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Saturday, January 11, 2014

क्या मैं भी..

क्या मैं भी..

2014.01.11

ऐसा लगा कि मेरी सारी रिपोर्ट संदिग्ध होने लगी है.....

रवीश कुमार/ पिछले कुछ दिनों से अपने बारे में चर्चा सुन रहा हूँ। आस पास के लोगों का मज़ाक़ भी बढ़ गया है। क्या तुम भी 'आप' हो रहे हो। आशुतोष ने तो इस्तीफ़ा दे दिया। तुम्हारा भी नाम सुन रहे हैं। एक पार्टी के बड़े नेता ने तो फ़ोन ही कर दिया। बोले कि सीधे तुमसे ही पूछ लेते हैं। किसी ने कहा कि फ़लाँ नेता के लंच में चर्चा चल रही थी कि तुम 'आप' होने वाले हो। साथी सहयोगी भी कंधा धकिया देते हैं कि अरे कूद जाओ। 

मैं थोड़ा असहज होने लगा हूँ। शुरू में हंस के तो टाल दिया मगर बाद में जवाब देने की मुद्रा में इंकार करने लगा। राजनीति से अच्छी चीज़ कुछ नहीं। पर सब राजनेता बनकर ही अच्छे हो जायें यह भी ज़रूरी नहीं है। ऐसा लगा कि मेरी सारी रिपोर्ट संदिग्ध होने लगी है। लगा कि कोई पलट कर उनमें कुछ ढूँढेगा। हमारा काम रोज़ ही दर्शकों के आपरेशन टेबल पर होता है। इस बात के बावजूद कि हम दिनोंदिन अपने काम में औसत की तरफ़ लुढ़कते चले जा रहे हैं, उसमें संदिग्धता की ज़रा भी गुज़ाइश अभी भी बेचैन करती है। उन निगाहों के प्रति जवाबदेही से चूक जाने का डर तो रहता ही जिसने जाने अनजाने में मुझे तटस्थ समझा या जाना। कई लोगों ने कहा कि सही 'मौक़ा' है। तो सही 'मौक़ा' ले उड़ा जाए ! दिमाग़ में कैलकुलेटर होता तो कितना अच्छा होता। चंद दोस्तों की नज़र में मैं भी कुछ लोकप्रिय (?) हो गया हूँ और यही सही मौक़ा है। क्योंकि उनके अनुसार एक दो साल में जब मेरी चमक उतर जाएगी तब बहुत अफ़सोस होगा। मेरा ही संस्थान नहीं पूछेगा। मुझे पत्रकारिता में कोई नहीं पूछेगा। लोग नहीं पहचानेंगे। मेरे भीतर एक डर पैदा करने लगे ताकि मैं एक 'मौके' को हथिया सकूँ। तो बेटा आप से टिकट मांग कर चुनाव लड़ लो। हमारे पेशे में कुछ लोगों का ऐसा कहना अनुचित भी नहीं लगता। हम चुनें हुए प्रतिनिधियों के संगत में रहते रहते खुद को उनके स्वाभाविक विस्तार के रूप में देखने और देखे जाने लगते हैं। यह भ्रम उम्र के साथ साथ बड़ा होने लगता है। कई वरिष्ठ पत्रकार तो मुझे राज्य सभा सांसद की तरह चलते दिखाई देते हैं। तो मैं भी ! हँसी आती है। मुझे यह मुग़ालता है कि इस भ्रम जाल में नहीं फँसा हूँ और चमक उतर जाने का भय कभी सताता भी नहीं। जो जाएगा वो जाएगा। इसलिए जो आया है उसे लेकर कोई बहुत गदगद नहीं रहता। न हीं कोई काम यह सोच कर करता हूँ कि तथाकथित लोकप्रियता चली जाएगी। जाये भाड़ में ये लोकप्रियता।

इसका मतलब यह नहीं कि राजनीति को किसी और निगाह से देखता हूँ। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम पत्रकारिता ही कर रहे हैं। पत्रकारिता तो कब की प्रदर्शनकारिता हो गई है। जब से टीवी ने चंद पत्रकारों के नाम को नामचीन बनाकर फ़्लाइओवर के नीचे उनकी होर्डिंग लगाई है, भारत बदलने वाले उत्प्रेरक तत्व( कैटलिस्ट) के रूप में, तब से हम अपने पेशे के भीतर और कुछ दर्शकों की नज़र में टीवी सीरीयल के कलाकारों से कुछ लोकप्रिय समझे जाने लगे हैं। नाम वालों का नामचीन होना कुछ और नहीं बल्कि समाप्त प्राय: टीवी पत्रकारिता की पुनर्ब्रांडिंग है। इसलिए कोई पत्रकार टीवी छोड़ दे तो बहुत अफ़सोस नहीं किया जाना चाहिए। राजनीति असीम संभावनाओं का क्षेत्र है। टीआरपी की दासी है पत्रकारिता। बीच बीच में शास्त्रीय नृत्य कर अपनी प्रासंगिकता साबित करती हुई आइटम सांग करने लगती है। 

अच्छे लोगों को राजनीति में प्रतिनिधि और कार्यकर्ता दोनों ही बनने के लिए आना चाहिए। आम आदमी पार्टी के बारे में पहले भी लिखा है कि इसके कारण राजनीति में कई प्रकार के नए नए तत्व लोकतंत्र का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। समय समय पर यह काम नई पार्टियों के उदय के साथ होता रहा है। मगर जिस स्तर पर आम आदमी पार्टी ने किया है वैसा कभी पहली बार कांग्रेस बन रही कांग्रेस ने किया होगा। मेरी सोसायटी के बच्चे भी लिफ़्ट में कहते हैं कि अंकल प्लीज़ अरविंद केजरीवाल से मिला दो न। मेरी बेटी कहती है कि सामने मिलकर सच्ची में आटोग्राफ लेना है। अरविंद को सतर्क रहना चाहिए कि उन्हें इन उम्मीदों को कैसे संभालना है। अरविंद ने राजनीति को सम्मानजनक कार्य तो बना ही दिया है। इसलिए उन पर हमले हो रहे हैं और हमले करने वाले उनके नोट्स की फोटोकापी करा रहे हैं। सस्ते में नंबर लाने के लिए। 

जहाँ तक मेरा ताल्लुक़ है मैं उस बचे खुचे काम को जिसे बाज़ार के लिए पत्रकारिता कहते हैं अंत अंत तक करना चाहता हूँ ताकि राजनीति का विद्यार्थी होने का सुख प्राप्त करता रहूँ। टीवी में महीने में भी एक मौक़ा मिल जाता है तो असीम संभावनाओं से भर जाता हूँ। कभी तो जो कर रहा हूँ उससे थोड़ा अच्छा करूँगा। राजनीति जुनून है तो संचार की कला का दीवानापन भी किसी से कम नहीं। हर किसी की अपनी फ़ितरत होती है। राजनीति को आलोचनात्मक नज़र से देखने के सुख को तब भी बचाकर रखना चाहता हूँ जब दर्शकों की नज़र से मैं उतार दिया जाऊँगा। 

मैं वर्तमान का कमेंटेटर हूँ, नियति का नहीं और वर्तमान का आंखो देखा हाल ही बता रहा हूँ। मैंने कभी आम आदमी पार्टी की रिपोर्टिंग इस लिहाज़ से नहीं की कि इसमें मेरे लिए भी कोई संभावना है। बल्कि मैंने इसमें राजनीति के प्रति व्यापक और आलोचनात्मक संभावनाए टटोली है। इस लिहाज़ से किसी दल की रिपोर्टिंग नहीं की। मेरे मास्टर ने कहा था कि बेटा बकरी पाल लेना मुग़ालता मत पालना। बकरी पालोगे तो दूध पी सकते हो, खस्सी बियाएगी तो पैसा कमाओगे, कुछ मटन भी उड़ाओगे। मुग़ालता पालोगे तो कुछ नहीं मिलेगा। 

इसका मतलब यह नहीं कि आशुतोष ने ग़लत फ़ैसला लिया है बल्कि बहुत सही किया है। पत्रकार पहले भी राजनीति में जाते रहे हैं। बीजेपी कांग्रेस लेफ़्ट सबमें गए हैं। आशुतोष का जाना उसी सिलसिले का विस्तार है या नहीं इस पर विद्वान बहस करते रहेंगे। उन्होंने एक साहस भरा फ़ैसला लिया है। इससे राजनीति के प्रति सकारात्मकता बढ़ेगी। वो अब अंतर्विरोधों की दुनिया से बचते बचाते निकल आएं और समाज का कुछ भला कर सकें इसके लिए मेरी शुभकामनायें ( हालाँकि पेशे में उनका कनिष्ठ हूँ )। अब वो राजनीतिक हमलों के लिए खुद को तैयार कर लें। खाल तो मोटी चाहिए भाई। और आप लोग मुझे हैरत भरी निगाहों से न देखें। कुर्ता पजामा पहनने का शौक़ तो है कुर्ता पजामा वाला बनने की तमन्ना नहीं है। एक दिन बड़ा होकर पत्रकार ही बनना है ! पत्रकार बने रहना कम जोखिम का काम नहीं है भाई ! बाक़ी तो जो है सो हइये है ! 

(रवीश कुमार के ब्लॉग "कस्बा" से साभार )

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