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Monday, January 26, 2015

ओबामा -मोदी विज़न का लक्ष्य असुरक्षित भारत

ओबामा -मोदी विज़न का लक्ष्य 


असुरक्षित भारत


अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से जा चुके हैं। उनकी तीन दिन की यात्रा कई मायनों में उल्लेखनीय रही। इसमें सबसे उल्लेखनीय है भाजपा का परमाणु शांति संधि पर यू-टर्न। भाजपा जब विपक्ष में थी तो उसने इस संधि का हर स्तर पर वाम के साथ विरोध किया था और कहा था कि भाजपा जब सत्ता में आएगी तो परमाणु संधि पर पुनर्विचार करेगी,लेकिन हुआ उल्टा,भाजपा ने भारत की शर्तों को लागू कराने की बजाय  संधि के प्रसंग में अमेरिकी बातों को मान लिया । इसका अर्थ है कि परमाणु संधि पर भाजपा को मनाने में मनमोहन सिंह की बजाय ओबामा सफल रहे।
     भाजपा को परमाणु संधि पर यदि अपना नीतिगत मंतव्य बदलना ही था तो उसे कम से कम आम जनता के सामने उसके कारणों पर रोशनी डालनी चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि लायबिलटी बिल पर संसद से पारित प्रावधानों में कोई कतर-ब्योंत करने का प्रधानमंत्री को अधिकार नहीं है। सच्चाई यह है भारतीय कंपनियां इस बिल के प्रावधानों को एकसिरे से खारिज करती रही हैं और यही काम भिन्न तरीके मोदी ने किया है। लायबिलटी बिल में कोई संशोधन किए बिना परमाणु समझौते को लागू करना संभव नहीं होगा। तीसरी बात यह कि दुर्धटना की स्थिति में भारतीय कंपनियां या विदेशी कंपनियों की इसमें कोई जिम्मेदारी तय नहीं की गयी है। उनको सभी किस्म की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया है जबकि अन्य देशों में ऐसा नहीं है। भोपाल गैस त्रासदी का अनुभव हमारे सामने है,भोपाल के गैस पीड़ित आज तक परेशान और पीड़ित दर-दर भटक रहे हैं। लायबिलटी संबंधी अनुच्छेदों पर 'बिजनेस लाइन '(26जनवरी2015) अखबार में एम.रमेश ने लिखा है ''First is the Section 17 (b), which in effect confers on the plant owner—the Nuclear Power Corporation of India—the right to be indemnified (right to recourse) by the supplier (such as GE, Westinghouse), even if there is no specific provision granting such a right in the commercial agreements between the owner and the supplier. The section uses the words "shall have the right to recourse".
The right to recourse is a commercial issue, so why make it automatic under law, ask the foreign suppliers. After the Bhopal gas leak experience, where the victims were paid paltry sums as compensation, what else would one expect the Indian legislators to do?
The Second objection has been on Section 46 which says the supplier can be sued under any Indian law, not just under CLND.
However, it has always been clear that neither of these sections could possibly be a deal-breaker. First of all, there is a cap on the liability. If any nuclear accident happens, it is the duty of the owner of the nuclear plant to compensate the victims. In India, the owner can only be the public sector Nuclear Power Corporation of India Ltd.
Now, the Rule 24 of the Civil Liability for Nuclear Damage Rules, 2011, which mandates the owner to restrict the liability of the supplier to the owner's liability or the value of the contract, whichever less. NPCIL's liability has been capped at Rs 1,500 crore. Therefore, the maximum liability of a supplier of a nuclear reactor, such as GE or Westinghouse or Rosatom, cannot exceed Rs 1,500 crore, about $ 250 million. A quarter billon dollar is nothing very big. The $40+ billion that BP is having to pay for its Gulf of Mexico OIL spill (11 people died in the accident), puts this in the perspective.
"The cap of Rs. 1,500 crore appears atypically lower in comparison with liability amounts in other countries which can run into billions of dollars for a single accident. Similarly, a cap based on the 'value of the contract' risks being lower than even this amount," notes a study of the nuclear liability law made by the legal think-tank, Vidhi Centre for Legal Policy.
NPCIL further has a right to waive its right to be compensated by incorporating a specific provision to that effect in its contracts, though it is doubtful if it would get away with it if it does.
Second, the supplier is liable only if the defect of the product is traced back to it, which, as any nuclear expert will tell you, is next to impossible.
The Americans have been more worried about the Section 46, than Section 17 (b), because a group of victims could sue the reactor supplier directly under some other legislation, such as law of torts. But then, this right is always there as a principle of natural justice and Section 46 does nothing more than to highlight that right.
Besides, the Russians and the French have shrugged off these issues and are getting down to business. Would the US have sat on legal technicalities and watched all the business slip from its hands?
    इसके अलावा दोनों देशों के संयुक्त बयान में जिस तरह की बातों की ओर संकेत किया गया है उससे एक बात साफ है कि भारत अगले पांच सालों में एशिया में अमेरिकी राह आसान बनाने का काम करेगा और अमेरिकी हितों के विस्तार के लिए काम करेगा। इसका पड़ोसी मुल्कों के साथ संबंध सामान्य बनाने की प्रक्रियाओं पर सीधे असर पड़ेगा। मोदी सरकार के आने के बाद से पाकिस्तान से हमारे संबंध खराब हो चुके हैं। सार्क के मंच को मोदी अपने अहंकार और कूटनीतिक अज्ञान से अधमरा बना चुके हैं। यदि इस दस्तावेज का विज़न एशिया में दुर्भाग्य से मोदी ने लागू करने की कोशिश की तो भारत सीधे अमेरिकी नियंत्रण में काम करेगा।इससे एशिया और पड़ोसी मुल्कों के साथ तनाव बढ़ने के साथ सैन्य प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। चीन के साथ हमारे संबंध खराब होंगे। इस दस्तावेज के अनुसार एशिया में आतंकवाद की नई लहर आने की संभावनाएं भी बनती हैं। क्योंकि अमेरिका चाहता है कि एशिया में उसकी दादागिरी चले। अमेरिकी दादागिरी का अर्थ है पृथकतावादी,फंटामेंटलिस्ट और आतंकवादी संगठनों की आंधी। पहले से ही अमेरिका तालिबान को खुला संरक्षण दे रहा है और अफगानिस्तान में तालिबान को सरकार में शामिल करने के लिए दबाव डाल रहा है। तालिबान, अलकायदा,हक्कानी,दाऊद इब्राहीम आदि के अलावा अनेक संगठन हैं जिनकी अमेरिकी एजेंसियां खुलेआम मदद करती रही हैं। इसके अलावा पाकिस्तान को सैन्य साजो-सामान की सप्लाई को वह बरकरार रखे हुए है और विभिन्न किस्म के आतंकी संगठनों को पाक संस्था आईएसआई प्रशिक्षित करती रही है। इससे भारतीय उपमहाद्वीप में अस्थिरता बनी हुई है। यह सब अमेरिकी नीति के तहत हो रहा है। कायदे से अमेरिका संचालित आतंकवाद विरोधी मुहिम से दूर रहने की जरुरत है लेकिन मोदी सरकार तो एशिया में उसी मुहिम का हिस्सा बनने जा रही है । इसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।अमेरिका की आतंकवादविरोधी मुहिम राष्ट्रीय अस्थिरता और जातीय संघर्षों को जन्म देने वाली रही है। अफगानिस्तान,पाकिस्तान,इराक, सीरिया, लीबिया आदि के अनुभव यही बताते हैं। मोदी सरकार ने अमेरीकी रणनीतिक साझेदारी में शामिल होकर भारत की संप्रभुता के साथ समझौता किया है। कायदे से विपक्ष को संसद के आगामी अधिवेशन में इन सभी मसलों को लेकर मोदी सरकार ने खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए।  

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