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Sunday, March 4, 2012

धनी शासक गरीब जनता

धनी शासक गरीब जनता


Sunday, 04 March 2012 16:11

तवलीन सिंह 
जनसत्ता 4 मार्च 2012: उस बीते हुए जमाने में जब नेहरू जी की समाजवादी आर्थिक नीतियों पर हमको पूरा विश्वास था और देश गरीबी में पूरी तरह डूबा हुआ था, सिर्फ प्रधानमंत्री चुनाव सभाओं में उड़ कर आया करते थे। किसी को एतराज नहीं होता था, बावजूद इसके कि जनता अनपढ़ थी उस समय और हेलिकॉप्टर को उड़न खटोला समझा करती थी। इससे काफी नाजायज फायदा होता था प्रधानमंत्री को। मुझे आज भी याद है उत्तर प्रदेश का एक चुनाव, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और आम सभाओं को संबोधित करने अक्सर हेलिकॉप्टर में आती थीं। 
हेलिकॉप्टर को आसमान में देखते ही आम सभा बिखर जाया करती थी। कुछ लोग हेलिकॉप्टर की तरफ दौड़ते थे, कुछ धूल के बादलों से डर के मारे भागते थे और महिलाएं और बच्चे तो जैसे बुत बन जाते थे हैरान होकर। हेलिकॉप्टर से जब इंदिरा जी प्रकट होती थीं तो गरीब, देहाती लोग उनकी तरफ ऐसे देखते थे जैसे किसी देवी के दर्शन कर रहे हों। 
अब जमाना बहुत बदल गया है। उत्तर प्रदेश के आसमान में इतने सारे राजनेताओं के विमान उड़ रहे थे इस चुनाव के दौरान कि जनता ऊपर देखने की तकलीफ भी नहीं करती थी। इत्तफाक से मैं रायबरेली के एक गांव में कुछ दलित लोगों से बातें कर रही थी, जब ऊपर से सोनिया गांधी का हेलिकॉप्टर धक-धक करता गुजरा। यकीन मानिए कि मेरे अलावा किसी और ने आंखें तक नहीं उठार्इं। 
उत्तर प्रदेश के आम मतदाताओं को अंदाजा भी नहीं है कि कितने लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं इस तरह की निजी हवाई यात्राओं पर। तो इस चुनाव में किसी ने सवाल नहीं उठाया ऐसी हवाई यात्राओं पर, लेकिन एक जिम्मेवार राजनीतिक विशेलेषक होने के नाते मेरे दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जब मैं रायबरेली से अमेठी के लिए रवाना हुई एक टूटी-फूटी सड़क पर। दोनों तरफ वही पुराने उत्तर प्रदेश के देहातों के नजारे थे। स्कूल जिनकी दीवारें नहीं थी, गांव जिनमें सिर्फ कच्ची बस्तियां थीं, बाजार गंदगी और मक्खियों से भरे हुए। इनको देख कर मैंने सोचा कि शायद चुनाव आयोग को अपनी आचार संहिता के तहत हवाई यात्राओं पर पाबंदी लगानी चाहिए, ताकि राजनेताओं को दिखे कि किस हाल में उनके मतदाता रहते हैं। 
ऐसा करने से दूसरा फायदा यह होगा कि जिस काले धन की तलाश में हम सब हैं वे इन हवाई यात्राओं को रोकने से जमीन पर दिखना शायद शुरू हो जाएगा।

सवाल और भी हैं। क्या जिन प्रतिनिधियों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे हेलिकॉप्टर से घूम सकें उनके जीतने की संभावनाएं कम नहीं हो जाती हैं? अगर मायावती की मूर्तियों और हाथियों को ढकना जरूरी समझा गया ताकि मुख्यमंत्री को नाजायज लाभ न हो तो क्या हवाई प्रत्याशियों को नाजायज लाभ नहीं होता है? 
ऊपर से यह सवाल भी उठता है कि समाजवाद की कसमें खाने वाले हमारे राजनेताओं को शर्म नहीं आती कि वे अपनी चुनाव यात्राओं पर इतना पैसा खर्च करते हैं? इस सवाल के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि कहां से आया है हमारे राजनीतिक दलों के पास इतना पैसा? जब राजनीतिक दल और राजनेता चुनाव आयोग के सामने अपनी धन-दौलत का खुलासा करते हैं तो वह इतना थोड़ा होता है कि अगर प्रचार के लिए बसों और ट्रेनों में जाते तो भी पैसा शायद कम पड़ता। तो कैसे घूम रहे हैं ये लोग निजी हवाई जहाजों में? 
वामपंथी किस्म के विश्लेषक रोज अखबारों में और टीवी पर देश में बढ़ती असमानता का जिक्र करते हैं। कहते हैं कि समाज में यह असमानता सिर्फ आर्थिक सुधारों का दौर चलने के बाद आई है। उनका कहना है कि इन सुधारों के कारण अमीर लोग ज्यादा अमीर हो गए हैं और गरीब ज्यादा गरीब। समझ में नहीं आता कि उनको क्यों नहीं दिखती वह असमानता, जो जनप्रतिनिधियों और जनता में एक गहरी खाई बनती जा रही है। उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्य में भी राजनीति में कदम रखते ही लोग अचानक इतने अमीर हो जाते हैं कि मकान, गाड़ियां, विदेशों में बच्चों की पढ़ाई सब हासिल हो जाता है। यह भी बर्दाश्त कर लेते अगर उनके मतदाताओं के जीवन में भी कुछ फर्क दिखता।
अगले हफ्ते जब उत्तर प्रदेश से चुनाव परिणाम आएंगे तो सबसे ज्यादा असर होगा राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन पर। खून-पसीना बहा कर प्रचार किया है राहुल जी ने, तो मेरी दुआ है कि उनके लिए नतीजे अच्छे साबित हों। कम से कम बिहार से तो अच्छे। मेरे लिए अहम सवाल सिर्फ एक है। आज जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच जो असमानता दिखती है वह क्यों है? जब जवाहरलाल नेहरू ने एक सशक्त, समाजवादी भारत का सपना देखा था क्या यही था वह सपना। क्या यह है हमारे-आपके सपनों का भारत? अगर ऐसा है तो वक्त आ गया है नए सपनों को देखने का, क्योंकि वह देश कभी संपन्न नहीं हो सकता, जिसमें शासक धनी होते हैं और जनता गरीब रहती है।

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