From: satish jayaswal <satishbilaspur@gmail.com>
Date: 2010/3/13
Subject: Re: Your mail
To: Mukul Sinha <mukul.sinha@gmail.com>
प्रिय साथी,
क्या महिला आरक्षण को लेकर आप भी यही राय रखते हैं कि महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए और उन्हें केवल बच्चे पैदा करना चाहिए ? कुछ कट्टरपंथियों के इन बयानों को पढ़ें और विचार करें-
औरतें बच्चे पैदा करें, राजनीति नहीं
आपका
सतीश
औरतें बच्चे पैदा करें, राजनीति नहीं
लखनऊ, 13 मार्च 20100
शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने महिलाओं को राजनीति करने के बजाय बच्चे पैदा करने की सलाह देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है. इलाहाबाद में धर्मगुरुओं के एक सम्मेलन में जव्वाद ने कहा कि महिलाओं को अल्लाह ने जिस काम के लिये पैदा किया है, उसको अंजाम दें. लीडरी करना उसका काम नहीं है, लीडर पैदा करना उसका काम है.
ज्ञात रहे कि एक दिन पहले ही कुछ हिंदु धार्मिक नेताओं ने फरमान जारी किया है कि हिंदू महिलायें अकेले मंदिर न जायें.अब शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद के बयान के बाद यह माना जाने लगा है कि महिला आरक्षण विधेयक धार्मिक नेताओं को रास नहीं आया है.
कल्बे जव्वाद ने कहा कि " महिलाएं घुड़सवारी करने, बंदूक चलाने या रैलियों में भाषण देने के लिए नहीं बनी हैं. अगर मां संसद में जाएंगी, तो बच्चों की देखभाल कौन करेगा." उन्होंने कहा कि जेहाद शब्द की गलत व्याख्या की जा रही है. प्यासे को पानी और भूखे को खाना खिलाना भी जेहाद है. अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रख दूसरों की मदद करना भी जेहाद है. जेहाद का दहशतगर्दी से कोई रिश्ता नहीं है, जो दहशतगर्द हैं वह मुसलमान हो ही नहीं सकता.
इस बयान के अलावा लखनऊ में उन्होंने अपनी राय दी कि ईरान में पर्दे में ही औरतें पार्लियामेंट में रहती हैं लेकिन हिंदुस्तान में ये नामुमकिन है.
गौरतलब है कि एक दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े मदरसे नदवा-उल-उलेमा के प्रमुख मौलाना सर्रदुर रहमान आजमी नदवी ने भी इसी अंदाज में कहा था कि इस्लाम में महिलाओं को सिर्फ घर में रहकर परिवार और बच्चों के देखभाल करने को कहा गया है। उन्हें पढ़ने-लिखने और देश सेवा का अधिकार जरूर दिया गया है लेकिन उन्हें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस्लाम सार्वजनिक तौर पर भाषण देने की इजाजत नहीं देता.
देवबंद दारूल उलूम ने भी राजनीति में जाने की इच्छुक महिलाओं के गैर इस्लामिक व्यवहार पर सज़ा देने की बात कही है.
बहस
क्या यह सब सलवा जुड़ूम है ?
खगेंद्र ठाकुर
गत 10 और 11 जुलाई को रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से प्रमोद वर्मा की स्मृति में साहित्यिक आयोजन किया गया. उसमें मैं भी गया था. उसके बारे में मैं बहुत देर से अपनी प्रतिक्रिया लिख रहा हूँ, हालाँकि तथाकथित क्रांतिकारियों ने जो लिखा और कहा, उससे मैं अवगत रहा हूँ. लेकिन देख रहा हूँ कि इस अभियान ने एक दुष्चक्र का रूप ले लिया है.
रायपुर के आयोजन के मुख्य संयोजक थे विश्वरंजन. वे अभी नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा पटना में 7 से 15 नवम्बर तक पुस्तक मेला संगठित किया गया, उसमें 'लेखक से मिलिये' कार्यक्रम में आमंत्रित थे. वे आये थे. उनसे एक दिन पहले डॉ. नामवर सिंह उसी कार्यक्रम में शामिल हुए. उसी डॉ. नामवर सिंह ने दो पुस्तकों का लोकार्पण किया - एक श्री अभिषेक रौशन की पुस्तक 'बालकृष्ण भट्ट और हिन्दी आलोचना' का प्रारंभ का और दूसरी पुस्तक 'आती है बहुत अंदर से आवाज़' ( विश्वरंजन का कविता संग्रह ).
मैं कुछ अस्वस्थ रहते हुए भी नामवर सिंह को सुनने मेला में पहुँचा. मेला-प्रागंण में प्रवेश करते ही संयोग से विश्वरंजन मिल गये. मैं उनसके साथ ही पंडाल (सभागार) की ओर जा रहा था, तभी हिन्दी का एक युवा कथाकार मिल गया, जिसने मुझसे कहा– आप भी सलवा जुडूम में....... वह इतना ही बोला. मतलब साफ़ था – आप भी सलवा जुडूम में शामिल हो गये.
थोड़ी ही देर बाद ऐसा हुआ कि बालकृष्ण भट्ट पर लिखी पुस्तक का लोकार्पण करते उन्होंने उस पुस्तक के प्रकाशन और प्रकाशक जो वही कथाकार है, की कुछ अतिरंजित तारीफ़ कर दी. बात माईक पर हो रही थी, इसलिए वह प्रकाशक-कथाकार दौड़ा हुआ आया और मंच पर चढ़कर नामवर जी के पैर छुए और उसकी बगल में बैठ भी गया. जब वह दौड़ा आ रहा था तो मैंने समझा कि वह विश्वरंजन की कविता-पुस्तक का लोकार्पण करने के जुर्म में नामवरजी के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करेगा, लेकिन उसने तो पैर छू लिये. यह क्या है ? यह भी क्रांतिकारिता है क्या ? यह सलवा-जुडूम का विरोध है क्या ?
जिस दिन 'पहल' के संपादन से डॉ. कमला प्रसाद का नाम ज्ञानजी ने हटा दिया था, उसी दिन ज्ञानजी ने व्यवाहारिक रूप से अपने को प्रलेस की गतिविधियों से अलग कर लिया था. तन था प्रलेस में और मन प्रलेस के विरोधियों के साथ. |
जब उस कथाकार ने मुझसे उपर्युक्त बातें कहीं तो मुझे महसूस हुआ कि मामला गंभीर हैं. लेकिन मैं पहली बात यही कहना चाहता हूँ कि प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शामिल होने पर मुझे बेहद ख़ुशी है. प्रमोद वर्मा प्रगतिशील कवि और लेखक थे. उनसे मेरी मुलाक़ात कई बार हुई थी. उनको पढ़ने और सुनने का अवसर मिला था. उन्हें दिवंगत हुए बहुत दिन हो गये. अचानक उनको याद करने का आयोजन हुआ तो मैंने समझा कि इससे अच्छा और क्या हो सकता है ! लेकिन कुछ लोग तो हैं जो प्रगतिशील आन्दोलन के जन्मजात विरोधी हैं, उनको विरोध करना ही है. कुछ नये लोग हैं जो जानते ही नहीं कि प्रगतिशील आन्दोलन क्या चीज़ है और हिन्दी ही नहीं, भारतीय साहित्य के आधुनिक विकास में उसकी क्या भूमिका है !
मैंने एक पत्रिका में प्रणयकृष्ण का लेख और एक दैनिक अख़बार में डॉ. रविभूषण का भी लेख पढ़ा. मैं उनके बारे में कुछ नहीं कहकर नागार्जुन की कविता की एक पंक्ति उन्हें समर्पित कर रहा हूँ – 'मुझे मालूम है तुम्हारे पाँव कहाँ-कहाँ जाते हैं ?'
यह भी पता चला कि ज्ञानरंजन ने इसी बात पर प्रलेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया. इस पर मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि जिस दिन 'पहल' के संपादन से डॉ. कमला प्रसाद का नाम ज्ञानजी ने हटा दिया था, उसी दिन ज्ञानजी ने व्यवाहारिक रूप से अपने को प्रलेस की गतिविधियों से अलग कर लिया था. तन था प्रलेस में और मन प्रलेस के विरोधियों के साथ. वे जबलपुर में रहकर परसाईजी के यहाँ नहीं जाते थे, बल्कि उनके ख़िलाफ़ बोलते रहते थे. वे तो सलवा-जुडूम के समर्थक नहीं थे. एक बार एक पर्चा उन्होंने छपाकर वितरित किया, मेरे पास भी भेजा था, जिसमें डॉ. नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव के ख़िलाफ़ अनर्गल बातें लिखी थीं. क्यों ? इसलिए कि ज्ञान ने किसी सेठ से पहले सम्मान की राशि ली थी, जिसकी आलोचना उन लोगों ने की थी. इसीलिए ज्ञानजी के मुख्य दुश्मन बन गये थे.
मैंने ज्ञानजी को 1980 में जबलपुर-सम्मेलन के बाद प्रलेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में कभी नहीं देखा, बल्कि वे महेश योगी के अख़बार से कुछ दिन जुड़े थे. अतः ज्ञानजी के इस्तीफ़े का रायपुर-समारोह से कोई संबंध नहीं है, कहावत है– रोने का मन तो था ही, आँख में काँटा गड़ने का बहाना मिल गया.
हिन्दी के बहुतेरे लेखक अभी किसी-न-किसी आयकर आयुक्त से दोस्ती गाँठते हैं और उनकी जैसी-तैसी रचनाएँ छापकर साधन जुटाते हैं. यह क्या है ?
आगे पढ़ें
इस अंक में |
--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment