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Monday, April 19, 2010

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नज़रिया, बात मुलाक़ात »

[15 Apr 2010 | 7 Comments | ]

डेस्‍क ♦ 14 अप्रैल की रात एक इं‍टरव्‍यू अरुंधति रॉय ने सीएनएन आईबीएन पर सागरिक घोष को दिया। 12 अप्रैल को खबर आयी कि दंतेवाड़ा के जंगलों में दो हफ्ते बिताने और उन बिताये गये दिनों-पलों का पूरा हिसाब आउटलुक पत्रिका में लिखने और माओवादियों के साथ बैठ कर नमक रोटी खाने के चलते उन पर कार्रवाई हो सकती है। 13 अप्रैल की सुबह रायपुर से एक सज्‍जन ने खबर दी कि कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। ऐसे में आमतौर पर लेखक-सर्जक क्‍या करते हैं। वे सरहद छोड़ देते हैं। देश से भाग जाते हैं। तसलीमा बांग्‍लादेश से भागीं और हुसैन हिंदुस्‍तान से। लेकिन अरुंधति कहीं नहीं जाएंगी, ऐसा उन्‍होंने सागरिका घोष को सीएनएन आइबीएन पर इंटरव्‍यू के दौरान बताया।

मोहल्‍ला रायपुर, समाचार »

[12 Apr 2010 | 13 Comments | ]
लेखिका अरुंधती रॉय के खिलाफ हो सकती है कार्रवाई

डेस्‍क ♦ लेखिका अरुंधती राय के खिलाफ छत्तीसगढ़ पुलिस कानूनी कार्रवाई कर सकती है। उनके खिलाफ अनलॉफुल ऐक्टिविटिज (प्रिवेंशन) ऐक्ट (यूएनपीए) के तहत कार्रवाई हो सकती है। यह भी संभव है कि उन्हें छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून का सामना करना पड़े। पिछले दिनों अरुंधती राय ने छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों के साथ मुलाकात और कुछ समय गुजारने के बाद अंग्रेजी-हिंदी की पत्रिका 'आउटलुक' में विस्तार से एक रिपोर्ट लिखी थी। इस रिपोर्ट की शिकायत रायपुर के एक नागरिक ने राज्यपाल, मुख्यमंत्री, राज्य के पुलिस महानिदेशक को करने के साथ-साथ स्थानीय पुलिस थाने में भी शिकायत दर्ज करायी थी।

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[27 Mar 2010 | 20 Comments | ]
सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्‍त गिराये जाएंगे

अरुंधति रॉय ♦ रायपुर के बाहरी इलाके में एक विशाल बिलबोर्ड पर वेदांता के कैंसर अस्पताल का विज्ञापन लगा है । उड़ीसा में, जहां वेदांता बॉक्साइट का खनन कर रही है, वह एक विश्वविद्यालय भी बना रही है। ऐसे ही चुपके से और अदृश्य तरीकों से खनन निगम हमारी कल्पनाओं में प्रवेश कर जाते हैं ऐसी उदार ताकतों के रूप में, जो वास्तव में हमारा ख्याल रखते हों। कर्नाटक की हालिया लोकायुक्त रिपोर्ट के मुताबिक एक निजी कंपनी द्वारा खोदे गये एक टन लौह अयस्क के लिए सरकार को 27 रुपये की रॉयल्टी मिलती है और खनन कंपनी 5000 रुपये बनाती है। इतना तो चुनावों, सरकारों, जजों, अखबारों, टीवी चैनलों, एनजीओ और अनुदान एजेंसियों को खरीद लेने के लिए काफी है। ऐसे में यहां-वहां एकाध कैंसर अस्पताल बनवा देने में क्या जाता है?

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[26 Mar 2010 | 2 Comments | ]
शोकगीत नहीं, उल्लास का उत्सव : पढ़िए अरुंधति को

रेयाज़-उल-हक़ ♦ आनेवाले दशकों में शायद इसे एक क्लासिक की तरह पढ़ा जाएगा। इन बेहद खतरनाक – और उतने ही शानदार – दिनों के बारे में एक विस्तृत लेखाजोखा। पिछले एक दशक से अरुंधति के लेखन में शोकगीतात्मक स्वर बना हुआ था, पहली बार वे इससे बाहर आयी हैं और पहली बार उनकी किसी रचना में इतना उल्लास, इतना उत्साह, इतनी ऊर्जा और इतनी गरमाहट है। जैसा अपने एक ताजा साक्षात्कार में खुद अरुंधति ही कहती हैं, यह यात्रा वृत्तांत सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट या राजकीय दमन या अत्याचारों के बारे में नहीं है। यह जनता के विश्वव्यापी प्रतिरोध आंदोलनों और हर तरह के – हिंसक या अहिंसक – संघर्षों में से एक का आत्मीय ब्योरा है।

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[7 Mar 2010 | One Comment | ]
इस देश में आहत भावनाओं की सियासत होती है जनाब!

साजिद रशीद ♦ कैसी विडंबना है कि भावनाओं के आहत होने के प्रश्न पर कट्टरपंथी मुसलमानों और फासीवादी हिंदुओं के साथ मार्क्सवादी भी खड़े नजर आते हैं। खैर, यहां मार्क्सवादियों पर बहस इसलिए नहीं करना चाहूंगा कि वे अब कांग्रेसियों का एक शिष्ट रूप धारण कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में तसलीमा नसरीन के साथ उन्होंने जो सलूक किया, उसके बाद तो उनके चेहरे से सारे नकाब उतर गये हैं। दरअसल, उन्हें भी सत्ता की राजनीति का खेल रास आ गया है और अब वे सिद्धांतों और राजनीतिक मूल्यों की बहस में पड़ना नहीं चाहते हैं।

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[3 Feb 2010 | 25 Comments | ]
वर्मा विभूति के साथ, अरुंधती विरोध में

डेस्‍क ♦ बार-बार पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि बाकी तो ठीक है लेकिन इसमें विभूति नारायण राय की भर्त्सना वाली बात क्यों है। अगर इसे हटा दिया जाए, तो ये ठीक रहेगा। कई लोगों की उपस्थिति में उन्होंने इसे फिर से ड्राफ्ट करने की सलाह भी दे डाली। जब उनसे ये कहा गया कि तटस्थ होना तो अपराध है, तो उन्होंने कहा कि ऐसा आपका सोचना है। इसके कुछ समय ही बाद वो एक और स्टॉल पर दिखे। आपको जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वह स्टॉल हरियाणा पुलिस अकादमी का था, जहां शहर में कर्फ्यू समेत राय साहब की किताबें प्रमुखता से सजी हैं। वहीं अरुंधती रॉय और उदित राज ने अपने विरोध हस्‍ताक्षर हमें दिये।

नज़रिया, व्याख्यान »

[3 Nov 2009 | 7 Comments | ]
कंपनियों को खजाना और जनता को मौत बांटती सरकार

अरुंधती रॉय ♦ माओवादी विद्रोही इन दिनों चर्चा का विषय हैं। चमकते हुए अमीर से लेकर सबसे अधिक बिकने वाले अख़बार के सनकी संपादक तक – हर कोई अचानक यह मानने को तैयार हो गया है कि दशकों से हो रहा अन्याय ही इस समस्या की जड़ है। लेकिन उस समस्या को समझने की जगह, जिसका मतलब होगा 21वीं सदी की इस सुनहरी दौड़ का थम जाना, वो इस बहस को एक नया मोड़ देने में जुटे हैं। माओवादी "आतंकवाद" के ख़िलाफ़ भावनात्मक गुस्से का इज़हार करते हुए … चीखते-चिल्लाते हुए। लेकिन वो सिर्फ़ अपने आप से बातें कर रहे हैं।

नज़रिया »

[1 Nov 2009 | No Comment | ]

माओवाद पर सरकारी नज़रिये की धज्जियां उड़ाते अरुंधती के इस लेख के अनुवाद की प्रतीक्षा कीजिए

मोहल्ला दिल्ली »

[22 Oct 2009 | 3 Comments | ]
सुनो प्रधानमंत्री, कॉरपोरेट के हाथों में खेलना बंद करो!

डेस्‍क ♦ हम आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल राज्यों के आदिवासी आबादीवाले इलाकों में भारत सरकार द्वारा सेना और अर्धसैनिक बलों के साथ एक अभूतपूर्व सैनिक हमला शुरू करने की योजनाओं को लेकर बेहद चिंतित हैं। इस हमले का घोषित लक्ष्य इन इलाकों को माओवादी विद्रोहियों के प्रभाव से मुक्त कराना है, लेकिन ऐसा सैन्य अभियान इन इलाकों में रह रहे लाखों निर्धनतम लोगों के जीवन और घर-बार को तबाह कर देगा तथा इसका नतीजा आम नागरिकों का भारी विस्थापन, बरबादी और मानवाधिकारों का उल्लंघन होगा। विद्रोह को नियंत्रित करने की कोशिश के नाम पर भारतीय नागरिकों में से निर्धनतम लोगों का संहार प्रति-उत्पादक और नृशंस दोनों है।

असहमति, ख़बर भी नज़र भी, नज़रिया, मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »

[15 Aug 2009 | 2 Comments | ]
असली निशाना

शिरीष खरे ♦ कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि "आलोक मेहता" ने तो "अरुंधती राय" के साथ-साथ "अरुण शौरी" पर भी निशाना साधा था, लेकिन उनका तो जिक्र भी नहीं हो रहा है। दरअसल असली निशाना "अरुंधती राय" पर ही साधा गया था, भरोसे का रंग और जमाने के चक्कर में "अरुण शौरी" को वैसे ही लपेटे में ले लिया गया। लेकिन भाषा और तर्कों की सही मिलावट न होने से रंग बेहद भद्दा हो गया। इसलिए जानने में देर नहीं लगी कि असली प्रॉब्लम "अरुंधती राय" से ही है। वैसे भी "अरुण शौरी" विश्व बैंक में जॉब बजा चुके हैं, इसलिए शतरंज का जो खेल न्यूयॉर्क से चल रहा है, उसका एक इशारा मिलते ही आज नहीं तो कल "अलोक मेहता" को "अरुण शौरी" के बाजू वाले खाने में खड़ा होना पड़ेगा।


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[15 Apr 2010 | 2 Comments | ]
क्यों एक हो गये कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी?

दिलीप मंडल ♦ इस समय भारतीय राजनीति में इन तीनों समूहों के शिखर पर सवर्ण हावी हैं। कांग्रेस में शिखर पर मौजूद तीन नेता – अध्यक्ष सोनिया गांधी (राजीव गांधी से शादी के बाद उन्हें ब्राह्मण मान लिया गया), प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी सवर्ण हैं। बीजेपी में अध्यक्ष नितिन गडकरी, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, तीनों ब्राह्मण हैं। सीपीएम और सीपीआई के नेतृत्व में ब्राह्मण और सवर्ण वर्चस्व तो कभी सवालों के दायरे में भी नहीं रहा। कारात, येचुरी, पांधे, वर्धन, बुद्धदेव की पूरी कतार वामपंथी दलों के नेतृत्व में सामाजिक विविधता के अभाव का प्रमाण है।

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[15 Apr 2010 | No Comment | ]
कौन डरता है राजनीति में सामाजिक विविधता से?

दिलीप मंडल ♦ लोकसभा और विधानसभाओं में पिछड़ी जातियों की बढ़ती उपस्थिति को महिला आरक्षण विधेयक के जरिये नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है। राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान बहुजन समाज पार्टी के सतीश चंद्र मिश्र ने यह सवाल उठाया। सरकार और प्रमुख विपक्षी दलों की नीयत को लेकर संदेह व्यक्त किये जा रहे हैं। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या इस बिल के पास होने के बाद पहले से ही कम संख्या में नौजूद मुस्लिम सांसदों और विधायकों की संख्या और कम हो जाएगी। 2001 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में 13.4 फीसदी मुस्लिम हैं। इतनी संख्या के हिसाब से लोकसभा में 72 मुस्लिम सांसद होने चाहिए। जबकि वर्तमान लोकसभा में सिर्फ 28 मुस्लिम सांसद हैं।

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[15 Apr 2010 | 3 Comments | ]
महिला आरक्षण से महिलाओं का भला कैसे होगा?

दिलीप मंडल ♦ भारतीय लोकतंत्र में विधायी मामलों में सांसद या विधायक की व्यक्तिगत राय का कोई मतलब नहीं होता। कानून बनाने और संसद या विधानसभा के अंदर नेताओं का अन्य कार्य व्यवहार व्यक्तिगत नहीं, दलगत स्तर पर तय होता है। दलबदल निरोधक कानून और ह्विप की सख्ती के बीच कोई सांसद या विधायक अपने मन या विचार से कोई विधायी कदम नहीं उठा सकता। दलित और आदिवासी सांसद/विधायक अपने समुदायों के लिए अपने मन या विचार से कुछ नहीं कर सकते और महिलाएं भी इस नाते कुछ अलग नहीं कर पाएंगी कि वे महिला आरक्षण विधेयक की वजह से चुनकर आ गयी हैं।

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[15 Apr 2010 | 2 Comments | ]
महिला आरक्षण की छतरी तले यौन कदाचार बढ़ेगा?

दिलीप मंडल ♦ भारत में सत्ता यानी पावर के साथ हरम और भरे पूरे रनिवास की अवधारणा पुरानी है और भारतीय राजनीति कम से कम इस मायने में समय के साथ नहीं बदली है। लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गयी है कि प्रभावशाली लोगों के यौन कदाचार को बुरा भी नहीं माना जाता और नेताओं के कई स्त्रियों के साथ यौन संबंधों को उनके शक्तिशाली होने के प्रमाण के तौर पर देखा जाता है। एकनिष्ठता की भारतीय अवधारणा महिलाओं पर तो लागू होती है पर पुरुषों पर लागू नहीं होती। हिंदू धर्म की किताबें बताती हैं कि – "पत्नी को दुश्चरित्र पति का त्याग नहीं करना चाहिए, प्रत्युत अपने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए उसको समझाना चाहिए।" अर्थात हिंदू संस्कृति भी व्यभिचार का समर्थन करती है।

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[10 Apr 2010 | 6 Comments | ]
वीएन राय सेकुलर हैं और सांप्रदायिक तथा जातिवादी भी!

दिलीप मंडल ♦ तो विभूति नारायण राय को हम क्या मानें? प्रगतिशील, क्योंकि उन्होंने दंगों को लेकर किताबें लिखी थीं? क्योंकि वो दंगों के दौरान उत्तर प्रदेश में पोस्टेड थे और शासन के आदेशों का पालन कर रहे थे? या फिर सांप्रदायिक, क्योंकि उन्‍होंने वर्धा में एक मुसलमान छात्र को ज्यादा नंबर दिये जाने का विरोध किया था। या फिर जातिवादी और दलित विरोधी क्योंकि उनके विश्वविद्यालय के दलित छात्रों ने पूरी चार्जशीट उनके खिलाफ लिखी है; क्योंकि उन्होंने एक दलित प्रोफेसर को अंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस में शामिल होने और जातिवादी नारे लगाने के आरोप में नोटिस भेज दिया; या फिर एक बूढ़ा होता तानाशाह, जो किसी की परवाह नहीं करता और सबको ठेंगे पर रखता है।

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[20 Mar 2010 | 10 Comments | ]
माया के गले में नोटों की माला से दिक्‍कत क्‍यों?

दिलीप मंडल ♦ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वतर्मान राजनीतिक संस्कृति और परंपरा के विपरीत है। नेताओं को सोने-चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का यह कोई अकेला मामला नहीं है। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुंचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपये से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है।

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[12 Mar 2010 | 17 Comments | ]
आरक्षण में आरक्षण से राबड़ीवाद दन्‍नाता : वैदिक

वेदप्रताप वैदिक ♦ आरक्षण में आरक्षण के बिना यह आरक्षण अधूरा है, क्योंकि लगभग सभी महिला सीटों पर ऊंची जातियों की महिलाओं का कब्जा हो जाएगा। यह तर्क तथ्यात्मक तो है, पर आरक्षण में यदि आरक्षण दे भी दिया गया होता, तो क्या होता? कठपुतलीवाद बढता, राबड़ीवाद दन्नाता। सर्वथा अयोग्य महिलाओं को पकड़ कर गद्दी पर बैठा दिया जाता। वे क्या खाक कानून बनातीं? वे अपने पार्टी-नेताओं के इशारों पर ही निर्णय लेतीं। यानी, संसद का मजाक बनता। अभी तो प्रयत्न यह होना चाहिए कि सक्षम महिलाओं को ही संसद में भेजा जाए, जो महिला उत्थान के बारे में खुद सोच सकें और जरूरत पडने पर पुरुषों को बराबरी की टक्कर दे सकें।

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[11 Mar 2010 | 5 Comments | ]
बज्‍ज की बालकनी में टंगी गम और खुशी की दो चादर

दिलीप मंडल ♦ अगर कहूंगा कि ये सभी महिलाएं (ऊपर की तस्वीर में दोनों – सुषमा और वृंदा जी और नीचे की तस्वीर में चारों – सुषमा, वृंदा, नजमा और माया जी) किस क्लास या कास्ट से हैं, तो आप कहेंगे कि जातिवाद फैला रहा हूं। इस शहर में कुछ है जो सड़ रहा है! भारत के ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में दुनिया में 134वें नंबर पर होने के कारणों की शिनाख्त करने की कोशिश कर रहा हूं।

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[10 Mar 2010 | 14 Comments | ]
बज्‍ज पर महिला आरक्षण के बाजे में कुछ 'कंकड़' भी थे

दिलीप मंडल ♦ अगर महिला आरक्षण को सही मायने में विशेष अवसर का सिद्धांत साबित होना है, तो महिलाओं को सिर्फ महिला के तौर पर देखना अनुचित होगा। इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वो अगड़ी महिला हैं, वो दलित महिला हैं, वो ओबीसी महिला हैं और वो अल्पसंख्यक महिला हैं। महिला कोटे के अंदर कोटे का वही आधार है, जो आरक्षण का आधार है। यानी जो कमजोर है, उसे विशेष अवसर मिले, ताकि वो भी लोकतंत्र में अपनी हिस्सेदारी निभाये। साथ ही महिला आरक्षण के अंदर अगर क्रीमी लेयर भी लागू हो तभी आरक्षण का फायदा उन्हें मिलेगा, जिनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

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[21 Feb 2010 | 24 Comments | ]
कारुण्‍यकारा ने ब्राह्मणों को गाली दी : विभूति

विभूति नारायण राय ♦ उस दिन जो जुलूस निकला, उसमें जातिवादी नारे लगाये गये। हमारा जो कर्मचारी संघ का अध्यक्ष है, वो बड़ा उत्तेजित हो कर आया। वो ब्राह्मण है। उसने कहा कि देखिए ये मां-बहन की गालियां दे रहे हैं। तो मैंने कारुण्यकारा से कहा कि भई आप प्रोफेसर हो… ऐसा स्टूडेंट या बाहर के एलिमेंट आकर कर रहे थे तो समझ में आता है… लेकिन आप प्रोफेसर हो और आप भी इसमें शरीक हो गये? ये मैंने एक तरह से उनको वार्न किया कि भविष्य में जहां इस तरह के प्रोवोकेटिव नारे लगाये जाएं, तो वहां किसी प्रोफेसर को नहीं जाना चाहिए।

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Palash Biswas
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