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Friday, March 29, 2013

किस ओर जा रहे हैं हम

किस ओर जा रहे हैं हम

Friday, 29 March 2013 10:40

मणींद्र नाथ ठाकुर 
जनसत्ता 29 मार्च, 2013:  भारत का लोकतंत्र किस ओर जा रहा है? पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से यह सवाल लोगों के जेहन में बार-बार उठ रहा है। हाल की घटनाओं को गंभीरता से देखा जाए तो प्रजातंत्र पर आसन्न खतरे को लेकर हमें चिंतित होने की जरूरत है। नवउदारवादी अर्थनीति को समर्थन देने वाली ताकतों के प्रजातंत्र से प्रेम की पोल खुलने लगी है।  
बात अफजल गुरु की फांसी से शुरू की जाए। इस बहस में कई मुद््दे आ रहे हैं। एक तरफ तो कहा जा रहा है कि फांसी में देर हुई और यह मामला देर आयद दुरुस्त आयद का है। दूसरी तरफ कुछ लोग फांसी लगने के बाद कह रहे हैं कि अफजल को न्याय नहीं मिला है। दूसरे तर्क पर विमर्श करने का समय शायद अब नहीं है। लेकिन पहले तर्क को परखने की जरूरत है। देर आयद दुरुस्त आयद की बात इस आधार पर कही जा रही है कि भारतीय राज्य को मजबूत होने का प्रमाण देना होगा, वरना इसे आतंकवाद का खतरा झेलना पड़ेगा। 
इस बात में कोई खास दम नहीं है। क्योंकि नरम राज्य होने का जो आरोप भारत पर लगाया जाता है वह इसकी ताकत की कमी के कारण नहीं, बल्कि इसकी सांस्कृतिक बहुलता और भारतीय समाज की अन्य जटिलताओं से उपजी परिस्थिति में निर्णय लेने की दुविधा के कारण। ऐसे में नरम राज्य होने को अपनी कमजोरी मानना सही नहीं है। सच तो यह है कि एक नरम राज्य ही इतने जन समुदायों के जटिल रिश्तों को एक साथ लेकर चल सकता है। अगर हर मसले की पूरी तहकीकात किए बिना जल्दबाजी में निर्णय लिए जाएं तो संभव है कि इस विविध-बहुल समाज को शांतिपूर्वक एक साथ लेकर चलना मुश्किल हो जाए।
अगर अफजल गुरु को फांसी देकर गृहमंत्री राज्य के शक्तिशाली होने का संदेश देना चाहते हैं तो यह तरीका गलत है। सच तो यह है कि इससे केवल एक भयभीत राज्य की छवि उभरी है। शायद सही समय पर उसके परिवार को पत्र तक पहुंचाने की क्षमता राज्य में नहीं है या फिर इसकी हिम्मत नहीं है। कुछ लोगों का यह मानना भी सही लगता है कि इस घटना से प्रजातंत्र की दलीय प्रणाली की सीमा स्पष्ट होती है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कानूनी निर्णयों को भी प्रभावित कर सकती है और उनके पास उसे सही ठहराने के लिए उपयुक्त तर्क गढ़ने का भी समय नहीं है। जिस देश का प्रधानमंत्री फांसी लगने वाले व्यक्ति के परिवार को संचार माध्यमों के इस युग में सूचना सही समय पर न मिल पाने के लिए माफी मांग कर अपना कर्तव्य पूरा होना समझ रहा हो, उस देश के भविष्य के लिए चिंता की जानी चाहिए। 
सवाल यह नहीं है कि फांसी देना सही है या नहीं, सवाल यह भी नहीं है कि अफजल गुरु को फांसी देना सही था या नहीं, सवाल यह है कि फांसी देने की प्रक्रिया सही है या नहीं, सवाल यह भी है कि राजनीतिक नेतृत्व इस घटना के न्यायपूर्ण होने को लेकर कितना आश्वस्त है। अगर आम जनता में यह संदेश पहुंचा है कि फांसी का संबंध आने वाले चुनाव से है तो प्रजातंत्र के पुरोधाओं को इसकी चिंता करनी चाहिए।
समस्या है कि यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है, जिसमें कहावत चरितार्थ होती है कि 'भारत का प्रजातंत्र ठेलने से चलता है' या फिर यहां 'अंधेर नगरी चौपट राजा' है। दिल्ली में चलती बस में बलात्कार की घटना भी एक सामान्य घटना मान ली जाती, अगर बहुत-से लोग इंडिया गेट पर जमा होकर आवाज बुलंद नहीं करते। इस घटना के बाद बहुत-से लोग पूछने लगे हैं कि क्या हर ऐसी घटना के बाद विरोध की इसी प्रक्रिया को दुहराना पड़ेगा। और उन लोगों का क्या, जो आए दिन जातीय हिंसा के शिकार होते हैं या फिर राज्य की हिंसा से निरंतर प्रताड़ित हैं। उन लड़कियों का क्या, जिनका बलात्कार इसलिए आम बात है कि वे दलित हैं। 
अब राज्य को शायद यह आदत होती जा रही है कि शोर मचने पर ही न्याय की बात की जाए। और शोर जितना ज्यादा हो, न्याय उतनी जल्दी हो पाएगा। दिल्ली की मुख्यमंत्री का यह कहना कि उनकी बेटियां भी देर होने पर बाहर जाने में घबराती हैं शायद सही न हो, क्योंकि उनकी सुरक्षा का पूरा इंतजाम रहता है। लेकिन इससे आम आदमी को इतना संदेश तो जरूर मिलता है कि राज्य से न्याय और सुरक्षा के भरोसे की उम्मीद करना संभव नहीं है।
अब तो हालत यह है कि घोटाले और बलात्कार की खबरों पर लोगों की नजर भी नहीं टिकती है। घोटालों की संख्या और मात्रा का अंकगणित लोगों की समझ से परे जाने लगा है। सामूहिक बलात्कार की घटनाएं इतनी ज्यादा हो रही हैं कि खबर तभी खबर कहलाएगी जब एकल बलात्कार हो। पहले लोग किसानों की आत्महत्याओं की बात करते थे और उनकी संख्या सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते थे। अब तो भारत का नंबर दूसरी आत्महत्याओं में भी अव्वल आने लगा है। जब कभी किसी बड़े नेता का  वक्तव्य इन विषयों पर आता है तो जनता के चेहरे पर अविश्वास का भाव रहता है। यहां तक कि प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर भी लोग आश्वस्त नहीं हो पाते हैं। 

बात केवल एक पार्टी की नहीं है। अब जनता को यह भी समझ आने लगा है कि 'कोउ नृप होय हमें का हानी', क्योंकि हाइकमान अब नृप के हाथ में नहीं रह गया है। राज्य की नकेल अब देशी और विदेशी पूंजी के हाथ में है। लोग लगभग यह मान बैठे हैं कि देश की संप्रभुता खतरे में है। जब राजनेता डंकल प्रस्ताव की बड़ाई करते नहीं थकते थे तो लोगों ने उन पर विश्वास किया। फिर वे कहने लगे कि विकास का पथ कांटों से भरा है और अब कहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं फलते। 
आम लोगों को लगता है कि उनके साथ धोखा हो रहा है। परमाणु ऊर्जा को सही ठहराया जा रहा है, वालमार्ट को गरीब किसानों के लिए लाभदायक बताया जा रहा है, बीटी बैंगन को स्वास्थ्यवर्धक साबित किया जा रहा है। अब वे कह रहे हैं कि देश के युवाओं को विश्वस्तरीय शिक्षा दी जाएगी। इस सब में फायदा किसका हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। तो ऐसे राज्य पर क्या भरोसा हो सकता है।
राज्य के प्रति जनता में इतना अविश्वास पहले कभी नहीं देखा गया था। इस बढ़ते अविश्वास का समाज पर क्या असर होगा यह समझना मुश्किल नहीं है। लोगों में गहरा अविश्वास और भय घर करता जा रहा है। किसी भी तरह से अपने भविष्य को सुरक्षित रखने की होड़ मची है। किसी भी तरह से धन कमा कर बाजार में अपनी जगह बनाए रखना ही जीवन का एकमात्र उद््देश्य हो गया है। नैतिक मूल्यों का अब कोई मतलब ही नहीं रह गया है। समाज में संघर्ष की स्थिति बनती जा रही है। ऐसे में अस्मिता की खोज में मनुष्य छद्म अस्मिताओं को वास्तविक मान लेता है और उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाता है।   
मनुष्य के स्वभाव में दस तत्त्व होते हैं- चार पुरुषार्थ (अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष) और छह विकार (ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह)। पहले चार तत्त्व मनुष्य को मानव-सुलभ गुण देते हैं। जबकि दूसरे छह तत्त्व उसे इस गरिमा से परे ले जाते हैं और उसके स्वभाव में विकृति पैदा करते हैं। किसी देश और काल में मनुष्य के स्वभाव में किन तत्त्वों की प्रधानता रहेगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी सामाजिक परिस्थिति क्या है। राज्य पर उठते भरोसे की वजह से मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां ज्यादा प्रभावकारी हो जाती हैं। पूंजीवाद में मनुष्य इन दसों तत्त्वों को बाजार के लिए प्रयोग में लाता है। अगर राज्य अंकुश न रखे तो बाजार मनुष्य के विकारों को उकसा कर भी लाभ कमाने से नहीं चूकता। 
नवउदारवाद में राज्य की बदलती भूमिका ने न केवल बाजार को निरंकुश होने दिया है बल्कि अपनी सामान्य जिम्मेदारियों को निभाने में भी राज्य रुचि नहीं ले रहा है। आश्चर्य यह है कि राजनीतिक राज्य की विफलताओं से कोई सबक लेने के बजाय उन परदा डालने के तर्क गढ़ते रहते हैं। उन्हें लगता है कि जनता इतनी नादान है कि वे अपनी मंशा को इन दलीलों से छिपा सकते हैं। 
गौर करने की बात है कि अगर मनुष्य के स्वभाव की विकृतियां भी स्वाभाविक हैं, तो उनकी मर्यादित मात्रा में उपस्थिति ही उसे बहुआयामी और रोचक व्यक्तित्व प्रदान करती है। लेकिन अगर विकृतियां ही आदर्श बन जाएं तो समाज को चिंतित होना चाहिए। जैसे सिनेमा में खलनायक की महत्त्वपूर्ण भूमिका तो होती है, लेकिन जब खलनायक ही पूजनीय हो जाए तो समझना चाहिए कि संकट आसन्न है। नवउदारवादी नीतियां भारतीय समाज को इसी दिशा में धकेल रही हैं। छिछली आधुनिकता और पूंजीवाद के इस चरम उत्कर्ष पर भारतीय जनमानस खुद को ठगा-सा महसूस कर रहा है। ऐसे में अगर कोई फासीवादी नेतृत्व उभरता है तो उसे इसी परिस्थिति की उपज मानना होगा। उसके लिए इन नीतियों के पुरोधा जिम्मेवार होंगे। 
नवउदारवादी ताकतों ने फासीवाद का डर दिखा कर बहुत दिनों तक समाजवादियों और वामपंथियों को अपने साथ रखा ताकि उनकी ताकत कमजोर हो जाए। और अब आहिस्ता-आहिस्ता नवउदारवादी ताकतों का असली चेहरा नजर आने लगा है। 
भारतीय राज्य के मजबूत होने की जो दुहाई दी जा रही है वह वास्तव में प्रजातंत्र और पंूजीवाद के बिखरते रिश्तों की तरफ संकेत कर रही है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पूंजीवाद वक्त आने पर फासीवाद का भी सहारा ले सकता है। प्रजातंत्र के प्रति उसका मोह तब तक ही है जब तक प्राकृतिक संपदाओं का दोहन शांतिपूर्वक संभव हो। यह समझना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र को यहां तक लाने के लिए कौन जिम्मेदार है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41482-2013-03-29-05-10-41

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