बहस अम्बेडकर और मार्क्स के बीच नहीं, वादियों के बीच है
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चण्डीगढ़ में 'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर जो पांच दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गयी, उसके आधार पेपर को पढ़े बग़ैर लोग पूरी संगोष्ठी पर टिप्पणी कर रहे हैं। इस संगोष्ठी में हमने जो आलेख प्रस्तुत किये उसमें न तो अम्बेडकर को खारिज किया गया है, और न ही उनकी सोच को पूरी तरह से अपनाया गया है। क्या हम इन दो छोरों पर ही जाने के लिए बाध्य हैं? मार्क्सवाद किसी भी विचारधारा या परिघटना का अध्ययन द्वन्द्वात्मक पद्धति से करता है। अम्बेडकर भी इसके अपवाद नहीं हैं।हमने संगोष्ठी में बार-बार यह बताया कि दलितों के बीच गरिमा के बोध और उनकी अस्मिता को स्थापित करने में अम्बेडकर का भी योगदान था, और इस रूप में उनके योगदान को हम निश्चित तौर पर स्वीकारते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कैसे हो सकता है कि अम्बेडकर की विचारधारा में जो स्वीकारने योग्य नहीं है, उसे स्वीकार कर लिया जाय? क्या सिर्फ इसलिए कि अम्बेडकर को भावनात्मक रूप से एक शुद्ध और पवित्र वस्तु बना दिया गया है जो कि आलोचनेतर है? विज्ञान किसी चीज़ को पवित्र और आलोचनेतर नहीं मानता है। हमने अपने आधार लेख जाति और एशियाटिक उत्पादन पद्धति के प्रश्न पर डी.डी.कोसांबीद्वारा मार्क्स की आलोचना से सहमति जतायी है, और बताया है कि बाद में मार्क्स ने अपने विचारों को स्वयं बदल लिया था; हमने भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक कटु आलोचना भी अपने पेपर में रखी है। इन आलोचनाओं पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन ज्यों ही आप अम्बेडकर की विचारधारा, राजनीति और अर्थशास्त्र की कोई संजीदा आलोचना भी पेश करते हैं, तो कोई भी आपके तर्कों या आलोचना का कोई जवाब नहीं देता। आपको बस सीधे ब्राह्मणवादी और जातिवादी घोषित करके आप पर तोहमतों की बारिश कर दी जाती है। मुझे लगता कि अम्बेडकर स्वयं भी इतने जनवादी थे, कि इस प्रकार के बर्ताव पर हंसते। लेकिन उनके अनुसरणकर्ताओं के भीतर इतनी वैज्ञानिक स्पिरिट भी नहीं है कि आलोचना का तार्किक उत्तर दे सकें।
इसलिए हम पलाश विश्वास और अन्य लोगों से आग्रह करेंगे कि पहले हमारे पेपर को पढ़ें। हम किसी भी शख्सियत की तरह अम्बेडकर को भी पूरा का पूरा अपनाने या खारिज करने के खिलाफ हैं। जो उन्हें पूरी तरह अपनाने की बात करते हैं उन्हें बताना चाहिए कि अम्बेडकर से क्या अपनाया जा सकता है, और क्या नहीं। सामान्य बात करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह अन्धपूजा में तब्दील हो जाती है।
पलाश जी ने दलित पैंथर्स की बात की। दलित पैंथर्स की परिघटना का विवेचन एक अलग विषय है और इस पर हमने अपने पेपर में कोई अलग विश्लेषण पेश भी नहीं किया है। 1972 में दलित पैंथर्स की स्थापना अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स आन्दोलन की तर्ज़ पर की गयी थी। इसके स्थापकों में नामदेव धसाल, जो कि एक क्रांतिकारी मराठी कवि थे, और जिन्होंने दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर ज़बर्दस्त ताप और तेवर के साथ लिखा था, और राजा धाले प्रमुख थे। इसमें धसाल का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ ज्यादा था, और धाले अम्बेडकर और नवबौद्ध धारा के हिमायती थी। दलित पैंथर्स ने धसाल के नेतृत्व में दलित की परिभाषा को ही व्यापक किया और उसमें तमाम मेहनतकशों को शामिल किया। इस संगठन ने दलित उत्पीड़न का जवाब रैडिकल तरीके से दिया और 1972 से लेकर 1975 तक इस आन्दोलन का पूरे देश पर प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव के दो मूल कारण थे : एक, दलित उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के मुद्दे को एक हद तक समूची मेहनतकश जनता की आज़ादी के साथ जोड़ना, और दूसरा, इस बात को स्वीकार करना कि संविधान और संवैधानिक रास्तों की सीमाएं हैं और कहीं न कहीं दलित मुक्ति आन्दोलन को अम्बेडकर के एजेण्डे से आगे जाना होगा। वास्तव में, धसाल का इस पहलू पर ज़ोर ही धाले के साथ उनके अन्तरविरोध की तरफ ले गया। संक्षेप में कहें तो, दलित पैंथर्स का आन्दोलन उस हद तक सफल था, जिस हद तक वह अम्बेडकरवाद की सीमाओं से आगे गया, और इस हद तक असफल रहा कि वह कभी एक स्पष्ट विचारधारात्मक अवस्थिति पर पूरे नेतृत्व को एकजुट नहीं कर पाया और अन्तत: राजनीतिक अवसरवाद, समझौतापरस्ती, और बिखराव का शिकार हो गया। नामदेव धसाल आज जहां खड़े हैं, उसके बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इतना ज़रूर है कि दलित मुक्ति के आन्दोलन में दलित पैंथर्स का आन्दोलन एक प्रगतिशील चरण था और उसे एक मील का पत्थर माना जा सकता है, जिसने अम्बेडकरवाद की सीमाओं का अतिक्रमण किया, लेकिन जो एक सम्पूर्ण क्रांतिकारी कार्यक्रम तक एकजुट रूप में न पहुंच पाने के कारण ही बिखराव का शिकार भी हुआ। इसलिए पलाश विश्वास की तरह हम दलित पैंथर्स के आन्दोलन के बारे में एक पंक्ति में कोई फैसला नहीं दे सकते हैं।
आनन्द तेलतुंबड़े ने कहां-कहां अपनी बातों को बदला
पलाश जी ने कहा कि आनन्द तेलतुंबड़े ने बहस में अपनी बात नहीं बदली। ऐसा ही रेयाजुल हक़ भी कह रहे हैं। तो आइये देखते हैं कि आनन्द जी ने अपने पहले और दूसरे वक्तव्य में क्या कहा। बहस के वीडियो में 7:48 मिनट से लेकर 9:34 मिनट के बीच तेलतुंबड़े जी ने कहा कि अम्बेडकर की विचारधारा की जड़ जॉन डेवी की विचारधारा थी, जो कि प्रगतिशील व्यवहारवाद है। इस विचारधारा को तेलतुंबड़े जी विज्ञान की पद्धति से जोड़ते हुए कहते हैं कि यह वही पद्धति है जिसका पालन वैज्ञानिक प्रयोगशाला में करते हैं और इस रूप में यह विज्ञान से ज्यादा दूर नहीं है। यानी कि डेवी का व्यवहारवाद एक वैज्ञानिक पद्धति है जो हर विचार को व्यवहार की कसौटी पर रखती है और उसके जरिये विचार को समृद्ध करती है। आप देख सकते हैं कि ऊपरी तौर पर डेवी के विचारों को न मानने की बात करते हुए तेलतुंबड़े उसके पक्ष में दलीलें पेश कर रहे हैं। लेकिन जब डेवी की विचारधारा की एक विस्तृत आलोचना और अम्बेडकर की विचारधारा की भी एक विस्तृत आलोचना पेश की गयी तो तेलतुंबड़े जी क्या बोलते हैं? वीडियो में 1:50:24 सेकेंड पर वे कहते हैं कि उन्होंने डेवी की विचारधारा का समर्थन नहीं किया और उसकी जो आलोचना मेरे द्वारा पेश की गयी है उससे वे सहमत हैं। 1:51:39 पर वह कहते हैं कि अभिनव ने जो कुछ कहा उससे मैं सहमत हूं।
एक अन्य अन्तरविरोध देखें। 53:37 पर तेलतुंबड़े जी कहते हैं कि जो आधार पेपर हमारे द्वारा पेश किया गया है उससे जातिवाद की बू आ रही है। 40:50 पर भी उन्होंने पेपर पर जातिवादी होने का आरोप लगाया। इसके बाद अपने दूसरे वक्तव्य में वे 1:51:40 पर वे कहते हैं कि मैं यहां कही गयी बातों से सहमत हूं। अपने पहले वक्तव्य में 34:00 पर वे कहते हैं कि हमारे मुख्य पेपर में मार्क्सवाद को एक जड़सूत्र की तरह इस्तेमाल किया गया है। 32:15 पर वे कहते हैं कि पेपर ने सिर्फ चीज़ों की व्याख्या की है, लेकिन जाति समस्या का समाधान कैसे करना है इसके बारे में कुछ नहीं बताया है। लेकिन 1:50:58 से 1:53:58 के बीच में वे अपने इन सभी आरोपों से मुकर गये और कहा कि संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उससे वे ज्यादातर सहमत हैं, संगोष्ठी के लोगों ने भी कहा कि मार्क्सवादी एक जड़सूत्र नहीं है, और मैं भी यही कह रहा हूं, और ये तो अच्छी बात है कि हम दोनों यही कह रहे हैं। आगे वह कहते हैं कि मैं खुश हूं कि अभिनव की बात से एक बहस शुरू हुई, और अभिनव के भाषण में बहुत सी अच्छी बातें थीं, जिससे मैं सहमत हूं। 1:52:40 पर तेलतुंबड़े जी कहते हैं कि उनका मानना है कि वे (यानी के मैं और संगोष्ठी के आयोजक) मार्क्सवाद को जड़सूत्र नहीं मानते, मतलब वे डॉग्मैटिस्ट नहीं हैं। जबकि उन्होंने अपने पहले वक्तव्य में यही कहा था, जिसका सन्दर्भ हम ऊपर दे चुके हैं।
तीसरा अन्तरविरोध देखें। अपने पहले वक्तव्य की शुरुआत में 5:22 पर तेलतुंबड़े बोलते हैं कि चूंकि मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद को एक डॉग्मा बना दिया है, इसलिए वह अपने आपको मार्क्सवादी नहीं कहते, हालांकि मार्क्सवाद को वे एक ऐसी पद्धति के तौर पर देखते हैं जिससे कि समकालीन दुनिया की व्याख्या की जाय। लेकिन जब हमारे द्वारा आलोचना में यह कहा गया कि मार्क्सवादी क्या करते हैं और क्या नहीं, इसके आधार पर आप अपने आपको मार्क्सवादी या गैर-मार्क्सवादी नहीं बोलते हैं। आप अपने आपको मार्क्सवादी इसलिए बोलते हैं कि आपका मार्क्सवादी अप्रोच और मेथड में विश्वास होता है। तो अन्त में, अपने दूसरे वक्तव्य में उन्होंने अपनी बात पूरी तरह से बदल दी। 1:52:00 पर वे कहते हैं कि उन्होंने यह नहीं कहा कि वे मार्क्सवादी नहीं हैं। वह अपने आपको मार्क्सवादी ही कहते हैं। अपने पहले वक्तव्य में उन्होंने हमारे पेपर को जातिवादी, ब्राह्मणवादी, कठमुल्लावादी, और न जाने क्या-क्या करार दिया लेकिन हमारे द्वारा आलोचना के बाद 1:53:24 पर तेलतुंबड़े अपनी पूरी बात बदल देते हैं और कहते हैं कि यहां काफी-कुछ जो कहा गया है, वह सही है। क्या यह बात बदलना नहीं है?
उल्टे रिपब्लिकन पैंथर्स के पांच लोगों ने जो बयान जारी किया है, उसमें आनन्द तेलतुंबड़े की बात को तोड़ा-मरोड़ा गया है। तेलतुंबड़े जी ने वीडियो में 8:00 से 11:00 के बीच कहा कि अम्बेडकर जाति को समझने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन वे उसमें असफल रहे। उन्होंने कभी मार्क्स के समान को 'ग्रैंड थियरी' नहीं दी। उन्होंने यह कहीं नहीं कहा था कि मार्क्स की 'ग्रैंड थियरी' असफल हो गयी, और इसलिए मार्क्स की असफलता अम्बेडकर की असफलता से बड़ी है। लेकिन रिपब्लिकन पैंथर्स के पांच लोगों ने अपने सैद्धांतिक गुरू की इज्जत बचाने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही दुम हिला दी है। उन्होंने अपने बयान में (जो कि हस्तक्षेप में प्रकाशित हो चुका है) में कहा है कि तेलतुंबड़े ने कहा कि मार्क्स की असफलता अम्बेडकर की असफलता से बड़ी है। ऐसा तेलतुंबड़े जी ने कहीं नहीं कहा था। हमने जिस प्रकार वीडियो के अलग-अलग लोकेशन को सन्दर्भित करते हुए बात की है, वैसे ही पलाश विश्वास, रेयाजुल हक़ और रिपब्लिकन पैंथर्स के लोगों को भी करनी चाहिए। वह करीब 2 घंटे का वीडियो है, इसलिए यह काम तो थोड़ा लम्बा होगा। लेकिन अगर आप अपने तर्कों को पुष्ट करने के लिए ठोस प्रमाण देना चाहते हैं तो आपको थोड़ी तकलीफ तो उठानी ही पड़ेगी।
हमने ऊपर आनन्द तेलतुंबड़े द्वारा बात बदलने के जो उदाहरण दिये हैं, वे तो सिर्फ कुछ ही उदाहरण हैं। अगर आप अन्य ऐसे उदाहरणों को देखना चाहते हैं, तो 2 घंटे के पूरे वीडियो को ठीक से देखें, आपको पता चल जायेगा। और विशेष तौर पर आनन्द तेलतुंबड़े के पहले और दूसरे वक्तव्य को देखकर तुलनात्मक अध्ययन करें, तब तो आनन्द तेलतुंबड़े का यू-टर्न एकदम स्पष्ट तौर पर दिखलायी देता है। पता नहीं पलाश विश्वास, रेयाजुल हक़ और रिपब्लिकन पैंथर्स के वे पांच लोग यह दावा कैसे कर रहे हैं कि आनन्द तेलतुंबड़े ने अपनी बात नहीं बदली। अब हमने ऊपर वीडियो में समय का सन्दर्भ दे दिया है कि उन्होंने किस-किस बिन्दु पर बात बदली है, आप स्वयं देख लें।
राजनीतिक एकता कैसे बनायें और किस आधार पर बनायें?
हम कहीं भी आनन्द तेलतुंबड़े और रिपब्लिकन पैंथर्स जैसे लोगों को अपना विरोधी नहीं मानते हैं, वरना हम खुद उनके पास जाकर उन्हें अपनी संगोष्ठी में आने का आमन्त्रण नहीं देते। हमने पांच दिनों तक हर प्रकार से सभी भागीदारों की सुख-सुविधा का पूरा खयाल रखा; आनन्द जी को स्वयं हम जालंधर से पूरी आराम के साथ ले आये और शाम को उन्हें वहां वापस छोड़कर आये, क्योंकि उनके पास एक दिन का ही वक्त था। हम निश्चित तौर पर उन्हें कहीं न कहीं मेहनतकशों की मुक्ति के संघर्ष का हिस्सा मानते हैं, तभी हम उनसे बहस चला रहे हैं, न कि हिन्दुत्ववादियों और सवर्णवादियों से। इसलिए पलाश जी को समझना चाहिए कि एकता एक-दूसरे का गाल सहलाकर नहीं बनती। सच्ची एकता संघर्ष से ही बनती है। हम झूठ बोलकर और एक-दूसरे की खुशामद करके एकता नहीं बनाते, बल्कि वैचारिक संघर्ष, और आलोचना-आत्मालोचना के ज़रिये एकता बनाते हैं। हमें आनन्द तेलतुंबड़े या किसी की भी बात में जो असंगति नज़र आयेगी, उसकी क्या हम आलोचना न करें? तो उससे किस किस्म की एकता और आपसी भरोसा पैदा होगा? वैसी ही एकता और भरोसा जिसकी तमाम मिसालें हमारे देश के कम्युनिस्ट आंदोलन और दलित मुक्ति आन्दोलन में मौजूद हैं।विचारधारा का सवाल विज्ञान का सवाल होता है। इसलिए पलाश जी का यह कहना कि चाहे अम्बेडकरवादी विचारधारा हो या मार्क्सवादी विचारधारा, इससे मेहनतकश और दलितों की मुक्ति के आन्दोलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, गलत है। अगर जहाज़ के पास दो अलग-अलग कुतुबनुमे हैं, जिसमें एक सही और एक खराब है, तो उससे जहाज़ की भावी दशा-दिशा तय हो जाती है। विज्ञान के मसले पर किसी भी ग़लती के प्रति कोई सतही एकता स्थापित करने का रुख नहीं अपनाया जा सकता है।
संविधान हमें क्या देता है और क्या नहीं
हम मानते हैं कि पलाश जी संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के मामले में अपने इस कथन को लागू कर सकते हैं कि सपने और हक़ीक़त में फर्क होता है। संविधान में जो भी अधिकार जनता को दिये गये हैं, उन्हें छीन लेने का प्रावधान भी उसी संविधान के भीतर है। संविधान को शासक वर्ग अपनी तरीके से इस्तेमाल करता है, और इसकी गुंजाइश खुद संविधान में है। अम्बेडकर ने बाद में स्वयं कहा था कि संविधान के बहुत से प्रावधान उन्होंने अनिच्छा से लिखे थे (हालांकि उन्हें कौन मजबूर कर रहा था?) और उसे जलाने वाले वह पहले व्यक्ति होंगे। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्टऔर सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून संविधान में औपनिवेशिक काल की विरासत के तौर पर शामिल हुआ। ऐसे ड्रैकोनियन कानूनों को हटाने के लिए कोई प्रावधान अंबेडकर प्रस्तावित कर सकते थे। आज उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है वह साफ बताता है कि संविधान चाहे लिखित तौर पर कुछ भी कहता हो, वह जनता के जीने के अधिकार की भी रक्षा नहीं कर सकता। बल्कि कई चीज़ें तो संविधान से सहमति में हो रही हैं।
पलाश जी को अपनी संविधान रक्षा के बारे में फिर से संजीदगी से सोचना चाहिए। यह संविधान का आंतरिक ढांचा ही है, जिसने देश के शासक वर्गों को उसमें ऐसा संशोधन करने की आज्ञा दी जिससे कि आपातकाल लागू करके हर नागरिक अधिकार को निलंबित कर दिया जाय, जिसमें कि जीने का अधिकार भी शामिल है। अन्य कई देशों में संविधान कम-से-कम इतना जनवादी है कि पहले से ही कुछ प्रावधानों को संशोधित करने से संसद को वर्जित करता है। लेकिन अंबेडकर ने ब्रिटेन और अमेरिका के संविधानों से यह चीज़ नहीं ली। अन्य चीज़ें लीं। आपको पता होगा कि भारत का संविधान दुनिया का सबसे भारी-भरकम संविधान है। वास्तव में, अधिकांश देशों का संविधान बेहद छोटा होता है। वेब्सटर एनसाइक्लोपीडिक डिक्शनरी के अंत के कुछ पेजों में अमेरिका का पूरा संविधान है। संविधान के इस मोटापे पर लोग गर्व करते हैं, जिस पर शर्म की जानी चाहिए। वास्तव में, यह संविधान मोटा ही इसलिए हुआ क्योंकि हर अधिकार को देने के साथ उसे रद्द कर देने का प्रावधान भी उसमें जोड़ना था। इसलिए संविधान जनता के अधिकारों की कोई खास रक्षा कर पा रहा है, इसमें हमें शक़ है।
बहस अम्बेडकर और मार्क्स के बीच नहीं अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच में है, साथी
पलाश जी का मानना है कि अम्बेडकर की गलती और वामपंथियों की गलतियों के बारे में हमने निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं अपनाया है। वे बतायें कि ऐसा हमने अपने पेपर में कहां लिखा है। अम्बेडकर की आलोचना से ज्यादा पेज हमने भारतीय कम्युनिस्टों की इस भूल की आलोचना में खर्च किये हैं कि जाति व्यवस्था को समझने के उनके प्रयास अपर्याप्त रहे। लेकिन हम यहां अम्बेडकर की और मार्क्सवादियों की गलती की चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम यहां अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद का तुलनात्मक विवेचन कर रहे हैं। हम पहले भी यह स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन पता नहीं पलाश जी इस पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं। और जहां तक मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद का प्रश्न है, तो हमें लगता है कि भारतीय मार्क्सवादियों ने जो किया वह एक अलग प्रश्न है, लेकिन मार्क्सवाद के पास विश्लेषण का वह वैज्ञानिक अप्रोच और मेथड है, जिससे कि जाति व्यवस्था को ऐतिहासिक तौर पर समझा जा सकता है और उसके उन्मूलन की एक क्रांतिकारी परियोजना बनायी जा सकती है; हमारा दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट मानना है कि अम्बेडकर द्वारा दलित अस्मिता को स्थापित करने में योगदान के बावजूद, अम्बेडकरवाद के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी, और अम्बेडकर ने जो अधिक से अधिक रैडिकल या क्रांतिकारी बात भी की, वह किसी भी रूप में बुर्जुआ व्यवस्था के संवैधानिक दायरों से बाहर नहीं जाती थी। यहां हम देख सकते हैं अम्बेडकर पर डेवी की विचारधारा का प्रभाव नहीं था, बल्कि अम्बेडकर की विचारधारा डेवी की ही विचारधारा थी: बुर्जुआ उदारवादी व्यवहारवाद और उपकरणवाद। और हम इसी चीज़ की आलोचना करते हैं। इसलिए पलाश जी पहले इतना समझें कि हम यहां विचारधाराओं की आलोचना का एजेंडे पर रख रहे हैं, न कि इस बात को कि अम्बेडकर ने कब-कब क्या गलती की और भारतीय कम्युनिस्टों ने किस-किस वक्त क्या-क्या गलती की। हमें नहीं लगता कि ऐसी किसी कवायद का कोई खास फायदा होगा।
पलाश जी ने विज्ञान और तर्क को हकीकत से काट ही डाला है। हमारा मानना है कि भारतीय मार्क्सवादी मार्क्सवाद के विज्ञान को भारतीय संदर्भों और हकीकत पर सही तरीके से लागू नहीं कर पाये। अगर पलाश जी हमारा मुख्य आलेख पढ़ते, जो हमने चण्डीगढ़ में पेश किया था, तो वे समझ जाते कि हम भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की क्या आलोचना रखते हैं। इसलिए हमने कहीं भी जाति व्यवस्था को समझने के प्रश्न पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का बचाव नहीं किया है। न तो जारी बहस में और न ही चण्डीगढ़ के किसी पेपर में। फिर पलाश जी जबरन यह बात हमारे मुंह में क्यों ठूंस रहे हैं? और ऐसा करते हुए वह ठीक उन सवालों को गोल कर गये हैं, जो हम बार-बार पूछ रहे हैं।
बाद में पलाश जी एक बार फिर इस बात पर वापस आ गये हैं कि हम अंबेडकर को अप्रासंगिक बता रहे हैं, उनकी मूर्ति को तोड़ रहे हैं, वगैरह। हम फिर कहेंगे कि हमारे द्वारा उठाये गये सवालों पर ठोस बात कीजिये। हमने अपने पेपर में बताया है कि हम अंबेडकर का क्या अपनाते हैं और क्या खारिज करते हैं। आप अपना संस्करण दीजिये और बताइये कि आप अंबेडकर में क्या अपनाते और क्या खारिज करते हैं। किसी भी व्यक्ति की हर बात को पूरी तरह अपनाया और खारिज नहीं किया जा सकता। इसलिए हम जाति, एशियाटिक उत्पादन पद्धति आदि के बारे में मार्क्स के भी कई निर्धारणों को नहीं मानते। दूसरी बात, किसी व्यक्ति ने जो अप्रोच और मेथड विज्ञान के स्तर पर दिया है, उसे अपनाने या खारिज करने की बात है, तो निश्चित तौर पर हम अम्बेडकरवाद के अप्रोच और मेथड को सही नहीं मानते हैं, और उसकी वही आलोचना की जा सकती है, जो कि डेवी की विचारधारा की की जा सकती है। मार्क्सवाद को एक अप्रोच और मेथड के तौर पर हम वैज्ञानिक मानते हैं, और इस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता है कि भारतीय मार्क्सवादियों ने अब तक क्या किया है। यह एक छोटी सी बात है, जो हम कह रहे हैं और इस पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है। जो अम्बेडकरवाद का समर्थन कर रहे हैं, पहले वे बताये कि अम्बेडकरवाद क्या है। तेलतुंबड़े जी का मानना तो यह है कि अम्बेडकरवाद नाम की कोई चीज़ ही नहीं है क्योंकि अंबेडकर ने कभी कोई विचारधारा दी ही नहीं। एक मायने में यह सही भी है और गलत भी। अंबेडकर ने सचेतन तौर पर कोई विचारधारा दी हो या नहीं, वस्तुगत तौर पर उनकी एक विचारधारा है। और हम उसी की आलोचना कर रहे हैं, और हम सन्दर्भ देते हुए यह आलोचना कर रहे हैं। तो हम उम्मीद करते हैं कि आप भी सन्दर्भों सहित जवाब देंगे।
अंत में पलाश जी ने एक ऐसा तर्क रख दिया है जिससे हम पहले ही हार मानते हैं। वे कहते हैं कि हम चाहे तर्क और विज्ञान से कुछ भी साबित कर दें! अब अगर आप वही मानेंगे जो आप मानना चाहते हैं, तो फिर किसी भी बहस का क्या मतलब रह जाता है? जब सारा विज्ञान और तर्क एक तरफ और आप खूंटा वहीं गाड़ेंगे जहां आपने तय कर रखा है, तो हम क्या कह सकते हैं? जो अपील आप हमसे अम्बेडकर के विषय में कर रहे हैं, वही अपील हम आपसे तर्क और विज्ञान की बाबत करेंगे : कृपया तर्क और विज्ञान को कचरे की पेटी में न फेंकें, पलाश जी।
दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।
'हस्तक्षेप' पर षड्यन्त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे'
यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !
भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं
भावनात्मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलांजलि नहीं दे सकते
कुत्सा प्रचार और प्रति-कुत्सा प्रचार की बजाय एक अच्छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय
Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde
तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
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