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Thursday, September 20, 2012

कारपोरेट समय में एअर इंडिया हुआ आदमी!

कारपोरेट समय में एअर इंडिया हुआ आदमी!

पलाश विश्वास

कारपोरेट समय में एअर इंडिया हुआ आदमी!

भुखों मरना नौबत है, पर चूंकि उड़ान पर है और ड्रीम लाइनर का संग है​
​भूख निहायत असम्मानजनक प्रसंग है​!
​​
​महीनों वेतन न मिले, वर्षों जारी रहे बजट घाटा

और पब्लिक इश्यू की नौबत न हो​
​ऐसे में रैंप पर सवार परिजनों के विदर्भ में मगध कहां से लाये?

सब्सिडी पर जीवनरेखा और उस पर कुठाराघात​
​माया नहीं ब्रह्मांड इन दिनों
और न
कल्पनाएं अनंत! ​
​​
​कारपोरेट वास्तव है सर्वव्यापी
और
उसमें समावेशी विकास​!

​विकास गाथा अब नया
पवित्रतम ग्रंथ​
​जिसके तहत कर्मफल का
गीता प्रवचन​
​बहिष्कार
और नरसंहार​
​सारे युद्ध
महायुद्ध
गृहयुयुद्ध लड़े जायेंगे इसतरह!

इस सर्वशक्तिमान कारपोरेट ईश्वर के धर्म अधर्म, उपासनस्थलों में​
​या तो कार्निवाल है,या फैशन शो
या आईपीएल देशप्रेम केशरिया​
​या मधुचक्र है
या अनकोडेड टेप हैं घोटालों के​

​या अबाध विदेशी पूंजी निवेश है​

​या नगरवधू आम्रपाली​
​जो अब राजनीति कहलाती है!

हमारी नकदी खत्म हुई अरसा बीता,
जमा पूंजी और बीमा तक शेयर बाजार के हवाले​
​जल जंगल जमीन से बेदखल हम
और जल सत्याग्रह
की अनुमति भी नहीं​
​खेती खत्म,
आजीविका मर गयी
और नकद सेवाओं के बाजार में​

​योजनाओं के बीपीएल की रोटी या खिचड़ी की पांत में हम​

​सलमा जुड़ुम और नाना अभियानों के घेरे में​
​संगीनें चुभ रहीं हैं
रग रग में
आह की आहट तक नहीं ​

​चूंकि आफसा जारी है!

संसद है,
पर हमारे लिए नहीं है
क्योंकि वहां हमारा कोई नहीं,​

​सारे के सारे कारपोरेट
सरकार भी
विपक्ष भी
और विचारधाराएं भी​

​लोकतंत्र अब कारपोरेट पैसे से चलता है​

​और राजनीति में भारी विदेशी निवेश​

​जिसका किसी तरफ से कोई विरोध नहीं है​

​संविधान की रोज हत्या होती​

​और अखबारों सें सुधारों के रंगीन विज्ञापन के सिवाय
कुछ भी नहीं​!

​इस नीली क्रांति में सबकुछ है​

​सिर्फ नहीं है रोटी,
न रोजगार​
​और अपने ही घर से
बेदखल हम!

हर हाथ में मोबाइल है,
दुनिया मुट्ठी में है
पर रेत की तरह
फिसल रहा है बिखरता हुआ देश​

​घनिष्ठ अंतरंग तमाम कैंसर से युद्धरत,
पर उनमें कोई नहीं युवराज सिंह​

​आग की लपटों में घिरे हुए हैं हम​

​या गुजरात है या निषिद्ध मुंबई या असम​
​या फिर बटाला हाउस​
​या आतंक के खिलाफ युद्ध है​
​या पहचान के लिए कारपोरेट आधार​

​नागरिकता निलंबित है​

​निलंबित है मानवाधिकार​

​और बटाला हाउस में तन्हां हम हैं मारे जाने के लिए​
​या घोषित हैं माओवादी।​
​​
​विचारधाराओं के परचम तमाम प्रायोजित हैं​
​कारपोरेट देवताओं के अवतार हैं तमाम स्वयंभू​

​कारपोरेट के लिए ​
​कारपोरेट का
और​
कारपोरेट द्वारा​

​कारपोरेट ही ब्रह्म है​

​कारपोरेट ही शंकराचार्य​
​आंदोलन भी कारपोरेट​

​डालर के वर्चस्व में सांसें तक​
​आउटसोर्सिंग पर निर्भर।

पानी हुआ कैद और हवाओं पर पहरा है​

​ग्लेशियरों की भी खैर नहीं है​
​बादल फट रहे हैं हिमालय पर​

​अभी सिर्फ परमाणु धमाका बाकी है।​
​​
​महाशय, यह क्या है भारत बंद का नाटक​?
​जब अश्वमेध पर सहमति है​!

​निःशस्त्र निहत्था,
आत्मसर्पित हैं
हैं हम
मारे जाने के लिए प्रतिबद्ध​
​तो प्रभु,
शांति से मरने दो  न, यारों!

​प्रेसबयानों​
​लाल
नीले झंडों से
अब नहीं होती क्रांति,
भले ही

नोटों की बरसात हो​
​प्रवचन का बाजार भाव भी
खिलाड़ियों से कम नहीं​!
​​
​संगठन अब दल में बदलने लगे हैं​
​अजगर खा गये हैं आंदोलन​

​कुबेरों की नयी श्रेणी में शामिल लोग​
​भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद हैं​
​असवर्ण, अछूत, बहिष्कृत, बंजारा और आदिवासी​
​किसान और मजदूर​
​हम सब के खिलाफ
मोर्चाबंद​
​जल थल नभ में​
​अंतरिक्ष में भी​
​सुसज्जित​
​अक्षिहीनी वाहिणियां,
​विदेशी निवेश समृद्ध राजनीति ​


​और रेडिएशन से दम घुटने लगा है​!
​​
​बाजार की संस्कृति लेकिन​
​एअर इंडिया है

न समाज है और न परिवार​
​न शिक्षक है और न छात्र​
​पाठशाला भी कोई नहीं​
​न अस्पताल और न परिवहन​

​सबकुछ बाजार है​
​कारपोरेट के लिए ही तो।​
​​
​दांपत्य भी इन दिनों कारपोरेट हो चला बंधु​
​प्रेम और रोमांस भी कारपोरेट​

​यहां तक कि बच्चे भी​

​विकी डोनर का समय है यह​
​सबकुछ नियंत्रण से बाहर​
पर्स में बनते बिगड़ते रिश्ते!
​​
​संकट में चीख भी नहीं सकते​
​संबोधित करें  तो सुनेगा कौन​?

​हर कान में एअर फोन
या विज्ञापन हैं
या फिर नारे ​

​राजकुमारी के नग्न चित्रों का समय है यह कारपोरेट​
​कारपोरेट के निशाने पर हैं मसीहा और पैगंबर भी​

​हम तो खाक में मिले हुए हैं पहले से​

​सिर्फ मिलकर उड़ें तो बन सकते हैं आंधी रेगिस्तान की​
​पर संबोधन ही असंभव ​
​कैसे हो एकजुट इस कारपोरेट वर्चस्व के विरुद्ध​?
​​
​छलावों और विश्वासघात और पाखंड का समय है यह कारपोरेट​
​दरवाजा बंद कर लेने के सिवाय
आत्मसम्मान कुछ नहीं​

​आत्महत्या के अलावा विकल्प कुछ नहीं​

​समस्याओं से घिरे हुए हैं हम सभी​
​भगदड़ में बतासा खोजने में लगे हैं​!
​​
​चूंकि कोई किसी की मदद नहीं करता​
​कारपोरेट व्याकरण के मुताबिक

पहचान भी अपह्रत है इसकदर कि नेट पर लिख दें ​
​मदद की अपील, तो धोखाधड़ी के शिकार हो जाये तमाम लोग।​
​​
​एअर इंडिया की तरह
मर मर कर जी रहे हैं हम लोग​

​विदेशी निवेश एकमात्र संजीवनी है​
​यही लोकतंत्र का फतवा है​
​​
​आखेट के लिए जाल हर वक्त जरुरी तो नहीं होता​
​और निशानेबाजी खेल है इन दिनों​

​चांदमारी तो संवैधानिक है​
​ओलंपिक हो या न हो!

कारपोरेट समय की महिमा अपरंपार​
​रहने को घर नहीं, खाने को हवा भी नहीं​
​फिर भी एअर इंडिया हुए हम​!
​​
​बेफिक्र रहना मित्रों,​
​मरते दम तक हम आपका नाम न बतायेंगे खुफियातंत्र को​

​हालांकि उसे सबकुछ मालूम है।​

​खास बात यह है कि​
​आपको किसी की मदद में अब खड़े होने की दरकार नहीं​!

​बाजार में हर कोई​
​क्रय क्षमता हो या नहीं​,
​एअर इंडिया है जरूर​

​ड्रीम लाइनर का मालिक।​

​यही माया है​
​यही मंगल अभियान है​

​और यही है ​
​आज की कविता।

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