दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।
हम चकित हैं कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद, जायनवादी विश्वव्यवस्था और हिन्दुत्व के एजंडे से निर्मित त्रिशूल चौतरफा अश्वमेध अभियान में खुले बाजार के आखेटगाह में मारे जाने को नियतिबद्ध निन्यानबे फीसद जनता के हक-हकूक की लड़ाई में जिन ताकतों को एकताबद्ध किये बिना हम न आत्मरक्षा कर सकते हैं और न प्रतिरोध, ऐसे समय में जब राष्ट्र लोकगणतन्त्र राज्य के बजाय अपनी ही जनता के दमन के लिए उसके विरुद्ध युद्धघोषणा कर चुकी है, तब वहीं ताकते सिद्धान्तों और अवधारणाओं की अव्यावहारिक व्याख्या और बहस में निहायत अलोकतान्त्रिक आत्मघाती मारकाट पर उतारू हैं।
हम हमारे प्रिय फिल्मकार आनन्द पटवर्द्धन की फिल्म जय भीम कामरेड के यथार्थ पर तनिक विचार करें। लाल झंडा उठाये हुये लोगों के नीले रिबन पर भी गौर करें। हम दलित पैंथर आन्दोलन के क्रान्तिकारी चरित्र को खारिज नहीं कर सकते और न ही आनंद तेलतुंबड़े को बहस के दौरान कही उनकी बातों में कथित अंतर्विरोधों के कारण गैर ईमानदार या फरेबी करार दे सकते हैं। तेलतुंबड़े की तरह हम भी भारत में वामपंथी कार्यकर्ताओं, कथित संशोधनवादी और क्रान्तिकारी दोनों और अंबेडकर के अनुयायी देश की बहुसंख्यक आबादी, जिसमें सबसे ज्यादा लोग विस्थापित, शरणार्थी, जल-जंगल-जमीन आजीविका और नागरिकता के अलावा मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों से वंचित लोगों को परस्परविरोधी नहीं मानते और किसी भी मुक्तिकामी राष्ट्रव्यापी संग्राम में उनके साझा मंच के लिये प्रयत्नरत हैं। इसके अलावा जाति और धर्म के अतिरिक्त नस्ली भेदभाव के तहत गोरखों, पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत के लोगों और भौगोलिक दृष्टि से सबसे ज्यादा शोषण और दमन के लक्ष्य स्थल कश्मीर से लेकर नगालैंड और मणिपुर, समूचा आदिवासी बहुल मध्य भारत जिसमें गोंडवाना और दण्डकारण्य शामिल हैं, की निहत्थी जनता को एक साथ लाना चाहते हैं। हमारी विचारधारा चाहे कोई हो, देश निकाला अभियान के शिकार शरणार्थियों के बीच के होने की हैसियत से, देश भर के आदिवासियों से निरन्तर चार दशकों के संवाद की अभिज्ञता और पूर्वोत्तर के लोगों से जुड़ाव के कारण हम इन लोगों के लिए फौरी अनिवार्यता उन्हें नागरिक और मानवाधिकार बहाल करने, उनकी नागरिकता और आजीविका की गारंटी देना और सैन्य शासन विशेष सशस्त्र बल कानून और दूसरे जनविरोधी कानूनों, आधार योजना, आदिवासियों के दमन के लिये सैन्य अभियानों और सलवा जुड़ुम जैसे अभियानों का अन्त, वनाधिकार कानून व पर्यावरण कानून के तहत प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, बेदखली अभियान पर रोक और निश्चय ही आर्थिक सुधारों के तहत जारी जनसंहार संस्कृति पर रोक की है। दुस्साहसिक जंगल में सीमाबद्ध क्रान्तिकारिता से यह लक्ष्य हासिल होने से रहा। मुक्तिकामी संघर्ष चाहे अंबेडकर विचारधारा के मुताबिक हो या क्रान्तिकारी मुक्तिकामी वामपंथी विचारधारा से बहुसंख्य बहिष्कृत जनता की हिस्सेदारी इसके लिये अनिवार्य है।क्रान्ति, आजादी और मुक्ति संग्राम भारत विभाजन के तुरन्त बाद से लोकप्रिय सपना है। बल्कि उससे पहले से। नेताजी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिये आजाद हिन्द फौज का गठन करके भारी जनसमर्थन हासिल करने में
कामयाब हुये तो उनसे भी पहले शहीदे आजम भगत सिंह की क्रान्ति की दिशा तय कर चुके थे। 1967 से पहले और यहाँ तक कि तेलंगना जनसंघर्ष से काफी पहले ऐसा हुआ। अभिनव जी मानेंगे कि सपना और हकीकत में काफी फर्क है। क्रान्ति के इन्तजार में भारतीय लोक गणराज्य और इसके संविधान के तहत जो अधिकार और रक्षा कवच हासिल हैं, मसलन हमारे मौलिक अधिकार, संविधान की पाँचवी और छठीं अनुसूची, प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक सम्बंधी धारा 39 बी और धारा 39 सी, उनके महत्व को नजरअंदाज करके हम भारतीय जनता को इस वधस्थल पर कसाइयों के हाथों मरने के लिये खुला छोड़ नहीं सकते। चंडीगढ़ संगोष्ठी भले ही जाति विमर्श को सम्बोधित हो, उसका प्रस्थानबिन्दु अंबेडकर विचारधारा को खारिज करना कतई नहीं हो सकता।
हमें विज्ञान और तर्कों के अलावा इतिहास और समसामयिक सन्दर्भो को भी ध्यान में रखना चाहिये। किन्हीं डेवी या किसी दूसरे अर्थशास्त्री जिनका कि कथित तौर पर, और अवश्य ही इसमें और संवाद की गुंजाइश है, अंबेडकर विचारधारा और राजनीति, उनके अर्थशास्त्र पर प्रभाव है, यह तर्क जाति विमर्श का प्रस्थानबिन्दु नहीं बन सकता। जाति भारतीय सामाजिक य़थार्थ है, जिसे अंबेडकर के अलावा गांधी और लोहिया ने भी अपने तरीके से सम्बोधित करने की कोशिश की है। खुद अभिनव कुमार कहते हैं कि वामपंथियों ने भी जाति यथार्थ को सम्बोधित करने की कोशिश की है और वे यह भी मानते रहे हैं कि इस प्रयास में वामपन्थियों से गलती हुयी हैं। तो क्या क्रान्तिकारियों को गलती करने का एकाधिकार मिला हुआ है? अभिनव जी की युक्ति के मुताबिक अगर मान भी लिया जाये कि अंबेडकर से भी गलतियाँ हुयीं, तो ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि दलितों की मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थीं। दलित राजनीति, अकादमिक दलित विमर्श का चाहे जो भी अवस्थान हो, विभिन्न पार्टियों, गुटों और व्यवस्थाओं में बँटी हुयी बहुसंख्य जनता जिसमें दलितों के अलावा आदिवासी, ओबीसी और धर्मान्तरित अल्पसंख्यक भी हैं, ऐसा नहीं मानते तो क्या मुक्ति कामी जनसंघर्ष उनको हाशिये पर रखकर चलेगा?
भारतीय वामपंथ की बुनियादी त्रासदी है कि भारतीय परिस्थितियों,जमीनी हकीकत और सन्दर्भों से कदम कटकर विज्ञान और तर्क के नाम पर निष्कर्ष निकालने की आत्मघाती प्रवृत्ति से वह कभी मुक्त नहीं हो पाया। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के दो दशक बीत जाने के बावजूद, राष्ट्र और विकल्पों से वंचित जनता के लिये एकमात्र विकल्प हिन्दू राष्ट्र बन जाने और नरसंहार और दंगों, मानवाधिकार हनन के युद्ध अपराधियों के भारतीय लोकतन्त्र में कॉरपोरेट सहयोग से भाग्यविधाता बन जाने के बावजूद वह कोई प्रतिरोधी आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाया। इसके विपरीत बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर अस्पृश्यता के विरुद्ध, जाति उन्मूलन के लक्ष्य को लेकर देशव्यापी आन्दोलन चलाने में कामयाब हुये और उन्हीं की वजह से व्यक्ति और संगठन अलग-अलग समय सन्दर्भ में अलग-अलग तरीके से जाति समस्या को सम्बोधित करने की कोशिश कर रहे हैं, आज जो बहस आपने शुरु की है, वह भी अंबेडकर निर्मित है, इससे अस्वीकार करने का दुस्साहस नहीं करना चाहिये। यहाँ तक कि संघ परिवार, जिनका एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र और मनुस्मृति व्यवस्था है, सामाजिक समरसता के नाम पर अपना जाति विमर्श चलाने को मजबूर हैं। बल्कि कटु यथार्थ है कि वामपन्थियों की तुलना में जाति विमर्श और उसकी रणनीति में संघ परिवार ज्यादा कामयाब है और नतीजतन बहिष्कृत जनता का एक बड़ा हिस्सा हिन्दुत्व की पैदल सेना में तब्दील है। कृपया इस पर गौर करें।
हम सभी, शायद आनंद तेलतुंबड़े और दूसरे दलित चिंतक भी आपकी बहस की उच्चकोटि क्षमता के आगे किंकर्तव्यविमूढ़ से हैं।बहस में हमारी पराजय का मतलब अंबेडकर का गैरप्रासंगिक हो जाना नहीं है। फिलवक्त किन्हीं अभिनव सिन्हा, पलाश विश्वास या आनंद तेलतुंबड़े की बहसबाजी से इस देश और इसकी जनता के भाग्य का निर्णय नहीं हो जाता और न जाति पहेली का हल निकलता है। अंबेडकर ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भों के अलावा ऐतिहासिक व धार्मिक सन्दर्भों में सिलसिलेवार इस यथार्थ को सम्बोधित करने की कोशिश की है। नृतात्विक अवधारणाओं को भी खँगाला है। उन्होंने न केवल भारत बल्कि समूचे दक्षिण एशिया में सांस्कृतिक धरातल होमोजिनस होने के तर्क के आधार जाति के प्रभाव को सर्वव्यापी माना है। आज जो ग्लोबल हिन्दुत्व है, उस संकट को भी उन्होंने विश्व भर में हिन्दुत्व के फैलाव के सन्दर्भ में देखा है और कहा है कि हिन्दू धर्म अनुयायी जहाँ कहीं पहुँचेगे, वे जाति की व्यवस्था वहाँ ढो ले जायेंगे। आज विश्व व्यवस्था में जो हिन्दुत्व और जायनवदी गठजोड़ है, उसके सन्दर्भ में हम लोग अंबेडकर के जाति विमर्श का विवेचन करें, तो बहस के नये आयाम खुल सकते हैं। हम लोग तो मामूली कार्यकर्ता हैं। नैनीताल में हमें पढ़ाने वाले शिक्षक और परीक्षक अभी भी हैं और वे बता सकते हैं कि अंग्रेजी से एमए करने के बावजूद हमने उद्धरणों का प्रयोग नहीं किया। समूचा शेक्सपीयर साहित्य पढ़ने के बावजूद इसी के चलते हमें शेक्सपीयरन त्रासदी में मात्र 36 अंक ही मिले थे। हम उतने मेधा सम्पन्न नहीं हैं और न उतने बड़े हैं, जैसा कि हमारे मित्र और हितैषी दुष्प्रचार करते हैं। हम मामूली कार्यकर्ता हैं जो संयोगवश पत्रकार भी है पेशे से। लोग हमें सम्पादक इत्यादि भी लिखते हैं।पर हकीकत है कि मैं अपने कार्यस्थल पर स्टेटस के हिसाब से एक सबएडीटर मात्र हूँ, अनेक संपादकों को रिक्रूट करने के बावजूद। पिता के आन्दोलन की विरासत, छात्र जीवन में नैनीताल समाचार व पहाड़ से जुड़़े होने के कारण संयोगवश चिपको आन्दोलन से जुड़़ाव के कारण और सत्तर दशक की पत्रकारिता के मिशन और प्रतिबद्दता के कारण पूर्वोत्तर, मध्य भारत और बाकी देश के आदिवासियों के संघर्षों में जुड़े होने की वजह से हमारे मित्र हमें सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं। सोशल मीडिया पर जो मेरा परिचय आता है, उसका श्रेय भी अविनाश दास और अमलेंदु जैसे मित्रों का कृतित्व है। आपके विज्ञान और तर्कों का जवाब देने में हमें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा। पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम माकूल जवाब नहीं दे पाये, या आनन्द तेलतुंबड़े जवाब देने में कथित तौर पर दिशा भ्रमित हो गये तो अंबेडकर विचारधारा की पराजय है।
जो इस बहस में शामिल नहीं होना चाहते उनकी अपनी समझ, राजनीति और रणनीति जरूर होगी। पर संवाद, संवाद की तरह होना चाहिए। हम तो यह समझने में निहायत असमर्थ हैं कि यह संवाद आनंद तेलतुंबड़े और अभिनव सिन्हा के आपसी विवाद का मामला कैसे बनता जा रहा है। मैं लिखना नहीं चाह रहा था और इंतजार कर रहा था कि दूसरे लोग बोलें। इसीलिए डायवर्सिटी मिशन के दुसाध जी का वक्तव्य भी हमने प्रसारित कर दिया। हम इस बहस को अनिवार्य मानते हैं और सवालों के जवाब को अपरिहार्य। लेकिन जैसा कि पहले हम बता चुके हैं कि ये जवाब निजी बहस से नहीं निकलने वाले। बहस का दायरा बढ़ाने की दरकार है। अगर अभिनव जी के तर्क को मान लिया जाये कि अंबेडकर दलित मुक्ति की दिशा दिखा नहीं पाये तो क्या बताइये कि क्या हमने वह दिशा खोज निकाली है? हस्तक्षेप या हाशिये पर पोस्ट वीडियो से कोई जवाब नहीं मिलने वाला। चंडीगढ़ संगोष्ठी के विवाद को पीछे छोड़कर हमें बहस ईमानदारी से आगे बढ़ानी चाहिये। अभिनव जी न भी मानें तो इस देश के धर्म निरपेक्ष और लोकतान्त्रिक लोग अवश्य मानेंगे कि हिन्दुत्व का एजंडा इस वक्त भारत राष्ट्र के अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा संकट है और हिन्दुत्व ही कॉरपोरेट राज का सबसे बड़़ा हथियार है। वैश्विक कॉरपोरेट व्यवस्था ही नहीं, तमाम राजनीतिक क्षत्रप नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के लिये एकजुट हैं। भले ही आपका विज्ञान, तर्क और सिद्धान्त भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था और इसके संविधान को खारिज करते हों, पर हमारा निवेदन है कि जब हम प्रतिरोध करने की हालत में कतई नहीं है तो जनता के बचाव के रास्ते से उसे बेदखल करने का भी हमें कोई हक नहीं है। अंबेडकर की मूर्ति तोड़कर अगर आप जाति विमर्श को अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं, तो जैसा कि पहले ही हमने लिखा है कि यह एक भारी रणनीतिक भूल है। भारत में दलित आन्दोलन की परम्परा सूफी संतों और किसान आन्दोलनों से शुरु हुयी है,अंबेडकर इसके जनक नहीं है। बंगाल में जो मतुआ आन्दोलन चला, वह दो सौ साल पुराना है जिसकी वजह से बंगाल में भारत भर में सबसे पहले अस्पृश्यता मोचन हुआ। अंबेडकर के राजनीतिक अवतार से भी पहले। चंडीगढ़ में बंगाल में वाम शासन के सन्दर्भ मे मतुआ आन्दोलन की चर्चा हुयी है। जबकि हकीकत है कि करीब दो सौ साल पहले ज्योतिबा फूले से भी पहले हरिचांद ठाकुर ने मतुआ आन्दोलन के जरिये किसान आंदोलन और भूमि सुधार के युद्ध के लिये सबसे पहले ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व को खारिज किया था। जैसे बिरसा का मुण्डा विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह,सन्यासी विद्रोह, नील विद्रोह और कोरेगाँव क्रान्ति भारतीय इतिहासकारों की व्याख्या के मुताबिक धार्मिक आन्दोलन नहीं है, वैसे ही मतुआ आन्दोलन भी धार्मिक आन्दोलन नहीं है। बंगाल के वाम शासन को जिस भूमि सुधार का श्रेय दिया जाता है, उसके लिये आन्दोलन का श्रेय मतुआ आन्दोलन के जनक हरिचाद ठाकुर को जाता है। बंगाल में मतुआ समर्थन से फजलुल हक की अगुवाई में जो अंतरिम सरकार बनी, प्रजा कृषक पार्टी की, उसका भी एजंडा भूमि सुधार था, जिसे उस मंत्रिमंडल में शामिल भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक ने विफल कर दिया जो भारत विभाजन की नींव बन गया।
मतुआ आंदोलन का प्रस्थान बिन्दु ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व का विरोध था और वह किसान आन्दोलन था। जिसे अब धार्मिक आन्दोलन साबित किया जा चुका है जबकि भारत में अस्पृश्यता के खिलाफ वह पहला आन्दोलन था। इसी तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खिलाफ हिन्दू और मुसलामान किसानों के साझा विद्रोह को सन्यासी विद्रोह करार दिया गया और वन्दे मातरम के जरिये वह हिन्दू राष्ट्रवाद का मुख्य आधार बन गया। हम अपनी विरासत से पल्ला झाड़ेंगे तो विरासत ही बेदखल नहीं होगी बल्कि जनशत्रुओं के हित में इस्तेमाल होगी। अंबेडकर विचारधारा चाहे जिस प्रभाव में हो, चाहे उसने पूँजीवाद या साम्राज्यवाद का विरोध न किया हो, जैसे कि चंडीगढ़ विमर्श का आक्रामक निष्कर्ष है, यह हकीकत बदल नहीं जाती कि हिन्दुत्व और ब्राह्मणवाद के खिलाफ वह एक अनिवार्य संग्राम था, जिससे खुली हो या नहीं, पर दलितों की मुक्ति ही नहीं भारतीय निनानब्वे फीसद जनता की मुक्ति का दिशा अवश्य बनती है। अभिनव जी चाहें जो सोचे हों और उनके जैसे विद्वान चाहे जो साबित कर दें लेकिन दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते। अभी अमेरिका से गैर अंबेडकरवादी फोरम हिमालयन व्यावस से मेरे दो इंटरव्यू प्रसारित हुये हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय संवाद भी अंबेडकर आंदोलन के व्यापक सदर्भ में है।
'हस्तक्षेप' पर षड्यन्त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे'
यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !
भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं
भावनात्मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलांजलि नहीं दे सकते
कुत्सा प्रचार और प्रति-कुत्सा प्रचार की बजाय एक अच्छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय
Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde
तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
- http://hastakshep.com/?p=30875
http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=lD2_V7CB2Is
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.
http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=dOHvRbwZBBo
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