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Sunday, May 6, 2012

रेवड़ी बांटने का चलन

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/18694-2012-05-06-08-04-24

Sunday, 06 May 2012 13:32

कुलदीप कुमार 
जनसत्ता 6 मई, 2012: सचिन तेंदुलकर के राज्यसभा में जाने को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ टीवी चैनल इसे अकारण ही उनके राजनीति में प्रवेश की संभावना से जोड़ कर देख रहे हैं। क्रिकेट में उनकी पारी समाप्त होने के बाद क्या राजनीति में शुरू होगी, इस प्रश्न पर कई दिन तक लंबे-लंबे कार्यक्रमों में विचार किया गया और अब भी बहस खत्म नहीं हुई है। अखबारों में भी इस पर काफी चर्चा हुई। तथ्य सिर्फ इतना है कि सरकार ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया है। हालांकि सुभाष कश्यप जैसे जानकार ने सवाल उठाया है कि संविधान की धारा 80(3) के अनुसार केवल साहित्य, कला, विज्ञान और समाजसेवा से जुड़े व्यक्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जा सकता है, लेकिन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने स्पष्टीकरण दिया है कि इन क्षेत्रों को व्यापक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। 
खुद कश्यप मानते हैं कि पहले की सरकारों ने भी दारा सिंह जैसे व्यक्तियों को मनोनीत किया था और इस दृष्टि से तेंदुलकर के मनोनयन को चुनौती नहीं दी जा सकती। इस बहस में पत्रकार से केंद्रीय मंत्री बने राजीव शुक्ल, जो क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष भी हैं, और देश के मूर्धन्य विधिवेत्ता और पूर्व महाधिवक्ता सोली सोराबजी भी कूद पड़े और दोनों ने अपने-अपने कारणों से सरकार के निर्णय की सराहना की। सोली सोराबजी ने याद दिलाया कि संविधान में विशिष्ट व्यक्तियों के मनोनयन का प्रावधान इसलिए किया गया है कि वे अपने-अपने क्षेत्र के अनुभव से सदन में होने वाली चर्चा को और अधिक समृद्ध बना सकें। मनोनीत सदस्यों से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वे सदन में हो रही राजनीतिक चर्चा में योगदान करेंगे, बल्कि उनसे तो यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने क्षेत्रविशेष की समस्याओं की ओर सदन और सरकार का ध्यान आकृष्ट करेंगे और अगर कभी उनसे संबंधित कोई कानून बनाया जा रहा हो तो सदन को उनके अनुभव का लाभ मिलेगा। दोनों महानुभावों ने सचिन तेंदुलकर की तारीफ के पुल बांधे और कहा कि वे इस सम्मान के सर्वथा योग्य हैं। 'इंडियन एक्सप्रेस' में राजीव शुक्ल और सोली सोराबजी के लेख अगल-बगल छपे।
इस सब के बीच यह सवाल अनुत्तरित रहा कि क्या ये मनोनयन एक प्रकार का सम्मान हैं? यह सवाल भी पूछा नहीं गया कि जब जनता द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधियों का सदन लोकसभा है ही, तब फिर राज्यसभा को क्यों बनाया गया? उसकी क्या जरूरत है? ऐसी कौन-सी भूमिका है, जो केवल राज्यसभा निभा सकती है, लोकसभा नहीं? फिर, इस भूमिका के भीतर मनोनीत सदस्यों की क्या भूमिका है? क्या अतीत में मनोनीत किए गए सदस्यों ने इस भूमिका को निभाया? ये कुछेक सवाल ऐसे हैं, जिन पर कभी-कभी इशारे में कहा तो गया, पर विस्तार से चर्चा नहीं हुई। इस संदर्भ में यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि हमारे देश और समाज में नैतिक आचरण की सर्वसम्मत परिभाषा यह है कि जो आचरण कानूनसम्मत हो वह नैतिक है। 
कानून या संविधान की भावना का पालन करने के बजाय अक्सर हमारा जोर उसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार चलने पर रहता है। मसलन, लोकतंत्र और संविधान की भावना यह है कि देश का प्रधानमंत्री सीधे जनता द्वारा चुना हुआ प्रतिनिधि यानी लोकसभा का सदस्य हो, लेकिन पिछले आठ सालों से संविधान के इस प्रावधान का इस्तेमाल किया जा रहा है कि मंत्री किसी भी सदन का सदस्य हो सकता है। इसके पहले यह बाध्यता थी कि किसी राज्य से राज्यसभा का चुनाव लड़ रहा प्रत्याशी उसी राज्य का निवासी और पंजीकृत मतदाता होना चाहिए। लोकसभा का चुनाव तो कहीं से भी लड़ा जा सकता था, पर राज्यसभा का चुनाव उसी राज्य से लड़ना होता था, जहां प्रत्याशी अमूमन रहता हो। इस प्रावधान की भावना का सभी ने खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया और इनमें नैतिकता के शिखर पर बैठे लालकृष्ण आडवाणी और मनमोहन सिंह जैसे लोग भी शामिल हैं। मसलन, मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा में पहुंचे हैं। अब तो कानून में बदलाव करके इस बाध्यता को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन पहले कागज का पेट भरने के लिए उस राज्य में, जहां से राज्यसभा का चुनाव लड़ना है, एक मकान किराए पर लिया जाता था और फिर वहां की मतदाता सूची में नाम शामिल कराया जाता था। जब देखा गया कि सभी कागज का पेट भर रहे हैं, तो इस अनिवार्यता को समाप्त किया गया। अब राज्यसभा का चुनाव कहीं से भी लड़ा जा सकता है।

संविधान निर्माताओं ने देश की राजनीतिक प्रणाली को संघीय रूप दिया है। इसलिए कुछ विषय ऐसे हैं, जिन पर केवल केंद्र कानून बना सकता है, कुछ ऐसे हैं जिन पर केवल राज्य और कुछ ऐसे हैं जिन पर दोनों। राज्यसभा में जनता द्वारा सीधे चुने गए विधायक अपने राज्य के प्रतिनिधि चुन कर भेजते हैं, जो संसद में उस राज्य की समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट करें। यह सदन कभी भी भंग नहीं किया जा सकता और इसके एक-तिहाई सदस्यों का कार्यकाल हर दो साल बाद समाप्त हो जाता है। राज्यसभा के कारण संसद को सातत्य मिलता है। अगर उसके दो-तिहाई सदस्य मंजूरी दे दें तो केंद्र ऐसे विषय में भी कानून बना सकता है जो राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यानी राज्यसभा हमारी संघीय व्यवस्था को संभाले रखने वाला स्तंभ है। इसमें साहित्य, कला, विज्ञान और समाजसेवा के क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों को मनोनयन के जरिए लाया जा सकता है, ताकि सदन उनके अनुभव का लाभ उठा सके। 
इस मनोनयन का उद्देश्य इन व्यक्तियों का सम्मान करना नहीं, बल्कि   राज्यसभा की प्रभविष्णुता को बढ़ाना और सदन में होने वाली चर्चा को समृद्ध बनाना है। विशिष्ट व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए पद्म पुरस्कार और अनेक अन्य पुरस्कार हैं। मसलन, साहित्यकारों के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार और फिल्म से जुड़े लोगों के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार। 
क्रिकेटर के रूप में सचिन तेंदुलकर को पूरी दुनिया इस खेल के महानतम खिलाड़ियों में से एक मान चुकी है। राज्यसभा के लिए उनका मनोनयन समाजसेवा के क्षेत्र से किया गया है। क्या किसी ने इस क्षेत्र में उनकी किसी गतिविधि के बारे में सुना है? सोली सोराबजी जैसे मूर्धन्य विधिवेत्ता जब यह तर्क देते हैं कि पहले भी तो इस तरह के मनोनयन हुए हैं, तो यह बात गले नहीं उतरती। सरकार को किसी को मनोनीत करते समय दो बातों का ध्यान रखना चाहिए। एक तो यह कि वह व्यक्ति वास्तव में इसके योग्य हो, और दूसरी यह कि वह राज्यसभा की कार्यवाही में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य रखता हो। मकबूल फिदा हुसेन, रविशंकर, नर्गिस, लता मंगेशकर, हेमा मालिनी आदि को कलाजगत के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यसभा में मनोनीत किया गया। इनकी पात्रता में किसी को भी संदेह नहीं हो सकता। लेकिन इनमें सदन की कार्यवाही को समृद्ध करने की कोई इच्छा नजर नहीं आई। ये सदन की बैठकों से या तो अधिकतर अनुपस्थित रहे, और अगर उपस्थित हुए भी तो खामोश ही बैठे रहे। मृणाल सेन जैसे सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक फिल्म-निर्देशक का आचरण भी इससे भिन्न नहीं था। 
सवाल है कि क्या राज्यसभा के लिए मनोनयन का उद्देश्य विशिष्ट व्यक्तियों का सम्मान करना और उन्हें सांसदों की सुविधाएं देना है या इसका उद्देश्य सदन की कार्यवाही का स्तर ऊंचा उठाना और उसे और अधिक गरिमा प्रदान करना है?
सचिन ने अभी तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास नहीं लिया है। उनका अधिकतर समय देश-विदेश में मैच खेलने में बीतता है। वे चाहें तो भी राज्यसभा की बैठकों में ज्यादा उपस्थित नहीं रह सकते। उन्हें राज्यसभा में लाकर सरकार ने केवल उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाने की कोशिश की है, संविधान की मर्यादा का पालन नहीं किया है। इसी तरह यह भी कहना मुश्किल है कि फिल्म अभिनेत्री रेखा राज्यसभा की बैठकों में कितना मौजूद रहेंगी और कार्यवाही में कितनी रुचि दिखाएंगी। यहां यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि हमारे विविध भाषाओं और साहित्य वाले देश में अनेक साहित्यकार ऐसे हैं, जिन्होंने श्रेष्ठ साहित्य सृजन के अलावा समाज की अंतरात्मा के संरक्षण का काम भी किया है। मसलन, बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार को जब साहित्य के क्षेत्र से किसी को मनोनीत करने का खयाल आता है तो वह मणिशंकर अय्यर को चुनती है! सत्ता, चाहे वह लोकतंत्र में हो या तानाशाही में, अंधी ही होती है। इसलिए अगर रेवड़ियां इस ढंग से बंट रही हैं, तो इसमें आश्चर्य कैसा? हां, अफसोस जरूर किया जा सकता है।

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