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Monday, May 7, 2012

नक्सली बनकर मरना नहीं चाहता और शस्त्र उठाकर जीना

नक्सली बनकर मरना नहीं चाहता और शस्त्र उठाकर जीना



न्यायाधीशों द्वारा पुलिस का पक्ष लेने के कारण ही वे आदिवासी महिलाओं को नक्सलियों के नाम पर पकड़ लाते हैं और तीन-तीन महीने तक बगैर मुकदमा दर्ज किये उनका बलात्कार करते हैं. उसके बाद उन्हें जेल भेजते हैं और उन महिलाओं की कुछ महीने बाद जेल में ही डिलेवरी होती है...

जगदलपुर जेल से लिंगाराम  कोडोपी 

आदरणीय बुद्धिजीवियों,

मैं इस आशा से यह पत्र लिख रहा हूँ कि मेरे साथ व अन्य आदिवासियों के साथ हुए प्रताडनाओं  व अन्याय का आप लोग न्याय करेंगे . मैं देश के तीन स्तंभ से गुजर चुका हूँ - कार्यपालिका, न्यायपालिका, मिडिया. इन तीनों स्तंभो से मुझे व अन्य आदिवासियों को न्याय मिलेगा,  ऐसा उम्मीद नहीं करता. 

पत्रकारिता की शिक्षा लेकर दिल्ली से वापस अपने घर छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा आया और प्रशासनिक अधिकारियो से मिला और नक्सलियों के साथ संबंध न होने की बात बताई. इसपर उन  अधिकारीयों ने दिल्ली न जाने और लिंक तोड़ने की बात कही .lingaram_arrested

मैंने जिले के कलेक्टर ओ.पी.चौधरी, बस्तर संभाग के कमिश्नर के.श्रीनिवासलू और पुलिस अधिकारी अंशुमन सिसोदिया इन सभी आधिकारियों के कहने पर दिल्ली के तमाम बुद्धिजीवियों से लिंक तोड़ दिया . मुझे नहीं पता था कि  दिल्ली से लिंक तोड़वाकर मुझपर एस्सार से पैसा लेकर नक्सलियों को समर्थन देने का आरोप लगाया जायेगा और जेल भेज दिया जायेगा. 

मुझे पूछताछ के नाम पर पालनार साप्ताहिक बाजार से बिना वर्दी के पुलिस द्वारा बुलाकर लाया गया. मुझे तो पता भी नहीं था कि एस्सार नक्सलियों को पैसा भी देता है . दूसरे दिन जब मैंने पेपर में नोट कांड के नाम से समाचार व मेरा नाम और सोनी सोरी का नाम देखा तो मेरे पैरों से जमीन खिसक गई . पेपर पढ़ने के बाद दंतेवाड़ा कोतवाली थाने में मैं अधिकारीयों से रो-रो कर विनती किया कि मेरा इस केस से कोई संबंध नहीं है, तो पुलिसवालों कोरे पन्नों में हस्ताक्षर करवाये . 

मैं अपनी सफाई में पैन कार्ड, वोटर कार्ड, स्टेट बैंक का ए.टी.एम. कार्ड अधिकारियों के सामने पेश किया, लेकिन पुलिस ने कहा कि सभी परिचय दिल्ली के बुद्धिजीवियों द्वारा जाली तौर पर बनवाये गए हैं.  मुझे करेंट शाक देने के लिये एस.पी. के घर लेकर गये थे लेकिन एफिडेविट जो 2009 में बना था इसकी वजह से मैं बच गया और पुलिस द्वारा यह भी कहा गया कि सोनी सोरी तेरी औरत है क्या, जो तुझे हाई कोर्ट से निकाली है ? और तू उसे दिल्ली भी लेकर गया था ? ऐसा कहने के साथ-साथ पुलिसवालों ने ये भी कहा कि एक बार मिलने तो दे सोनी सोरी को, फिर देखना हम उसके साथ क्या करते हैं ? सोनी सोरी मेरी बुआ हैं और मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरी बुआ के साथ इतना कुछ करेंगे .

वैसे भी मुझे पकड़ने के लिये व दिल्ली से पत्रकारिता छोडकर वापस बुलवाने के लिये मेरी बुआ सोनी सोरी को पैसा देकर सौदा करने की कोशिश 2009 -10 से  ही चल रही थी . बुआ ने पुलिसवालों का कहना न माना तो उनके साथ इतना कुछ हो गया. मैंने एस.पी.ओ. बनने से 2009 में इंकार किया तो मेरी जान लेने के लिये यह सरकार पीछे पड़ गयी . सोचा था कि पत्रकारिता की शिक्षा लेकर अपनी संस्कृति और आदिवासी समाज कि सेवा करूँगा, लेकिन मुझे तो नक्सली प्रवक्ता आजाद के मरे जाने के बाद उनकी लेने की बात पुलिस द्वारा मिडिया में बताया गया और बदनाम किया गया . 

आदिवासियों के साथ हो रहे अन्यायों में मिडिया व न्यायपालिका बराबर का साथ दे रही हैं.  मुझे दंतेवाड़ा जेल में चार महीने तक आधा पेट भोजन दिया जाता था और सभी बंदियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है . अगर कोई इसका विरोध कर्ता  तो चक्कर में ले जाकर कपड़े उतारकर मारा जाता है . इस बात की जब मैंने न्यायाधीश को शिकायत की तो न्यायाधीश ने कहा 'हम क्या कर सकते हैं ?' 

दंतेवाड़ा के न्यायालय में हर चीज, हर अपराध हो तो यहाँ के न्यायाधीश द्वारा केवल शासन व पुलिस का ही पक्ष लिया जाता है . न्यायाधीश के पुलिस के पक्ष लेने से ही तो आदिवासी महिलाओं को नक्सलियों के नाम पर पकडकर तीन महीना तक रखा जाता है, वेश्या की तरह, उसके बाद जेल भेज दिया जाता है और उन महिलाओं का कुछ महीने बाद जेल में ही डिलेवरी होता है . ऐसे में हमें न्याय कौन देगा? जेल में हर कोई दहशत में है . इसी दहशत के कारण महिलाएं खुलकर बता नहीं पाती .

'इंदिरा गाँधी के काल में पंजाबियों को आतंकवादी के नाम पर मारा गया था, इसी प्रकार दंतेवाड़ा के आदिवासियों को नक्सलियों के नाम पर मारना चाहिये'- इस प्रकार से मुझे शब्दों के वाणों से मारा गया . कुछ-कुछ चीजों का विरोध किया और न्यायाधीश से बहस किया तो जगदलपुर जेल भेज दिया गया . दूसरे दिन जब जेल के छोटे अधिकारियो के समक्ष पेश किया गया तो अधिकारीयों ने कहा कि 'इस लडके को जेल लेकर क्यों आये, बीच सड़क में गोली मार देना चाहिये था .' जब जेल के अधिकारी इतना घृणा करते हैं तो जेल से बाहर आने पर आम जन कितना घृणा करते होंगे . न्यायाधीश भी तो घृणा की ही नजरो से देखते हैं .

मैं शस्त्र उठाना नहीं चाहता फिर मुझपर दबाव क्यों डाला जा रहा है कि युद्ध से बचाव का प्रयत्न करना चाहिये . जब युद्ध को रोकने के लिये देश के बुद्धिजीवी सामने आकर आदिवासियों को प्रेम करना सिखाने की कोशिश करते हैं तो उनके उपर जन सुरक्षा अधिनियम लगता है . छत्तीसगढ़ सरकार मुझसे व आदिवासियों से घृणा करती  है . मुझे नक्सली बनाकर मारने का प्रण लिया है, मेरा साथ देने से बुआ के साथ इतना कुछ हो गया. आज मेरी बहन अकेली मिलने के लिये जेल आती है. उसके साथ कब क्या होगा मैं नहीं जानता . 

मैंने बुआ को खो दिया है. उनका और मेरा जीवन तो बर्बाद हो गया है. अपनी वजह से मैं और लोगों को बली चढ़ते हुए नहीं देख सकता. शायद ये प्रताड़ना मेरे मरने से खत्म हो जायेगा, मैं अपनी आत्मरक्षा के लिये किसी को मारना नहीं चाहता और शस्त्र लेकर जीने को सरकार विवश कर रही है . पुलिस ने प्रण लिया था बुआ के साथ प्रताड़ना करने के लिये और प्रताड़ित कर साबित कर दिया कि पुलिस क्या कर सकती है. मुझे नक्सली वर्दी पहनाकर मारने का प्रण है तो ये पुलिस जेल से निकलते ही मार सकती है, मैं नक्सली बनकर मरना नहीं चाहता और न ही शस्त्र उठाकर जीना. 

अतः देश के तमाम बुद्धिजीवियों से हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि जेल में ही मुझे मरवा दें. वैसे भी लोग तो घृणा ही आदिवासियों से करते हैं,  तभी तो एक-एक कर आदिवासियों को मारा जा रहा है उनमे मैं भी एक रहूँगा. मैं इस देश का होता तो यहाँ की पुलिस मेरा परिचय पत्रों को क्यों नहीं मानती. मैं तो शायद इस देश का हूँ ही नहीं . तभी तो आदिवासियों की हत्या होती है. अगर किसी से मिला या घर गया तो सभी लोगों के ऊपर जन सुरक्षा अधिनियम लग जायेगा. पुलिस पकड़ेगी और पता नहीं क्या प्रताड़ना करेगी . मेरे से तो इस देश में जीने का तो अधिकार ही छीन लिया गया. मैं आज खुद को कोसता हूँ कि जब छत्तीसगढ़ पुलिस नक्सली प्रवक्ता के नाम से बदनाम की तो उसी समय आत्महत्या कर लेना था . तो ये दिन देखना न पड़ता .

न्याय मिलने की उम्मीद भी तो नहीं है क्योंकि जगदलपुर जेल में 7 साल 8 साल से लोग नक्सलियों के नाम से आकर पड़े हैं कोई सुनवाई  ही नहीं है . किसी-किसी को तो कुछ भी नहीं हुआ है. मेरा हर जगह से विश्वास उठ चुका है एक उम्मीद है तो सिर्फ सुप्रीम कोर्ट . लेकिन सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते  दो से तीन साल लग जाता है. 

जेल में भी किसी ना किसी प्रकार परेशान किया जाता है . जो पैसा दे रहा था वो तो अपने पैसे के बल पर निकल गये. हम गरीब हैं हमारे पास पैसा नहीं है इसलिये सहना लिखा है. जिसके पास पैसा है उसके पास न्याय, विधायिका, कार्यपालिका, मिडिया है . हम आदिवासियों के पास जल, जंगल, जमीन के अलावा और कुछ नहीं है. राष्ट्रीय मीडिया निष्पक्ष रूप से शासन और पीड़ित पक्ष को देखते हुए लिख कर जान बचाती है और छत्तीसगढ़ राज्य की मिडिया शासन का पक्ष लेते हुए लोगों में आदिवासियों के प्रति घृणा पैदा करवाती है. 

छत्तीसगढ़ राज्य जब बना तो उस समय कहा गया था कि आदिवासियों को सुरक्षित किया जा रहा है, लेकिन ये सच नहीं है. सच तो ये है कि जन सुरक्षा अधिनियम बनाकर दूसरे राज्य के बुद्धिजीवी वर्ग को रोका जाये और आदिवासियों को मारा जाये. आदिवासियों को तो न्याय, कार्यपालिका, विधायिका, मिडिया के बारे में पता ही नहीं है . मुझे थोडा बहुत जानकारी है इसलिये मैं जेल में हूँ . 

छत्तीसगढ़ राज्य की पुलिस स्वामी अग्निवेश, हिमांशु कुमार, मेधा पाटेकर, अरुंधती राय और तमाम दिल्ली के बुद्धिजीवियों को देश द्रोही कहती है तो इस देश का वासी कौन है. छत्तीसगढ़ सरकार को मेरा कपड़ा पहनना और अपने आप को बदलना पसंद नहीं है. मेरा बात करना, पत्रकारिता की शिक्षा लेना पसंद नहीं, मेरे साथ जो व्यक्ति रहेगा या साथ देगा वह सरकार की नजर में दंड का भागीदारी होगा . 

मैं आदिवासियों कि संस्कृति को कैमरे में कैद करता उससे पहले जेल आ गया और अन्य आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय को देख रहा हूँ . जहाँ राजनीति आम जन के हित में होना चाहिये वहाँ आम आदमी मर रहा है. आदिवासियों का कोई विधायिका भी तो नहीं है जो संविधान सभा में बात उठा सके और जो हैं  वे तो अपने आप को पैसे के लिये बेच दिये हैं. उससे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती. अगर मेरी इतनी क्षमता होती कि मैं किसी को सम्मान दे सकूं तो सम्मान तौर पर मेरे साथ व मेरी बुआ और अन्य आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय के लिये छत्तीसगढ़ राज्य के सरकार को सम्मान देता . 

मैं किसी कि निंदा नहीं करना चाहता पर अन्याय करके निंदा करने के लिये विवश किया जाता है. विदेशी फिल्म अवतार छत्तीसगढ़ राज्य के दंतेवाड़ा जिला में हो रहे अत्याचारों का फोटो कॉपी है . जैसा फिल्म है बिल्कुल वही दंतेवाड़ा में हो रहा है. इस अन्याय को देखकर लगता है कि देश में मानवता खत्म हो गई और आने वाले कल में मानव समाज का अन्त है. जिन आदिवासियों को आदिकाल से इस देश में जी रहे है बोला जाता है उनका अस्तित्व खतरे में है. 

वैसे भी केन्द्र के लाल कृष्ण आडवानी ने पहले से कह रखा है कि सरकार छत्तीसगढ़ में भाजपा की है जब चाहूँ तब आर्मी भेजकर नक्सली अर्थात आदिवासियों का सफाया कर सकता हूँ. सरकार तो आदिवासियों को ही नक्सली कहती है . जबकि पूरे देश के कुछ राज्यों में नक्सली हैं, लेकिन ये सरकारे तो जहाँ आदिवासी राज्य है उन्ही राज्यों को नक्सल राज्य कहती है. मैं एक स्वतंत्र पत्रकार हूँ लेकिन मेरी स्वतंत्रता जेल में छीन ली गई है . यह पत्र लिखकर शायद आदिवासियों के साथ अन्याय बढ़ जाये. मुझे पत्र लिखने के जुर्म में कुछ भी हो सकता है .

 मैं तो चाहता हूँ कि मुझे जितना जल्दी हो सके गोली मार दे या फांसी दे दे ताकि मरकर मानव जाति बनाने वाले ईश्वर से कि हम आदिवासियों को पृथ्वी में प्रकृति के साथ जीने का अधिकार क्यों नहीं दिया. मैंने एक ग्रन्थ में पढ़ा था कि हर शरीर में ईश्वर बसते है. लेकिन मैं लोगों से न्याय मांगकर थक गया . मेरे जीवन में इस सरकार ने घृणा के कांटे इतने बिछा दिये कि उन कांटो पर चलना शायद मेरे बस में नहीं है. मुझे लगता है कि शमशान से अच्छा घर इस दुनिया में और कोई दूसरा मेरे लिये हो ही नहीं सकता .

सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने एक बार कहा था, मरना आसान है जीना मुश्किल, लेकिन मेरे लिये तो मरना और जीना दोनों ही मुश्किल है . मेरे पास आंसुओ के अलावा कुछ नहीं है. जीने की इच्छा शक्ति भी खत्म होते जा रही है. देश के तमाम बुद्धिजीवियों एवं नागरिकों से मेरी हाथ जोड़कर विनती है कि मुझे जितना जल्दी हो सके मृत्यु दे दे . हमारे साथ हो रहे अन्यायों का जितना निंदा व टिप्पणी करूं कम है, मेरे पास इतने शब्द नहीं कि मैं पूरी बात लिख सकूँ . भय और डर के कारण लिखने में कई गलतियाँ हुई होंगी, आपसे क्षमा चाहता हूँ  . इस पत्र को लोगों के समक्ष बताकर मुझे जल्द से जल्द इस जीवन से मुक्त कर दीजिये . 

ज्यादा समय तक जेल में रहा तो देश के चार स्तम्भों के बारे में सोच-सोच कर पागल हो जाऊंगा . मैंने सत्य और अहिंसा को अपनाकर बहुत कुछ अपना खो दिया है. जेल में भी हार्डकोर नक्सली के नाम से निगरानी में हूँ . इतना कुछ मेरे साथ क्यों? आखिर मेरे सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने से इस देश की अखण्डता और एकता टूट जाती है क्या? या ये मार्ग गलत है? गांधीजी का हर जगह फोटो और वचन लिखा जाता है, पर मानता कोई नहीं, क्यों?

(पत्रकार लिंगाराम कोडोपी केन्द्रीय जेल जगदलपुर में माओवादी होने के आरोप में बंद हैं और उन्होंने यह पत्र जेल से ही लिखा है. लिंगा ने पिछले वर्ष दिल्ली से सटे नोएडा में पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी की थी. अपने गृह जनपद दंतेवाड़ा से स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर आदिवासियों का सच लिखने में लगे लिंगाराम को पुलिस ने यहीं से गिरफ्तार कर लिया था. आदिवासी होने के कारण उनकी हिंदी उतनी बेहतर नहीं है .पत्र में की मूल भावना बनी रहे इसलिये बहुत मामूली सुधार किये  गए हैं.)

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