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Sunday, May 6, 2012

लक्ष्मणरेखा कौन तय करे

लक्ष्मणरेखा कौन तय करे

Sunday, 06 May 2012 13:29

विनीत कुमार 
जनसत्ता 6 मई, 2012: मीडिया को सामाजिक प्रतिबद्धता का पाठ सिखाने के नाम पर कांग्रेस की सांसद और राहुल गांधी की कोर टीम की सदस्य मीनाक्षी नटराजन द्वारा तैयार विधेयक 'प्रिंट ऐंड इलेक्ट्रॉनिक मीडिया स्टैंडर्ड ऐंड रेगुलेशन बिल 2012' पिछले सप्ताह लोकसभा में पेश नहीं हो सका। क्योंकि जिस दिन इसे पेश किया जाना था, खुद मीनाक्षी नटराजन अनुपस्थित थीं। लेकिन चौदह पन्ने के इस विधेयक को लेकर मुख्यधारा मीडिया में मीडिया की आजादी पर हमला और सरकार की ओर से नियंत्रण किए जाने की साजिश जैसे मुद्दों पर जोरदार बहस एक बार फिर से शुरू हो गई है। यहां तक कि भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू, जिन्होंने पिछले कुछ महीनों से बिल्कुल चुप्पी साध ली थी, इस विधेयक के बाद मीडिया और सेल्फ रेगुलेशन की बहस में एक बार फिर से शामिल हो गए हैं। वैसे न्यायमूर्ति काटजू के संदर्भ में यह कम दिलचस्प नहीं है कि पिछले कुछ महीनों से जब उनतालीस टीवी चैनल, जिनमें से करीब पच्चीस समाचार चैनल हैं, निर्मल बाबा के जरिए देश भर में पाखंड और अंधविश्वास फैलाने का काम करते आ रहे थे, उन्होंने इस संबंध में किसी भी तरह की कार्रवाई की मांग नहीं की। लेकिन सोशल मीडिया ने जैसे ही चैनलों और निर्मल बाबा के खिलाफ माहौल बनाना शुरू किया, 23 अप्रैल को संचार एवं सूचना तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल को उन्होंने सोशल मीडिया को नियंत्रित किए जाने के संबंध में पत्र लिखा। काटजू का मानना है कि सोशल मीडिया भी उतना ही गैरजिम्मेदार होता जा रहा है जितना कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। बहरहाल। 
मीडिया को बेहतर और समाज के हित में काम करने वाला बनाने के नाम पर मीनाक्षी नटराजन द्वारा तैयार किए गए इस विधेयक में जिन शर्तों और प्रावधानों की चर्चा की गई है, वे अब तक के बाकी प्रावधानों से कहीं ज्यादा कठोर और विवाद पैदा करने वाले हैं। लिहाजा, कांग्रेस पार्टी ने इस विधेयक से अपने को अलग करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि सांसद के ये निजी विचार हैं और इसका सरकार और पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है और न ही इसे राहुल गांधी की सहमति से तैयार किया गया है। थोड़ी देर के लिए कांग्रेस पार्टी के इस बयान से सहमत होते हुए, इस बहस में आगे न भी जाएं तो इतना स्पष्ट है कि अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की सचिव मीनाक्षी नटराजन मीडिया को लेकर जिस तरह का नियंत्रण चाहती हैं, उसका मतलब है कि आने वाले समय में बाबा रामदेव और अण्णा आंदोलन को ध्यान में रखते हुए मुख्यधारा मीडिया को आगाह करने का काम शुरू हो गया है। 
गौर करने वाली बात है कि इस विधेयक में मीडिया को 'दुरुस्त' करने के लिए आर्थिक रूप से दंडित करने (पचास लाख रुपए तक जुर्माना), ग्यारह महीने तक लाइसेंस रद्द करने के अलावा एक ऐसी समिति गठित करने की बात कही गई है, जिसमें सरकार के लोग भी शामिल होंगे। इसमें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की भागीदारी होगी और मौजूदा सरकार के तीन मंत्रियों को शामिल किया जाएगा। पिछले साल 7 अक्टूबर को अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन 2005 का संशोधित रूप पारित हुआ, तो भी उसका एक अर्थ सेल्फ रेगुलेशन को अपर्याप्त करार देना था। इतना ही नहीं, न्यायमूर्ति काटजू ने जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस परिषद के दायरे में लाने की बात कही और इसका नाम बदल कर मीडिया परिषद करने का प्रस्ताव दिया तो उसके पीछे बीइए और एनबीए जैसे सेल्फ रेगुलेशन का दावा करने वाले संगठनों को अप्रासंगिक बताया जाना ही था। इस विधेयक के बाद उन्होंने और स्पष्ट रूप से इन संगठनों के गैरजरूरी होने और महज खोखले दावे करने वाला बताया। अब तक के इन सारे प्रावधानों में मीडिया से जुड़े लोगों के शामिल होने की बात कही गई थी। लेकिन मीडिया को लेकर दिए जाने वाले फैसलों और अधिकारों के संदर्भ में इस विधेयक को देखें तो एक तरह से जिसकी सरकार होगी, वही देश के मीडिया को इस समिति के जरिए नियंत्रित करेगा। 

सूचना और प्रसारण मंत्रालय, मीनाक्षी नटराजन, जस्टिस काटजू की बातें तो समझ आती हैं और उनसे सहमति भी बनती है कि बीइए और एनबीए जैसे स्वयंपोषित अड््डे सुधार के नाम पर चैनलों की गड़बड़ियों पर न केवल परदा डालने का काम करते हैं, बल्कि उनके भीतर जो भी उठापटक चल रही है, जिसका संबंध संपादकीय विवेक से न होकर व्यावसायिक करार से ज्यादा है, उसके संदर्भ में उनकी कार्रवाई कोई मायने नहीं रखती। मसलन, किसी भी संगठन में क्रॉस मीडिया ओनरशिप, एक चैनल का दूसरे में विलय, पार्टनरशिप, रातोंरात किसी कॉरपोरेट घराने की गोद में जा गिरने जैसे मामले पर बात करने का न तो अधिकार है और न ही क्षमता। ऐसे में इन संगठनों की मौजूदगी से भला मीडिया क्यों जनहित में काम करने लगेगा? लेकिन इन नाकाम संगठनों के बरक्स सरकारी कोशिशों, संगठनों और यहां तक कि भारतीय प्रेस परिषद की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है। वे जब-तब अपनी सुविधानुसार मीडिया के मुद्दे तो उछालते हैं, लेकिन इससे मीडिया के भीतर किसी तरह का सुधार हो पाता है, इसमें शक है। 
पिछले एक साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो सरकार ने जिस तरह मीडिया से जुड़े प्रावधानों का प्रयोग किया है, उससे मीडिया के भीतर असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है। ऐसा माहौल बनाने में न्यायमूर्ति काटजू के कुछ बयानों की भी भूमिका रही है। मगर पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम पर   उन्होंने जिस तरह चुप्पी साध रखी थी और मीडिया अपने तरीके से लगातार मनमानी करता रहा, तो क्या उनके बयान मीडिया सुधार से कहीं ज्यादा किसी खास रणनीति का हिस्सा हैं!  
यह सवाल इसलिए भी उठता है, क्योंकि जिस तत्परता से सरकार की ओर से अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन 2005 का संशोधित रूप लाया गया, मीडिया मॉनिटरिंग सेल की रिपोर्ट पेश की गई, जस्टिस काटजू ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की गड़बड़ियों को क्रमबद्ध तरीके से पेश किया, साल भर बाद मीडिया पर किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि जिस अण्णा आंदोलन को सरकार ने मीडिया का उतावलापन और टीवी की पैदाइश बताया था, उस संबंध में जब एक दर्शक ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मीडिया मॉनिटरिंग सेल से फुटेज की मांग की तो उसके पास दिखाने-बताने के लिए कुछ भी नहीं था। (जनसत्ता, 18 दिसंबर, 2011) मंत्रालय और मीडिया पर नजर रखने वाला उसका प्रकोष्ठ इस संबंध में कितना गंभीर है, खुल कर सामने आ गया। लाइसेंस किसी और चैनल के लिए, और चला रहा कोई और मीडिया संस्थान। विडंबना यह कि स्वयं मंत्रालय को इन सबकी कोई जानकारी नहीं है। पेड-न्यूज को नियंत्रित करने के लिए मंत्री-समूह का गठन किया गया, लेकिन इसी साल जनवरी में पंजाब विधानसभा चुनाव में पेड-न्यूज के मामले खुल कर सामने आए और कोई कार्रवाई नहीं हुई। 
ऐसे दर्जनों मामले हैं, जिन पर गौर करें तो लगेगा सरकार की सारी कोशिशें अपनी असुरक्षा की स्थिति में मीडिया को हड़काने से ज्यादा की नहीं हैं। इससे सुधार होने के बजाय उलटे मुख्यधारा मीडिया अपने पक्ष में माहौल बनाने और सहानुभूति बटोरने में लग जाता है, यह कहते हुए कि सरकार मीडिया की जुबान बंद करना चाहती है। मीनाक्षी नटराजन के प्रस्तावित विधेयक का आगे क्या होगा, पता नहीं, लेकिन इसके विरोध में कॉरपोरेट मीडिया का सर्कस शुरू हो गया है। ऐसे में सवाल है कि जिस मीडिया का संबंध अब संपादकीय विवेक के बजाय बाजार की रणनीति पर आकर टिक गया है, उस पर ऐसी कार्रवाई करने की बात करके उन्हें जब-तब अपने को सरोकारी साबित करने के वेवजह मौके क्यों दिए जाते हैं?

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