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Sunday, July 7, 2013

तारा चंद्र त्रिपाठी, हमारे गुरुजी की कलम सेः शिच्छा या----

  • शिच्छा या----

    पूरे 35 साल अध्यापकी की। स्थापित, उच्चीकृत, नवोदित और प्रान्तीयकृत, लगभग सभी प्रकार के विद्यालयों का आस्वाद लिया। नियमों का पालन करने वाले एक दो प्रधानाचार्य मिले तो अधिकतर अफसरों के चरण चंचरीक, घासीराम कोतवाल के भतीजे, खानापूरी और अब के राखि लेहु भगवान वाले, अनुदान भोगी, प्रमत्त और ढाई अक्षर वाले सब प्रकार के प्रधानाचार्यों और अधिकारियों से पाला पड़ा। 
    अध्यापकों के भी नाना रूप देखे। पता ही नहीं चलता था कि उनका आवरण असली है या अन्तःकरण। कमजोर के लिए कठोर और बलशाली के लिए कोमल। न समर्पण, न ज्ञान न दीन न ईमान। अध्यापक कक्ष की बहस में महारथी, उपदेश कुशल किन्तु कर्मशून्य। परीक्षा में सामान्य परीक्षार्थियों के सिर पर सवार, पर अधिकारियों के बच्चों को नकल कराने वाले।
    अध्यापकी के आरंभिक सोलह वर्षों में शहरों के बच्चों में उभरती हुई जागरूकता देखी। उठते हुए स्वप्नों को देखा। अभिभावकों की चिन्ताओं को देखा। बच्चे को प्रशासक, चिकित्सक और इंजीनियर बनाने की चाहत भी देखी। प्रतिष्ठित विद्यालय थे अतः एक से एक मेधावी छात्र मिले। लगता था, इनके साथ कदम मिलाकर चलने के लिए खुद भी चलना होगा। वर्षों पहले अर्जित ज्ञान के व्याज से काम बनने वाला नहीं है। 
    सोलह साल की सेवा के बाद वनवास आरंभ हुआ। पिथौरागढ़ की दुर्वह यात्रा से बचने के लिए घर के निकट आना चाहा। एक प्रान्तीयकृत विद्यालय मिला। रा.इ.का. कोटाबाग। आठवें दशक का कोटाबाग। छात्रों की सोच की सीमा सिपाही, ग्राम सेवक, बस चालक, अधिक से अधिक बाबू तक। आठवें दशक में भी पाँचवें दशक में जीते छात्र। विद्यालय पर हावी स्थानीय नेतागण। मेजरनामे भेजने में महारथी। 
    तब के राजकीय इण्टर कालेज, नैनीताल और राजकीय इण्टर कालेज, पिथौरागढ़ के साथ आज के विद्यालयों की तुलना करता हूँ तो बरबस एक प्रश्न मेरे मन को कचोटने लगता है। अपने आप से पूछता हूँ, हमारी शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार किसने किया? उत्तर अनेक हैं। संसाधनों की कमी है, संसाधनों का दुरुपयोग है, काम चलाऊ व्यवस्था की नीति हैं। अयोग्य और घूसखोर अधिकारी हैं, नेताओं का हावी होना है और सबसे बढ़कर नियुक्ति और पदोन्नति का गड़बड़झाला है। न दंड है न प्रोत्साहन। पढ़ने और पढ़ाने की परंपरा ही समाप्त हो गयी है। शिच्छक हौं सिगरे जग को' का दंभ वाला विभाग, प्राथमिक विद्यालय हों या विश्वविद्यालय, अध्ययन शून्य हथकंडेबाजों के ऐसे आश्रयस्थल बन गये हैं, जहाँ वेतन आहरण के अलावा बाकी सब खानापूरी है। शिक्षण निजी ट्यूशन और कोचिंग में चला गया है। 
    आज अभिभावकों की आकांक्षाएँ बढ़ गयी हैं, पर इस झमेले में छात्र लगभग अनाथ की स्थिति में है। उसकी सामर्थ्य की परख करने की, उसे सँवारने की चिन्ता किसी को नहीं है। अभिभावक के लिए वह मात्र सामाजिक प्रतिष्ठा के अश्वमेध का ऐसा घोड़ा बन कर रह गया है जिसकी अभिरुचि और क्षमता का आकलन करने की आवश्यकता नहीं है। 
    दूसरी ओर कभी विद्यालय की स्थापना से पूर्व भवन और अध्यापकों की व्यवस्था होती थी। अब नेता जी के फरमान मात्र से महाविद्यालय स्थापित होते हैं। एक कमरा, किसी विद्यालय से उधार लिया गया अकेला अध्यापक, एक बाबू, एक घंटी बजाने वाला। नाम राजकीय महाविद्यालय, चैराहा। बी.ए. पास, चपरासी के पद के लिए ठोकरे खाती नई पीढ़ी। 
    मध्यवर्गीय अभिभावक सीमाहीन प्रतिस्पर्द्धा से बेचैन हैं। पता ही नहीं चलता कि यह भारत है या रेलवे स्टेशन। हम सब जनरल कंपार्टमेंट के यात्री हैं। हर एक प्रयास में है कि किसी तरह पाँव रखने को जगह मिल जाय। अभिरुचि और सामर्थ्य को परखने का अवसर ही कहाँ है। एक अजीब सी भगदड़ है। 
    फिर हम तो अध्यात्मवादी है न। जो कुछ हो रहा है वह वास्तविक नहीं है केवल प्रतीति मात्र है। शोषण हो, भ्रष्टाचार हो, अकर्मण्यता हो या उत्पीड़न, वास्तविक नहीं, केवल प्रतीति है। प्रवाह के साथ ही बहने में आनन्द है। टकराने की बला कौन मोल ले। तू भी खा मुझे भी खाने दे। यही गणतंत्र है। 
    जनतंत्र नही, गणों का तंत्र। गण या अनुशासनहीन उपद्रवी समूह। संसद को देख लें या विधान सभाओं को, सब जगह गणों की भरमार है। इनको संयत करने के लिए या तो सिर कटाने को तैयार गणेश की आवश्यकता होती है या हलाहल पीने को तैयार शिव की। पर सिर कौन कटाये? विष कौन पिये? सत्ता का मजा! जिसने जलवा तेरा देखा वह तेरा हो गया। परिचारक से लेकर प्रधानमंत्री तक सब अपने अपने सत्ता सुख से चिपके हैं। 
    शिक्षा भी कैसी? निगल और उगल। समझने की विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। गुरु मुख से सुन, याद कर और कापी में उगल दे। संशयात्मा विनश्यति। तात्पर्य जो अपने मन से लिखेगा, वह फेल।
    इस सारी आपाधापी में बचपन कहीं खो गया है। वह आनन्द जो हमने अपने बचपन में लिया, माटी में खेले, मैमनों के पीछे भागे, चिड़ियों की तरह चहके, पेड़ों पर बन्दरों की तरह चढ़े, गाँव के पास बहती छोटी सी नदी में देर तक तैरने का आनन्द लिया। वह निश्चिन्तता वह निर्द्वन्द्वता आज के बच्चे को सुलभ नहीं है। आज लोग बच्चे को तीसरा वर्ष लगते ही दो किलो का बस्ता लाद कर स्कूल पहुँचा रहे हैं। जैसे किसी नये बछेरे पर जीन लाद दी गयी हो। बड़े शहरों के सम्पन्न परिवारों में तो माता के गर्भ धारण करते ही पैदा होने वाले बच्चे का प्रतिष्ठित विद्यालय में पंजीकरण कराने की प्रथा चल पड़ी है। क्या पता कल प्रसव भी स्कूल में ही कराने की प्रथा न चलने लगे। 
    ( लेखक की पुस्तक 'शब्द भाषा और विचार' के एक निबन्ध 'बलिहारी गुरु आपणे' क एक अंश)'

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