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Saturday, January 9, 2016

अलविदा चन्द्र सिंह 'राही' । मेरे हिमाल की लोक विरासत के चितेरा।


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Anil Karki's photo.
अलविदा चन्द्र सिंह 'राही' ।
मेरे हिमाल की लोक विरासत के चितेरा।
एकरंग इकलौता अंध आस्था का यह कारपोरेटउत्सव असली भारत नहीं है,हम इसे समझने से साफ इंकार कर रहे हैं।
पलाश विश्वास

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    Swarg Tara Junyali Rata Ko Sunalo Teri Meri bata - YouTube

    ▶ 4:37
    Dec 9, 2012 - Uploaded by Bhojpuri Hot Junction
    {HD}{HQ} This Is very popular song in uttrakhand Leela Ghasyari, Babli tero ... Swarg Tara Junyali Rata Ko ...

    www.merapahadforum.com (Swarg Tara Junali Raat by ...

    ▶ 1:35
    Jan 2, 2011 - Uploaded by M S Mehta
    This is the song of Chandra Singh Rahi which was most popular song of ... www.merapahadforum.com (Swarg ...

    Jhumigo Season-4 on E-tv (Swarg tara) performed by ...

    ▶ 2:24
    Nov 21, 2011 - Uploaded by MANISH GHALWAN
    Jhumigo Season-4 on E-tv (Swarg tara) performed by Manish Ghalwan ... New Garhwali song by ...
 'हिल्मा चांदी को बटन' और 'स्वर्गतारा ज्युन्याली रात' व 'बाना हो रँगीली बाना धुर आये बांज कटान' हमेशा याद रहेगा। उत्तराखंड की लोक गायन की हर विधा के जानकार थे आप। आपकी आवाज का खिलमुक्ता पन ही पहचान थी आपकी। नमन

अनूठे लोक गायक चन्द्र सिंह राही को मैंने सर्व प्रथम सत्तर के दशक में उत्तरकाशी के माघ मेला कवि सम्मेलन में देखा था । चूँकि आयोजन के कर्ता धर्ता कम्युनिष्ट कमला राम थे , अतः राही ने भी अपनी रचनाओं में साम्यवाद का रंग घोल दिया । जैसा देस वैसा भेष , की विद्या में वह पारंगत थे । कांग्रेसियों के मंच पर उन्हीं को खुश करने वाली रचना सुनाते ।
वह मौलिक लोक कण्ठ धर्म वाले एक विरल कलाकार थे । लोक परम्परा के वाहक थे । मैंने रेडियो और अन्यत्र उनके साथ अनगिन मंच साझा किये । ऐसा लालची व्यक्ति भी मिलना दुर्लभ है । प्रस्तुति के जितने पैसे भी मिलें , उन्हें कम ही लगते थे । इसी कारण महान लोक संगीत विद केशव अनुरागी से उनकी खटपट रहती थी । एक अनूठे , मौलिक , लालची और स्वार्थी कलाकार को मेरी श्रद्धाञ्जलि ।

उम्र हो जाने की सबसे बड़ी त्रासदी होती है त्रासदियों के रोजनामचे से निबटने की चुनौती।एक के बाद एक मौत का सिलसिला।

कभीकभार तो लगता है कि किस्से अब तेजी से संस्मरण का रोजनामचा में तब्दील है।

बिछुड़ते हुए लोगों का अवदान इतना ज्यादा है कि जिंदा रहने वाले अक्सर नजरअंदाज हो जाते हैं।

हम तो जिंदा लोगों के लिए दुनिया बेहतर बनाना चाहते हैं।

जो बीत गया सो रीत गया।वर्तमान और भविष्य के लिए इतना परेशां न हों तो बेहतर है।

मुश्किल यह है कि अपनी जमीन अपनी हजारों हजार साल की विरासत से बनी है।

मौलिक कुछ भी नहीं है।
सबकुछ इस कायनात की रहमतें बरकतें और नियामते हैं,जिन्हें हम रच डालने कीखुश फहमी में जीते मरते हैं।

दरअसल हमने रचा कुछ भी नहीं है।

हम अपनी विरासत में जितना गहरे पैठते हैं,रचनाकर्म में उतनी तेज होती जाती है माटी की महक ,पकती हुई जमीन की खशबू,फसलों में खिलती बहारों के रंग इंद्रधनुषी।

अतीत का सामना किये बिना सच का समाना असंभव है।

भारत में समस्या यह है कि हम लोग इतिहास बोध और वैज्ञानिक दृष्टि से एकदम अपढ़ या फिर अधपढ़ है।

अंध आस्था में विवेक का कोई वजूद है ही नहीं।

यूनान में भी मिथकों का  मूसलाधार है और यूरोपीयभाषाओं में तमाम रचनाकर्म उन्हीं मिथकों का तानाबाना है।

जिस छायावादी साहित्य को हम स्वतंत्रता ,अभिव्यक्ति और लोकतंत्र का नवजागरण मानते हैं,उसमे यूनानी मिथकों का तड़का बहुत ज्यादा है।

लेकिन मिथकीय पात्रों,महाकाव्यों और किंवदंतियों को कोई घालमेल यूरोप के इतिहास में है ही नहीं।

वह उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन का किस्सा है और यह इसलिए है कि उनकी वैज्ञानिक दृष्टि सिर्फ रोज रोज बदलती कोई अस्थिर तकनीक नहीं है।

इसके उलट वैज्ञानिक चमत्कार को भी हम मध्ययुगीन कटकटेला अंधियारा में तब्दील करके इतिहास को हाशिये पर रखते हुए महज अंध आस्था,महाकाव्य,मुहवरों,किंवदंतियों को इतिहास बनाकर मिथकों का भारत रत बुन रहे हैं,जिसमें जीवन के सारे रंग केसरिया है और इस पर तुर्रा यह कि हम फिजां को भी केसरिया बनानाे चले हैं।

सुनामी तक केसरिया और महाभूकंप भी केसरिया।

एकरंग इकलौता अंध आस्था का यह कारपोरेटउत्सव असली भारत नहीं है,हम इसे समझने से साफ इंकार कर रहे हैं।

ज्ञान विज्ञान को हमने तकनीक और ऐप्पस में तब्दील कर दिया है और टिक लगाकर रिंग टोन सजाकर हम विकास के कार्निवाल में आत्मध्ंवस में निष्मात हो रहे है।

निजी कुछ भी नहीं होता।

निजी संपत्ति और निजी वजूद ,अस्मिता और पहचान के दायरे से बाहर जो विश्वब्रह्मांड है,हम जो कुछ बी अर्जित करते हैं ,वह उसी का दिया हुआ कर्ज है।

हम बात बात पर वैदिकी और सनातन का ताबड़तोड़ इस्तेमाल करते हैं और बील जाते हैं कि वेद है तो वेदांत भी है और तार्बाक दर्शन भी है।

 

वेद स्मृतियों का राजकाज नहीं है और सनातन यह नरसंहार संस्कृति और फासिज्म का अंध राष्ट्रवाद है।

उपनिषद के बजाय हम सीधे अर्वचीन पुराण मेंबसकर अपने इतिहास और अपनी विरासत की ऐसी की तैसी करते हुए रोज रोज मनुस्मृति सान के तहत मजहबी सियासत या सियासती मजहब के औजार बनते चले जा रहे हैं।

स्मृतियों से पहले शतपथ,ब्राहण की यात्रा हम कहीं नहीं कर रहे हैं।

पवित्र गंगास्नान करते हुए हम अपनी दसों दिशाओं में उमड़ रही स्वजनों की खून की नदियों से बेखबर हैं और इतिहास और वैज्ञानिक दृष्टि न होने की वजह से आत्मध्वंस और यदुवंश कुरुवंश की तरह स्वजनों के वधउत्सव की अठारह हजार हिंस्र रक्तपिपासु आत्मध्वंशी  सैन्यबल में तब्दील हैं हम।

हमारी विरासत की अविराम अनंत दारा है हमारी लोकसंस्कृति जिसमें बारतीयदर्शन और बारतीयइतिहास की सहस्रधारा है और जिसमें सहिष्णुता असहिष्णुता धर्म अधर्म हिंदू गैर हिंदू का कोई विवाद नहीं है जो सर्वजन हिताय है।

हम अपनी जमीन से मजबूती से जुड़े हों और गहरी पैठी हो हमारी जड़े तो ज्ञान विज्ञान पाठ इत्यादि के बिना हम इस ब्रह्मांड के महाशून्य में गूंजती पुरखों की आवाजें गौर से सुन सकते हैं और इतिहास की जमीन हमसे छूटती नहीं है।
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