Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Tuesday, March 6, 2012

सीरिया का संकट और पश्चिम की मंशा


सीरिया का संकट और पश्चिम की मंशा

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/13479-2012-03-06-06-53-34

Tuesday, 06 March 2012 12:22

पुष्परंजन 
जनसत्ता 6 मार्च, 2012: सीरिया की पहचान कई सारे ज्वालामुखी के कारण भी है। इनमें से चार तो सुप्त हैं, लेकिन दो ज्वालामुखी जागृत हैं। प्रकृति ने सीरिया का जो किया, सो किया। अब इस मुल्क में पश्चिमी देशों के सहयोग से सत्ता परिवर्तन के नाम पर जो 'जन ज्वालामुखी' तैयार हो रही है, वह कभी भी फट सकती है। इराक, इजराइल, जॉर्डन, लेबनान, तुर्की और भूमध्यसागर से घिरे सीरिया के बारे में अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भविष्यवाणी की है कि यहां कभी भी गृहयुद्ध छिड़ सकता है। 
1963 से ही सीरिया में बाथ पार्टी सत्ता में है। कहना कठिन है कि कब तक सीरिया की जनता बाथ पार्टी को ढोएगी। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो पिछले साल मार्च से सत्ता परिवर्तन के लिए छिड़ी लड़ाई में साढेÞ सात हजार लोग मारे गए हैं। संयुक्त राष्ट्र ने पहली मार्च को अचानक दो हजार एक सौ मृतकों का इजाफा कर दिया। 29 फरवरी तक संयुक्त राष्ट्र ने पांच हजार चार सौ लोगों के मारे जाने की बात कही थी। चौबीस घंटे में दो हजार एक सौ मृतक कहां से जुड़ गए? इस सवाल का उत्तर तो संयुक्त राष्ट्र ही दे सकता है। लेकिन पूरे विश्व को पता है कि संयुक्त राष्ट्र की चाबी कहां है। इसलिए जिस देश की सत्ता पर अमेरिका की वक्र दृष्टि हो, वहां संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर सौ फीसद भरोसा करना कठिन-सा लगता है। 
चौतरफा दबाव के बावजूद सीरिया के शासकों ने विद्रोहियों के सफाए की ठान ली है। तय है कि इससे सीरिया में अशांति होगी और खून-खराबा बढेÞगा। गुजरे सप्ताह संविधान सुधार के लिए हुए मतसंग्रह में हिंसा हुई, और सौ से अधिक लोग मारे गए। कहने के लिए राष्ट्रपति बशर अल-असद ने 89.4 प्रतिशत मतदाताओं से 2028 तक सत्ता में बने रहने का लाइसेंस ले लिया है। लेकिन इस तथाकथित मतसंग्रह से कुपित यूरोपीय संघ ने सीरिया के खिलाफ और भी कडेÞ प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी है। 
अमेरिका और उसके मित्र देश हर हाल में राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से उतारने की शपथ ले चुके हैं। बशर के वालिद हफीज अल-असद सन 2000 में सिधार जाने से पहले उनतीस साल तक सीरिया की सत्ता पर विराजमान रहे। उनके उत्तराधिकारी, बशर अल-असद राष्ट्रपति बनने से पहले आंखों के डॉक्टर थे, और राजनीति में कभी न आने की कसमें खाया करते थे। यह शोध का विषय है कि राजनीति में वंशवाद पश्चिम एशिया से चल कर भारत आया, या भारत होते हुए पश्चिम एशिया गया। 
'पश्चिमी क्लब' का आरोप है कि सीरिया हर समय लेबनान के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ाता है। 14 फरवरी 2005 को लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या में सीरिया का हाथ बताया जाता है। फिलस्तीनी अतिवादी सीरिया में पनाह लेते रहे हैं। आरोप यह भी है कि मानवाधिकार हनन में सीरिया अव्वल है। देह व्यापार से लेकर आतंकवाद, हवाला और मादक पदार्थों की तस्करी को सीरिया के शासक बढ़ावा देते रहे हैं। पर सवाल यह है कि पश्चिम समर्थक सीरिया के पड़ोसी देश- इजराइल, तुर्की, लेबनान- क्या दूध के धुले हैं? 
सीरिया अमेरिका की हिटलिस्ट में आज से नहीं, पिछले चार दशकों से है। 1971 में सीरिया ने अपने बंदरगाह-शहर तारतुस में रूसी नौसैनिक अड््डा बनाने की अनुमति देकर अमेरिका की नींद उड़ा दी थी। भूमध्यसागर में रूस का यह अकेला नौसैनिक अड््डा है, जिससे बचने के लिए 2008 में अमेरिका ने पोलैंड समेत पूर्वी यूरोप में परमाणु प्रक्षेपास्त्र प्रतिरक्षा कवच बनाने की ठान ली थी। 2010 तक रूस सीरिया को डेढ़ अरब डॉलर के हथियार दे चुका था। पिछले वर्ष भी रूस सीरिया को चार अरब डॉलर के हथियार भेजने का समझौता कर चुका है। इसी साल चार फरवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीरिया के खिलाफ प्रतिबंध-प्रस्ताव चीन और रूस के वीटो के कारण पास नहीं हो सका। सीरिया को इससे शह मिलती गई, और चीन-रूस के खिलाफ गुस्सा बढ़ता गया है।
यह गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र में 'वीटो' के कारण जो प्रस्ताव गिरता है, वही प्रस्ताव सत्ताईस सदस्यों वाले यूरोपीय संघ में पास कराया जाता है। ईरान के साथ भी ऐसा ही हुआ था। अमेरिकी मित्रमंडली उन देशों के पीछे भी पड़ी है, जो सीरिया से व्यापार कर रहे हैं। भारत उनमें से एक है। भारत पर दबाव है कि वह सीरिया में एक सौ पंद्रह अरब डॉलर के निवेश वाली योजना स्थगित कर दे। भारत-चीन साझे रूप से सीरिया में तेल की खोज, दोहन-प्रशोधन और उसके विपणन में शामिल हैं। सीरिया में आधारभूत संरचना के क्षेत्र में दर्जनों भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं।
भारत पर सबसे अधिक दबाव तेल व्यापार से पीछे हट जाने के लिए है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका के कहने पर भारतीय कंपनी ओएनजीसी-विदेश सीरिया में अपना जमा-जमाया कारोबार छोड़ दे? यह किस तरह की चौधराहट है? पहले ईरान से तेल लेने और व्यापार समाप्त करने के लिए दबाव, और अब सीरिया की बारी। 
सीरिया से भारत के रिश्ते कोई दो-चार दशक के नहीं हैं। भारत में जो पहला चर्च स्थापित हुआ था, वह सीरियन चर्च ही था। उसकी स्थापना करने वाले, यीशु मसीह के बारहवें प्रचारक, सेंट थॉमस पहली सदी में केरल आए थे, और फिर यहीं के होकर रह गए। 

देखने में तो यही लगता है कि सीरिया में एक तानाशाह शासन है, और उसका हटना जरूरी है। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की ठेकेदारी अमेरिका और उसके   पश्चिमी मित्रों ने ही क्यों ले रखी है? भूमध्यसागर वाले इलाके के लोगों को पता है कि इस मुहिम में अमेरिका, तुर्की और इजराइल की तिकड़ी सबसे अधिक सक्रिय है। इजराइली खुफिया एजेंसी मोसाद, ब्रिटेन की एमआई-6, तुर्की की एमआईटी और सीआइए के जासूसों ने सीरिया में बाथ पार्टी की सत्ता उखाड़ने के लिए नियमित रूप से हथियार, पैसे और भाड़े के सैनिक भेजे हैं। 
अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी विक्टोरिया नूलैंड ने पिछले साल जून में स्वीकार किया था कि बहुत सारे सीरियाई नागरिक हमारे संपर्क में हैं, जो व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं। कहने के लिए लीबिया, इराक, अफगानिस्तान, सोमालिया, सीरिया, यमन, ईरान और मिस्र जैसे देशों में नए मीडिया ने क्रांति का आगाज कर रखा है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट की सेवादाता कंपनियों ने किसी न किसी रूप में अमेरिका में अपना मुख्यालय बनाए रखा है। मुराद यह है कि पश्चिम एशिया में जिस नए मीडिया के जरिए पिछले दिनों क्रांति आई थी, उसका रिमोट कंट्रोल अगर अमेरिकी हाथों में है, तो समझा जा सकता है कि सीआइए किस तरह के खेल में शामिल है।  
पिछले साल अठारह मार्च को जॉर्डन की सीमा से लगे दारा में जिस जनक्रांति की शुरुआत हुई थी, उसमें इजराइल समर्थक 'सलाफिस्ट ग्रुप' के लोग थे। इन्हें पैसा और हथियार सऊदी अरब से दिए गए थे। अब तो सार्वजनिक रूप से अमेरिका समर्थक दो अरब देशों ने विद्रोहियों को हथियार और पैसा देने की बात कही है। ऐसे में पिछले दिनों ट्यूनीशिया में हुए 'फ्रेंड्स आॅफ सीरिया' जैसे सम्मेलन का क्या औचित्य रह जाता है? भारत ने ट्यूनीशिया की राजधानी ट्यूनिस में हुए 'फ्रेंड्स आॅफ सीरिया' सम्मेलन में वरिष्ठ कूटनीतिक राजीव सहारे को क्या भेजा, अब यह माना जाने लगा है कि भारत अरब लीग के आगे नतमस्तक है। तुर्की और बल्गारिया में भी इस माह और अप्रैल में सीरिया पर सम्मेलन होना है। 
बुनियादी रूप से 'फ्रेंड्स आॅफ सीरिया' सम्मेलन का उद्देश्य विश्व का ध्यान बंटाने और राष्ट्रपति असद पर दबाव बढ़ाना है। इसी कड़ी में काहिरा में दो मार्च को भारतीय विदेशमंत्री एसएम कृष्णा ने अफगानिस्तान, ईरान और सीरिया पर रणनीतिक बैठक में हिस्सा लेकर, अमेरिकी खेमे को यह कहने का अवसर दे दिया है कि भारत उनके पाले में है। संभवत: भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह रणनीति बना रखी है कि ऐसे पेचीदा मामले में सभी पक्षों को सुनना चाहिए।
यों भी भारत ने सीरिया और ईरान पर अभी आधिकारिक बयान नहीं दिया है। लेकिन कहा यही जा रहा है कि असद की हिंसात्मक कार्रवाई अब भारत सरकार को ठीक नहीं लग रही है। भारतीय विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी उस दबाव को महसूस करते हैं कि भारत किसी भी तरह सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद की निंदा करे। फिर भी ट्यूनिस सम्मेलन में भारत के भाग लेने पर अमेरिका यह समझने की भूल न करे कि भारत ने उसे 'ब्लैंक चेक' पकड़ा दिया है। सीरिया के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में जो पहला प्रस्ताव आया था, उस समय भारत किसी पाले में नहीं था। 
अब भारत के लिए वास्तव में संजीदा कूटनीति करने का समय है। भारत ने दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के साथ दमिश्क एक कूटनीतिक मिशन भेज कर अच्छा ही किया है। इससे यह संदेश तो गया है कि सीरिया समस्या के समाधान के लिए एक तीसरी ताकत सक्रिय है।
वैसे भी अरब देशों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता। भारत और अरब लीग के देशों के बीच पिछले कुछ वर्षों से हो रहे व्यापार में भारी इजाफा हुआ है। एक सौ बीस अरब डॉलर का व्यापार कोई मामूली आंकड़ा नहीं है। आज की तारीख में कोई साठ लाख भारतीय खाड़ी के देशों में काम कर रहे हैं। इसलिए एकदम से अरब लीग को नाराज करने की हालत में हमारा विदेश मंत्रालय नहीं दिखता है। 
दुखद यह है कि दोनों पक्ष उपद्रवग्रस्त इलाके के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की अनदेखी कर रहे हैं। दुनिया का कोई भी करार इसकी अनुमति नहीं देता कि जहां पर आंदोलन हो रहा हो, उसे दबाने या उकसाने के लिए हथियार और पैसे बांटे जाएं। अमेरिका और उसके मित्र मिशनरी, हथियार और पैसे सीरिया में उपद्रव के लिए भेज रहे हैं, तो दूसरी ओर उसे दबाने के लिए रूस और चीन सीरिया के सत्ताधारियों की मदद कर रहे हैं। यह सही नहीं हो रहा है। इसका प्रतिकार करने के लिए पूरी दुनिया में एक मंच होना चाहिए था। 
सवाल यह है कि सीरिया में जो निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं, उसके जिम्मेवार राष्ट्रपति बशर अल-असद ही क्यों हैं? अमेरिका और यूरोपीय संघ क्यों नहीं? क्या इस तरह के तख्ता पलट अभियान में भारत को शामिल होना चाहिए? निश्चित रूप से नहीं!

No comments:

Post a Comment