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Friday, March 22, 2013

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं



मुक्तकामी संघर्ष के दायरे को जंगल से बहुजन समाज तक ले जाने के लिये अंबेडकर सबसे बड़े माध्यम है। इस यथार्थ का अस्वीकार बहुत बड़ी रणनीतिक भूल हैजो भारतीय वामपंथ बार-बार करता रहा है।

जारी बहस में पलाश विश्वास जी का पत्र मिला है। यहाँ दिया जा रहा है। बहस में काफी मददगार होगा।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

आदरणीय अभिनव जी, अमलेंदु जी और दूसरे साथी!

हम तर्कों और विज्ञान से नहीं बच रहे हैं। न सवालों से। सवालों का हमने आज तक सामना नहीं किया तो यह हाल है। सवालों का जवाब लेकिन निजी नहीं होने चाहिए। वे लोकतान्त्रिक बहस के जरिये आने चाहिये। मैंने तो जवाब इस इंतजार में स्थगित कर रखा है कि जो अंबेडकर का झण्डा उठाये चल रहे हैं, जो आरक्षण के लाभ से उच्च पदों पर सवर्ण समान हैं, और जो अंबेडकर विचारधारा के जरिये भारत में बहुजन समाज की मुक्ति की बात करते हैं, वे पहले बोलें और मुक्तिकामी जनता के सक्रिय हिस्सों के बीच एक संवाद कायम हो।अभिनव जी यह मानेंगे, कि वामपन्थी जिनमें संशोधनवादियों के अलावा क्रांतिकारी भी हैं, वे भारतीय यथार्थ को संबोधित करने में लगातार चूकते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह नेतृत्व की गैरईमानदारी और विचारधारा और आन्दोलन के प्रति अप्रतिबद्धता है। हम वामपन्थी आन्दोलन के किसी भी धड़ों में सक्रिय कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता और ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा रहे हैं।

बुनियादी सवाल है कि भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर हैं या नहीं। बहुजन समाज उनके नाम पर अलग अलग धड़ों में, यहाँ तक कि सत्ता की राजनीति में सक्रिय है या नहीं। यह कोई भावनात्मक कार्ड नहीं है। कठोर वास्तव है कि मैं विद्वतजनों की तरह विशेषज्ञ नहीं हूं। अर्थशास्त्र हमने अकादमिक तौर पर इंटरमीडिएट तक पढ़ा है। वह भी गम्भीरता से नहीं। इसी तरह इतिहास हमने इंटर तक ही पढ़ा है। हमारे सामने अस्तित्व का संकट आया। खासतौर पर भारत के कॉरपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश बन जाने और अबाध नरसंहार संस्कृति के मुकाबले हमारे लोग असहाय़ हुये तो हम अर्थशास्त्र और इतिहास का अभ्यास करने लगे। बहिष्कृत समुदाय के लोग, खास तौर पर जो उनका नेतृत्व कर रहे हैं, उनमें न इतिहासबोध है और न वे अर्थशास्त्र से कुछ लेना देना रखते हैं। सत्ता वर्ग की नई आर्थिक नीतियों, अर्थव्यवस्था, वित्तीय नीति मौद्रिक नीति को निनानब्वे फीसद जनता नहीं समझती। उन्हें हम अकादमिक बहस से समझा भी नहीं सकते। कम से कम नक्सलबाड़ी के बाद हमारे सबसे ज्यादा मेधा सम्पन्न लोगों ने अपना बलिदान देने के बाद भी जनता को अपनी विचारधारा औऱ आन्दोलन नहीं समझा सके हैं।

आनंद तेलतुंबड़े और दूसरे लोग क्या कहेंगे, हम यह नहीं जानते। हमने भी काफी देरी से बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता, व वंचितों के विस्थापन और उनके सफाया अभियान, शरणार्थियों को देश निकाला के बाद निनानब्वे फीसद जनता को सम्बोधित करने के लिये अंबेडकर विचारधारा की प्रासंगिकता पर गौर किया। हम जिस जनता की मुक्ति की बात आप कर रहे हैं, उससे अंबेडकर विचारधारा सिरे से खारिज करके बात कर ही नहीं सकते। अंबेडकर निश्चय ही सर्वज्ञाता नहीं थे। उन्होंने जब अर्थशास्त्र पर लिखना शुरू कियाउससे पहले बहुजन समाज को अर्थशास्त्र की कोई तमीज ही नहीं थी। भारतीय सन्दर्भ में भी पहल उन्होंने की। संविधान के अंतर्विरोधों के लिये अंबेडकर को जिम्मेवार ठहराना न्यायपूर्ण नहीं है।अगर उनकी चल रही होती तो स्वतन्त्र भारत में वे चुनाव के जरिये आज के नेताओं की तरह सत्ता की राजनीति में बने रहते। उन्होंन स्त्री, श्रमिक वर्ग और अन्य पिछड़े वर्ग की माँगों को उठाते हुये नेहरू मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दिया था। पूना समझौतों के तहत जो राजनीतिक आरक्षण मिला, उससे सत्ता वर्ग के पिट्ठू ही चुनाव जीत सकते हैं। वास्तव में बहिष्कृत का भारतीय संसद में कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं। अंबेडकर अकेले थे जो वंचित बहुजन समाज की बात कर रहे थे। उनमें हम सबकी तरह कमियाँ हो सकती हैं, उनकी रणनीति से हम असमत हो सकते हैं, पर उन्हें सिरे से खारिज करके भारतीय बहुजन समाज से संवाद तोड़कर हम मुक्तिकामी जनता की लड़ाई हरगिज नहीं लड़ सकते। आपके लेख में जैसा कि तेलतुंबड़े ने भी पूरे आयोजन के बारे में बताया हैभारतीय बहुजन समाज के सबसे प्रबल स्वर के प्रति असम्मान का भाव ही है।

दूसरी बात, भारत में कॉरपोरेट साम्राज्यवाद और हिन्दुत्व के साथ ग्लोबल जायनवादी युद्धक व्यवस्था का एकाधिकारवादी आक्रामक गठजोड़ है। इसके जवाब में अंबेडकर के अनुयायी बहुजन समाज को एकजुट करके लोकतान्त्रिक व धर्मनिरपेक्ष ताकतों के संयुक्त मोर्चे के गठन को आप बचाकाना और नादान मान सकते हैं। पर बचपन से आन्दोलनों की अभिज्ञता के आधार पर हमारी नजर में सैन्य राष्ट्र के दमन के आगे निहत्था बहुसंख्य जनता के लिये आत्मरक्षा और  प्रतिरोध के लिये इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं निकल सकता। मेरे दिवंगत पिता अपढ़ थे पर वे कहते थे कि अपने लोगों के हक-हकूक की लड़ाई में आपकी क्षमता अगर जवाब दे जाती है तो आपको वह क्षमता अर्जित करके जरूर लड़ाई जारी रखनी चाहिये। सबअल्टर्न बुद्धिजीवी वर्ग एक के बाद एक फतवे जारी करके मुक्तिकामी जनता की लड़ायी को सबसे ज्यादा कमजोर करके हिन्दू राष्ट्र का मार्ग ही प्रशस्त कर रहे हैं, अंबेडकर के आर्थिक चिंतन में जो मैटेरियल एम्पावरमेंट की बात हैउसे खारिज करके जाति उन्मूलन के लक्ष्य को किनारे करके सत्ता में भागेदारी की राजनीति ने बहुजन बहिष्कृत समाज के बड़े अंश को हिन्दुत्व की पैदल सेना में तब्दील कर दिया है, अकादमिक बहस में हमें इस यथार्थ का ख्याल रखना चाहिये। राम पुनियानी जी ने इस पर अंबेडकर कथा में रोशनी डाली है। रामचंद्र गुहा और एडमिरल भागवत ने अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन की जो पहल की, हमें उस धारा को आगे बढ़ाकर कोई विकल्प सोचना चाहिये। यह आप मानेंगे, चाहे आप क्रांतिकारी दुस्साहसवादियों के पक्ष में हो या न होजैसा कि अरुंधति राय के समूचे लेखन से साफ है कि आत्मरक्षा के लिये इस दुस्साहसवाद के अलावा आदिवासियों के सामने कोई विकल्प नहीं है। उन्हें लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में शामिल करके ही हम जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई लड़ सकते हैं मुक्तकामी संघर्ष के दायरे को जंगल से बहुजन समाज तक ले जाने के लिये अंबेडकर सबसे बड़े माध्यम है। इस यथार्थ का अस्वीकार बहुत बड़ी रणनीतिक भूल हैजो भारतीय वामपंथ बार-बार करता रहा है।

मैं आपके लेख के संदर्भ में सिलसिलेवार जवाब वीडियो देखकर और यथासम्भव सारे आलेखों को पढ़कर ही दूँगा। क्योंकि बहस जारी है और एकपक्षीय संवाद हो नहीं सकता, इसलिये रचनात्मक निष्कर्ष के आग्रह से यह स्पष्टीकरण कर रहा हूँ। बहस जारी रहनी चाहिये। यह पलाश विश्वास और अभिनव का निजी डुएल नहीं है और न ही किसी अहं का मामला है। हार जीत या वरिष्ठ कनिष्ठ का सवाल हैहम ईमानदारी से तिलिस्म को तोड़कर सचमुच के मुक्ति संग्राम का रास्ता साफ करेंइसके लिये इस बहस में सहमत और असहमत सभी लोगों की हिस्सेदारी अनिवार्य है।

मेरा कोई दुराग्रह नहीं है। हम सभी विकल्पों पर विवेचन करते रहने के अभ्यस्त हैं।

अंततः अंबेडकर की आलोचना और अंबेडकर विचारधारा का पोस्टमार्टम जरूर हो, पर उनके अनादर के साथ हम समूचे बहुजन समाज को इस विमर्श से सिरे से काटने का दुस्साहस कतई न करें।

पलाश विश्वास

 बहस के लिये हस्तक्षेप में प्रकाशित साथी अभिनव का ताजा मंतव्य प्रस्तुत है। कृपया इसे पढ़कर बाकी लोग अपना विचार रखें। अब तो वीडियो भी ऑनलाइन हैं।

बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

कुत्‍सा प्रचार और प्रति-कुत्‍सा प्रचार की बजाय एक अच्‍छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय

Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde

तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया

हाँडॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!


'मार्क्सवादियों' की ब्राह्मणवादी बेवकूफियां

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/22/2013 09:24:00 PM


चंडीगढ़ में जाति प्रश्न और मार्क्सवाद पर हुए सम्मेलन के अप्रोच पेपर, इसकी आनंद तेलतुंबड़ेद्वारा की गई आलोचना और इसके बाद हुई बहसें अब तक मोटे तौर पर उपेक्षित रही हैं. इसकी जगह सम्मेलन की सतही रिपोर्टिंग हुई है, जिसने सम्मेलन में चली बहसों को ही एक तरह से, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से, विस्तार दिया. सम्मेलन में जिस तरह से बाबासाहेब अंबेडकर और जाति विरोधी संघर्षों के योगदानों को खारिज करने की कोशिश की गई थी, और आयोजकों द्वारा इस मकसद के लिए तेलतुंबड़े के लेखन को भी बेईमानी के साथ तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था, वह फिर से दोहराया गया और कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में तेलतुंबड़े को यह कहते हुए दिखाया गया किअंबेडकर के सारे प्रयोग महान विफलता में समाप्त हुए. सारे संदर्भों को काट कर कुछ चुने हुए वाक्यों को पेश करने से ऐसा लगा मानो तेलतुंबड़े ने आंबेडकर, आरक्षण और जाति विरोधी संघर्षों के योगदानों को, आयोजकों के सुर में सुर मिलाते हुए, खारिज कर दिया है. इसकी खबर महाराष्ट्र में प्रकाशित होने के साथ ही यह मुद्दा गरमाया. हिंदी में भी कुछ विचारकों, टिप्पणीकारों और पत्रकारों ने  इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं. लेकिन मामले को साफ करते हुए आनंद तेलतुंबड़े ने एक संक्षिप्त सा बयान जारी किया है. साथ ही में महाराष्ट्र के रिपब्लिकन पैंथर्स ने भी आयोजन और उसमें तेलतुंबड़े के भाषण से संबंधित एक बयान मराठी में जारी किया है. इन दोनों का हिंदी अनुवादहाशिया पर पेश किया जा रहा है. चूंकि अनुवाद को आसान बनाने की कोशिश में पारिभाषिक शब्दों का इस्तेमाल करने से बचा गया है, इसलिए सावधानी बरतते हुए साथ में इनका अंग्रेजी पाठ भी पेश किया जा रहा है और किसी भ्रम की स्थिति में अंग्रेजी पाठ को ही आधिकारिक माना जाना चाहिए. -हाशिया

मैं सम्मेलन में अपने बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने का विरोध करता हूं. मेरे बयान में तथाकथित मार्क्सवादियों के रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैए की सख्त आलोचना की गई थी, जिन्होंने पूरे जाति-विरोधी आंदोलन को खारिज किया और वे बेशर्मी के साथ बाबासाहेब अंबेडकर के प्रति असम्मान से भरे हुए थे. मैंने उन पर यह आरोप लगाया कि वे जातिवादी हैं और हिंदुत्ववादियों-ब्राह्मणवादियों के समान हैं. यह उनके कबीले के लिए मुमकिन सबसे बदतर आरोप था. मैंने यह आरोप भी लगाया कि इससे भी आगे वे भारतीय क्रांति को नुकसान पहुंचा रहे हैं. मैंने दूसरी बातों के साथ यह भी कहा कि इस देश के लोकतंत्रीकरण में अंबेडकर का योगदान, सारे कम्युनिस्टों के योगदान को आपस में मिला दें तब भी उससे महान था. इसलिए, मेहरबानी करें और मेरे नाम पर झूठी अफवाहें न फैलाएं.  
-आनंद तेलतुंबड़े

डॉ. आनंद तेलतुंबड़े ने चंडीगढ़ सम्मेलन में तथाकथित मार्क्सवादियों की तीखी आलोचना की

रिपब्लिकन पैंथर्स, महाराष्ट्र

महाराष्ट्र से आनेवाले हम रिपब्लिकन पैंथर्स के सदस्य चंडीगढ़ सम्मेलन में मौजूद थे. जिस तरहहस्तक्षेप ब्लॉग और आयोजकों के संगठन के मुखपत्र बिगुल में डॉ. आनंद तेलतुंबड़े के नाम पर अंबेडकर विरोधी झूठी बातें जोड़ी जा रही हैं, इसे देख कर हमें गहरा दुख हुआ है. हम यह महसूस करते हैं कि रूढ़िवादी मार्क्सवादियों और उनके गिरोहों की तीखी आलोचना को नजरअंदाज कर देना और उन्हें संदर्भ से काटे हुए छिटपुट वाक्यों के आधार अंबेडकरविरोधी के रूप में पेश करना एक बेईमानी से भरी कार्रवाई है, जिसका मकसद तेलतुंबड़े की छवि को न केवल दलितों के बीच बल्कि क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के बीच भी धूमिल करना है.

उन्होंने बड़ी आसानी से डॉ. तेलतुंबड़े द्वारा सम्मेलन के आयोजकों के रूढ़िवादी नजरिए (पोजीशन) की उस तीखी आलोचना को नजरअंदाज कर दिया है जिसे आयोजकों ने अपने अप्रोच पेपर में अपनाया था. अप्रोच पेपर, आम तौर पर रहने वाली सामग्री को छोड़ के अलावा, निचली जातियों और खास कर दलितों और इससे भी अधिक बाबासाहेब अंबेडकर के पूरे संघर्षों के बारे में पूरी तरह नफरत से भरा था. डॉ. तेलतुंबड़े, जिन्होंने शुरू में अपने व्यस्त कार्यक्रम के चलते आयोजकों को मना कर दिया था, बाद में जालंधर से कुछ देर के लिए सम्मेलन में आने पर मान गए थे, जहां वे समता सैनिक दल के स्थापना दिवस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए गए थे. यह बुलावा उन्हें खुद सम्मानित वरिष्ठ अंबेडकरवादी नेता मि. एल.आर. बाले द्वारा दिया गया था. वे 13 की रात को देर से पहुंचे और वे सम्मेलन में विशेष भाषण देने वाले थे. अगले दिन, जब उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने भाषण देने की जगह अप्रोच पेपर की विकृतियों की आलोचना की. उन्होंने कहा कि अप्रोच पेपर में कुछ भी नया नहीं था, बल्कि पुराने रूढ़िवादी मार्क्सवादी नजरिए को ही दोहराया भर गया था जिसके हिमायती, उनका मानना है कि, ज्यादातर भारतीय मार्क्सवादी हुआ करते थे. वक्त की कमी के चलते उन्होंने अप्रोच पेपर में दिए गए अपने हवालों पर ही खुद को केंद्रित किया और इसके बारे में समझाया कि कैसे उसमें प्रस्तुत किए गए उनके हरेक शब्द को तोड़ा-मरोड़ा गया है. चूंकि इस विषय पर उनके नजरिए को पूरा देश जानता है, उन्होंने आरोप लगाया कि यह तोड़-मरोड़ जान-बूझ कर, सोचे-समझे तरीके से की गई थी और इनसे गहरे जातिवादी पूर्वाग्रहों की बू आती थी. उन्होंने कहा कि पहले तो किसी के बयान की तोड़-मरोड़ करना और फिर उसको जोर-शोर से खारिज किया जाना एक मार्क्सवादी पद्धति नहीं है.

अपवाद के रूप में अप्रोच पेपर में उनके एक बयान का जिक्र था, जिसे उन्होंने एसएफआर, जेएनयू द्वारा प्रकाशित जाति का उन्मूलन की प्रस्तावना के रूप में लिखा था. बेशक इसे भी तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था, कि तेलतुंबड़े ने अंबेडकर के जाति के उन्मूलन को मार्क्स के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना महत्वपूर्ण माना है. सौभाग्य से एक जाने माने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता असित दास ने इससे ठीक पहले वह वास्तविक बयान पढ़ा था, जो कि इस तरह है: 'पूंजीवादी दुनिया के लिए जो कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र है, वही जातीय भारत के लिए जाति का उन्मूलनहै.' इसने आयोजकों के झूठ को उजागर कर दिया. डॉ. तेलतुंबड़े ने इसके बारे में समझाया कि कैसे इसमें से अंबेडकर और दलितों के खिलाफ आयोजकों के जातीय पूर्वाग्रहों की बू आती है. अपनी व्याख्या के दौरान उन्होंने कहा कि बाबासाहेब अंबेडकर ने कभी भी एक आदर्श समाज की अपनी धारणा को व्यक्त करने से आगे बढ़ कर कोई स्थायी सिद्धांत देने का दावा नहीं किया. वे बुनियादी रूप से कोलंबिया में अपने प्रोफेसर जॉन डिवी की प्रेरणा से, प्रगतिशील व्यवहारिकता पर चलते थे, जो इस पर भरोसा करते थे कि किसी भी सैद्धांतिक धारणा की परख व्यवहार में होती है ताकि व्यवहार को रोशनी मिल सके. इसने अपने तौर-तरीके (मेथडोलॉजी) में नाकामियों को सहज ही कबूल किया था. अंबेडकर की महानता इस उपमहाद्वीप की अनोखी समस्या पर ध्यान केंद्रित करने और ईमानदारी के साथ इसके खिलाफ संघर्ष करने में थी. इसलिए वे सही थे या गलत, यह अप्रासंगिक हो जाता है. यह अनुभव से साबित एक तथ्य है कि अंबेडकर अपने द्वारा की गई कोशिशों में से ज्यादातर में नाकाम रहे. शुरू में उन्होंने यह कल्पना की थी कि सवर्ण हिंदुओं के उन्नत तत्व कुछ तयशुदा सुधारों को बढ़ाने के लिए आगे आएंगे, लेकिन जल्दी ही, महाड में उनके बारे में उनका भ्रम टूट गया और वे राजनीतिक मौके हासिल करने की तरफ मुड़ गए. उन्होंने बड़ी मेहनत से दलितों के लिए अलग राजनीतिक पहचान हासिल की लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर पाए क्योंकि गांधी द्वारा किए गए ब्लैकमेल ने उसे नाकाम बना दिया. उन्होंने राजनीतिक आरक्षणों को भी हासिल किया लेकिन उन्हें यह महसूस हुआ कि ये आरक्षण शासक वर्ग के हितों की ही सेवा कर रहे थे और उन्होंने 1953 में आरक्षण को वापस लेने की मांग की. दिलचस्प बात ये है कि वे खुद कभी भी आरक्षित सीटों पर नहीं जीत पाए, यहां तक कि राजनीतिक रूप से बहुत छोटे कद के उम्मीदवारों के खिलाफ भी. पिछले 60 बरसों से व्यवहार में लाए जा रहे दूसरे आरक्षण (नौकरी और शिक्षा में) दलितों के महज 10 फीसदी हिस्से को ही ऊपर उठा पाए हैं, बाकी बचे हुए 90 फीसदी दलित दूसरे की तुलना में जहां के तहां हैं. उन्होंने दलितों के बीच उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया लेकिन यह भी कारगर नहीं रहा और उन्हें यह कहना पड़ा कि पढ़े-लिखे दलितों ने उन्हें धोखा दिया है. उन्होंने बड़ी उम्मीद से संविधान लिखा, लेकिन उन्हें यह ऐलान करना पड़ा कि यह हर किसी के लिए अच्छा नहीं है और यह कि उन्हें भाड़े के एक टट्टू की तरह इस्तेमाल में लाया गया. उन्होंने 'रेडिकल' बौद्ध धर्म को अपनाया और कल्पना की कि वे पूरे भारत को बौद्ध बना देंगे, लेकिन बौद्ध धर्म आज केवल उनके अपने समुदाय तक ही सीमित है और बस एक अतिरिक्त पहचान बन कर रह गया है. इस तरह कोई उनकी नाकामियों को गिन सकता है. लेकिन तब इस अर्थ में हरेक महान इंसान नाकाम रहा है. पूरी दुनिया मार्क्स को नाकाम मानती है. यह नाकामी तो कहीं अधिक गंभीर है, क्योंकि अंबेडकर के उलट मार्क्स ने एक 'महान सिद्धांत' (ग्रांड थ्योरी) दिया था. यह इतिहास की किसी भी अन्य नाकामी से कहीं अधिक गंभीर है.

डॉ. तेलतुंबड़े ने आयोजकों की इसको लेकर बार-बार आलोचना की कि उनके इस रवैए में से कि मार्क्स ने आखिरी बात कह दी है, हिंदुत्ववादियों की बू आती है, जो यह मानते हैं कि हरेक बात वेदों में कह दी गई है. उन्होंने इसको समझाते हुए कहा कि आईआईटी में, जहां वे इन दिनों पढ़ाते हैं, ऐसी बातें पूरे विश्वास के साथ कही जाती हैं कि पूरा विज्ञान और तकनीक सिर्फ भारत में ही जन्मा है और दूसरे सभी लोगों ने इसे यहां से चुरा लिया है. उन्होंने आयोजकों के पूरे विमर्श की इससे तुलना की और कहा कि इसे मार्क्सवाद के रूप में नहीं लिया जा सकता. उन्होंने कहा कि पूरे गैर-मार्क्सवादी संघर्ष को नकारना सिर्फ जातिवादी रवैए को ही दिखाता है. अंबेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. मार्क्सवाद के बारे में उनके गंभीर संदेह (रिजर्वेशन) थे. लेकिन तब भी इसको लेकर उनके मन में असम्मान नहीं था, इस अनौपचारिक टिप्पणी के बावजूद कि यह केवल भौतिक सुखों पर विचार करता है और इंसानी जीवन के आध्यात्मिक पहलू को नजरअंदाज करता है. उन्होंने हमेशा मार्क्सवाद को अपने फैसलों की कसौटी के रूप में उपयोग किया, जो कि कठमांडू में उनके आखिरी व्याख्यान 'बुद्ध या कार्ल मार्क्स' में साफ साफ जाहिर होता है. अनेक स्व-नियुक्त मार्क्सवादियों समेत अपने समय के अनेक लोगों की तरह, मार्क्सवाद की उनकी अवधारणा सतही थी और हम इसे आज सही नहीं भी मान सकते हैं. लेकिन क्या यह उनके योगदानों का मूल्यांकन करने के लिए प्रासंगिक है, यह बात तेलतुंबड़े ने पूछी. उन्होंने जोर दिया कि अंबेडकर का योगदान सिर्फ दलितों की मुक्ति के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज के लोकतंत्रीकरण में कुल मिला कर सभी मार्क्सवादियों से महान था.

तेलतुंबड़े ने कहा कि शुरुआती बचपन से ही उनके विचार मार्क्सवादी रहे हैं, लेकिन वे मार्क्सवादियों के ऐसे रूढ़िवादी, जड़ और ब्राह्मणवादी रवैए के कारण आज भी खुद को मार्क्सवादी कहने से डरते हैं. उन्होंने कहा कि उनका मार्क्सवाद द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के इसके केंद्रीय उसूल पर आधारित है. इससे पैदा हुई बाकी सारी चीजें ऐतिहासिक अनुभवों की रोशनी में समीक्षा का विषय हैं, भले ही वे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन या किसी भी दूसरे व्यक्ति की कोशिशों का नतीजा हों. उन्होंने सावधान किया कि मार्क्स और एंगेल्स के दिनों से दुनिया काफी बदल गई है. उन्होंने सूचना तकनीक, जैव तकनीक, नैनो तकनीक वगैरह जैसी आधुनिक तकनीक के शुरू होने और बढ़ते हुए मध्य वर्ग के संदर्भ में कुछ समस्याओं को पेश किया. उन्होंने कहा कि उनके पास ऐसी चीजों की एक लंबी फेहरिश्त है, जो मार्क्सवाद के बारे में फिर से सोचने को प्रेरित कर सकती हैं. लेकिन रूढ़िवादी मार्क्सवादी कभी भी इसे कबूल नहीं करेंगे. यह मार्क्सवादियों का 'उत्साह से भरा' रवैया ही था, कि मार्क्स को खुद भी यह एलान करना पड़ा था कि वे मार्क्सवादी नहीं हैं. तेलतुंबड़े ने बड़े दर्द के साथ कहा कि आयोजकों ने उन्हें उन मार्क्स और मार्क्सवाद के बारे में ऐसी सख्त बातें कहने को बाध्य कर दिया, जो उन्हें इतने प्यारे हैं. इससे भी आगे जाते हुए उन्होंने कहा कि इधर वे इन 'वादों' को भी अस्मिताओं के रूप में देखने लगे हैं. किसी भी दूसरी अस्मिता की तरह ये भी सिर्फ जनता को बांटते हैं और उनकी क्रांतिकारी क्षमता को कमजोर करते हैं.

उन्होंने शुरुआती कम्युनिस्टों पर अपने ब्राह्मणवादी रवैए से मार्क्सवाद को जड़ सूत्र बना देने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि उन लोगों ने भारत का वर्ग विश्लेषण कने के लिए पश्चिमी सांचों को ज्यों का त्यों उधार लेकर सबसे बड़ा ऐतिहासिक पाप किया. अगर उन्होंने वर्ग की लेनिन की परिभाषा को अपने भीतर उतार लिया होता तो उपमहाद्वीप में जनता के जीवन जगत (लाइफ वर्ल्ड) के रूप में जातियां वर्गों की अवधारणा से बाहर नहीं की जा सकती थीं. उनके पास भारत की ठोस हकीकत को सुलझाने के लिए मार्क्सवाद के उन्नत औजार थे लेकिन उन्होंने उनको आधार और अधिरचना की एकांगी उपमा में समेट दिया.  उन्होंने जो किया वह 'आधार' से जुड़ा था और दूसरों का काम मामूली अधिरचना से जुड़ा हुआ. इसी तरीके से वे अंबेडकर का मजाक उड़ाते रहे, जिन्होंने 1930 के दशक में उनसे दोस्ती का रुझान दिखाया था. अगर वे मार्क्सवाद पर चले होते तो जाति विरोधी संघर्षों को वर्ग संघर्ष के अभिन्न हिस्से के रूप में बनाते हुए जातियों को वर्गों में शामिल किया जा सकता था. लेकिन उनकी ब्राह्मणवादी बेवकूफी के चलते जातियां उनके विश्लेषण से बाहर रह गईं जिसने अपने पीछे वर्ग और जातियों का मूर्खतापूर्ण द्वैत खड़ा किया. उनके द्वारा आयोजकों के नजरिए की तीखी आलोचना करने और जाति विरोधी संघर्षों का बचाव करने के बाद, आयोजकों के कुछ प्रतिनिधियों ने तेलतुंबड़े को खारिज करने के लहजे में लंबे-लंबे भाषण दिए. इसके बाद जब उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया, तो उन्होंने बस यह कहा कि उन लोगों ने जो किया वह एक बार फिर एक तोड़-मरोड़ ही थी. उनके लंबे भाषण को खारिज करते हुए, उन्होंने कहा कि चूंकि उन्होंने कभी वो बातें नहीं कहीं, जिनको काटने के लिए इतनी मेहनत की जा रही है, इसलिए जवाब देने की कोई जरूरत नहीं है. इसके बजाए, उन लोगों ने जॉन डिवी के दर्शन की जो  व्याख्या थी, उसे कबूल किया. 

उन्होंने उसी को दोहराया, जिसे वे बरसों से कहते आए हैं कि भारत में दलितों की भागीदारी के बगैर क्रांति मुमकिन नहीं है और दलितों की मुक्ति क्रांति के बगैर नहीं हो सकती. अप्रोच पेपर हकीकत की जैसी तस्वीर पेश करता है, जैसा कि वे देख रहे हैं, दलितों को सिर्फ और दूर ही करेगा. उन्होंने इसके प्रति चेताया कि ऐसा रवैया पहले ही चीजों को इस हद तक ले गया है कि दलित आसानी से किसी प्रतिक्रियावादी शिविर में तो शामिल हो सकते हैं लेकिन कम्युनिस्टों को वे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानेंगे. हालांकि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण रवैए को अनेक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं द्वारा मजबूती मिली है, लेकिन कम्युनिस्ट इसमें अपनी भूमिका से बच नहीं सकते. इधर अनेक दलित युवक कम्युनिस्टों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं, जिसका श्रेय दलित आंदोलन के पतन को जाता है, लेकिन अप्रोच पेपर में जैसी चीजें हैं, वो यकीनन उन्हें बेचैन करेंगी और फिर से उन्हें दूर कर देंगी. उन्होंने मार्क्स के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए इस पर दुख जताया कि अप्रोच पेपर ने केवल यथार्थ को पेश करने भर की कोशिश की थी, जबकि उनके लिए सवाल इसे बदलने का है.

यह डॉ. तेलतुंबड़े द्वारा वहां कही गई बातों का दर्द में डूबा हुआ सार है. ऐसे गहन संदर्भ को नजरअंदाज करते हुए यहां-वहां से कुछ वाक्यों को उठा लेना मार्क्सवाद से पतित होने का एक बेईमानी भरा रास्ता है.

-वीरा साथीदार, राजू कदम, शरद गायकवाड़, श्वेता बिरला, सुमेध जाधव

अंग्रेजी पाठ

I protest the distorted reporting of my statements in the conference, which was scathingly critical of the orthodox and brahmanic attitude of the so called Marxists there who trashed the entire anti-caste movement and were unashamedly disrespectful of Babasaheb Ambedkar. I had accused them of being casteist and likened them to the hindutva-brahmanist, the worst possible attribution to their tribe, doing further harm to Indian revolution and had stated among other things that the contribution of Ambedkar to democratization of the country was greater than all the communists together. Please do not spread canard in my name.
-Dr. Anand Teltumbde

Dr. Anand Teltumbde mounted scathing attack on the so called Marxists in Chandigarh Conference

We the members of the Republican Panthers from Maharashtra who were present in the Chandigarh conference are deeply pained to see the attribution of Anti-Ambedkar canard to Dr Anand Teltumbde in the Hastkshep blog and Bigul, the organ of the organizers' outfit. We feel that ignoring his spirited attack on the orthodox Marxists of their ilk and projecting him as anti-Ambedkar with stray sentences sans context is a deceitful action to malign his image not only among dalits but the radical communists.    

They have conveniently ignored the scathing attack Dr Teltumbde mounted on the orthodox position the conference organizers had taken in their approach paper. The approach paper, leaving apart the usual stuff, was completely disdainful of the entire struggle of the lower castes, particularly dalits, and more so of Babasaheb Ambedkar. Dr Teltumbde, who had declined their invitation initially because of his busy schedule, had accepted to come for a short time from Jalandhar, where he was invited as a chief guest in the foundation day programme of Samata Sainik Dal by none other than the respected senior Ambedkarite leader Mr L R Baley. He reached late in the evening of 13th and was expected to make a special speech in the conference. The next day, when he was called upon to make a speech he instead targeted the distortions indulged in the approach paper. He said that there was nothing new in the approach paper and rather the reiteration of the old orthodox position which he thought most Indian Marxists were apologetic about. For the paucity of time he just focused on the reference in the approach paper to him and explained how each and every word was a distortion. Since his opinions on the subject were known to the entire country, this distortion, he alleged was willful and deliberate and smacked of deep casteist prejudice. He said that firstly distorting the statement of a person and then celebrating its refutation was no Marxist method. 

The approach paper had taken an exception to his statement in the introduction he had written to the Annihilation of Caste published by the Students for Resistance in JNU, of course after distorting it, that he treated Ambedkar's Annihilation of caste to be as important as Marx's Communist Manifesto. Fortunately, Asit Das, the renowned civil rights activist had just before read out the actual statement, which was "What the Communist Manifesto is to the capitalist world Annihilation of Caste is to the caste India", which itself has exposed the lie of the organizers. Dr Teltumbde explained how it smacked of the casteist prejudice of the organizers against Ambedkar and dalits. In course of his explanation he said that Babasaheb Ambedkar did not claim to have given any lasting theory of society beyond the expression of his conception of an ideal society. He basically followed progressive pragmatism inspired by his professor in Columbia, John Dewey, which relied on any theoretical postulate being tested in practice so as to make the latter enlightened. It intrinsically accepted failures in its methodology. Ambedkar's greatness lay in his focus of the unique disease of the subcontinent and sincerely struggling against it. Whether he was right or wrong therefore becomes irrelevant. It is an empirical fact that Ambedkar failed in most things he had tried. Initially, he imagined that the advanced elements of the caste Hindus would come forward to undertake certain reforms but soon in Mahad, he got disillusioned with them and turned towards political opportunities. He labouriously won the separate political identity for Dalits but could not use it as Gandhi's blackmail annulled it. He won political reservations but realized that they rather served the ruling class interests and demanded their withdrawal in 1953. Interestingly, he himself could never get elected on the reserved seats even against the political pigmies. Other reservations (jobs and education) operated over 60 years could barely uplift 10 percent of dalits; the balance 90 percent of Dalits being where they were in relation to others. He promoted higher education among Dalits but it also did not work and had to lament that the educated Dalits had cheated him. He wrote the Constitution with great hope but had to declare that it was no good for anyone and that he was used as a hack. He embraced 'radical' Buddhism and imagined that he would make entire India Buddhist but Buddhism today is confined to only his community and is reduced to an additional identity. One may thus easily recount his failures. But then every great man has failed in that sense. The entire world considers that Marx has failed. This failure is far more serious because unlike Ambedkar Marx had given a 'grand theory'. It is far more serious than any other failures in history. 

Dr Teltumbde repeatedly criticized the organizers that their attitude that Marx has said the last word smacked of Hindutva-vadis who consider that everything was given in Vedas. He explained that in the IIT where he currently teaches, such things are convincingly spoken that entire science and technology was born only in India and all others had stolen it from here. He compared the entire discourse of the organizers with it and cautioned that it cannot be taken as Marxist. He said that trashing the entire non-Marxist struggles only showed their casteist attitude. Ambedkar was no Marxist. He had serious reservations about Marxism. But still he was not disrespectful about it notwithstanding his casual remarks that it only considered material wellbeing and ignored the spiritual aspects of human life. He always used Marxism as a benchmark to assess his own decisions as clearly revealed by his last lecture in Kathmandu "Buddha or Karl Marx". Like many people of his times, including many self-appointed Marxists, his conception of Marxism was superficial and today we may not consider it as valid. But is it relevant in evaluating his contributions, he asked. He emphasized that the contribution of Ambedkar not only to dalit emancipation but to the democratization of Indian society is greater than that of all Marxists together.   

He said that his convictions have been Marxist since early childhood but he still would be scared to call himself Marxist because of such orthodox, dogmatic and brahmanic attitude of the Marxists. He explained that his Marxism is based on its core tenet of dialectical materialism. Rest everything being derivative is subject to review in light of historical experience, notwithstanding whether it is attempted by Marx, Engels, Lenin or anybody else. He cautioned that the world has changed beyond recognition since the days of Marx and Engels. He posed some problematics in terms of advent of modern technologies like information technology, bio technologies, nano technologies, etc.; burgeoning middle classes and said that he has a long list of such things that might prompt rethink of Marxism. But the orthodox Marxists would never acknowledge it. It was this 'enthusiastic' attitude of the Marxists that Marx himself had to declare that he was not Marxist. He expressed his pain that the organizers had pushed him to say such bitter things about Marx and Marxism, which he held so dear to him. He went beyond and stated that lately he came to think of these 'isms' also as identities. Like any other identities they only divide people and weaken their revolutionary potential. 

He accused the early communists of making Marxism into a dogma with their brahmanic attitude and committing the biggest historical sin in borrowing the western moulds for class analysis of India. Had they even internalized Lenin's definition of class, castes as the life world of people in the subcontinent could not have been excluded from the conception of classes. They had advanced tools of Marxism to dissect the concrete reality of India but they reduced them into a simplistic metaphor of base and superstructure. What they did belonged to the 'base' and others' to the unimportant superstructure. It is this way they kept ridiculing Ambedkar, who had tended to befriend them in 1930s. If they had followed Marxism, castes could have been embodied into classes making anti-caste struggle as an integral part of the class struggle. But because of their brahmanic folly, castes got left out of their analysis, leaving behind the idiotic duality of class and caste. After his spirited criticism of the position of the organizers and defence of the anti-caste struggles, some of the representatives of the latter made longish speeches in a tone of refuting him. When he was called upon to speak after them, he simply said that all that they did was indulging again in distortion. Trashing their lengthy speeches, he said that since he never said things that were labouriously refuted, there was no need for him to offer rejoinder. He rather accepted their philosophical elaboration of John Dewey, etc.

He repeated what he has been saying for many years that there is no revolution in India without participation of Dalits and there is no emancipation of Dalits without revolution. The approach paper purporting to picture reality as they see only helps alienating dalits further. He cautioned that this attitude has brought the things to such a fore that dalits can easily join any reactionary camp but would consider the communists as their biggest enemy. Although this unfortunate attitude is hardened by many a historical processes, the communists cannot be absolved of their role. Many dalit youth of late have begun to be attracted towards communists; thanks to the degeneration of the dalit movement, but such attitudes as in the approach paper will surely disturb and re-alienate them. He expressed his lament using Marx's word that the approach paper had just tried to present reality; his point was to change it. 

This is the ruthful gist of what Dr Teltumbde spoke there. To pick up stray sentences ignoring such a thick context is a dishonest way unbecoming of any Marxist. 
-Veera Sathidar. Raju Kadam. Sharad Gaikwad. Sweta Birla. Sumedh Jadhav.

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

पलाश विश्वास जी के दूसरे प्रत्युत्तर (अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं) के संदर्भ में अभिनव सिन्हा का जवाब

कृपया भावनाओं से ज्‍़यादा तर्कों पर ध्‍यान दें, साथी, और ठोस आलोचना रखें, जुमलेबाज़ी और नारेबाज़ी नहीं।

-अभिनव सिन्हा

'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान' के संपादक अभिनव सिन्‍हा,

पलाश जी ने त्‍वरित उत्‍तर दिया। हम आभारी हैं। अब पलाश जी की अपने बारे में कोई भी राय हो (वैसे आदमी की अपने बारे में क्‍या राय होती है, इससे उतना फर्क नहीं पड़ता है, जितना कि इससे कि दूसरों की उसके बारे में क्‍या राय है), हम तो उन्‍हें एक वरिष्‍ठ पत्रकार मानते ही हैं। इस बीच मुझे उनका थोड़ा लेखन भी देखने का अवसर मिला। मैं उनकी अधिकांश धारणाओं से सहमति तो नहीं रखता, लेकिन लिखाई के मामले में उनकी सघन उत्‍पादकता का गहरा असर मेरे मस्तिष्‍क पर पड़ा है। मैं अन्‍य लेखों और टिप्‍पणियों की अन्‍तर्वस्‍तु पर तो नहीं जा सकता, लेकिन जारी बहस में उनके नये हस्‍तक्षेप के बारे में कुछ कहना चाहूंगा।

सही बात तो यह है कि समझ में नहीं आ रहा है कि क्‍या कहूं। क्‍योंकि श्री पलाश विश्‍वास जी ने कोई अहम तर्क तो रखा ही नहीं है, अपने पिछले लेख के तर्कों को ही दुहरा दिया है। यहां आरोपों के क्रम से मैं उनका खण्‍डन नहीं करूंगा बल्कि उनके महत्‍व के अनुसार उनका खण्‍डन करूंगा।

पलाश जी का दावा है कि वे आन्‍दोलन में सक्रिय रहे हैं। इसके बावजूद वे हमारे द्वारा क्रांतिकारी मार्क्‍सवाद और संशोधनवाद में फर्क किये जाने को लेकर चकित हैं। हम उनके चकित होने पर चकित हैं। सभी क्रांतिकारी मार्क्‍सवादी अपने आपको 1951 से सीपीआई और 1964 से सीपीएम के इतिहास से अलग मानते हैं। हम निश्चित तौर पर 1951 तक पार्टी द्वारा जाति प्रश्‍न को समझने के मसले पर हुई भूलों के लिए उसकी आलोचना करते हैं। लेकिन हमारी आलोचना का मूल बिन्‍दु जाति प्रश्‍न को ही समझने को लेकर नहीं है, बल्कि इस बात को लेकर है कि 1925 में स्‍थापना, 1933 में केन्‍द्रीय कमेटी के गठन से लेकर 1951 तक भारत में क्रांति के कार्यक्रम को लेकर पार्टी के पास कोई समझदारी मौजूद नहीं थी। 1951 में जब कार्यक्रम संबंधी नीतिगत प्रस्‍ताव को अपनाया गया तो फिर कार्यक्रम का कोई ज्‍यादा मतलब नहीं बनता था, क्‍योंकि पार्टी तब तक संशोधनवाद की राह पर अग्रसर हो चुकी थी, और अब कार्यक्रम को उसे केवल कोल्‍ड स्‍टोरेज में रखना था। 1964 में नवसंशोधनवादी सीपीएम के अलग होने से भी कोई ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ा, और उसने भी नयी और ज्‍़यादा शातिर शब्‍दावली में संशोधनवादी एजेण्‍डा को ही आगे बढ़ाया। अब अगर पलाश जी 1951 से लेकर अब तक सीपीआई और सीपीएम के कुकर्मों के लिए अपने आपको जवाबदेह पाते हैं तो हम इसमें उनकी ज्‍यादा मदद नहीं कर सकते हैं। हम 1951 तक कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के इतिहास और 1967 से लेकर अब तक एमएल आन्‍दोलन के इतिहास के आलोचनात्‍मक विवेचन की ज़रूरत को शिद्दत से महसूस करते हैं, और अपने आलेखों में हमने इस बात को स्‍पष्‍ट रूप से रखा है। और उनकी आलोचना का भी हमारा मूल बिन्‍दु यही है कि अपने कठमुल्‍लावादी दृष्टिकोण के चलते न तो कार्यक्रम के सवाल पर और न ही जाति, राष्‍ट्रीयता आदि के सवालों पर ज्‍़यादातर पार्टियां एक सही अवस्थिति अपना पायीं। इसके बारे में हम यहां विस्‍तार में नहीं जायेंगे, और पलाश जी से आग्रह करेंगे कि सेमिनार में पेश मुख्‍य आलेख को पढ़कर उसकी विस्‍तृत आलोचना लिखें, हम उसका जवाब देंगे।

दूसरी बात, बिना सेमिनार के वीडियो देखे, बिना उसके आलेखों का अध्‍ययन किये पलाश जी ने कल्‍पना कर ली है, कि जाति के यथार्थ से हम मुंह चुरा रहे हैं। हमने सेमिनार में भी बार-बार कहा था और आलेखों में भी बार-बार इस बात का जि़क्र किया है कि अन्‍तरविरोध इस प्रश्‍न पर है ही नहीं कि जाति के यथार्थ को भारतीय जीवन का एक मुख्‍य अंग माना जाय या नहीं। सवाल इस बात का है जाति व्‍यवस्‍था को कैसे समझा जाय, जाति व्‍यवस्‍था के वर्ग अन्‍तरविरोधों के साथ अन्‍तर्गुंथन को कैसे समझा जाय और जाति प्रश्‍न के हल के लिए एक सही रास्‍ते का नि:सरण कैसे किया जाय।पलाश जी को बिना पढ़े बड़े-बड़े दावे नहीं करने चाहिए। एक तरफ वे अलग से अपनी विनम्रता का गुणगान करते हैं, और अपनी पारिवारिक पृष्‍ठभूमि से उसे सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर वह अंहकारपूर्वक सभी कम्‍युनिस्‍टों के ऊपर बिना किसी फर्क के निर्णय सुना देते हैं। यह दावों और व्‍यवहार के बीच का एक गंभीर अन्‍तरविरोध है जिसे पलाश जी को दूर करना चाहिए। मैं फिर से उन्‍हें एक वरिष्‍ठ पत्रकार मानते हुए कहूंगा कि ऐसे अन्‍तरविरोध उन्‍हें शोभा नहीं देते।

तीसरी बात, उन्‍होंने मेरे पहले लेख की किसी भी आलोचना का जवाब नहीं दिया है। जैसे कि उन्‍होंने बिना पढ़े अम्‍बेडकर की रचना'दि प्रॉब्‍लम ऑफ दि रुपी' को साम्राज्यवाद विरोधी करार दे दिया है, अम्‍बेडकर को साम्राज्‍यवाद विरोधी करार दे दिया है, वगैरह। मैंने उनके इन खोखले दावों के विरोध में तथ्‍य और तर्क रखे थे। उन्‍होंने बस यह कहकर उन सब पर पर्दा डाल दिया है कि मेरा आलेख लम्‍बा और विद्वतापूर्ण था। अगर ऐसा था भी तो यह उसमें रखे गये तर्कों का जवाब न देने का कारण तो नहीं हो सकता है न? यह तो पलाश विश्‍वास अपनी आलोचना का जवाब देने से बच निकले हैं, और फिर उन्‍होंने 'इमोशनल कार्ड' खेल दिया है। मैं फिर कहूंगा कि ऐसी चीज़ें उनके जैसे वरिष्‍ठ पत्रकार और आन्‍दोलनकर्मी को शोभा नहीं देतीं। मैं तो इस उम्‍मीद में था कि वे मेरे द्वारा प्रस्‍तुत आलोचना का जवाब देते हुए मुझे कुछ शिक्षित करेंगे, लेकिन वह तो केन्‍द्रीय प्रश्‍नों को ही गोल कर गये हैं।

चौथी बात, उन्‍होंने कहा है कि अम्‍बेडकर और यहां तक कि गांधी और लोहिया ने जाति को भारतीय समाज का मूल अन्‍त‍रविरोध माना जबकि मार्क्‍सवादी वर्ग संघर्ष, साम्राज्‍यवाद और पूंजीवाद का ही राग अलापते रहे। वह फिर एक गलत बात कह रहे हैं।सच्‍चाई यह है कि मार्क्‍सवादियों से कई मौकों पर जाति व्‍यवस्‍था और वर्ग अन्‍तरविरोधों से उसके संबंधों को समझने में भूल हुई है, और बीते सेमिनार में हमने कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के भीतर मौजूद ऐसी रुझानों की एक आलोचना पेश की है, जो कि श्री पलाश हमारे प्रमुख आलेख में देख सकते हैं। लेकिन समस्‍या को ऐसे रखना कि जाति मूल अन्‍तरविरोध है या वर्ग, स्‍वयं इस बात को दिखलाता है कि पलाश जी एक बार फिर बिना चीज़ों को समझे हुए लिख रहे हैं। मार्क्‍सवादी से लेकर ग़ैर-मार्क्‍सवादी इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों ने दिखलाया है कि जातिगत अन्‍तरविरोधों का एक समय तक वर्गगत अन्‍तरविरोधों के साथ कमोबेश अतिच्‍छादन था (उत्‍तरवर्ती प्राचीन काल तक) और उसके बाद से उनके बीच एक संगति का रिश्‍ता (करेस्‍पॉण्‍डेंस) का संबंध रहा है, और पूंजीवादी उत्‍पादन पद्धति के प्रमुख उत्‍पादन पद्धति बनने के बाद से सभी जातियां इस कदर वर्ग विभाजित हुई हैं, कि उनके बीच का करेस्‍पॉण्‍डेंस भी काफी कमज़ोर हो चुका है। आज के समय में जातिगत गोलबन्दियों में किसी भी प्रकार की मुक्तिकारी संभावना निहित नहीं है। जो गोलबन्‍दी एक क्रांतिकारी कार्यक्रम को पेश कर सकती है वह है वर्गीय गोलबन्‍दी। यह जनता के बीच मौजूद जातिगत अन्‍तरविरोधों से मुंह मोड़ने की बात करना नहीं है, बल्कि यह कहना है कि जनता के बीच के अन्‍तरविरोधों और शत्रुतापूर्ण अन्‍तरविरोधों के बीच फर्क किया जाना चाहिए। जनता के बीच मौजूद जातिगत अन्‍तरविरोधों और पूर्वाग्रहों के खिलाफ पहली मंजि़ल से संघर्ष किया जाना चाहिए, प्रचार अभियान और सांस्‍कृतिक मुहिमें आयोजित की जानी चाहिए। मेहनतकश वर्ग एक जाति व्‍यवस्‍था-विरोधी अभियानों के बिना संगठित ही नहीं हो सकते। लेकिन जब हम दलितों की मुक्ति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर हमारा अर्थ मायावती, आठवले, थिरुमावलवन, रामविलास पासवान, और नेताशाही और नौकरशाही में बैठ कर सत्‍ता की और भी ज्‍यादा वफादारी से सेवा करने वाली दलित आबादी की बात नहीं करते हैं। बल्कि जब हम दलित मुक्ति की बात करते हैं, तो हमारा अर्थ होता है वह 93 से 94 फीसदी दलित आबादी जो औद्योगिक और खेतिहर सर्वहारा के रूप में सबसे नग्‍न और बर्बर किस्‍म के आर्थिक शोषण और आर्थिकेतर उत्‍पीड़न का शिकार है।लेकिन पलाश जी ने जाति और वर्ग के आपसी संबंधों को समझे बग़ैर उन्‍हें ऐसे पेश कर दिया है, मानो वे कोर्इ एकाश्‍मीय श्रेणियां हों। नतीजतन, उनका यह जवाब जुमलेबाजि़यों और नारेबाजि़यों का एक दरिद्र समुच्‍चय बन गया है। हम आग्रह करेंगे कि इन मुद्दों पर और सावधानी के साथ लिखा जाय, महज़ भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते हैं।

पांचवी बात, पलाश विश्‍वास जी ने बिल्‍कुल गलत समझ लिया है कि मैंने जंगलवादी वामपंथी दुस्‍साहसवादियों का पक्ष लिया है। अगर उन्‍होंने हमारा आलेख पढ़ा होता तो शायद उन्‍हें ऐसी गलतफहमी नहीं होती, हम जल्‍द ही अपने आलेखों को ऑनलाइन कर देंगे। लेकिन इतनी बात समझने के लिए तो उन्‍हें महज़ 'हस्‍तक्षेप' में प्रकाशित मेरे जवाब को ठीक से पढ़ना चाहिए था। मज़ेदार बात यह है कि संगोष्‍ठी में हमारे द्वारा रखी गयी अवस्थितियों पर दो प्रकार के लोग सबसे ज्‍़यादा हमला कर रहे हैं, और इतने तिलमिलाये हुए हैं कि हमारे संगठन के लोगों के व्‍यक्तिगत रिश्‍तों, जीवन आदि पर टिप्‍पणियां कर रहे हैं; वे कहीं भी हमारे किसी तर्क का जवाब नहीं दे रहे हैं बल्कि कुत्‍साप्रचार की राजनीति पर उतर आये हैं। उसका जवाब देना हम अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। यदि कोई हमारे तर्कों और अवस्थितियों की राजनीतिक आलोचना रखे तो हम उससे किसी भी मंच पर खुली बहस के लिए तैयार हैं। पलाश जी निश्चित तौर पर किसी भी प्रकार का कुत्‍साप्रचार नहीं कर रहे हैं और कम-से-कम वे अभी भी राजनीतिक शब्‍दावली में ही बात कर रहे हैं। लेकिन निश्चित तौर पर वे भी हमारे किसी तर्क का उत्‍तर नहीं दे रहे हैं। मैंने पिछले लेख में जो लिखा है उसमें कुछ भी विद्वतापूर्ण या मौलिक नहीं है। मैंने केवल आपके द्वारा प्रस्‍तुत गलत तथ्‍यों को खारिज किया है, और अम्‍बेडकर के वैचारिक मूलों की तथ्‍यों समेत आलोचना की है। अगर इसके कारण आप उसे विद्वतापूर्ण करार देकर जवाब देने से बचने का प्रयास कर रहे हैं, तो ऐसा प्रयास व्‍यर्थ है।

छठीं बात, पलाश जी ने संगोष्‍ठी के किसी भी आलेख को पढ़े बग़ैर, उसके किसी भी वीडियो को देखे बग़ैर यह फैसला कैसे सुना दिया कि हमने अम्‍बेडकर की कोई राजनीतिक आलोचना रखने की बजाय ठंडे दिमाग से, और सर्जिकल प्रेसिज़न के साथ उनकी हत्‍या कर दी है? ऐसी गैर-जिम्‍मेदार बातें आप जैसे वरिष्‍ठ पत्रकार को शोभा नहीं देती, पलाश जी। हम आग्रह करेंगे कि अब वीडियो ऑनलाइन मौजूद हैं, उन्‍हें देखें। और फिर ठोस-ठोस बताइये कि हमारी आलोचना में गलत क्‍या है और उसकी आलोचना पेश कीजिये। नारेबाज़ी मत करिये।

उम्‍मीद है आप हमारे विनम्र आग्रहों और अनुरोधों पर विचार करते हुए आगे से कोई ठप्‍पा नहीं लगायेंगे और ठोस शब्‍दों में बतायेंगे कि आप किस बात से असहमत हैं, क्‍यों असहमत हैं और अपनी वैकल्पिक आलोचना पेश करेंगे।

पुनश्‍च: मेरा नाम अभिनव कुमार नहीं है; आप मुझे सिर्फ अभिनव कह सकते हैं, मैं आपसे बहुत कनिष्‍ठ हूं।

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