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Thursday, May 31, 2012

आम्बेड़कर कथा, सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष

आम्बेड़कर कथा, सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष

राम पुनियानी आईआईटी में २००४ तक प्राध्यापक थे। वे विश्वविख्यात चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी यह पुस्तक भारत की असली तस्वीर पेश करती है। अंबेडकर के बारे में उनके अनुयायियों और विरोधियों में अनेक भ्रांतियां है। अंबेडकर की पूजा हो रही है मनुस्मति व्यव्dस्था बनाये रखने के लिए और कारपोरेट साम्राज्यवाद, जिओनिज्म व ग्लोबल ब्राहमणवादी वर्चस्व बनाये रखने के लिए, जबकि उनकी विचारधारा और जाति उन्मूलन, सामाजिक आर्थिक न्याय के कार्यक्रम, जो धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के लिए सबसे जरूरी हैं, को कचरा पेटी में डाला जा रहा है.। हिंदुत्व के झांसे में फंस गये हैं खुला बाजार की व्यवस्था में जीते मरते दलित आदिवासी पिछड़े मूलनिवासी बहुजन।इस दुश्चक्र को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पाठ्य है, जिसके ाधार पर प्रतिरोध की जमीन बन सकती है।अभी आप यह पुस्तक पhहले पढ़ लें। आम्बेड़कर नाम को लेकर मुझे भी तोड़ी भ्रांति है, इस पर पुनियानी जी से बात हुई है। मूल उच्चारण को ही वरीयता दी जानी चाहिए। मैं अभी मुंबई में हूं, ५जून तक कोलकाता पहुंचुंगा। तब विस्तार से इस पुस्तक की सmामग्री पर विfवेचन करेंगे।​
​​
​ फिलहाल आपसे निवेदन है कि यह पुस्तक अवश्य पढ़ लें।इस पुस्तक के लिे सहयोग राशि मात्र दस रुपये हैं।आप अगर इसे पढ़कर महत्वपूर्ण मानते हों तो क=पया अपने प्रभावक्षेत्र में इसका व्यापक प्रसार करके जनता को जागरुक करने की मुहिम चलाये। आप पुनियानी जी से ईमcेल पर सmंपर्क साधकर १००- २००- ५०० प्रतियां मंगाकर बांटे तो इस तिलिस्म की चाबी मिल सकती है।​
​ फिलहाल इतना ही।​

​पुनियानी जी का ई मेलः​ram.puniyani@gmail.com
​​पलाश विश्वास
​पेश है  आम्बेड़कर कथा, राम पुनियानी लिखित

प्रस्तावना
बाबा साहेब आम्बेड़कर की जयंती हर साल धूम धाम से मनाई जाती है। प्रश्न यह है कि जिन मूल्यों के लिए डॉ. आम्बेड़कर ने जीवन भर संघर्ष किया, वे मूल्य अब कहॉं हैं? प्रश्न यह है कि उन दलितों की - जिनकी बेहतरी के लिए डॉ. आम्बेड़कर ने अपना जीवन होम कर दिया - आज क्या स्थिति है?
दलितों और समाज के अन्य दबे-कुचले वर्गों के अतिरिक्त, इस देश के क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के लिए डॉ. आम्बेड़कर आज भी एक महानायक हैं। जो राजनैतिक दल, सामाजिक न्याय के विरोधी हैं, वे तक डॉ. आम्बेड़कर के विरुद्ध एक शब्द बोलने की हिम्मत नहीं कर सकते।
बाबा साहेब, सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं। वे जमींदारों की आर्थिक गुलामी और ऊँची जातियों की सामाजिक गुलामी से दलितों की मुक्ति के भी अक्षय प्रतीक हैं। पी.एच.डी. और डी.एस.सी. होते हुए भी उन्हें अपने कार्यस्थल पर अपमान सहना पड़ा। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि राजनैतिक स्वतंत्रता तब तक अर्थहीन रहेगी जब तक उसके साथ-साथ सामाजिक बदलाव नहीं होता, जब तक शूद्रों और महिलाओं को गुलामी से मुक्ति नहीं मिलती। राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम किया।
आम्बेड़कर ने स्वाधीनता आंदोलन के लक्ष्यों में सामाजिक परिवर्तन को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे चमत्वृळत कर देने वाली मेधा के धनी थे और उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य, दलितों की बेहतरी था। वे निरंतर हमारे देश की जाति प्रथा पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे। उन्होंने इस देश में राजनैतिक व सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को गति दी। यह अकारण ही नहीं था कि वे कमजोर वर्गों के संघर्ष के प्रतीक और अगुवा थे। और यही कारण है कि देश के सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य मंे उनकी भूमिका को नकारने या कम करके प्रस्तुत करने की कोशिशें हो रही हैं। चूंकि उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज करना संभव नहीं है। इसलिए प्रयास किया जा रहा है कि उन्हें देवता बनाकर मंदिर में प्रतिष्ठापित कर दिया जाये और फिर उनके प्रिय सिद्धांतों और आदर्शों को कचरे की टोकरी में फंेक दिया जावे। उनके योगदान के महत्व को घटा कर प्रस्तुत करने के भी योजनाबद्ध प्रयास हो रहे हैं।

आम्बेड़कर: जीवन एवं कार्य
डॉ. भीमराव आम्बेड़कर एक उत्कृष्ट बुद्धिजीवी, प्रतिबद्ध समाज सुधारक और दलितों को राजनीतिक रूप से संगठित करने वाले पहले बड़े नेता थे। उन्होंने अंग्रेजी और फारसी विषय लेकर स्नातक स्तरीय परीक्षा उत्तीर्ण की। बड़ौदा के महाराज के प्रशासन में थोड़ा समय रहने के बाद वह महाराज से मिली छात्रवृत्ति पर कोलंबिया के लिए रवाना हो गए। जून 1915 में उन्हें उनके शोधपत्र 'प्राचीन भारतीय व्यापार' के लिए एम.ए. की उपाधि मिली और इसके अगले साल उन्होंने 'भारत में जातियाँ, उनका तन्त्र, उत्पत्ति एवं विकास' पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। जून 1916 में उन्होंने पी-एच.डी. का अपना शोध-प्रबन्ध 'भारत के लिए राष्ट्रीय लाभांश' प्रस्तुत किया। कोलंबिया से वह लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस को गए। पैसे की कमी के कारण उन्हें एक साल के लिए पढ़ाई रोकनी पड़ी। लेकिन बाद में चलकर उन्होेंने लन्दन से अर्थशास्त्र और कानून की अपनी पढ़ाई पूरी की और 1923 में डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि प्राप्त कर भारत लौट आए।
इस बीच 1920 में भारत में अपने प्रवास के दौरान उन्होंने 'मूक नायक' नाम से एक पत्र शुरू किया। इस पत्र के प्रवेशांक के लिए अपने महत्वपूर्ण अवदान में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि हिन्दू-धर्म बहुमंजिली इमारत की भॉंति है जिसमें प्रत्येक मंजिल पर एक जाति रहती है, लेकिन विभिन्न मण्डलों को जोड़ने वाला कोई जीना नहीं है। हर व्यक्ति को उसी मंजिल पर सीढ़ी और मरना पड़ता है जिस पर उसका जन्म हुआ है। (कृष्णा मेनसे की रचना डॉ. बाबासाहेब आम्बेड़करांचे सामाजिक व राजकीय चलवती में उद्धृत, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, 1992)
उन्होंने अछूतों के लिए स्कूल एवं छात्रावास शुरू करने के मकसद से बहिष्वृळत हितकारिणी सभा का गठन किया। इस समुदाय के प्रबुद्ध बनाने का प्रयास जोर पकड़ने लगा। उनके नेतृत्व में पहला बड़ा आंदोलन 20 मार्च, 1927 को महाड़ के चावादार तालाब से सभी को पेयजल की सुविधा दिलाने के लिए चलाया गया। उच्च जातियों द्वारा अछूतों पर हमले किए गए लेकिन इस आंदोलन ने दलितों के बड़े हिस्से को अपनी ओर खींच लिया था और उन्होंने स्वयं को संगठित करना शुरू कर दिया। आम्बेड़कर ने महसूस किया कि जाति- प्रथा इसलिए गहराई में जड़े जमाए हुए है कि उसे धार्मिक पुस्तकों की मंजूरी मिली है। अतएव, 25 दिसम्बर, 1927 को एक सार्वजनिक कार्यवक्रम में उन्होंने मनुस्मृति को जलाने का आयोजन करके उसके खिलाफ बोलने का निर्णय किया।
उनके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप दलित संगठित होने लगे। अगला एजेण्डा हिन्दू मंदिरों में प्रवेश करने के लिए आंदोलन शुरू करना था। इस प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन और उद्वेलन के लिए मार्च 1930 में नाशिक के कालाराम मन्दिर को चुना गया।
मूर्तिकार की पीड़ा
मैं जंगल से अपने कन्धों पर लादकर पत्थर ले आया
उस पत्थर से मैंने एक मूर्ति गढ़ी
उन लोगों ने उस मूर्ति को मन्दिर में प्रतिष्ठापित किया
और अब उन्होंने मेरे मन्दिर में जाने पर रोक लगा दी है।
(संगतराश समुदाय के कवि द्वारा रचित)
आम्बेड़कर की राजनीतिक कार्यसूची पर सामाजिक समानता हासिल करने के प्रयत्न बहुत उळपर थे। ये आंदोलन दलितों के काफी बड़े हिस्से को गोलबन्द करने में सफल रहे। बहरहाल, दबंग जातियॉं अभी भी दलितों के सार्वजनिक कुओं से पानी भरने और मन्दिरों में जाने से रोक रही थीं। आम्बेड़कर के विचार से हिन्दू धर्म असमानता और दलितों के उत्पीड़न पर आधारित था। इस बात ने उन्हें एक ऐसे वैकल्पिक धर्म को अपनाने के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया, जो कि दलितों को बराबरी के आधार पर स्वीकार करें। उनकी यह तलाश 1956 में दलितों की भारी संख्या के साथ उनके बौद्धधर्म को अपनाने में पूरी हुई।
इसके साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी उन्होंने यह महसूस किया कि दबंग जातियॉं दलितों को अपने अधिकारों का उपभोग नहीं करने देंगी। लिहाजा, उन्होंने दलितों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाने की मॉंग की। इस मॉंग को अगस्त 1932 में मैकडोनाल्ड के 'कम्युनल अवार्ड' में मान लिया गया। गॉंधी ने इसका विरोध इसलिए किया कि उनका विश्वास था कि उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र से ऊपर उठकर सभी भारतीयों की यथासम्भव व्यापकतम एकता प्रदर्शित करनी चाहिए और उन्हें भय था कि 'कम्युनल अवार्ड (पंचाट)' भारतीयों को बॉंटने का काम करेगा। पंचाट का विरोध करने के लिए गॉंधी ने आमरण अनशन शुरू किया। अन्त में जाकर आम्बेड़कर ने दलितों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की मांॅग छोड़ दी।
गॉंधी और आम्बेड़कर के बीच समझौता हुआ, जिसे पुणे समझौता के नाम से जाना गया, जिसके द्वारा दलितों को सितम्बर 1932 में आरक्षित चुनाव क्षेत्र मिले।
यह वैषम्य ध्यान खींचने वाला है - जाति से दलित आम्बेड़कर ने परोक्ष रूप से गॉंधी का जीवन बचाया, फिर इसका अर्थ चाहे यह क्यों न लगाया जाए कि उन्होंने दलितों की राजनीतिक आकांक्षा के साथ समझौता किया, जबकि उच्च जाति से ब्राह्मण नाथूराम गोडसे ने देश विभाजन के समय कथित रूप से 'हिन्दू' हितों के साथ समझौता करने के लिए गॉंधी की हत्या कर दी।
आम्बेड़कर ने दलितों को गोलबन्द करने का अपना प्रयास जारी रखा और चूॅंकि उन्होंने यह महसूस किया कि अधिकांश दलित मजदूर हैं इसलिए उन्हांेने 1935 में दलित आकांक्षाओं को संगठित राजनीतिक दिशा देने के लिए स्वतंत्र श्रमिक दल का गठन किया। उन्होंने दलितों को हमेशा दूसरे स्थान पर रखने के लिए कांग्रेस की आलोचना की और 'हरिजन' शब्द को इस्तेमाल में लाने का विरोध किया। इसकी वजह यह थी कि ऐसा करना उन्हें दलितों पर कुछ ज्यादा ही अत्याचार लगता था। स्वतंत्र श्रमिक दल की कार्यसूची में लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी और भूमि सुधारों के लिए संघर्ष सम्मिलित था।
आम्बेड़कर की व्रिळयाशीलता रंग लाई। उनके प्रयासों ने सेना में महार रेजीमेंट के निर्माण को जन्म दिया, दलितों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था हुई, सरकारी नौकरियों, नौकरियों में पदोन्नति आदि के दरवाजे खुले। उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर अपनी पहुॅंच को विस्तार देने के लिए 1942 में अनुसूचित महासंघ (एस.सी.एफ.) का गठन किया।
सम्भवतः आम्बेड़कर की सुविदित उपलब्धि स्वतंत्र भारत के संविधान के निर्माण में उनकी भूमिका है। उन्हें नेहरू के मन्त्रिमण्डल में विधि मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया गया और इस हैसियत से उन्हें भारत के संविधान की निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में मनोनीत किया गया। नीचे हम इस हैसियत से डॉ. आम्बेड़कर की भूमिका पर विचार करेंगे। इस समय इतना कह देना काफी होगा कि इस संविधान को 26 जनवरी, 1950 में अमल में लाया गया और पहला आम चुनाव1952 में कराया गया। कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी हुई और आम्बेड़कर का अनुसूचित जाति महासंघ ;एस.सी.एफ.द्ध एक भी सीट जीतने में विफल रहा। इसकी मुख्य वजह संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र, आरक्षित चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था थी। दलितों के राजनीतिक महत्व को मजबूती प्रदान करने के लिए उन्होंने 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया और एस.सी.एफ. का काम रोक दिया।
उन्हें अगस्त 1947 में स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रीपरिषद् में कानून मंत्री के रूप में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। बाद में चलकर उन्हें हिन्दू संहिता विधेयक के नियमन का काम सौंपा गया। आम्बेड़कर ने इसे सामाजिक सुधारों को और गहरा बनाने एवं उन्हें वैधिक मंजूरी प्रदान करने के लिए एक अवसर के रूप में लिया। इस काम के लिए हिन्दू रीति-रिवाजों और परम्पराओं के बारे में गहरी जानकारी आवश्यक थी। वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि स्त्रियों एवं दलितों के प्रति हिन्दू कानूनों की दमनकारी प्रवृळति, उनका भेदभाव मूलक चरित्र स्थिति में सुधार लाया जाय। उनके द्वारा तैयार किया विधेयक उग्र किस्म का था, जिसने कि प्रचलित हिन्दू कानूनों के दलित-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी भेदभावमूलक पक्षों को बहुत हद तक शुद्ध कर दिया। लेकिन ठीक इसी कारण से कांग्रेस के बहुत से रूढ़िवादी हिन्दू नेताओं ने इसके प्रति अपना असंतोष जाहिर किया। विधेयक के विरोध से दुःखी होकर उन्होंने नेहरू के मंत्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिया।
हिन्दू धर्म में सुधार लाने और दलितों को राजनीतिक तौर पर संगठित करने के आम्बेडकर के प्रयासों पर मिली - जुली प्रतिव्रिळया हुई। एक तरफ जहॉं दलितों में आत्मसम्मान की भावना यकीनन बलवती हुई, वहीं दूसरी तरफ आम्बेड़कर ने हिन्दू अभिजनों के पास से 'रियासतें' पाने के लिए कोशिश करने की व्यर्थता को महसूस किया। यह वही संदर्भ था जबकि 1935 में उन्होंने घोषणा की: 'मेरा जन्म हिन्दू के रूप में हुआ, यह मेरी नियंत्रण की शक्ति से परे था, लेकिन सत्यनिष्ठा के साथ आपको यकीन दिलाता हूॅं कि मेरी मृत्यु हिन्दू के रूप में नहीं होगी।' (कृष्णा मेनसे, डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकरांचे सामाजिक व राजकीय चलवली, पृ. 28) उन्होंने विभिन्न धर्मों का गहन-गम्भीर अध्ययन किया था और वह गौतम बुद्ध की शिक्षाओं, विशेषकर सत्य, अहिंसा, सामाजिक समानता, 'मृत्यु के बाद की दुनिया' में अविश्वास और जन्म-मरण के चव्रळ के सम्बन्धित शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए थे। सम्प्रदायों के बीच के विवाद से बुद्ध की प्रारम्भिक शिक्षाओं को पुनरुज्जीवित करके उन्होंने इसे 'नव बौद्धधर्म' का नाम दिया। उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
आज आम्बेड़कर की या तो पूजा की जाती है या फिर उनकी निन्दा की जाती है। आज समूचे भारत के कस्बों, शहरों एवं गॉंवों में उनकी प्रतिमाओं को आप देख सकते हैं। व्यवहार में उनकी शिक्षाओं और उनके काम के वास्तविक मूल्य को या तो ढंग से रेखांकित नहीं किया जाता या फिर पूरी तरह से उसका अवमूल्यन और अनदेखी की जाती है। जहॉं अ.जा./अ.ज.जा. के लिए आरक्षण की व्यवस्था की बाबत जुबानी जमा खर्च किया जाता है वहीं स्वयं आरक्षण ही केवल उन क्षेत्रों तक सीमित है जो कि लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। विशेष रूप से संघ परिवार दलितों द्वारा अपने संघर्षों के जरिए हासिल की गई बढ़त को हानि पहुॅंचाने की कोशिश कर रहा है। इसका एक उदाहरण अपनी पुस्तक 'वरशिपिंग फाल्स गॉड' में अरुण शौरी का आम्बेड़कर पर हमला है।

आम्बेड़कर और स्वतंत्रता के लिए आंदोलन
पहले तो हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वास्तव में स्वाधीनता संघर्ष था क्या? ब्रिटिश शासन ने अपने स्वयं के राज्य का ढॉंचा खड़ा किया और इस तरह से एक नया मध्य वर्ग उभरकर आया जो कि राज्य के इस ढॉंचे की सेवा में लगा हुआ था। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भूस्वामियों, रजवाड़ों और ग्रामीण कुलीनों समेत पारम्परिक अभिजनों के सहयोग के बिना ब्रिटिश शासन का चल पाना असम्भव होता। स्वतंत्रता आंदोलन अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता और उनके द्वारा निर्मित राज्य के नए ढॉंचे के उसी प्रकार पुरजोर विरोध में था जिस प्रकार से वह पारम्परिक अभिजनों की सामाजिक सत्ता को पूरी शिद्दत से चुनौती दे रहा था। अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जैसे भगत सिंह, अशफाकुल्ला एवं चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिन्द फौज और अन्य लोगों ने ब्रिटिश शासन की राजनीतिक सत्ता के खिलाफ भारतीय जनता को उद्वेलित किया, उसे संघर्ष के लिए तैयार और गोलबन्द किया, तो देशभर में बिखरे सैकड़ों छोटे-बड़े संघर्षों ने भारतीय समाज में जाति, लिंग और सामाजिक पद सोपान क्रमों को चुनौती देने का काम किया। कहने का मतलब यह नहीं कि राजनीतिक एवं सामाजिक संघर्ष परस्पर अपवर्जक (एक्सक्लूसिव) थे, या यह कि उन्हें आवश्यक रूप से संगठनों एवं नेताओं के दो भिन्न समुच्चयों द्वारा संचालित किया गया। कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों संघर्षों को एक-दूसरे से पृथक् करके नहीं देखा जा सकता। सच तो यह है कि सामाजिक संघर्षों के बिना राजनीतिक संघर्ष बौना और संकुचित बना रहता। यहॉं चलते-चलते इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि बम्बई के औद्योगिक मजदूरों को संगठित करने का काम पहले-पहल फुले के एक अनुयायी नारायण मेघाजी लोखंडे ने किया।
जाति-विरोधी संघर्षों की मुख्य उपलब्धि यह थी कि उसने ग्रामीण भारत में भूस्वामी ब्राह्मण दुरभिसंधि की पकड़ को थोड़ा- बहुत कमजोर करने का काम किया। दूसरे शब्दों में उसने ब्रिटिश शासन के सामाजिक आधारों को कमजोर बनाया।
आम्बेड़कर के आंदोलन की पहुंॅच समस्त सामाजिक आंदोलन में सर्वाधिक थी और उसने ब्रिटिश शासन के सामाजिक आधारों को कमजोर करने के साथ-साथ कांग्रेस की अक्सर ही दलित हितों की अनदेखी करने के लिए आलोचना करके स्वतंत्रता संघर्ष में अपना योगदान दिया। मात्र राजनीतिक संघर्ष के रूप में स्वाधीनता संघर्ष को देखन मात्र सतही सच को देखना है।
स्वाधीनता संघर्ष को अगर बुनियादी तौर पर स्व-शासन के लिए संघर्ष के रूप में देखा जाए तो भी 1930 के प्रथम गोलमेज सम्मेलन में आम्बेड़कर के हस्तक्षेप पर विचार करें: 'जब हम अपनी वर्तमान स्थिति की उस स्थिति से तुलना करते हैं, ब्रिटिश-पूर्व दिनों के भारतीय समाज में सहन करना हमारी नियति थी, हम पाते हैं कि आगे बढ़ने की बजाय हम उसी जगह पर कदमताल कर रहे हैं। अंग्रेजों के आने से पहले छुआछूत के कारण हमारी अवस्था बहुत दयनीय थी। क्या ब्रिटिश सरकार ने इसे खत्म करने के लिए एक भी कदम उठाया? ब्रिटिश शासन के पहले हम लोग गॉंव के कुएॅं से पानी नहीं भर सकते थे। अंग्रेजों के आने से पहले हम मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। क्या अब हम कर सकते हैं?.... इनमें से किसी भी प्रश्न का हम सकारात्मक उत्तर नहीं दे सकते। हमारी दुश्वारियॉं खुले घावों की तरह बनी हुई हैं और ब्रिटिश शासन के 150 साल गुजर जाने पर भी वे खत्म नहीं हुई हैं... इस तरह की सरकार का किसी के लिए भी क्या लाभ' (वी.एन. गाडगिल, फाल्सीफाइंग दि ट्रुथ, में उद्धृत, आउटलुक, 30 जुलाई, 1997, पृ. 33) उन्होंने दलितों की समस्या पर प्रकाश डाला और कोल्हू के बैल की तरह खटने वालों के लिए न्यूनतम मजदूरी की मॉंग की, लेकिन इस बात को लेकर उनकी दृष्टि साफ थी कि 'कोई भी व्यक्ति उस तरह से हमारी व्यथाओं को दूर नहीं कर सकता जैसे कि हम कर सकते हैं और हम उन्हें तब तक दूर नहीं कर सकते जब तक कि हम राजनीतिक सत्ता को प्राप्त नहीं कर लेते... यह केवल स्वराज का संविधान ही है जहॉं पर हमें राजनीतिक सत्ता को अपने खुद के हाथों में लेने का मौका मिल सकता है, इसके बिना हम अपने लोगों को मुक्ति नहीं दिला सकते।' (गोलमेज सम्मेलन की कार्यवाही, 1930-31, पृ. 123-29)। यकीनन, ये किसी ऐसे व्यक्ति के शब्द नहीं हो सकते जो कि स्वाधीनता संघर्ष के विरोध में खड़ा हो।
इसी प्रकार उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत नेता अच्युत पटवर्द्धन को अपने आवास पर शरण प्रदान की। ये तथ्य यह दर्शाने का काम करते हैं कि आम्बेड़कर का स्वतंत्रता के सवाल को लेकर कोई विरोध नहीं था। एक तरफ उन्होंने दलितों के सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया तो दूसरी तरफ उन्होंने स्वराज के लिए आह्नान किया और इसके साथ ही स्वतंत्रता सेनानियों को सहायता प्रदान की। नन्दूराम (बियांड अम्बेडकर, हरनन्द पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1995, पृ. 67-68) स्वाधीनता संघर्ष में आम्बेड़कर की जटिल भूमिका को निचोड़ रूप में प्रस्तुत करते हैं, ''आम्बेड़कर को भारत के हताश वर्गों के निर्विवाद नेता के रूप में स्वीकार कर लिया गया। उन्हें देश-विदेश दोनों जगहों पर एक सच्चे राष्ट्रवादी और देशभक्त के रूप में मान्यता मिली लेकिन उनकी सोच और दिशा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भिन्न थी। फिर भी उन्होंने हताश वर्गों के अपने आंदोलन उसके सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक अधिकारों के लिए जारी रखा। वाकई स्वयं गांॅधी को भी उस समय इस बात का एहसास था जब उन्होंने आम्बेड़कर को 'सच्चा देशभक्त' बताकर उनकी सराहना की।' (बी.एस. अरुण, रेजिंग कंट्रोवर्सी, डेक्कन हेराल्ड, 10 अगस्त 1997)

गाँधी, आम्बेड़कर और राष्ट्रीय आंदोलन
गॉंधी स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वाधिक कद्दावर राष्ट्रीय नेता थे, जिन्होंने दलितों की मॉंगों को स्वाधीनता संघर्ष से जोड़कर उसे आमूल परिवर्तनकारी बनाने की कोशिश की। जैसा कि 'साम्प्रदायिक अवार्ड' के मामले में उळपर हम देख चुके हैं, जहॉं दोनों के बीच भविष्य-स्वप्न और राजनीतिक व्यवहार दोनों में ही मतभेद थे, वहीं यह कहना असंगत होगा कि एक-दूसरे के घोर-विरोध में खडे़ थे। गॉंधी के नेतृत्व में चलने वाले किसी भी संघर्ष का आम्बेड़कर ने किसी भी स्तर पर कभी भी सक्रिय विरोध नहीं किया। चूंॅकि वह स्वतंत्र भारत में निष्पक्षता एवं समानतावाद के सिद्धांतों को मजबूती पकड़ते देखना चाहते थे, इसलिए वे नेहरू के अंतरिम मंत्रिमण्डल के साथ-साथ आजादी मिलने के बाद उनके प्रथम मंत्रिमण्डल में शामिल होने के लिए तैयार हो गए। संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष के साथ-साथ हिन्दू संहिता विधेयक के निर्माण में भी उनकी भूमिका को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। आम्बेड़कर हमेशा स्वतंत्रता के हितों के साथ जुड़े रहे।

आम्बेड़कर: सामाजिक-संघर्ष
आम्बेड़कर प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, और उन्होंने पी-एच.डी. और डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधियों के साथ उळॅंची शिक्षा प्राप्त की थी। वह गवर्नमेंट लॉ कॉलेज मुम्बई में प्रोफेसर थे और इसके अलावा उनकी वकालत भी खूब चलती थी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि अगर वह सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में न उतरे होते, बल्कि अध्यापन और अपनी वकालत चलाने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया होता तो वह बहुत अमीर आदमी बन सकते थे। उन्होंने आराम की जिन्दगी बिताना पसन्द नहीं किया क्योंकि उनका दिल उत्पीड़ितों एवं वंचितों के लिए धड़कता था। वे भौतिक लाभ की प्रत्याशा में वाइसराय की परिषद् में शामिल नहीं हुए, उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि उनका मानना था कि उस पर बैठकर वह दलितों के ध्येय को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। कुछ लोग आम्बेड़कर को देशद्रोही के रूप में चित्रित करने के लिए कुछ ऐसी ब्रिटिश रिपोर्टों का सहारा लेते हैं जिनमें विभिन्न मुद्दोें पर आम्बेड़कर की प्रशंसा की गई है। वे यहॉं-वहॉं से कुछ टुकड़े उठाते हैं और बिखरे हुए एवं असम्बद्ध साक्ष्य एवं मुद्दों को जोड़ने की कोशिश करते हैं ताकि अपनी बात में वजन ला सकें। ऐसा करते हुए वह केवल पक्षपाती एवं झूठे इतिहासकार के रूप में स्वयं को ही बेनकाब करते हैं। किसी भी प्रकार से भारतीय नेताओं का मूल्यांकन करने की एकमात्र कसौटी यह नहीं हो सकती कि अंग्रेजों के प्रशंसा करने वाले बयानों को चुन-चुनकर प्रस्तुत किया जाए। उदाहरण के लिए गॉंधी ने जब-जब सत्याग्रह को वापस लिया तब-तब अंग्रेजों ने उनकी तहेदिल से सराहना की - क्या इससे गांॅधी देशद्रोही हो गए?

आम्बेड़कर और साम्प्रदायिक राजनीति
साम्प्रदायिक राजनीति जब-तब दलितों को रिझा-रिझाकर अपने पाले में करने का प्रयास करती रहती है। उसे यह भी लगता है कि एक प्रमुख शख्सियत के रूप में आम्बेड़कर को स्वीकार किए बगैर दलितों तक अपनी पहुॅंच नहीं बनाई जा सकती।
यही कारण है कि उन्हें सहयोजित (कोआप्ट) करने की कोशिश करती है। साम्प्रदायिक राजनीति दावा करती है कि आम्बेड़कर ही की भांॅति वह भी हमेशा से अस्पृश्यता का विरोधी रही है और इसे साबित करने के लिए 'राम खिचड़ी' की तरह के अभियानों का जिव्रळ करती है। इसका हकीकत से बहुत अधिक लेना-देना नहीं है। हालॉंकि कुछ हिन्दू विचारक इस बात को मानते हैं कि अस्पृश्यता का समर्थन करना एक भारी भूल है क्योंकि इससे दलित अलग-थलग पड़ जाते हैं, लेकिन इस प्रश्न को लेकर उनकी सोच और कार्य अपर्याप्त है और कहीं से भी आम्बेड़कर की समझ-पहुंॅच के करीब नहीं आते। आम्बेड़कर के चावदार तालाब, कालाराम मन्दिर और मनुस्मृति दहन उद्वेलनों को नेतृत्व प्रदान कर सामाजिक सुधार के लिए उग्र आंदोलनों की शुरुआत की। आर.एस.एस. को तो जाने दीजिए उच्च जाति के किसी भी संगठन ने इन आंदोलनों का समर्थन नहीं किया। केवल मन्दिर में प्रवेश के प्रश्न पर कुछ साम्प्रदायिक लोगों ने आम्बेड़कर को मरियल-सा समर्थन दिया।
बहरहाल, देखिए हिन्दुत्व के प्रमुख विचारक सावरकर के पास कहने के लिए क्या है: 'मनुस्मृति वह धर्म-ग्रन्थ है जो कि हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद पूजा के सर्वाधिक योग्य है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्वृळति, रीति-रिवाजों, विचार एवं व्यवहार का आधार रहा है। यह पुस्तक सदियों से हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक एव पारलौकिक गति को संहिताबद्ध करती रही है... आज मनुस्मृति हिन्दू कानून है।' (वी.डी. सावरकर समग्र में 'वूमेन इन मनुस्मृति', हिन्दी में सावरकर की किताबों का संकलन, प्रभात, नई दिल्ली, 2002, पृ. 416)
वैषम्य पर पुनः गौर कीजिए: आम्बेड़कर मनुस्मृति को जलाते हैं, सावरकर उसकी गौरव अभ्यर्थना करते हैं। वस्तुतः आज की तारीख तक साम्प्रदायिक लोगों के एक भी महत्वपूर्ण नेता ने कभी भी मनुस्मृति को दलितों एवं स्त्रियों के लिए उत्पीड़क होने के कारण खारिज या उसकी आलोचना नहीं की है।
दलितों से जुड़े मुद्दों पर हिन्दुत्ववादी ताकतों का रवैया दोहरा रहा है। चुनावी या दूसरे उद्देश्यों के लिए दलितों को अपनी ओर मिलाने के लिए हिन्दुत्ववादी ताकतें सतही तौर पर दलितों की मॉंगों का समर्थन करती हैं, वहीं गहरे स्तर पर वे इन मॉंगों को मरोड़कर प्रस्तुत करती हैं। या उनकी जड़ खोदने का काम करती हैं। नौकरियों एवं शैक्षणिक सुविधाओं के लिए आरक्षण इसी प्रकार का एक मुद्दा है। आधिकारिक रूप से संघ परिवार आरक्षण का विरोध नहीं करता लेकिन वह इसके विरुद्ध कानाफूसी अभियान चलाता है। जब वी.पी. सिंह की सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशोें के व्रिळयान्वयन की घोषणा की तो साम्प्रदायिक ताकतों ने इसका आधिकारिक रूप से विरोध न करते हुए भी मुद्दे की हवा निकालने के लिए राम मन्दिर आंदोलन को तेज कर दिया।

आम्बेड़कर और भारतीय संविधान
शुरू-शुरू में आम्बेड़कर बंगाल से संविधान सभा (कांस्टीट्युएंट असेम्बली) के लिए चुने गए। लेकिन देश- विभाजन के बाद बंगाल का हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया, इस तरह से वह अपनी सीट गंॅवा बैठे। इसके बाद वह कांग्रेस के समर्थन से बम्बई विधान परिषद् से पुनः निर्वाचित हुए। संविधान ने आम्बेड़कर समिति की अध्यक्षता में सात सदस्यीय मसौदा निर्माण गठित की गई। उनके जीवनीकार धनंजय कीर लिखते हैं: 'अपनी खराब होती सेहत के बावजूद स्वयं को सौंपे गए काम पर वह कमोबेश अकेले ही अपने साथ हृदय और मस्तिष्क को जोरों से झोंके हुए थे।' (धनंजय कीर, डॉ. अम्बेडकर: लाइफ एंड मिशन, पाप्यूलर प्रकाशन, मुम्बई, 1971, पृ. 400) संविधान के प्रारूप-निर्माण में आम्बेड़कर के योगदान की महत्ता को इस समकालीन आकलन से समझा जा सकता है: 'सम्भवतः सदन इस बात से अवगत है कि आपके द्वारा नामित सात सदस्यों में से एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया। और उसके स्थान पर दूसरा व्यक्ति आ गया। एक सदस्य की मृत्यु हो गई और उसकी जगह भरी नहीं गई। एक सदस्य अमेरिका में था और उसकी जगह खाली पड़ी हुई थी और एक दूसरा व्यक्ति राज्य के मामलों में फॅंसा हुआ था और सात सदस्यों की अनुपस्थिति इस हद तक बनी हुई थी। एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और खराब स्वास्थ्य के कारण वे काम पर नहीं आ सकते थे। इस तरह से आखिर में संविधान का प्रारूप तैयार करने का काम डॉ. आम्बेडकर के कन्धों पर आ पड़ा और मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि हम उनके प्रति भारत को उस तरीके से पूरा करने के लिए आभारी हैं जो कि निश्चित रूप से प्रशंसनीय है।' (टी.टी. कृष्णाचारी का संविधान सभा में भाषण, 5 नवम्बर, 1918, कीर द्वारा उद्धृत, पृ. 401) संविधान सभा के समापन सत्र के अपने मसौदा तैयार करने में डॉ. आम्बेडकर के योगदान के लिए उनकी जोरदार सराहना की। (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की संकलित रचनाएॅं, खण्ड 20, पृ. 237-38, 247) संविधान के धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील जज्बे का श्रेय बहुत हद तक आम्बेड़कर को दिया जाना चाहिए। लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि उन्होंने अन्तिम मसौदे के एक-एक शब्द को स्वयं लिखा है। निश्चित रूप से नहीं! प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में यह आम्बेड़कर का काम था कि वह दूसरे बहुत से देशों के संविधानों का बारीकी से अध्ययन करके बेहतर संविधान का ढॉंचा तैयार करने के लिए समस्त अनुच्छेदों का प्रारूप तैयार करने की देख-रेख करने, बहस की रोशनी में सम्पादन एवं फेरबदल करने, अन्तिम स्वीवृळति के लिए पाठ को अन्तिम रूप देने तक मसौदा निर्माण की समूची प्रव्रिळया पर व्यक्तिगत रूप से नजर रखें। यह सब करते हुए यह बहुत जरूरी था कि इस बात को ध्यान में रखा जाता कि संविधान को यथासम्भव व्यापक होना चाहिए, यह कि इसे विशिष्ट सामाजिक समूहों एवं वर्गों के खिलाफ भेदभाव का उपकरण नहीं बनने देना चाहिए, यह कि बहुसंख्यकों की आकांक्षाओं को अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बरअक्स अवश्य ही मर्यादा में रहना चाहिए ;यहॉं पर बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक शब्दावली का प्रयोग केवल धार्मिक अर्थ में नहीं किया गया हैद्ध। सम्भव हदों तक संविधान को प्रभावी दुरुपयोग से बचाकर रखना था, लेकिन यह भी उतना ही जरूरी था कि वैधिक ब्यौरों की अधिकता न होने पाए। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि संविधान को भारत के लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करना था, बीसवीं सदी के सबसे बड़े साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की मूल भावना को मूर्त रूप प्रदान करना था। यह भारी-भरकम कवायद थी, एक ऐसी कवायद जिसके लिए कानून एवं संवैधानिक सिद्धांतों की व्यापक जानकारी, सर्व समावेशी तस्वीर की ओर से निगाह न हटाते हुए, ब्यौरों के प्रति सतर्क रहने की योग्यता के साथ-साथ भारत की असीम विविधता एवं जटिलता से गहन परिचय और तद्नुभूति आवश्यक थी। कोई भी आदमी इस काम को अकेले अपने दम पर पूरा नहीं कर सकता था, न ही आम्बेड़कर ने ऐसा किया। अलबत्ता, आम्बेड़कर चोटी की बौद्धिक क्षमताओं से युक्त व्यक्ति थे और उन्होंने भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील चरित्र पर अपनी दृढ़ छाप छोड़ी।
यही वह संविधान है, जिससे लेकर साम्प्रदायिक लोग अपनी नाराजगी जाहिर करते हैं और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने तो संविधान की समीक्षा के लिए यहॉं तक कि आयोग भी गठित कर दिया था। जब संविधान में तोड़-फोड़ करने और भारत को हिन्दू-राष्ट्र बनाने की आर.एस.एस. की योजनाओं के बारे में खूब शोरगुल मचा तो सरकार ने यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया कि आयोग उन बुनियादी सिद्धांतों पर सवाल नहीं खड़ा करेगा, जो कि संविधान के आधार का निर्माण करते हैं।

आम्बेड़कर और धर्मान्तरण
जब आम्बेड़कर ने चावदार तालाब या कालाराम मन्दिर मुद्दे पर अपना अभियान छेड़ा तो उच्च जातियों ने इसकी भर्त्सना की और उन्हें उनका कोप झेलना पड़ा। मनुस्मृति के प्रश्न पर पुनः उन्होंने देखा कि हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयं में और अपने धर्म में सुधार लाने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सब बातों ने आम्बेड़कर के आगे इस बात को साफ कर दिया कि दलित हिन्दू धर्म के पाले में बने रहते हुए उत्पीड़न एवं अपमान से बच नहीं सकते।
एब बार जब उनके आगे यह साफ हो गया कि हिन्दू बने रहने की उनकी अब कोई इच्छा नहीं है, तो ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरण की पेशकश के साथ उनसे सम्पर्क किया। इसके अलावा सिख धर्म के कुछ लोगों ने भी इसी तरह की पेशकश की। हैदराबाद के निजाम ने उनके इस्लाम धर्म को अपनाने पर उन्हें ढेर सारा पैसा देने का वादा किया। लेकिन आम्बेड़कर स्वतंत्र विचारक थे और इस तरह की पेशकशेां के प्रलोभन में भला वह कहॉं आने वाले थे। उन्होंने बहुत-सी धार्मिक व्यवस्थाओं का सालों-साल अध्ययन किया था और जब उन्होंने अपनी पसन्द को अन्तिम रूप दिया तो वह बौद्धधर्म की आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक परम्पराओं के अगाध ज्ञान और गहन समझदारी पर आधारित थी।
आम्बेड़कर बौद्ध धर्म में अंतर्निहित भ्रातृत्व एवं समानता की भावना की ओर आवृळष्ट हुए जबकि हिन्दू धर्म इसके ठीक विपरीत अंतर्निहित रूप से गैर बराबर और श्रेणीबद्ध है। उन्होंने बौद्धधर्म पर तीन प्रमुख किताबें लिखीं: बुद्ध और उनका धम्मद्ध प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति तथा बुद्ध एवं कार्लमार्क्स। बौद्धधर्म और आधुनिक भारत में उसकी भूमिका को जो लोग समझना चाहते हैं उनके लिए ये तीनों किताबें मानक पाठ का काम करती हैं।

हिन्दू धर्म की पहेलियाँ
हिन्दुत्ववादी राजनीति की निकट सहयोगी शिवसेना वर्तमान समय में 'हिन्दू धर्म में पहेलियॉं', इस पुस्तक के प्रकाशन की इस आधार पर विरोधी है कि यह हिन्दू विरोधी है और इस तरह से हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करेगी। दलित संगठनों ने इसका विरोध किया। कुछ समय तक मुम्बई में तनाव कायम रहा। दो दशक बाद वही शिवसेना शिवशक्ति $ भीमशक्ति = देशभक्ति का आह्नान कर रही थी (शिवसेना के अनुयायियों और डॉ. आम्बेड़कर के अनुयायियों का एक साथ आना देश-भक्ति है) इस नारे के इर्द-गिर्द दलितों को रिझाने के शिवसेना के बेहतरीन प्रयासों के बावजूद आमतौर पर दलित आबादी पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

भारत विभाजन पर आम्बेड़कर के विचार
कुछ लोग देश विभाजन पर आम्बेड़कर की पुस्तक के कुछ चुनिन्दा एवं आंशिक उद्धरणों का दुरुपयोग करते हैं, ताकि उन्हें मुस्लिम विरोधी व्यक्ति सिद्ध किया जा सके। यह गलत और दुर्भाग्यपूर्ण है। आम्बेडकर ने देश-विभाजन को घटनाओं एवं प्रक्रियाओं के जटिल समुच्चय के परिणाम के रूप में देखा और समस्या का उसके अनेकशः आयामों में अध्ययन किया। आम्बेड़कर का तर्क था कि द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को केवल मुस्लिम साम्प्रदायिकों ने ही नहीं बनाए रखा: ''यह एक अजीब बात लग सकती है लेकिन 'एक राष्ट्र' का विरोधी होने के बजाय श्री सावरकर और श्री जिन्ना के बीच इस बात को लेकर पूर्ण सहमति है। इस बात को लेकर दोनों सहमत हैं, केवल सहमत ही नहीं वरन् आग्रही हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिन्दू राष्ट्र.... उनके बीच मतभेद केवल उन शर्तों एवं तरीकों को लेकर था, जिनके आधार पर दोनों राष्ट्रों को अस्तित्व में आना था। जिन्ना कहते हैं कि भारत को दो हिस्सों, पाकिस्तान एवं हिन्दुस्तान में बॉंट दिया जाना चाहिए, जिसमें से मुस्लिम राष्ट्र को पाकिस्तान मिले और हिन्दू राष्ट्र को हिन्दुस्तान। दूसरी तरफ श्री सावरकर का आग्रह है कि हालॉंकि भारत में दो राष्ट्र हैं लेकिन भारत को दो हिस्सों - एक मुस्लिमों के लिए और दूसरा हिन्दुओं के लिए - में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए और यह कि दोनों राष्ट्रों को एक ही देश में रहना चाहिए और उन्हें एक ही संविधान की छत्रछाया में रहना चाहिए। और संविधान इस प्रकार का होना चाहिए जिससे हिन्दू राष्ट्र के लिए अधिक शक्ति सम्पन्न स्थिति में पहुॅंचना सुगम हो, जो कि उसका लक्ष्य है, और मुस्लिम राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र के अधीनस्थ सहयोग की स्थिति में रहने के लिए बना हो!' ('थाट्स आन पाकिस्तान' बाबा साहेब आम्बेडकर लेख एवं भाषण, खण्ड-8, तीसरा अनुच्छेद, अध्याय 7, महाराष्ट्र सरकार, 1989)
आम्बेड़कर स्वयं मिले-जुले भारतीय राष्ट्रवाद के पैरोकार थे। 'क्या यह मानी हुई बात नहीं है कि अगर सभी में नहीं तो अधिकतर प्रांतों में मोंटग्यु चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत मुस्लिमों, गैर ब्राह्मणों एवं दबे-कुचले तबके के लोगों ने 1920 से लेकर 1937 तक एक टीम के सदस्य के रूप में सुधारों के लिए एकजुट होकर काम किया? यहॉं हिन्दू- मुसलमान के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द कायम करने और हिन्दी राज को समाप्त करने का सर्वाधिक फलप्रद तरीका प्राप्त किया जा सकता है। श्री जिन्ना बड़े आराम से इस दिशा में आगे बढ़ सकते थे। श्री जिन्ना के लिए इसमें सफलता प्राप्त करना भी मुश्किल काम न था।'('थाट्स आन पाकिस्तान', पृ. 359)
'यह पुस्तक उन विश्वासों की व्याख्या है, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उन्हें ब्राह्मणीय धर्मशास्त्र ने प्रतिपादित किया है.... मैं लोगों को इस बारे में जागरूक बनाना चाहता हूॅं कि हिन्दू धर्म सनातन ;शाश्वतद्ध नहीं है... पुस्तक का दूसरा उद्देश्य हिन्दू धर्मावलम्बियों का ध्यान ब्राह्मणों की युक्तियों की तरफ खींचना और उन्हें इस पर विचार करने के लिए विवश करना है कि ब्राह्मणों ने किस प्रकार से उन्हें छला और गुमराह किया है।'
वेदों के बारे में: 'अब ब्राह्मणों ने इस बात में सन्देह की तनिक भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि उन्होंने वेदों के अमोघ होने के सर्वाधिक क्षतिकारक कठमुल्ला सूत्र का प्रतिपादन किया है, जिसका कि ब्राह्मणों ने लोगों में चतुर्दिक प्रसार किया है। अगर हिन्दू मेधा ने अपना विकास रोक न दिया हो और अगर हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति गतिरुद्ध एवं सड़ांध मारने वाली नहीं बन गई हो तो भारत की प्रगति के लिए यह जरूरी है कि इस कठमुल्ला सूत्र को जड़मूल समेत नष्ट कर दिया जाए। कई धर्मग्रंथ बेकार की किताबें हैं। कोई कारण नहीं कि उन्हें पवित्र या अमोघ बताया जाए। ब्राह्मणों ने बाद में चलकर जोड़े गए पुरुष-सूक्त के द्वारा वेदों को पवित्रता एवं अमोघ करार दिया और वेदों ने उन्हें ;अर्थात् ब्राह्मणों कोद्ध पृथ्वी का स्वामी बना दिया।'
भगवान राम के बारे में: 'सीता के जीवन का तो कोई अर्थ ही नहीं है। जिस चीज का कोई मतलब है तो वह है उनका अपना नाम और प्रसिद्धि। उन्होंने निःस्संदेह इस गपशप को रोकने के लिए पुरुषोचित कदम नहीं उठाया, जैसा कि राजा होने के नाते वे उठा सकते थे और जिसे उठाने के लिए ऐसे पति के रूप में कर्त्तव्यबद्ध थे, जिसे कि अपनी पत्नी के निर्दोष होने का पूरा भरोसा था ...12 वर्षों तक वाल्मीकि के जंगल में बने आश्रम में उनके लड़के रहे, जो कि अयोध्या से बहुत अधिक दूरी पर नहीं था, जहॉं पर राम शासन कर रहे थे। इन 12 वर्षों में इस आदर्श पति और प्यार करने वाले पिता ने यह जानने की कभी भी परवाह नहीं की कि सीता का क्या हुआ, वह जिन्दा भी है या नहीं... सीता ने उस राम के पास लौटने की अपेक्षा मर जाना पसन्द किया, जिसका व्यवहार बर्बरों से तनिक भी बेहतर न था।' शूद्रों के प्रति राम के नजरिये पर: '...शम्बूक नामक शूद्र सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तपस्या कर रहा था और बगैर कोई चेतावनी दिए, आपत्ति जाहिर किए या उससे बात करने की इच्छा जताए (राम नेद्ध उसका सिर काटा डाला...' ;पृ. 329-332-'रिडल्स इन हिन्दूइज्म' बाबासाहेब आम्बेड़कर, लेख एवं भाषण, खण्ड-4, महाराष्ट्र सरकार, 1996)

दलित आंदोलन: आम्बेड़कर का योगदान
यह कहना कि आम्बेड़कर केवल महार या दलितों के नेता थे, गलत है। वे पूरे राष्ट्र के नेता थे। उन पर संकुचित आरोप कुछ लोग लगाते रहे हैं। वास्तव में सच्चाई उलट बात को सिद्ध करती है - 'अगर दलितों की भारी आबादी और न्यायपूर्ण एवं समतामूलक व्यवस्था के लिए संघर्षरत दूसरे लोगों द्वारा आम्बेड़कर को अपने नेता के रूप में नहीं देखा जाता, तो यह साबित करने की जरूरत ही कभी नहीं पैदा हुई होती कि आम्बेड़कर की दृष्टि और उनकी पहुॅंच संकुचित थी।' अपने इस दावे के द्वारा कि- आम्बेड़कर एक ऐसे स्थानीय नेता से तनिक भी अधिक न थे जिसने कि महज इस या उस जातीय समूह के हितों को साधने का काम किया; संकीर्णतावादी शक्तियॉं सर्वप्रथम आम्बेड़कर के खुद के योगदान को कम करने की कोशिश करती हैं, और इसके अलावा दलितों के विभिन्न तबकों को एक-दूसरे के खिलाफ बांॅटने की कोशिश करती हैं। बहरहाल यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि स्वयं आम्बेड़कर द्वारा छेड़े गए अभियान सभी दलितों के लिए थे और उनकी दृष्टि यथासम्भव व्यापक थी और बनी रही, जिसमें कि समस्त दलितों और स्त्रियों एवं दूसरे शोषित और उत्पीड़न तबकों के हितों का समावेश था।
बहरहाल, यह भी सच है कि कुछ सामाजिक ऐतिहासिक दशाओं की वजह से महार जाति के लोग ज्यादा आगे बढ़ने में सफल हुए और वे इस लायक थे कि कुछ दूसरी जातियों के मुकाबले अपने संघर्ष को ज्यादा उन्नत धरातल पर ले जा सके। यह पुनः हमारे समाज की गैर बराबरी को प्रतिबिम्बित करता है, जहॉं पर किसी समुदाय की राजनीतिक प्रतिव्रिळयाएॅं अक्सर ही उसकी 'सामाजिक स्थिति' पर निर्भर करती हैं। अतः इस तथ्य के बावजूद कि कुछ जातियॉं आम्बेड़कर के योगदान के चलते थोड़ा-बहुत अधिक लाभान्वित हुई हैं या कुछ जातियों ने उनकी विरासत के साथ ज्यादा तादात्म्य स्थापित किया है, आम्बेड़कर ने खुद को कभी भी जाति विशेष के नेता के रूप में नहीं देखा।
उठो!
तुम 'अछूत' भाइयों, दलित मजदूरों
उठो और अपने इतिहास को जानो।
तुम सच्चे सर्वहारा संगठित हो।
तुम्हारे पास खोने के लिए बेड़ियों के
सिवाय कुछ नहीं।
विद्रोह में उठ खड़े हो!
धीरे-धीरे सुधारों से कुछ मिलने वाला नहीं,
सामाजिक व्यवस्था का क्रान्तिकरण करो,
बगावत करो और उथल-पुथल मचा दो,
मुक्ति तुम्हारा ध्येय है!
उठो!
राष्ट्र की
वास्तविक शक्ति एवं आधार
तुम सोए हुए शेर
उठो और विद्रोह करो।
- भगत सिंह

परिशिष्ट: 1
सामाजिक न्याय की चाहत
आज से 75 साल पहले, डॉ. आम्बेड़कर ने अपने साथियों के साथ, महाड के चावदार तालाब पहुॅंचकर, पानी के सार्वजनिक स्रोतों पर दलितों के बराबरी के अधिकार की उद्घोषणा की थी। जब वे लोट रहे थे, तब उन पर पत्थरों की वर्षा की गई। ऐसा लगता है कि देश के कुछ इलाकों में इन 75 सालों में कुछ भी नहीं बदला।
महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा शुरू की गई दलितों की सामाजिक समानता पाने की संघर्षयात्रा बहुत लम्बी और कष्टपूर्ण रही है। इस यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण योगदान था डॉ. भीमराव आम्बेड़कर का। उनका चावदार तालाब आंदोलन, कालाराम मन्दिर मंे प्रवेश की कोशिश और ''मनुस्मृति'' दहन, इस यात्रा के तीन प्रमुख प्रतीकात्मक पड़ाव थे। ये तीनों ही मिशन आज तक अधूरे हैं। ये तीनों मसले, ईश्वर के इन सौतेले पुत्रों के साथ, सदियों से हो रहे अन्याय, भूमि-सुधारों के अभाव व समाज में ब्राह्मणवादी मूल्यों के प्रभुत्व की ओर इंगित करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों पर आम्बेड़कर के जोर देने के कारण, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के अतिरिक्त सामाजिक न्याय को भी अपने एजेंडे में शामिल करने पर मजबूर होना पड़ा। यह केवल संयोग नहीं था कि गॉंधीजी, जिनके अलग मताधिकार के मुद्दे पर आम्बेड़कर से गहरे मतभेद थे, ने ही संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया।
उस समय देश का नेतृत्व कर रहे पंडित नेहरू ने भू-सुधारों को प्रोत्साहन दिया। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों ने भारी उद्योगों की स्थापना की और अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। तेजी से हो रहे औद्योगिकरण और आरक्षण की व्यवस्था से दलितों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया और वे बड़ी संख्या में शहरों में आकर शिक्षा प्राप्त करने लगे और विभिन्न नौकरियां और काम-धंधे करने लगे। परन्तु यह पर्याप्त नहीं था। सार्वजनिक क्षेत्र में नियोजन और सरकारी नौकरियों को छोड़कर, आगे बढ़ने के अन्य अवसर उन्हें उपलब्ध नहीं थे। आरक्षण नीति के क्रियान्वयन में भी रोड़े अटकाए गए, जिस कारण उसके उपेक्षित नतीजे सामने नहीं आ सके। भू-सुधार हुए परन्तु आधे-अधूरे। जमीन का मालिक वही हो जो उसे जोतता है, यह लक्ष्य सपना ही बना रहा। 'बेनामी' की बेईमानी ने यह सुनिश्चित किया कि वृळषि भूमि पर श्रेष्ठि वर्ग का कब्जा बना रहे।
नक्सल आंदोलन ने भी भू-सुधारों को प्राथमिकता दिलवाने का प्रयास किया परन्तु न तो नक्सली व न ही अन्य सम्बद्ध समूह, इस काम को आगे बढ़ा सके। दलित पैंथर्स ने कुछ उम्मीदें जगाईं परन्तु वे भी जल्दी ही उॅंळची जातियों के बिछाए जाल में फॅंस गए। विभिन्न संगठनों और राजनैतिक दलों पर अपने प्रभाव के जरिए, ऊँची जातियॉं अपने हितों की रक्षा करती रहीं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, उनके हितों पर ऑंच नहीं आई। रणवीर सेना जैसे संगठन अस्तित्व में आ गए, जिनका एकमात्र उद्देश्य दलितों के अधिकारों को कुचलना था। कुल मिलाकर, जमीन जोतने वाला उसका मालिक न बन सका।
वैश्वीकरण के प्रभाव में सार्वजनिक क्षेत्र के सिकुड़ने से दलितों के रोजगार के अवसर कम हो गए। आर्थिक मंदी और वैश्वीकरण के मिले-जुले असर से बड़ी संख्या में औद्योगिक ईकाइयों के बंद होने से सभी के लिए रोजगार पाना कठिन हो गया। दलित इससे  और अधिक प्रभावित हुए।
सन् 1980 से नेहरू-अंबेडकर (औद्योगीकरण, सामाजिक न्याय) नीतियों का स्थान नई नीतियॉं लेने लगीं, जिनसे वंचितों और गरीबों की माली हालत में गिरावट आई। इसी दौर में हिन्दू दक्षिणपंथ के उदय ने जातिगत और लैंगिक रिश्तों में परिवर्तन की प्रव्रिळया को धीमा किया।
सन् 1980 के दशक तक जो समस्याएं और मुद्दे, समाज में चर्चा और बहस का विषय थे, उनका स्थान मंदिर-मस्जिद जैसे अप्रासंगिक मुद्दों ने ले लिया। इस बदलाव का उद्देश्य था वंचित वर्गों में बढ़ते असंतोष को कम करना और उनकी सोच की दिशा बदलना।
दलितों के सामाजिक रूतबे में बढ़ोत्तरी से ऊँची जातियों की अप्रसन्नता, गुजरात में सन् 1980 और फिर 1985 के आरक्षण विरोधी आंदोलनों के रूप में प्रकट हुई। यह मात्र संयोग नहीं है कि लगभग इसी समय हिन्दुत्व की राजनीति परवान चढ़ने लगी और उसका स्वर पहले से ऊँचा और फिर आक्रामक हो गया। इसके बाद एक कुटिल चाल चली गई। युद्ध का मैदान ही बदल दिया गया। दलितों को दबाने की बजाय, पहले मुसलमानों और फिर ईसाईयों के रूप में नए दुश्मनों का आविष्कार किया गया और शनैः शनैः दलित भी हिन्दुत्व की धारा में शामिल होने लगे।
मण्डल आयोग की रपट के लागू होने के बाद के घटनाव्रळम ने इस रणनीति को सार्वजनिक कर दिया। उॅंळची जातियों और उच्च वर्ग की प्रतिक्रिया, जो विभिन्न 'धार्मिक यात्राओं' के रूप में अभिव्यक्त हो रही थी, ने जल्दी ही तूफान का रूप अख्तियार कर लिया। इसी तूफान ने रथ यात्राओं को जबरदस्त सफलता दिलवाई और बाबरी मस्जिद को ढहाया। इसके बाद मुसलमानों के कत्लेआम हुए।
साम्प्रदायिकता की राजनीति का प्रभुत्व बढ़ने के साथ ही, सामाजिक समानता हासिल करने का लक्ष्य एक सपना बन कर रह गया है। ऐसा प्रतीत होता है मानो समय की धारा रूक गई हो। गॉंवों में दलित न केवल भूख और बदहाली का सामना कर रहे हैं अछूत प्रथा, जो हमारे समाज का अभिशाप है, आज भी ग्रामीण भारत में प्रचलित है। शहरों में, सबसे ज्यादा बेरोजगार, दलित बस्तियों में ही पाए जाते हैं।
इन परिस्थितियों में, पहचान की राजनीति रोटी-कपड़ा- मकान के मूलभूत मुद्दों पर से समाज का ध्यान हटा रही है। दलित महिलाएॅं और अधिक दुःख भोग रही हैं। उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत करने वाले दलित पुरुषों को सजा देने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।

परिशिष्ट: 2
आम्बेड़कर के बाद का दलित आंदोलन
आम्बेड़कर के बाद का दलित आंदोलन, यद्यपि उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करता रहा और उनका नाम जपता रहा, तथापि उसमें बाबा साहेब के आदर्शों के प्रति आवश्यक प्रतिबद्धता का अभाव था और उसने दलितों के अधिकारों के लिए समुचित संघर्ष नहीं किया। इस आंदोलन का योगदान, आम्बेड़कर के योगदान के तुलना में कुछ भी नहीं है। दादासाहेब गायकवाड़ का दलितों को कृषि भूमि दिलवाने का आंदोलन, आखिरी बड़ा दलित आंदोलन था।
आज आम्बेड़कर के नाम पर संचालित हो रहे अधिकांश संगठनों और राजनैतिक दलों की गतिविधियॉं, संसदीय राजनीति और समाज सुधार के कार्यव्रळमों जैसे शिक्षा का प्रसार आदि तक सीमित हो गईं हैं।
दलित आंदोलन के दो पहलू हैं। पहला है, आर्थिक प्रगति, रोजगार आदि के लिए संघर्ष और दूसरा स्वाभिमान, सामाजिक न्याय, पहचान आदि से जुड़े मुद्दों पर लड़ाई। दलित आंदोलन के बिखराव के पीछे शायद यह कारण था कि उसने केवल दूसरे पहलू पर जोर दिया और दलितों के साथ आर्थिक न्याय और उनकी आर्थिक प्रगति के लिए संघर्ष नहीं किया। सन् 1980 के दशक तक, दलितों ने जो भी थोड़ी-बहुत उपलब्धियॉं हासिल की थी, उनसे उॅंळची जातियॉं व उच्च वर्ग परेशान हो गया और उसने आर.एस.एस. व हिन्दुत्व की राजनीति का समर्थन करना शुरू कर दिया। उॅंळची जातियॉं व उच्च वर्ग की राजनीति, सामाजिक सम्बन्धों में यथास्थिति बनी रहने देना चाहती है। यद्यपि यह राजनीति, 'दूसरे धर्मों' को हिन्दू राष्ट्र के लिए खतरा बताती है परन्तु उसका असली उद्देश्य दलितों का दमन है। आज, दलित आंदोलन के समक्ष कई चुनौतियॉं है, जिसके लिए उसे डॉ. आम्बेड़कर के ''शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो'' के मूल संदेश को पुर्नजीवित करना होगा।
केवल चुनावी जोड़-तोड़ से समाज में बदलाव नहीं आवेगा। हिन्दुत्व की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह और आवश्यक हो गया है कि दलित आंदोलन, समाज के अन्य शोषित व दमित वर्गों को अपने साथ ले। इसके लिए कोई संयुक्त संगठन बनाना आवश्यक नहीं है। जरूरी केवल यह है कि दलित व अन्य वंचित वर्गों के सदस्य, कंधे से कंधा मिलाकर सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष करें। भारतीय प्रजातंत्र को हिन्दुत्व के हमले से बचाने का काम केवल वे ही कर सकते हैं।
दलित आंदोलन का असंख्य टुकड़ों में बंट जाना चिंताजनक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि दलित आंदोलन, व्यक्ति-केन्द्रित की बजाय सिद्धांत-केन्द्रित बनें। सामाजिक मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता, व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति में नहीं बदलनी चाहिए वरना वह श्रेष्ठि वर्ग की राजनीति का हिस्सा बन जावेगी। मूलभूत सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक मुद्दे, दलित आंदोलन के पथ-निर्धारक होने चाहिए। आम्बेड़कर की 'इंडियन लेबर पार्टी' की स्थापना के पीछे के उद्देश्य को नहीं भूलना चाहिए। दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और श्रमिकों का एक महागठबंधन ही इन वर्गों को हिन्दू राष्ट्र के आसन्न खतरे से बचा सकता है और ऐसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था को जिन्दा रखने में मदद कर सकता है जिसमें समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों को पूरा संरक्षण मिले।
कुछ ऐसे मुद्दे, जिन पर भी दलित आंदोलन अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता है, ये हैं:-
1.    आरक्षण नीति का पूरी ईमानदारी से पालन व निजी क्षेत्र में भी आरक्षण दिए जाने की मांग।
2.    श्रमिकों की रोजगार सम्बन्धी समस्याएॅं।
3.    भू-सुधार और उत्पादन के क्षेत्र में आर्थिक न्याय।
4.    साम्प्रदायिक राजनीति के खतरों के प्रति जागरूक होना और विभिन्न सामाजिक समूहों के साथ मिलकर फासीवाद का प्रभाव बढ़ने से रोकना।
5.    विभिन्नि संघर्षों के संचालन के लिए एक व्यापक संयुक्त मंच का निर्माण करना और स्व-रोजगार योजनाओं व मुद्दों पर आधारित आंदोलनों व अभियानों पर जोर देना।

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Jitendra Jeengar

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