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Monday, May 14, 2012

मेरे शब्‍द उस दीये में तेल की जगह जलना चाहते हैं! #Pash

http://mohallalive.com/2012/05/14/chandigarh-edition-of-jansatta-in-the-time-of-terrorism-in-punjab/

 आमुखमीडिया मंडीसंघर्षस्‍मृति

मेरे शब्‍द उस दीये में तेल की जगह जलना चाहते हैं! #Pash

14 MAY 2012 30 COMMENTS

फिर उस शहर में

♦ ओम थानवी

यह इस इतवार को जनसत्ता में छपा अनंतर है। पंजाब के बिगड़े और बदहवास हालात के दिनों में पत्रकारिता कितनी निरीह हो गयी थी लेकिन कुछ पत्रकारों ने कैसे साहस दिखाया और अपना ही नहीं अपनी बिरादरी का जमीर बचाया, ओम जी ने उसका थोड़ा वृत्तांत सुनाया है। सुनाया ही है, क्‍योंकि पढ़ते हुए ऐसा लगा कि कान में कुछ बज रहा है। जगह की सीमा के चलते अखबार में नहीं छप पाये कुछ अंश को यहां जोड़ दिया गया है, इसलिए जिन्‍होंने इसे अखबार में पढ़ा होगा, वे दुबारा यहां भी पढ़ सकते हैं : मॉडरेटर


क अखबार के जीवन में पच्चीस बरस का वक्फा बड़ा नहीं होता। स्व प्रभाष जोशी ने हिंदी में एक आधुनिक दैनिक की कल्पना की। भाषा, शैली और तेवर की दकियानूसी परंपरा को तोड़ते हुए 17 नवंबर, 1983 को जनसत्ता पहले दिल्ली में निकला। फिर 1987 में चंडीगढ़ से। छह मई को चंडीगढ़ संस्करण की रजत जयंती मनायी गयी।

आयोजन नितांत अनौपचारिक था। खास बात यह थी कि उसकी पहल उन मित्रों ने की, जो जनसत्ता से पहले कभी जुड़े रहे थे। वहां के संस्करण ने उतार-चढ़ाव देखे हैं। बीच में संस्करण जब कुछ समय के लिए स्थगित हो गया, तो कुछ सहयोगी दिल्ली आ गये, बाकी दूसरे अखबारों, टीवी चैनलों आदि में चले गये। कुछ पुराने सहयोगी दूसरे क्षेत्रों में भी गये। कोई एमएलए हुआ, कोई सूचना कमिश्नर तो कोई उच्च पुलिस अधिकारी।

सबका आग्रह था कि उस इतवार की दोपहर मैं वहां जरूर रहूं। दरअसल, तेईस वर्ष पहले जनसत्ता से मैं चंडीगढ़ में ही जुड़ा। और पूरे दस वर्ष इन्हीं साथियों के साथ उस संस्करण के स्थानीय संपादक के बतौर काम किया। सो जाना चाहता था, पर पसोपेश यह थी कि स्वास्थ्य में मामूली विचलन के चलते थोपे हुए अवकाश पर था। बहरहाल, दिमाग पर ज्यादा जोर डाले बगैर सुबह की शताब्दी पकड़ी। पुराने सहकर्मियों, उनके परिजनों से मिलकर खुशी हुई। वे लोग भी बिछड़े साथियों से मिलकर प्रफुल्लित थे, जैसे स्कूल-कॉलेज के पुराने सहपाठियों में मेल-मिलाप के मौके पर होता है। पुराने दिन हमेशा अच्छे लगते हैं।

इस अनौपचारिक कार्यक्रम में सहसा कुछ वक्तव्य होने लगे। अपनी तारीफ सुनना कभी अच्छा लगता है, कभी नहीं। उस रोज बेचैनी हुई। आखिर कहना पड़ा कि अपनी श्रद्धांजलि सभा में खुद आ बैठने जैसा लग रहा है। बहरहाल, अच्छा लगा जब कुछ ने आत्मीयता से कहा कि मैं निष्ठुर संपादक भी था। यह जोड़ते हुए कि फिर भी अच्छा था! अच्छा हुआ, बुरा न हुआ! एक बात सबने मानी कि वे आज जहां हैं, उसमें जनसत्ता की बड़ी भूमिका रही है। भारी प्रसार वाले रंग-बिरंगे अखबारों के सामने जनसत्ता की अपनी छाप है; उसका उल्लेख ही उनके लिए सबसे बड़ा प्रमाण-पत्र साबित हुआ।

आयोजन के बाद शहर में कहीं नहीं गया। चंडीगढ़ के दिनों के मित्र और इंडियन एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक विपिन पब्बी के साथ उनके घर जाकर चाय जरूर पी। फिर थोड़ी देर को लेट गया। नींद नहीं आयी, चंडीगढ़ में बिताये दशक की यादें आती-जाती रहीं, जिन्होंने शाम की गाड़ी में भी पीछा नहीं छोड़ा। अब तक सता रही हैं!

चंडीगढ़ संस्करण के संपादन के लिए 1989 में प्रभाष जी ने जब प्रस्ताव किया, तब मैं राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण का बगैर नाम वाला संपादक था। उससे पहले सात वर्ष जयपुर में उसी पत्र-समूह के साप्ताहिक इतवारी पत्रिका का संपादन (वह भी बेनामी) करता था, जिसके कारण दिल्ली के पत्रकार और लेखक थोड़ा जानते थे। 1985 में नवभारत टाइम्स का संस्करण जयपुर से निकालने का इरादा बना तो स्व राजेंद्र माथुर ने मुझे समाचार संपादक का जिम्मा संभालने को कहा। पहले दिल्ली बुलाया और स्वास्थ्य विहार में अपने घर ले गये। कंपनी की सफेद एम्बेसेडर कार वे खुद चला रहे थे। आज कुछ के गले न उतरे, पर मुझे अच्छी तरह याद है उन्होंने कहा था – जयपुर के नवभारत टाइम्स के लिए आप हमारा दिल्ली संस्करण न देखें, मैं जयपुर से ऐसा अखबार निकालना चाहता हूं जो जनसत्ता के करीब हो!

जयपुर में नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार आदित्येंद्र चतुर्वेदी के घर अखबार के आसन्न संस्करण के संपादक दीनानाथ मिश्र के साथ बैठकी हुई। नियुक्ति की औपचारिक लिखा-पढ़ी के लिए मैं फिर दिल्ली आया। माथुर साहब ऊपर की मंजिल पर टाइम्स समूह के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक जगदीश चंद्र से मिलाने ले गये। संक्षिप्त मुलाकात के बाद हम नीचे लौट आये। उसके बाद अंतिम कार्रवाई के लिए उन्होंने मुझे इमारत के मुख्य द्वार के नजदीक बैठने वाले एक प्रबंधक के पास भेज दिया। प्रबंधक ने बहुत मीठे स्वर में वेतन पर नये सिरे से बात शुरू की, जो माथुर साहब पहले ही तय कर चुके थे।

बात दुबारा उन्होंने इस तरह उठायी कि राजस्थान पत्रिका छोटा अखबार है (उन्होंने 'बनिये की दुकान' कहा था) और टाइम्स समूह विराट साम्राज्य है, इसलिए यहां आने के महत्त्व को समझूं। ऐसी बातचीत में अपने आपको असहज अनुभव करते हुए मैं अचानक उठ खड़ा हुआ। इतना कहा, 'बेशक टाइम्स के सामने पत्रिका छोटा अखबार है, पर राजस्थान में उसी का साम्राज्य है और नवभारत टाइम्स का फिलहाल वहां नाम तक नहीं है, उसे वहां हमारे भरोसे ही शुरू करने की कवायद हो रही है। पर मैं अब यहां काम नहीं करूंगा।'

नमस्कार कर मैं चल दिया। भौचक प्रबंधक उठ खड़े हुए, समझाने-रुकने के कुछ शब्द वे बोल रहे थे। मैंने बाहर जाकर ऑटो पकड़ा और सीधे बीकानेर हाउस पहुंच कर जयपुर जाने (आने) वाली बस में बैठ गया। मुझे नहीं पता, प्रबंधक ने माथुर साहब को बाद में क्या कहा। पर जरूर कुछ ऐसा कहा होगा कि दोष मुझ पर आ पड़े। ऐसा इसलिए सोचता हूं कि माथुर साहब ने दुबारा मुझसे संपर्क नहीं किया, जबकि मूल प्रस्ताव उन्हीं की ओर से था!

इसके उलट प्रभाष जी के तेवर देखे। गर्मियों के दिन थे, जब बीकानेर के निकट उदयरामसर के एक टीबे पर रेत में हमारी जीप धंस गयी। वहां यह आम बात है। शुभू पटवा सबको बाहर उतार गाड़ी आगे ठेले जाने की जुगत कर रहे थे, तभी प्रभाष जी ने मुझे पूछा, आप चंडीगढ़ जाएंगे? मैंने न सोचने के लिए वक्त मांगा, न उनको दुबारा सोचने का मौका दिया और कहा, जरूर। दोनों जानते थे कि पंजाब आतंकवाद से त्रस्त है, जोखिम भरा इलाका है। पर इस पर हमारी कोई बात नहीं हुई। बल्कि मुझमें इसे लेकर रोमांच ही था कि जहां रोज कुछ घटित होता है, वहां पत्रकारिता का अनुभव अपना होगा। जीवन में जोखिम तो सड़क पार करने के साथ शुरू हो जाती है।

जून का महीना उतार पर था, जब चंडीगढ़ की राह पकड़ी। बीकानेर से सीधी गाड़ी थी, जिसमें अपनी यज्दी मोटरसाइकिल चढ़ा दी। खुद प्रभाष जी के निर्देश के मुताबिक पहले दिल्ली पहुंचा। दिल्ली से अपनी कार में साथ लेकर वे चंडीगढ़ चल पड़े। उषा भाभी भी साथ थीं। ड्राइवर रामसिंह कार क्या चलाते थे, हवा से बातें करते थे। प्रभाष जी ने बताया कि एक बार वे विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेकर चंडीगढ़ गये तो तानसिंह (रामसिंह को वे इसी नाम से पुकारते थे) ने तीन घंटे में पहुंचा दिया। पर हमारी रफ्तार को जैसे नजर लगी और सोनीपत में कार खराब हो गयी। मुख्यमंत्री देवीलाल से प्रभाष जी का दोस्ताना था। बाजार से उनको फोन लगाया। मोबाइल क्या, तब पेजर भी नहीं आये थे। आये तब भी प्रभाष जी की हथेली से वे दूर रहे। पर इस बीच ड्राइवर रामसिंह ने कार खुद सुधार ली।

रास्ते में मौका बहुत था, पर ज्यादा बात नहीं हुई। प्रभाष जी 'तूतक-तूतक' वाले मलकीत सिंह का गायन अपने वॉकमैन पर अकेले सुनते जाते थे। अंबाला पार हुए तब प्रभाष जी ने कान पर से हैडफोन उतारा। बोले, अब पंजाब शुरू होता है। फिर अकाली दल के इतिहास से लेकर आतंकवाद के पनपने तक की कहानी समझायी। लालड़ू में गाड़ी धीमे करवा कर बताया कि यहीं बस की तमाम सवारियों को एक कतार में खड़ा कर भून दिया गया था। जीरकपुर के बाद जनसत्ता दफ्तर की ओर मुड़े, तब उन्होंने बताया कि जनसत्ता के भीतर क्या हालात हैं, मुझसे वहां क्या अपेक्षा की जाती है।

चंडीगढ़ पहुंचने के बाद पता चला कि एक्सप्रेस का परिवेश किस तरह अलग है। प्रबंध के लोग वहां संपादक के कक्ष में आते थे। अंग्रेजी और हिंदी अखबार पूरी तरह स्वायत्त थे, हालांकि न पढ़ने वाले जनसत्ता को एक्सप्रेस का अनुवाद समझने की भूल कर सकते थे। प्रभाष जी ने स्थानीय प्रबंधक को हिदायत दी कि मेरे लिए घर तलाश करें, 'ये सरकारी मकान में नहीं रहेंगे।' प्रभाष जी खुद जब इंडियन एक्सप्रेस, चंडीगढ़ के स्थानीय संपादक थे, तब किराये के घर में रहते थे। पर जब मैं पहुंचा, अर्जुन सिंह पत्रकारों की नीयत बिगाड़ कर जा चुके थे। वरिष्ठ पत्रकार बड़े-बड़े सरकारी बंगलों में रहते थे। सरकारी कोटे से प्लाट लेकर उन पर अपने घर बना लेने के बाद भी सरकारी घर उनसे छूटते नहीं थे।

बात-बात में साफ हुआ कि संपादक के लिए गाड़ी और ड्राइवर का बंदोबस्त भी वहां है! सो बीकानेर से आयी मोटरसाइकिल जल्दी ही वापस भेज दी गयी। उसे रख सकता था। दोनों बच्चों को आगे-पीछे बिठाकर हम चारों ने उस पर थोड़ी सैर की भी। पर जल्दी ही एक पुलिस अधिकारी घर आये और इतनी हिदायतें दीं कि मोटरसाइकिल रेलगाड़ी पर लद गयी। पुलिस की हिदायतों में दफ्तर की गाड़ी में भी मुख्य मार्ग पर चलना, रोज अलग-अलग रास्तों से आना-जाना, रोके न रुकना आदि तरह-तरह की युक्तियां थीं। कुल मिलाकर यह एहसास उन्होंने दिलाया कि जान संभालो, सैर-सपाटे के लिए यह शहर नहीं है।

भारत से अलग एक पंजाब खालिस्तान नाम से बनाने के मुगालते वाला आंदोलन तब चरम पर था। पंजाब सचिवालय में सरकार तब बरसों केंद्र के नुमाइंदे यानी राज्यपाल चलाते थे। हालांकि आम दिनचर्या में चंडीगढ़ और शहरों-सा ही लगता था। हिंसा पंजाब में हर जगह थी, पर चंडीगढ़ के भीतर नहीं पसरी थी। शहर के किनारे शिवालिक की तलहटी में बनी सुखना झील पर सुबह-शाम लोग सैर को जाते। संपन्न लोग वहां ज्यादा होते थे, उनमें भी अनेक सुरक्षाकर्मियों के साथ चलने वाले नेता, अधिकारी और न्यायाधीश आदि।

एक बार बंबई से रामदयाल मामा आये हुए थे। हम अड़तीस सेक्टर से दफ्तर के लिए निकले। सैंतीस सेक्टर के भीतर की सड़क पर आठ लाशें पड़ी थीं। आतंकवादी हमला हुआ था। चालक बनवारी ने गाड़ी दूसरी तरफ से निकाल ली। इसके बाद तो शहर ने हिंसा की कई घटनाएं देखीं। आकाशवाणी के निदेशक आरके 'तालिब' को घर के बगीचे में चाय पीते मारा। मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को सचिवालय के ठीक बाहर।

एक बार दफ्तर जाते वक्त आतंकवादियों के साथ पुलिस की असल मुठभेड़ देखी। पुलिस को आतंकवादियों के वहां छिपे होने की इत्तला मिली थी। देखते-देखते छिटपुट गोलीबारी शुरू हो गयी। दीवार के साथ दोनों हाथ से एक पिस्तौल को ताने जिस शख्स को हमने पहले आतंकवादी समझा, वह सादी वर्दी में पुलिस अधिकारी था। दरअसल, हरकत में न हों तो वहां सड़क चलते पहचान पाना मुश्किल होता कि कौन पुलिस वाला है, कौन आतंकवादी। शहर भर में बड़ी तादाद में सादी वर्दी वाले पुलिसकर्मी तैनात थे।

चंडीगढ़ पहली बार में बड़ा नीरस शहर लगा। मशीनी गति की आमदरफ्त। चौड़ी मगर सूनी सड़कें। जरूरत से ज्यादा हरे सजावटी पेड़, जिन पर पक्षी बैठें तो किस उम्मीद से। सबसे ऊपर, ली कर्बूजिए के नाम और काम की बदौलत वास्तुकला से लगभग आक्रांत शहर। मंदिर, श्मशान और कचरा जमा करने वाले पक्के गड्ढे भी वास्तुकला की छाप लिये हुए! तब एक-आध चौराहे को छोड़ लाल-पीली बत्तियां नहीं थीं। चौराहों पर भीड़ हो तो यातायात गति बस धीमी हो जाती थी, थमती नहीं थी। कार चलाना मैंने वहीं सीखा।

चंडीगढ़ शहर की अवस्थिति विकट है। वह दो राज्यों (पंजाब और हरियाणा) की राजधानी है। तीसरी राजधानी केंद्रशासित प्रदेश (यूटी) के मुख्यालय के नाते। शहर का प्रशासन और सुरक्षा का जिम्मा यूटी-पुलिस का। एक रोज एक पुलिस अधिकारी आये और अपने साथ आये एक सादी वर्दी वाले पुलिसकर्मी को वहीं छोड़ गये, 'ये हरदम आपके साथ रहेंगे।'

बड़े लोगों में सुरक्षाकर्मी रखने का खब्त तब भी था। कुछ जरूरत भी रहती होगी। पर एक-दो संपादकों ने अपनी रक्षा के लिए वहां केंद्रीय रिजर्व पुलिस (सीआरपीएफ) के अनेक सुरक्षाकर्मी लिये। वे अपनी जीप में संपादक की गाड़ी के पीछे चलते थे, जैसा मंत्रियों के साथ होता है। कुंवरपाल सिंह गिल जब सीआरपीएफ के महानिदेशक बने तो चंडीगढ़ और पंजाब के संपादकों पर उनका यह अनुग्रह हुआ। शहर में यों मुख्यत: पांच ही दैनिक थे, तीन ट्रिब्यून समूह के और दो हमारे एक्सप्रेस के। जो हो, मुझे सुरक्षा की गर्ज नहीं थी!

पहले ही दिन से उस सुरक्षाकर्मी की उपस्थिति से मुझे बेचैनी हुई। दफ्तर जाऊं या किसी के घर या पान खाने जाऊं, तब भी साथ। फिर इस तरह के सुरक्षाकर्मी बदलते रहते हैं। इसका भी कोई कायदा काम करता होगा। मुझे एक बार इतना डरावना सुरक्षाकर्मी मिला कि पुलिस और अपराध की बीट देखने वाले सहकर्मी मुकेश भारद्वाज (अब चंडीगढ़ संस्करण के संपादक) को कहा कोई सुदर्शन व्यक्ति नहीं मिल सकता? किसी के घर जाएं तो वे डरें तो नहीं! मुकेश ने शायद महानिरीक्षक से बात की, जिसका उलटा असर हुआ। एक और भी बांका मुच्छड़ आ पहुंचा!

एक सुरक्षाकर्मी सबसे अलग था। एक रोज उसका तमंचा उलट-पलट कर देख रहा था। उसने कहा, साहब लोग तो हाथ लगाते हुए डरते हैं। मैंने तमंचे की चरखी को खाली कर साफ किया। हैमर को खींचा, छोड़ा। गोलियां फिर चैंबर में फिट कीं और उसे प्रभावित करते हुए कहा कि यह तो पंद्रह साल पुराना मॉडल है।

अगर आप पुलिस वालों के साथ उठते-बैठते रहे हों या उनके घर से हों तो इतनी जानकारी सामान्य होती है। पर इस तरह की खुराफात में मेरी दिलचस्पी पुरानी थी। एनसीसी के दिनों में बीकानेर में डूंगर कॉलेज के पीछे बनी चांदमारी को जाते तो सर्वाधिक सटीक निशाने बिठाकर आता था। चार वर्ष पहले मित्र अनुराग चतुर्वेदी और सांसद दिग्विजय सिंह के साथ जयपुर में था। दिग्विजय राष्ट्रीय राइफल एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। हम लोग नवनिर्मित जयपुर शूटिंग रेंज देखने गये। वहां एक निशाना दिग्विजय जी ने मारा और फिर बंदूक मुझे पकड़ा दी। मैंने कभी उनसे बीकानेर के दिनों का जिक्र किया था। पर उस बात को तो दशक हो चले थे। खैर, निशाना साधने में कुछ क्षण जरूर लगे और गोली जब निकली तो सीधे निशाने को भेद गयी।

पर चंडीगढ़ में अपने सुरक्षाकर्मी के तमंचे से इस चुहल का नतीजा कुछ यों हुआ कि 'वैपन' (वह तमंचे के लिए हमेशा यही शब्द बरतता था) दिन में मेरे पास छोड़कर घर या अपने काम निपटाने जाने लगा। एक रोज प्रमुख संवाददाता महादेव चौहान (अब दिल्ली में) मेरे कमरे में अचानक आ गये। फुरसत में भावी सुरक्षा के लिए मैं तमंचे के चैंबर को चमका रहा था। शायद उन्हें मैंने अचानक कुछ सफाई पेश की! पर मजा तब हुआ जब एक रोज प्रभाष जी आये और कहा, लिखियों (शहर में उनका मित्र परिवार) के यहां चलते हैं। अब, सुरक्षाकर्मी तो लौटा नहीं था। मैंने उसका 'वैपन' उठाया तो प्रभाष जी ने पूछा यह क्या माजरा है। मैंने किस्सा बताया। उन्होंने कहा, ऐसी सुरक्षा किस काम की। उस वक्त तो हथियार ठूंस कर प्रभाष जी के 'गनमैन' की तरह छत्तीस सेक्टर को चल दिया। पर कुछ रोज बाद बाकायदा पत्र लिखकर उस सुरक्षाकर्मी से मैंने मुक्ति पा ली।

अगली दफा प्रभाष जी आये तो बोले, मगर पंडित, कुछ सुरक्षा तो रखनी चाहिए। अगले रोज उन्होंने पंजाब के नये राज्यपाल जनरल ओमप्रकाश मल्होत्रा से मिलने का वक्त लिया, जो नियमानुसार चंडीगढ़ के प्रशासक भी थे। आजकल वे 'शिक्षा' और 'चिकित्सा' नामक दो स्वयंसेवी संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। हम सचिवालय पहुंचे तो छूटते ही प्रभाष जी ने मांग रखी, हमारे संपादक को सुरक्षा नहीं, सुरक्षा के लिए रिवाल्वर चाहिए। ये जरूरत के वक्त उसका प्रयोग कर सकते हैं। क्या आपका प्रशासन मुहैया करवाएगा?

जनरल मल्होत्रा ने कहा, हमें कोई दिक्कत नहीं, अगर एक औपचारिक पत्र इस आशय का दे दें। मुझे एक नयी आफत की कल्पना कर झुंझलाहट-सी हुई। अखबार निकालेंगे या चांदमारी जाकर निशाना साधेंगे! और सचमुच नौबत आ पड़ी तो एके-47 के सामने टिकेगा कौन? वह पत्र मैंने कभी नहीं दिया। बाद में एक ही बार प्रभाष जी ने इस बारे में पूछा तो मैंने कहा, हालात अब बेहतर हो रहे हैं।

लेकिन हालात आगे और विकट हो गये। इसकी कुछ शुरुआत जनरल मल्होत्रा के आने से पहले ही चुकी थी। जनरल को शायद इसीलिए लाया गया कि उनसे पहले के राज्यपाल वीरेंद्र वर्मा ढीले-ढाले थे। मुझे याद है, जालंधर में एक सलाहकार समिति की बैठक में चाय के कप में तीन चम्मच चीनी डालते हुए वर्मा ने कहा था, मैं गन्ना उगाने वाले इलाके से आता हूं जनाब। लेकिन पत्रकारों को वर्मा ने कड़वी झिड़की दी। छह-सात महीने में ही वर्मा को विदा कर हिमाचल भेज दिया गया।

इस बीच कुछ अखबारों में आतंकवादियों की तरफ से मिलने वाली विज्ञप्तियां और आपत्तिजनक विज्ञापन प्रमुखता से छपने लगे। पंजाब सरकार ने अखबारों को एक धमकी भरी हिदायत जारी की। उसका असर पड़ा। इस पर आतंकवादियों ने नया दांव खेला। डॉ सोहन सिंह के नेतृत्व वाली पंथक कमेटी (जो पांच प्रमुख आतंकवादी गुटों का समूह थी) ने पूरे मीडिया के लिए एक 'आचार संहिता' जारी की। आतंकवादियों को खबरों में आतंकवादी, उग्रवादी आदि की जगह 'मिलिटैंट, खालिस्तानी सेनानी या खालिस्तानी मुजाहिद्दीन' लिखने का निर्देश था। इसी तरह, भिंडरावाले के नाम से पहले संत लिखना जरूरी था। पंथिक कमेटी के साथ पाकिस्तान स्थित लिखने की मनाही थी। ऐसी ही कई हिदायतों के साथ पीटीआई-यूएनआई समाचार समितियों को अलग निर्देश था कि वे जब मिलिटैंट लिखें और कोई अखबार ये शब्द बदल दे तो उस अखबार के तार काट दिये जाएं। इस 'आचार संहिता' का पालन न करने वालों को सीधे मौत के घाट उतार देने का ऐलान था। साथ में यह 'निर्देश' भी कि 'मौत की सजा' के खिलाफ कोई पत्रकार अपील करना चाहे तो पंथक कमेटी को करेगा, सरकार को नहीं।

इस विज्ञप्ति रूपी 'आचार संहिता' पर सोहन सिंह, वाधवा सिंह बब्बर, हरमिंदर सिंह सुल्तानविंड, महल सिंह बब्बर और सतिंदर सिंह के हस्ताक्षर थे। यह 'आचार संहिता' 1 दिसंबर, 1990 से 'लागू' होनी थी और 'संपूर्ण विज्ञप्ति बगैर कोई शब्द काटे हुए' हर अखबार को छापनी थी। विज्ञप्ति पढ़ते ही मैंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों को बुलाया। जनसत्ता को तात्कालिक तौर पर कोई बड़ी चुनौती नहीं। आतंकवादियों के लिए हम स्थानीय शब्दावली में प्रचलित 'खाड़कू' शब्द प्रयोग करते थे। 'संत' भी लिख सकते थे। लेकिन पूरी विज्ञप्ति का प्रकाशन, जिसका अनुवाद अखबार का पूरा पन्ना भरने को काफी था!

विज्ञप्ति के पीछे आतंकवादियों की एक मंशा यह लगी कि लोकतंत्र के बाकी खंभे पंजाब में लगभग चरमराये हुए थे, अब निशाने के लिए चौथा खंभा बचा था, जो अब तक उनके काबू से बाहर था। सहयोगियों से बातचीत में यह भी अनुभव किया गया कि सरकार की आचार संहिता पहले से लागू है, आतंकवादियों की नियमावली एक ऐसे बिंदु पर ले आयी है, जहां अखबार 'न' कहें, वरना बंद होने के रास्ते पर हैं। यानी चौथा खंभा भी ढहने के कगार पर। इस आशंका के पीछे मेरा एक तर्क यह था कि यह विज्ञप्ति पहला 'टैस्ट फायर' है; अगली दफा अगर आतंकवादियों ने यह हुक्म दिया कि पंजाब राज्य को सब अखबार खालिस्तान लिखेंगे, तब हम क्या करेंगे।

इस विचार-विमर्श के बाद अगले ही रोज मैं दिल्ली पहुंचा। प्रभाष जी ने फौरन ट्रिब्यून समूह के प्रधान संपादक वीएन नारायणन को फोन मिलाया। वे जानना चाहते थे कि संपादकों को अंतत: क्या अब भी साफ रुख अख्तियार नहीं करना चाहिए। प्रभाष जी को उधर से जो जवाब मिला, उसे सुन अक्सर मस्ती में रहने वाले प्रभाष जी गुमसुम हो गये। नारायणन साहब ने कहा था, हमने तो 'विज्ञप्ति' आज ही छाप दी है, एक हफ्ता कौन जोखिम ले। बाद में पता चला कि हिंदी संस्करण में विज्ञप्ति कुछ कट कर छपी थी, जिसे अगले रोज हू-ब-हू दुबारा छाप दिया गया। आतंकवादियों को हिंदी अखबारों ने सर्वत्र "मिलिटेंटों" लिखा।

प्रभाष जी ने मेरी ओर देखकर पूछा, फिर जनसत्ता? मैंने कहा, जोखिम जरूर है। फिलहाल कोई संकट सामने नहीं। पर यह 'विज्ञप्ति' हम नहीं छापेंगे। एक संदेश जाना चाहिए कि बीच का रास्ता हम तलाश रहे हैं। शायद यह गीदड़-भभकी ही हो। न हो तो आर, नहीं तो पार!

'मैं तुम्हारे साथ हूं। अपन वही'च करेंगे जो अपना जमीर बोला। गणेश! चांदनी चौक जाओ और हल्दीराम से लड्डू-समोसे लेकर लाओ!' गणेश उनके सेवक का नाम था।

और जनसत्ता चंडीगढ़ में अकेला अखबार रहा जिसने आतंकवादियों की 'आचार संहिता' प्रकाशित नहीं की। यह इतिहास है, जो वहां अखबार की फाइलों में दर्ज है। इसका स्मरण कर पुराने साथियों ने गये हफ्ते वहां गर्व अनुभव किया। गल्त कित्ता?

शीर्षक सौजन्‍य : पाश की कविता 'तुझे नहीं पता' की एक पंक्ति

Om Thanvi Image(ओम थानवी। भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

  • Ravindra Parashar said:

    विष्णु खरे ने आपके यहीं पर लिखा था कि थानवी जी ने साहित्येतर पत्रकारिता में क्या किया है यह बताएं (सेठ चेनॉय)….थानवी जी ने तब तो उनको टाल दिया क्योंकि तब मुद्दा खरे जी के संघ और शिवसेना समर्थक मराठी कवि के यहाँ जाने और हिंदी में यह तथाकथित उदार नजरिया न रखने का था. पत्रकारिता का सवाल उठा कर खरे जी ने जाहिरा तौर पर मुद्दा भटकाने की कोशिश की थी जो थानवी जी ने भटकने नहीं दिया. अब लगता है इस तरह उन्होंने खरे जी को जवाब दे दिया है.

  • हिमांशु पंड्या said:

    मजेदार बात ये है कि अभी अभी यही टिप्पणी ओम जी के फेसबुक अकाउंट से आयी थी . उस पर इस आश्चर्य के साथ , कि ओम जी अपने लिए तृतीय पुरुष का प्रयोग क्यों कर रहे हैं , टिप्पणी करने ही लगा कि वह गायब हो गयी और अब रविन्द्र पाराशर जी आ गए.

  • हिमांशु पंड्या said:

    थोड़ा बदल तो लेते सर !

  • admin (author) said:

    हिमांशु जी, यह भ्रम मुझे भी हुआ था। लेकिन जब जो जैसा दिखता है, मेरे लिए वही सत्‍य होता है। मैं तो यह मान कर चल रहा हूं कि टिप्‍पणी रवींद्र पराशर की ही है। हमें ऐसे कई नामों का साथ देना चाहिए, बड़े नामों का साथ देने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे।

  • खरी बात said:

    साथ तो अविनाश आप "बड़े नाम" का ही दे रहे हैं. हमेशा ही देते हैं…खैर गंदा है लेकिन आपका ये धंधा भी तो है.

    ओम थानवी जैसे लोग यही कर सकते हैं. अब पत्रकारिता के बाहर के कौन से तीर इस संस्मरण में छोड़े गए हैं…यह तो अवि-नाश समझें या पारा-शर!

  • admin (author) said:

    खरी बात, जैसे?

  • खरी बात said:

    जैसे ओम थानवी की स्पष्ट हरकत को "भ्रम" कहके…

  • admin (author) said:

    मेरे लिए वो स्‍पष्‍ट नहीं था :)

  • खरी बात said:

    ज़ाहिर है..कैसे होता…होता तो चेनाय सेठ "स्पष्ट" तौर पर नाराज़ न हो जाते :) आपकी स्पष्टता तो रातोरात बदल जाती है मालिक! अगस्त का वह महीना…कबाड़खाना…पुराना किस्सा है…अब तक तो भूल गया होगा ;)

  • admin (author) said:

    जिस स्‍पष्‍टता को आप रातोंरात बदल जाना कहते हैं, वह मेरे लिए सच जानने के बाद खुद को सुधारना है। अच्‍छी तरह याद है मुझे। हठधर्म का पथ मेरे लिए कभी सुगम नहीं रहा :)

  • खरी बात said:

    इसका एक बेहतर नाम "अवसरवाद" है :)

  • admin (author) said:

    काश कि आप अवसरवाद का सही अर्थ समझ पाते और मेरी बातों का मर्म भी…

  • खरी बात said:

    अपनी-अपनी समझ अविनाश जी…हम तो यही जानते हैं कि फेसबुक अकाउंट से या तो वह व्यक्ति खुद कमेन्ट कर सकता है या उसका कोई चम्पू (शब्द जनसत्ता का ही है). और बात सीधी है कि पहले असावधानीवश आ गयी टिप्पणी से चेनाय सेठ रंगे हाथों पकडे गए. लेकिन आप उस पर पर्दा डाल रहे हैं. इसे "भ्रम" बता रहे हैं. सीधी बात है कि इन बड़ों से बिगाड़ की आपकी हिम्मत नहीं. सच जानने के बाद भी भ्रम में उसे बदलने की कोशिश निकृष्ट स्तर का अवसरवाद है.

  • admin (author) said:

    सर, मुझे उस मसले को इगनोर करना होता तो मेरे पास हमेशा कमेंट डिलीट करने का ऑप्‍शन होता है। मैंने हिमांशु जी की बात पर अपनी बात रखी। क्‍या एक टिप्‍पणीकार को आप इतनी बात करने का लोकतांत्रिक अधिकार भी नहीं देना चाहते?

  • रंगनाथ सिंह said:

    http://hastakshep.com/?p=18892

    थानवी जी के लेख के साथ इसे भी पढ़ लें…. और संभवतः यह लेख उनके लेख से कुछ दिन पहले ही छपा है…

  • Rakesh Khetan said:

    रविन्द्र पाराशर के पोस्ट में ऐसा क्या है जिसे थानवीजी को नाम बदलने की ज़रुरत पड़ेगी पंड्याजी? अपने नाम से वो लम्बा जवाब खरेजी को मोहल्ला में ही लिख चुके हैं. आपको यह भ्रम का नाटक पैदा करने की क्या ज़रुरत आ पड़ी? आप अचानक अपना नाम बदल कर "खरी बात" नाम से खरेजी की तरफदारी क्यों करने लगे महाराज?

  • खरी बात said:

    सर, अब इतने अलोकतांत्रिक आप नहीं…और न ही इतने 'इन्सिग्निफिकेंट' हिमांशु भाई हैं :) उस सच को भ्रम में बदलने के अलावा और चारा भी क्या बचा था. जाने दीजिए…

  • खरी बात said:

    जैसे अविनाश जी ने नाम बदलकर राकेश खेतान कर लिया…जैसे ओम थानवी ने नाम बदल कर रवीन्द्र पाराशर कर दिया? ;)

  • admin (author) said:

    खरी बात सर, मामूली से मुद्दे पर अब इतने साकांक्ष बनाने के हमले मुझ पर मत कीजिए। लोग जरूर समझते हों, पर मैं जानता हूं कि मैं शातिर नहीं हूं।

  • admin (author) said:

    भाई, मैंने कभी अपना नाम नहीं बदला। हमेशा अपने नाम से टिप्‍पणी की। फिर भी आप आरोप लगा रहे हैं, तो उसे शिरोधार्य कर रहा हूं :)

  • सीधी बात said:

    खारे के पक्ष में एक पंडा ही निकला वह भी खोजी पत्रकारिता के करते हुए. खरे जी ने यह बहुत की है.

  • खरी बात said:

    अरे गुरु मजाक समझिए…अब खेतान साहब मजाक करेंगे तो थोड़ा हक हमें भी दीजिए.बात-वात हो ही गयी है. कौन क्या है यह हमेशा कोई दूसरा ही बल्कि दूसरे ही तय करते हैं. यह "हमेशा" इतनी जोर से न कहिये…भोपाल बहुत दूर थोड़े है दिल्ली से …;). चलिए मस्त रहिये…आपका धंधा खूब फले-फूले :)

  • admin (author) said:

    धंधा होता भाई, तो अब लाखपति हो गये होते। एकाउंट में एक हजार रुपये भी नहीं हैं :)

  • Anil Singh said:

    लेख में जो मुद्दा है उस पर कोई बात नहीं कर रहा. नाम के पीछे नाम ढूँढने में लगे हैं!

  • सीधी बात said:

    पंड्या जी कहीं किसी और का लेख थानवी जी ने अपने नाम से तो नहीं छपा लिया इसकी भी जाँच होनी चाहिए.

  • Ravindra Parashar said:

    हिमांशु, लगता है आप मोहल्ला बराबर नहीं देखते है.

  • मंजुरानी दुबे said:

    हिमांशु पांड्या जी, फेसबुक पर तीन ओम थानवी हैं. आप कैसे यकीन से कह रहे हैं?

  • मंजुरानी दुबे said:

    यह तो वही बात हुई, इल्जाम पांड्या जी का, गवाह भी वही …… अब अपना फैसला भी वे सुना ही दें!

  • Prasoon Sehgal said:

    थानवी जी का लेख बहुत पठनीय है. जो पंजाब पर लिखा गया है पर उसमें विष्णु खरे को कहाँ से ले आए मिहिर पंड्या. यह भी कोई साजिश ही दिखती है अच्छा है मोहल्ला के पाठक इसकी चपेट में नहीं आए. अविनाश न चाहते तो उनका मेल भी रिजेक्ट कर सकते थे? ना रहती बांस ना बजती बांसुरी. लेख पर तो पंड्या इसीलिए कुछ नहीं कहते क्योंकि बात को किसी दूसरी तरफ मोड़ना चाहते हैं. क्यों यह स्पष्ट नहीं है.

  • Prasoon Sehgal said:

    क्षमा करें, मिहिर नहीं हिमांशु पंड्या लिखना था. मिहिर की किताब पढ़ रहा हूँ उनका नाम दिमाग पर हावी है…

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