पुष्ट और सजीव परंपरा है ऐसा नहीं लगता। इसलिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने उत्तर और मध्य भारत की लोकसंपदा का अन्वेषण और अभिलेखन का जो उपक्रम शुरू किया है वह एक जरूरी पहल है।
हमारी लोककलाएं साधारण जन की अपनी कलाए हैं: उनमें प्राय: पूरा समुदाय हिस्सा लेता है। वहां कलाकार और रसिक का द्वैत होता ही नहीं। कई बार तो पूरा समुदाय नाचता-गाता है, अलग से कोई देखने-सुनने वाला नहीं होता। इस अर्थ में वे बेहद लोकतांत्रिक हैं। सामुदायिकता की सहज अभिव्यक्ति भी। सभी निपट स्थानीय होती हैं: उनके आशय और संकेत सार्वभौमिक हो सकते हैं, होते ही हैं। लेकिन वे सभी स्थानीय रंग-गंध में इस कदर बद्धमूल होते हैं कि उन्हें अलगाया नहीं जा सकता। आधुनिकता के जो सबसे प्रभावशाली रूप हैं वे प्राय: अलगाव से उपजते हैं: जीवन, प्रकृति, सरसता, समरसता आदि से अलगाव। लोककलाएं इसके विपरीत गहरे लगाव से उपजतीं और उसे ही चरितार्थ करती हैं- उनमें जीवन का अदम्य उत्सव प्रगट होता रहता है। वे अथक रूप से संसार का गुणगान होती हैं। वे अवसरों के भी अनुकूल होती हैं: जन्म, मृत्यु, विवाह आदि या ऋतुचक्र के अनुसार। वे गहरी धार्मिकता और जातीयता से उपजती हैं, पर वे अपनी व्याप्ति में दोनों का अतिक्रमण भी करती रहती हैं। 
मानवीय संबंधों की अपार ऐंद्रियता सबसे अधिक लोककलाओं में ही समाहित है। लोककलाओं के भौतिक साधन और उपकरण सीमित होते हैं, पर यही उनकी कल्पनाशीलता को उत्तेजित करने का आधार बन जाता है। साधनहीनता कैसे कल्पना की रणनीति में बदलती है इसका ये कलाएं बेहद शिक्षाप्रद उदाहरण हैं। वित्त-दरिद्र किंतु कला-समृद्ध। भारतीय बहुलता का सबसे स्पंदित-ऊर्जस्वित परिसर लोककलाएं ही हैं। हमारी आधुनिकता ने उनसे बहुत कम सीखा है, बल्कि अक्सर उसे अपने भूगोल से बाहर ही कर रखा है। यह अलक्षित नहीं जाना चाहिए कि जब भी हमारे किसी आधुनिक लेखक ने अपने को इस लोकसंपदा से जोड़ने का उद्यम किया है, उसकी आधुनिकता में नई दीप्ति और शक्ति आई है। नागार्जुन और फणीश्वरनाथ रेणु इसके लगभग कालजयी उदाहरण हैं। रंगमंच में तो कई मूर्धन्यों जैसे हबीब तनवीर, बव कारंत, कावलम नारायण पणिक्कर, रतन थियेम आदि की कल्पना बिना उनके लोकधर्मी रंगस्वभाव के नहीं की जा सकती। कुमार गंधर्व ने संगीत में और जगदीश स्वामीनाथन ने ललित कलाओं में लोक और शास्त्र की समकक्षता का और उनकी समकालीनता पर जो आग्रह किया उसका ऐतिहासिक महत्त्व है। 
इसको भी ठीक से दर्ज नहीं किया गया है कि, उदाहरण के लिए, भरत के नाट्यशास्त्र की कई विधियां और अनुष्ठान आधुनिक रंगमंच से तो कब के गायब हो चुके, पर कई लोकरूपों में बचे हुए हैं जो उन्हें शास्त्र का बेहतर और अधिक जिम्मेदार उत्तराधिकारी बनाती है। यह धारणा भी अपरीक्षित रहने के बावजूद आम है कि लोककलाओं में दुहराव बहुत है और परिवर्तन बहुत कम है। इसे लक्ष्य करने की बारीकी इधर कम है कि लोककलाओं में परिवर्तन उनकी निरंतरता का अंग है, बाहर से दीख सकने वाला पक्ष नहीं। किसी इतालवी लेखक का कथन याद आता है: हर चीज के वही बने रहने के लिए हर चीज को बदलना चाहिए। अगर ऐसा न हो तो सब कुछ खो जा सकता है।
बनारस में रायकृष्ण दास, वासुदेव शरण अग्रवाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे कलाविद् हुए हैं, जो लोकसंपदा के प्रति सजग-सक्रिय थे। लेकिन वहां, जैसे कि अन्यत्र भी, लोककलाओं पर उचित और विचारप्रवण आलोचनात्मक ध्यान नहीं दिया गया है। लोककलाओं पर जो कुछ लिखा गया है उसका अधिकांश सतही, विवरणात्मक-सूचनापरक ही है। उसमें उचित वैचारिक सघनता और गहरी रसज्ञता का घोर अभाव रहा है। बनारस का उपक्रम अगर वहां जल्दी ही स्थापित होने जा रहे भोजपुरी केंद्र के माध्यम से इस ओर गंभीरता से सजग-सक्रिय हो तो लोककलाओं के विशद अध्ययन-अनुसंधान की नई शुरुआत हो सकती है।

कविता के दावे 
इधर दूसरे अनुशासनों और माध्यमों के सचाई, समाज और समय के बारे में दावे इतने अधिक और आक्रामक हो गए हैं कि ऐसे दावेदारों में अब कविता का हो पाना मुश्किल है। अपनी गहरी विवक्षा और संभावना के बावजूद कविता हमारे समय और समाज में संकोचग्रस्त विधा है। यह एक तरह से अच्छा ही है: कविता अब अपना काम चुपचाप करती है और न खुद कोई दावा करती है, न किसी और के दावे को लेकर बेचैन होती है। उसकी अपनी बेचैनी किसी कल्पित या अन्यथा विन्यस्त दावे को सही साबित करने की नहीं, सचाई और समय में, आत्म और पर में अपनी पकड़, अपना हिस्सा बचाए रखने की है। उसका यह काम सदा से रहा है और इन दिनों भी उसका सही काम और जिम्मेदारी है। 

इधर पोलिश कवि चेष्वाव मीवोष और रूसी कवि जोसेफ ब्रॉडस्की को लेकर एक अंग्रेजी पुस्तक की समीक्षा में जोसेफ ब्रॉडस्की का यह उद्धरण पढ़ने को मिला: 'कवि को अपनी जनता पर टैंक की तरह   धावा बोलना चाहिए ताकि पाठक को भागने का अवसर न मिल सके। कविता आध्यात्मिक और भाषिक प्रहार की कार्रवाई है न कि पीछे हटने की। अगर कोई कवि शील-संकोची और अनाक्रामक होना चाहता है तो उसे लिखना बंद कर देना चाहिए।' यह कवि और कविता के बारे में एक उग्र विचार है। ब्रॉडस्की के बारे में पोलिश कवयित्री षिम्बोर्स्का ने अपने नोबेल भाषण में कहा था कि उनके अलावा सभी और कवि अपने कवि होने के बारे में झेंपते रहते हैं। हमारे समय में कविता की एक विडंबना शायद यह है कि वह उग्रता और संकोच के ध्रुवांतों के बीच अपनी जगह की तलाश करती भटकती रहती है।
हमारे बड़े कवियों की कुछ उक्तियां याद की जा सकती हैं। अज्ञेय ने लिखा है कि 'मैं सच लिखता हूं, लिखकर सब झूठा करता जाता हूं' और मुक्तिबोध मानते थे कि 'साहित्य से बहुत अधिक की उम्मीद करना मूर्खता होगी।' श्रीकांत वर्मा ने पूरी आक्रामकता से कहा था कि 'मूर्खों, देश को खोकर ही मैंने प्राप्त की थी कविता।'

नए शब्द 
हमारी और तरह की संपदाएं इधर बढ़ती जा रही हैं, पर क्या हमारी शब्द-संपदा में भी वैसी ही तेजी से बढ़ोतरी हो रही है? अगर आप अखबार पढ़ें, टेलीविजन पर बोली जा रही है भाषा सुनें, छप रहे साहित्य की शब्द-संपदा पर ध्यान दें तो हो सकता है कि आपको मेरी ही तरह यह लगे कि हमारी शब्द-संपदा बढ़ने के बजाय निश्चित रूप से घट रही है। शब्द और भाषा-व्यवहार में लापरवाही तो इतनी व्यापक हो गई है कि उसे लगभग एक तरह की मान्यता ही मिल गई है। 
कई बार लगता है कि साहित्य में अभूतपूर्व शब्द-संकोच व्याप्त है। उपन्यासों और कहानियों में विशेषत: दलित-विमर्श की रचनाओं में तो नए शब्द और भंगिमाएं, मुहावरे और ध्वनियां आई हैं, लेकिन कविता में नहीं लगता कि युवा पीढ़ी का इस ओर कोई ध्यान है। अखबारी भाषा और अभिधा के प्रभाव में नई शब्द-रचना की जरूरत भी शायद युवा प्रतिभा को नहीं लगती होगी। नए शब्द जरूरी नहीं है कि गढ़े ही जाएं: उन्हें फिर से खोजा भी जा सकता है। अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि ने संस्कृत के अनेक विस्मृत शब्दों और उक्तियों को कविता में पुनर्जीवित किया था। ऐसा होना अब रुक-सा गया है। साहित्य का यथार्थ प्रथमत: और अंतत: भाषा का यथार्थ भी होता है। अगर भाषा का यथार्थ आगे नहीं फैल रहा है तो यह कहना दुराशा ही होगा कि उसके बिना साहित्य का यथार्थ फैल या बढ़ सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि अगर भाषा नहीं बदली और बढ़ी तो साहित्य बदल या फैल नहीं सकता। 
सबसे खराब हालत आलोचना की है, जहां शब्दों, अवधारणाओं और विधियों का लगभग असह्य और उबाऊ दुहराव रोजमर्रा की बात है। हमारे सभी बड़े आलोचकों ने, जिनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, मलयज आदि सभी शामिल हैं, कितने ही नए शब्द, पद और अवधारणाएं हमें दी हैं। इस मुकाम पर एक भी ऐसा शब्द या प्रत्यय याद नहीं आता जो हिंदी आलोचना को किसी युवा आलोचक की देन कहा जा सके। नया शब्द तभी गढ़ा या खोजा जाएगा, जब कोई नई अवधारणा या सचाई को व्यक्त करना होगा। जो वही देखता है जो पहले से देखने का रिवाज है, वह न तो नया कुछ देख सकता है और न उसके लिए नया शब्द गढ़ या खोज सकता है।

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