सुभाष गाताडे जनसत्ता 26 मार्च, 2013: बारामूला के इक्कीस साल के आमिर कबीर बेग और श्रीनगर के सोलह वर्षीय जावेस अहमद डेन्थो में क्या समानता ढूंढ़ी जा सकती है? यों तो ये दोनों युवक एक दूसरे को जानते भी नहीं होंगे, मगर इस मामले में दोनों एक कहे जा सकते हैं कि छर्रे की बंदूकों ने उन्हें दृष्टिहीन बना दिया है। सितंबर 2010 में अपने दोस्त के घर जा रहे आमिर को छर्रे लगे थे, जब पुलिस ने कथित तौर पर पथराव कर रही भीड़ पर छर्रे बरसाए थे। उन्हीं दिनों ट्यूशन पढ़ने के लिए जा रहा तेरह वर्षीय जावेस भी पुलिस द्वारा बंदूकों से मारे गए छर्रों के चलते अपनी दाहिनी आंख खो बैठा। यह अकेले आमिर या जावेस की दास्तान नहीं है। दंगों या आंदोलनों को काबू में करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली छर्रे की बंदूकें क्या कश्मीर के युवाओं की दृष्टि के लिए खतरनाक साबित होती दिखती हैं? श्रीनगर के महाराजा हरीसिंह अस्पताल की रिपोर्ट इस मामले में काफी विस्फोटक है, जो बताती है कि 2010 के आंदोलन में शामिल रहे पैंतालीस युवाओं ने अपनी आंखें हमेशा के लिए खो दी हैं। अफजल गुरु को फांसी पर लटकाए जाने के बाद जो बवाल वहां शुरू हुआ, उसमें भी अब तक बारह मामले आ चुके हैं जिनमें दृष्टि के लौटाए जाने की संभावना नाममात्र की दिखती है। एक संवाददाता से बातचीत में दृष्टिविज्ञान विभाग के प्रमुख ने बताया कि इन आंकड़ों में घाटी के अन्य अस्पतालों में इसी तरह घायल होकर भर्ती हुए लोगों की तादाद शामिल नहीं है। यह विडंबना ही है कि दंगा नियंत्रण के लिए गैर-जानलेवा हथियार के तौर पर प्रयुक्त छर्रे की बंदूकों के चलते अब तक तीन सौ से अधिक युवाओं को घातक चोटें लगी हैं। दंगा नियंत्रण में प्रयुक्त पेप्पर गैस यानी मिर्च के धुएं से भी बच्चों और बुजुर्गों को अलग तरह की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। कई मामलों में इसने दमा के मरीजों में इतनी घबराहट पैदा की है कि ऐसे मरीज मर गए हैं। स्पष्ट है कि चाहे छर्रे की बंदूकें हों या मिर्च का धुआं, इनके बढ़ते इस्तेमाल ने घाटी में जनाक्रोश को बढ़ावा दिया है और अब आंसू गैस के गोले और पानी की बौछार जैसे दंगा नियंत्रण के अन्य साधनों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। 'निरापद' हथियारों की कतार में अब 'गंदगी बम' की भी बात हो रही है। दरअसल, गृह मंत्रालय इसी नए नुस्खे को आजमाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है ताकि उग्र हो रही भीड़ को काबू में किया जा सके। तकनीकी जुबां में उन्हें 'स्कुंक बम' कहा जाता है, जिन्हें अगर बड़े समूह पर दाग दिया जाए यानी फायर किया जाए तो वे भयानक बदबू छोड़ते हैं, जो प्रदर्शनकारियों को वहां से तितर-बितर होने के लिए मजबूर कर देते हैं। कहा जा रहा है कि इजराइल की हुकूमत द्वारा फिलस्तीनी अवाम को नियंत्रित करने के लिए प्रयुक्त हो रही इस तकनीक का इस्तेमाल अब जल्द ही भारत की सड़कों पर भी दिखाई देगा। ध्यान रहे कि स्कुंक बम जैसे गैर-प्राणघातक कहे जाने वाले हथियारों की तरफ गृह मंत्रालय और राज्यों के पुलिस महकमों का ध्यान उस वक्त गया जब जम्मू-कश्मीर में 2010 में हुए प्रदर्शनों में एक सौ दस से अधिक लोगों की मौत होने के समाचार आए। यह तथ्य भी काबिलेगौर था कि जब पुलिस प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाती है और जब आतंकियों पर फायरिंग करती है, तो मरने वालों की तादाद प्रदर्शनकारियों के मामले में अधिक होती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011 में पुलिस की एक सौ उनचास बार चलाई गोलियों में पैंतीस नागरिक मारे गए, जबकि उग्रवादियों/आतंकियों से मुठभेड़ के दो सौ इक्कीस मामलों में छब्बीस आतंकी मारे गए। स्कुंक बम का इस्तेमाल अभीप्रस्तावित है। भारत में गैर-जानलेवा कहे जाने वाले जो हथियार इस्तेमाल होते हैं उनमें पंप एक्शन गन्स, चिली ग्रेनेड्स और इलेक्ट्रिक बैटन्स अधिक चर्चित हैं। विभिन्न प्रांतों की सरकारें इस मसले पर अधिक सक्रिय दिखती हैं। समाचार के मुताबिक गंभीर अपराध को कम करने के नाम पर पिछले दिनों पंजाब पुलिस ने टेजर गनों की खेप मंगाई है। पंजाब पुलिस ने अपनी दो नई बटालियनों को टेजर गनों से लैस करने का निर्णय लिया है। पंजाब सरकार के नक्शेकदम पर जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, मध्यप्रदेश और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के अपहरण विरोधी दस्ते ने भी इन टेजर गनों के लिए आर्डर दिया है। गौरतलब है कि राज्य सरकारें ही नहीं, सेना की तरफ से भी इसी किस्म के गैर-पारंपरिक हथियारों के लिए बाहरी निर्माताओं को जानकारी भेजने के लिए लिखा गया है- जिसमें कहा गया है कि भारतीय सेना ऐसे गैर-प्राणघातक हथियारों को खरीदना चाहती है- मसलन ऐसी बंदूकें जो आंसू गैस, स्मोक ग्रेनेड और रबर बुलेट जैसी 'बारूद' को छोड़ें, जो सामने वाले को गतिहीन बना दे। रक्षा मंत्रालय से स्वीकृति मिले इस प्रस्ताव में इसी बात का उल्लेख किया गया है कि चूंकि आंतरिक सुरक्षा के कामों के लिए सेना का अधिक इस्तेमाल हो रहा है तो ऐसे गैर-प्राणघातक हथियार 'लोगों के दिलो-दिमाग को जीतने में' अधिक कारगर होंगे। वैसे हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे गैर-प्राणघातक हथियार उतने निरापद नहीं होते, जैसा दावा किया जाता है। अभी फरवरी में खबर आई थी कि जुलूसों, प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के अघातक हथियारों से अमेरिका में दस साल में पांच सौ लोगों की मौत हुई। इस तरह मारे गए लोगों में तिरालीस वर्षीय जानी कमाही पांच सौवां व्यक्ति था, जिसकी अलबामा में पिछले दिनों पुलिस द्वारा प्रयोग किए गए टेजर के झटकों से मौत हुई। एमनेस्टी इंटरनेशनल की तरफ से उस वक्त जारी बयान के मुताबिक वर्ष 2001 से अब तक लगभग पांच सौ लोग अमेरिका में ही इन झटकों के कारण मार दिए गए हैं, जिनमें से अधिकतर मामलों में वे किसी घातक हथियार से लैस नहीं थे और पुलिस के लिए किसी भी तरह का खतरा नहीं हो सकते थे। लाजिमी था कि इस संगठन ने अमेरिका से यह अपील की वह इस हथियार का इस्तेमाल कम करे और टेजर के इस्तेमाल के खिलाफ कड़े कानून बनाए। कमाही की मौत ने नवंबर 2011 में इसी तरह पुलिस के हाथों मारे गए रोजर एंथनी की याद ताजा कर दी, जो बधिर था और इसीलिए साइकिल से गिरने के बाद वह पुलिस के निर्देश पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सका था। बस इसी 'अपराध' के कारण पुलिस ने उस पर टेजर गन चलाई थी। गौरतलब है कि टेजर ऐसा इलेक्ट्रोशॉक हथियार होता है जो बिजली के प्रवाह को निर्मित करता है और स्नायुओं के स्वैच्छिक नियंत्रण को बाधित करता है और इस तरह यह प्रदर्शनकारी या संभावित खतरनाक व्यक्ति को मंद या कुछ समय तक के लिए बिल्कुल बेकार कर देता है। इस प्रभाव को पंगुपन या विकलांगता कह सकते हैं। आधिकारिक तौर पर भले ही कुछ कहा जाता रहे, मगर पहले दिन से यह बात मालूम रही है कि अगर किसी के सीने को निशाना बना कर इस हथियार को चलाया जाए तो उसे दिल का दौरा पड़ने की भी आशंका रहती है। निश्चित ही गैर-पारंपरिक कहे गए हथियारों में अकेले टेजर गन नहीं है। विज्ञान की चर्चित पत्रिका 'न्यू साइंटिस्ट' ने तीन साल पहले के अपने अंक में ऐसे ही चंद हथियारों की चर्चा की थी। इसके मुताबिक पूंजीपतियों का एक हिस्सा इन दिनों एक ऐसी माइक्रोवेव किरण गन तैयार करने में मुब्तिला है जो सीधे लोगों के सिर में आवाज पहुंचा देगी। इस उत्पाद को अमेरिकी सेना द्वारा 'युद्ध के अलावा अन्य कामों में' और भीड़ नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें माइक्रोवेव आडियो इफेक्ट का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें छोटी माइक्रोवेव लहरें तेजी से टिशू को गरम करती हैं और सिर में एक शॉकवेव पैदा करती हैं। इसकी एक अन्य विशिष्टता, जिसको लेकर अमेरिकी रक्षा विभाग बहुत प्रसन्न है, यह है कि इस किरण को इलेक्ट्रॉनिक पद्धति से संचालित किया जाता है, जो एक साथ कई निशानों तक पहुंच सकती है। इस माइक्रोवेव गन से किरण फेंकी जाएंगी तो पता चलेगा कि भाषण देते-देते मजदूर नेता वहीं बेहोश होकर गिर गया और उसके इर्दगिर्द खड़े तमाम मजदूर भी इसी तरह धराशायी हो गए। इस बात के मद्देनजर ऐसी गन का विरोध होगा और उसे मानवाधिकारों का हनन बताया जाएगा, इसे स्वीकार्य बनाने की कवायद भी चल रही है। कहा जा रहा है कि इसके गैर-सैनिक उपयोग भी हो सकते हैं, जैसे कहीं टिड््डी दल का हमला हो जाए तो ऐसे कीड़ों को भगाया जा सकता है। इतना ही नहीं, यह बात भी रेखांकित की जा रही है कि ऐसी तकनीक से उन लोगों को लाभ हो सकता है जिनकी सुनने की क्षमता ठीक नहीं है। कोई भी देख सकता है कि इन गैर-पारंपरिक हथियारों के आविष्कार के जरिए अमेरिकी सैन्यवाद अब मानवाधिकार उल्लंघन की नई ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है। अब लोगों को 'शांत' करने की अपनी योजनाओं के तहत सीधे मानवीय शरीर और मन की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा है। इस नई किस्म की 'युद्धभूमि' पर अपना वर्चस्व कायम करने में विज्ञान और अकादमिक जगत न केवल केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि बिल्कुल साथ-साथ चल रहे हैं। दमन के लिए पेशेवर वैज्ञानिकों और तकनीकविदोें की सेवाएं ली जा रही हैं। 'गैर-प्राणघातक' हथियारों के निर्माण को सरकारों और कॉरपोरेट प्रतिष्ठानों की तरफ से आगे बढ़ाया रहा है और इसमें कई अग्रणी शिक्षा संस्थान भी जुड़े हैं। लोगों को नियंत्रित करने, चोट पहुंचाने, यातना देने और यहां तक कि उन्हें मार डालने के नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं। दूसरी ओर, अमनपसंद विचारकों और वैज्ञानिकों में इन गैर-पारंपरिक हथियारों को लेकर चिंता बढ़ रही है। चर्चित विश्लेषक टाम बुर्गहार्ड द्वारा संपादित किताब 'पोलिस स्टेट अमेरिका' में प्रकाशित लेख 'नान-लेथल वारफेअर' इस परिघटना पर बखूबी रोशनी डालता है। उसके मुताबिक 'यह नया फासीवाद जैव निर्धारणवादी विचारधारा और अग्रगामी तकनीकी साधनों का इस्तेमाल करते हुए शरीर पर हमला करता है और हर नई तकनीकी प्रगति और राजनीतिक आवश्यकताओं के साथ अपने संभावित लक्ष्यों का दायरा बढ़ाता जाता है।' वह दरअसल 'जादुई गोली' की तलाश में रहता है जो उसके शिकार को 'अक्षम' बना दे। अगर अमेरिका में टेजर गन से इतनी मौतें होती हैं, तो भारत में क्या होगा, जहां की पुलिस पहले ही काफी असंवेदनशील है? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41302-2013-03-26-05-36-23 |
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