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Monday, May 7, 2012

.संघर्ष के शीर्षक से

http://hashiya.blogspot.in/2012/05/blog-post_1510.html

...संघर्ष के शीर्षक से

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/06/2012 11:46:00 PM

चन्द्रिका ने यह पर्चा एक सेमिनार में पढ़ा है. इसे हाशिया पर पोस्ट किया जा रहा है.

रात के बारह बजे आप किसी महिला को एक पहाड़ी से दूसरी पहड़ी पर बेखौफ जाते हुए देख सकते हैं, दिल्ली में 8 बजे के बाद महिलाएं बसों में चढ़ते हुए डरती हैं.
-अरूंधति रॉय


यह दण्डकारण्य है, माओवादियों की जनताना सरकार. मनमोहन सिंह के लिये देश का सबसे बड़ा खतरा और एक महिला के लिए खतरे की सबसे बेखौफ जगह. मैं रुक्मिणी, रूपा, हेमा अक्का, सरोज, नर्मदा जैसी महिलाओं के विस्थापन से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा. मैं चाहूंगा कि जो नाम मुझसे छूट गये हैं उन्हें जोड़ लिया जाए. जबकि यहाँ मैं अपनी प्रस्तुति दे रहा हूं, शायद वे अपना नाम बदल रही होंगी, शायद उन्हें पकड़ लिया गया हो, शायद वे किसी मुठभेड़ में मारी गयी हों. या बगैर मुठभेड़ के मुठभेड़ में मारी गयी हों. या शायद... कल भी यह शायद शायद ही बना रहेगा, हर बार की तरह. क्योंकि उनके मौत की खबरें अखबारों तक नहीं आयेंगी, कोई टीवी. उनकी तस्वीरें नहीं दिखायेगा.

क्रांतिकारी आदिवासी महिला संघ, (के.ए.एम.एस.) आज देश का सबसे बड़ा और सबसे मजबूत महिला संगठन. जिनके कंधों पर बंदूकें हैं  और जेहन में वर्तमान संरचना का खारिजनामा. उन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में बस वह जमीन चाहिए जहाँ उनकी पीढ़ीयां 600 ईसा पूर्व से रहती आयी हैं. जिसे अब टाटा एस्सार और जिंदल को दिया जा रहा है. 600 इसापूर्व से लेकर 1324 तक दण्डकारण्य में गणतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी. यह आदिवासियों की अपने लिए अपनी संस्कृति के अनुरूप बनाई गयी प्रणाली थी. जिसके बाद यहां राजतंत्र का प्रभाव रहा पर वह प्रभाव ज्यादातर इस रूप में रहा कि दण्डकारण्य के जंगलों से राजाओं को हाथियों की जरूरत होती थी और इन जंगलों से वे इसकी पूर्ति करते थे. आदिवासी समाज में राजशाही गैर-आदिवासी समाजों जैसी कभी नहीं रही बल्कि यह संक्रमण था कि राजशाही जैसी व्यवस्थाएं आदिवासी समाजों में पहुंची. बावजूद इसके राजा की सेना वहां की पूरी जनता होती थी और राजा बाहरी संबंध बनाने का एक माध्यम. यह 1965 तक (राजा भंजदेव) दंडकारण्य के इलाके में होता आया. आदिवासियों के समाज में बाहरी शासकों ने कोई सांस्कृतिक हस्तक्षेप नहीं किया. अंग्रेजी शासन काल में जब भी दण्डकारण्य में दखल का प्रयास किया गया, आदिवासियों ने उसका विरोध किया, जब मैं आदिवासियों कह रहा हूं तो इसमे महिला-पुरुष दोनों जुड़े हुए हैं और 1774–1910 तक 10 विद्रोह हुए. 1910 महान भूमकाल के नाम से जाना जाता है. 

1910 ई. के भूमकाल के पश्चात दण्डकारण्य के आदिवासियों के मन घायल थे और अब ये हिंसा के बजाय अहिंसा के मार्ग से जुड़ने लगे. ऐसी स्थिति में ताना भगत के आंदोलन ने इन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया था. ओरावों के भगत-सम्प्रदाय में सबसे प्रसिद्ध तानाभगत सम्प्रदाय रहा है. यह जबरा भगत के द्वारा 1914 ई. में गुमगा जिले (बिहार) में प्रवर्त्तित किया गया था. इसने शौच, मितव्यवहार, तथा शराबबंदी के मुहाबरे को विकसित किया. कालांतर में कांग्रेस आंदोलन के प्रभाव से तानाभगतों का झुकाव स्वराज्य की ओर हुआ. जिससे  ऐसा लगा कि दण्डकारण्य में गाँधीराज आ गया है और वन भूमि उनकी अपनी पैतृक सम्पत्ति बन गयी. असहयोग आंदोलन के दौरान इन आदिवासियों ने जेल की यंत्रणायें सहीं. ये भारी तादात में कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होने लगे. इन्होंने चरखा तथा तिरंगे का संदेश गाँव-गाँव तक फैलाया. इन्हें लगा कि जैसे ही आज़ादी मिलेगी, उन्हें अपनी जमीन का मालिकाना हक वापस मिल जायेगा. पर ऐसा नहीं हुआ.

वर्तमान में चल रहा माओवादी आंदोलन, व माओवादियों के नेतृत्व में आदिवासियों का यह आंदोलन, जो भारतीय लोकतंत्र की संरचना, जिसे उनके ऊपर थोपा जा रहा है वह आदिवासी इतिहास में किसी भी विद्रोह से ज्यादा लंबा और बृहद फैलाव के साथ मौजूद है. जिसमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी है.

अंग्रेजों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण 1947 के बाद 60 के दशक में राजा भंजदेव के नेतृत्व में फिर से विद्रोह प्रारम्भ हुए. बीच का समय भारतीय राज्य को आदिवासियों द्वारा दी गयी मोहलत के तौर पर देखा जा सकता है. भंजदेव के नेतृत्व में चले इस विद्रोह में. सितम्बर 1963 को दो पुलिस के सिपाही हिड़मा (एक आदिवासी योद्धा जो राजा प्रवीर के नेतृत्व में चल रही मुक्ति की लड़ाई को लड़ रहा था) को गिरफ्तार करने के लिये भेजरीपदर गये. हिड़मा पर आरोप था कि उसने 6 मई से 11 मई के बीच राजमहल में विद्रोह को उकसाया था. भेजरी पदर जाने वाले दोनों पुलिस कर्मियों का गाँव वालों ने सिर काट डाला. भेजरीपदर से संलग्न जंगल में उनके मृत शरीर को फेंक दिया. उन दोनों के सिर कुछ दूर पर पंडरीपानी गाँव के शिलाखण्डों में दबे हुए मिले. दूसरे दिन हिड़मा और उसके साथी राजमहल में थे तथा यह अफवाह फैला रहे थे कि सिर ट्राफी के रूप में जगदलपुर लाये जा रहे हैं. दण्डकारण्य में हुए इस गोली कांड में बड़ी तादात में महिलाएं और बच्चे भी मारे गये थे.

अस्वीकृति के इस लम्बे इतिहास पर पूर्ववर्ती शासन ने कभी ध्यान नहीं दिया और आदिवासी विद्रोह को शांत करने के लिये बार-बार बंदूक का सहारा लिया. दण्डकारण्य को सभ्य बनाने के चक्कर में पारम्परिक मूल्य जिस प्रकार बार-बार विखण्डित हुए, उससे भ्रांत तथा निराश आदिवासियों ने अपनी अस्वीकृति को नक्सलियों के विद्रोही तथा उन्मूलनवादी तरीकों में ढाल लिया और अब इतिहास में पहली बार वे अपनी अस्वीकृति को संवैधानिक तरीकों से हटकर व्यक्त कर रहे हैं. दण्डकारण्य में सी.पी.आई. (एम.एल.) के "पीपुल्स वार ग्रुप' द्वारा नक्सली गतिविधियाँ 1970 में परिलक्षित हुई तथा 1974 से ये गतिविधियाँ धीरे-धीरे राज्य दमन के कारण प्रतिहिंसात्मक होती गयीं.

यह समय की जरूरत थी और आदिवासी महिलाएं माओवादियों के नेतृत्व में बने संगठन के. ए. एम. एस. , व ग्राम रक्षा कमेटी व अन्य सांस्कृतिक और सशस्त्र संगठनों के साथ जुड़ने लगी. 1997 में तेंदूपत्ता को लेकर सुकुमा में हुए आंदोलन में 8000 आदिवासी महिलाओं ने भाग लिया. बाद के दिनों में यह संख्या और बढ़ती गयी और तीन वर्ष पश्चात दक्षिणी दण्डकारण्य में हुई बौठकों में 20,000 महिलाओं ने भाग लिया. एक तरफ ये भारतीय राज्य से लड़ रही थी तो दूसरी तरफ आदिवासी समाज में विद्यमान पित्रसत्ता के लिये आंदोलन के अंदर एक संघर्ष चल रहा था. जिसके मुद्दे थे एक पुरुष की दो पत्नियां न होना, शराब बंदी,  इसके अलावा अन्य कई मुद्दों को उन्होंने शामिल किया जो समय और स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बदलते रहे. समान भागीदारी और समानता के प्रश्न को आदिवासियों में के.ए.एम.एस. ने उठाया. यह वर्ग संघर्ष के अंदर पितृसत्ता की लड़ाई थी. पितृसत्ता एक सांस्कृतिक फेनामिना है इसलिये यह लड़ाई निश्चित तौर पर पुरुषवादी मानसिकता को बदलने के लिये सांस्कृतिक आधार पर ही लड़ी जा सकती है जो मनोदशा को परिवर्तित करने में सक्षम हो पाती है. लिहाजा दण्डकारण्य में सांस्कतिक संगठनों द्वारा इसे लड़ा गया और लड़ा जा रहा है. यदि इसके बरक्स आप भारतीय राज्य को देखें तो उसके द्वारा सांस्कृतिक तौर पर कोई सक्रिय प्रयास अब तक पित्रसत्ता, जाति धर्म जैसी संकीर्ण मानसिकताओं के लिये नहीं किया गया.

1999 तक दण्डकारण्य में माओवादी संगठनों में महिलाओं का प्रतिशत 45 था. यह सलवा-जुडुम के कुछ साल पहले की बात है. सलवा-जुडुम से आप सब लोग परिचित होंगे अगर परिचित नहीं हैं तो परिचित होना चाहिये था. सलवा-जुडुम को लेकर आयी तमाम रिपोर्टों और फैक्ट-फाइंडिंग्स के अलग अलग आंकड़े हैं. तकरीबन 600 गाँवों का विस्थापन या बेघर होना. इन बेघर लोगों में पुरुषों के साथ एक विकल्प था कि वे किसी शहर जा कर रोजगार कर सकते थे और उनमे से कुछ ने यह किया भी आप रायपुर के नजदीक सिलतरा में उन्हें पा सकते हैं. पर महिलाओं के साथ स्थितियां भिन्न थी उनके पास विकल्प बचा था माओवादियों के साथ जुड़ना और अपने गाँवों को वापस पाने के लिये लड़ना. हिमांशु कुमार दांतेवाड़ा की यदि माने तो सलवा-जुडुम ने बड़े पैमाने पर महिलाओं को सश्स्त्र होने को मजबूर किया. आज इसका कोई ठीक आंकड़ा मौजूद नहीं है कि कितनी महिलाएं माओवादी सशस्त्र हैं पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य दमन की प्रक्रियाओं ने उनके सशस्त्र होने के प्रतिशत में बृद्धि कर दी है.

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