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Wednesday, May 9, 2012

जनसंघर्षों के बिहान के हरकारा थे अपने धीरेन्द्र

जनसंघर्षों के बिहान के हरकारा थे अपने धीरेन्द्र



धीरेंद्र मानते थे कि उल्टे हालात की चीरफाड़, उसके कारकों की पहचान और संघर्ष के रास्तों की खोज केवल बौद्धिकों का काम नहीं. यह काम उनके साथ और उनकी अगुवाई में किया जाना चाहिये जो उल्टे हालात के सीधे निशाने पर हैं...

आदियोग 

गुज़रे अप्रैल की 24 तारीख़ बदशकुन निकली. उस दिन की भोर देखने से पहले धीरेंद्र प्रताप सिंह दुनिया छोड़ गये कि देखो अभी रात कितनी लंबी और अंधेरी है. वह सुबह की इंद्रधनुषी छटाओं का सपना देखते-दिखाते हमेशा के लिए सो गये कि मैंने तो अपना सफ़र तमाम किया, अब अगला सफ़र तुम्हारे हवाले. वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन गीत की तरह गुनगुना रहे हैं कि जंग अभी जारी है दोस्त लेकिन बहुत ढीली और अधूरी है, मिलजुल कर थोड़ा और ज़ोर लगाइये न.


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कौन थे और कैसे थे धीरेंद्र जी? वह जितने मामूली से दिखने-जतानेवाले आदमी थे, उतने ही ग़ैर मामूली थे. गोया बेहतर इनसान गढ़ने का कारख़ाना चलाते थे और यह काम उसी के बस का हो सकता है जो ख़ुद अच्छा और सच्चा इनसान हो और जिसे किसी भी मोड़ या मोर्चे पर शीशे की तरह आर-पार देखा जा सकता हो. वे छात्र राजनीति से निकले, मज़दूर-किसानों के बीच गये, एनजीओ की बदनाम हो चुकी बस्ती में उन अल्पसंख्यक मतलब कि प्रतिबद्ध और ईमानदार संगठनों को खोजने पहुंचे जैसे भीड़ में सुई जो लोगों के भले के लिए सचमुच कुछ करना चाहते हैं लेकिन जिनके सामने राह बहुत धुंधली है.

इसी कड़ी में वह पीस (नयी दिल्ली) से जुड़े और उसके ज़रिये उन्होंने कई राज्यों के चुनिंदा सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजनीति का ककहरा सिखाने, उन्हें विकास का मतलब समझाने और उन्हें वंचितों के पक्ष में खड़ा करने का बड़ा काम किया. वह जन शिक्षण के बड़े उस्ताद थे, बहुत बारीक़ी और सहजता से उलझी गुत्थियों की परत-दर-परत बखिया उधेड़ने में माहिर थे, बेबाक थे और मुश्किल सवालों के हाज़िर जवाब थे. इधर कोई पांच सालों से देश भर में चल रहे जन आंदोलनों की विभिन्न धाराओं को एक डोर में बांधने का बहुत ज़रूरी और बेमिसाल करतब दिखाते हुए, यह बताते हुए कि मक़सद और नज़रिया अगर साफ़ है और सधी रणनीति है तो कोई काम नामुमकिन नहीं- कुल 53 साल की उम्र में वह हमसे विदा हो गये.

अभी 16 अपैल को हम मिले थे. उस दिन लखनऊ में बिहान की बैठक थी. बैठक की तारीख़ धीरेंद्र जी की सहूलियत के मुताबिक़ तय हुई थी. ऐसा बहुत कम होता था कि धीरेंद्र जी लखनऊ आयें और हमारे घर न आयें. जैसा कि पहले से तय था, सुबह वह घर पहुंचें, बीमार चल रही अलका जी (मेरी संस्कृतिकर्मी पत्नी अलका प्रभाकर और नारी मुक्ति संगठन की संयोजिका) का हालचाल लिया, बाइस साल की हो रही चैती बिटिया से हंसी-मज़ाक़ किया, एकाध राउंड चाय पी, कई सिगरेट फूंकी और बैठक के लिए निकल पड़े. मोटरसाइकिल पर उनका ड्राइवर मैं था.

धीरेंद्र जी बहुत कुछ साधना जानते थे- जीवन, रिश्ते, विचार, क़लम, चिट्ठी-पत्तर, सपने, संघर्ष... मोटरसाइकिल तक को. मोटरसाइकिल के गेट से बाहर आते ही वह उसका हैंडिल ख़ुद थाम लिया करते थे. मज़े से किक मारते और पूछते कि चलें. मेरी हां हुई नहीं कि पीठ झुका कर एसीलिरेटर लेते, गेयर बदलने का पता ही नहीं चलता, खुली सड़क मिलती तो फ़र्राटा भरते. 

उनके हाथ में मोटरसाइकिल चलती नहीं, पानी की तरह बहती थी. तब अक़्सर उनकी यह खीजभरी झिड़क सुनने को मिलती- मोटरसाइकिल का भी ध्यान रखा कीजिए, पहियों में हवा कम है, ब्रेक बहुत ढीली है, फिश प्लेट कुछ गड़बड़ है.... उस दिन भी उन्हें लंबी दूरी पर जाना जाता था लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल को अपने क़ब्ज़े में नहीं लिया. यह किसी अनहोनी की आहट थी लेकिन मैं इसका अंदाज़ा नहीं लगा सका.  

शाम को वह बनारस के बरहा नवादा में मुसहरों के बीच सक्रिय लालबहादुर के साथ घर पहुंचे. कोई डेढ़ घंटे साथ रहे. गेट पर पहुंच कर उन्होंने अपनी जेब टटोली. सिगरेट की पैक्ड डिब्बी और माचिस बाहर निकली. उन्होंने सिगरेट सुलगायी, लंबा कश लिया और धुंआ उगलते हुए बोले- मेरी डिब्बी पर क़ब्ज़ा जमा लिया ताऊ... . मैंने तपाक से नहले पे देहला मारा- आप ही धौंक गये होंगे या कहीं भूल आये होंगे और इल्ज़ाम मुझ पर? वह हंसे और हाथ हिला कर चल पड़े. थोड़ी देर बाद देखा कि आधी ख़ाली डिब्बी वह उठाना भूल गये हैं. यह हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी. काश कि यह भूल वह अभी सालों साल आगे भी करते रहते और प्रसाद की तरह उनकी आधी भरी डिब्बी मेरे हिस्से में आती रहती! लेकिन नियति को यह मंज़ूर नहीं था.

चैती से उनकी ख़ूब छनती थी. उसके साथ टीवी देखते, क्रिकेट पर बातें करते, लूडो खेलते और उसमें बेइमानी भी करते. चैती हंसते हुए कहती- बहुत चीटिंग करते हैं अंकल आप भी.... जब-तब चिरौरी करते- अब चाय भी हो जाये अम्माजी. चैती ने कोई छह साल से घर के अंदर सिगरेट पीने पर पाबंदी लगा रही है. इस पाबंदी से केवल धीरेंद्र जी को छूट मिली. लेकिन चैती ने जब से सुना कि धीरेंद्र जी को डाक्टर ने सिगरेट पीने से मना कर दिया है, वह उन पर निगाह रखती और हुकुम चलाती- कोई सिगरेट नहीं, सीधे खाना खाइये... मैं कुछ नहीं सुनना चाहती. और अच्छे बच्चे की तरह धीरेंद्र जी उसका कहा मान भी लिया करते.

घर में हम चार प्राणी हैं. चौथे रेंचो साहब हैं. गेट पर किसी का आहट हुई कि भौंकने लगते हैं. लेकिन जिससे बहुत हिले हुए हैं, उसके आने पर रोते हुए भोंकते हैं कि जल्दी से दरवाज़ा खोलो. यह उनके प्रेम और आतुरता का चरम होता है. ऐसे लोग बहुत कम हैं. धीरेंद्र जी भी उन्हीं बिरले लोगों में से थे. विज्ञान बताता है कि कुत्ते आदमी से दो सौ गुना संवेदनशील होते हैं. तो हर बार रेंचो इसी तरह जैसे मोहर लगाते थे कि धीरेंद्र जी तो परखे हुए इनसान हैं, जैसे पूछ रहे हों कि इतने दिनों बाद क्यों आये जी. धीरेंद्र जी कहते- बहुत हो गयी गुंडई....           

डा. सारिका और संजय माथुर पति-पत्नी हैं. माथुर साहब डाकूमेंट्री फ़िल्में बनाते हैं जबकि डा. सारिका शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं, लखनऊ के एक डिग्री कालेज की प्राचार्य रही हैं और इलाहाबादी हैं. कोई दो साल पहले की बात है. माथुर साहब के घर किसी संदर्भ में धीरेंद्र जी का ज़िक़्र छिड़ा. नाम सुनते ही डा. सारिका ने पूछा- क्या आप इलाहाबाद के धीरेंद्र जी के बारे में बात कर रहें हैं. मेरे हां कहते ही चहकने लगीं- कमाल के आदमी हैं, आजकल कहां हैं, क्या कर रहे हैं, आप उन्हें कैसे जानते हैं... कभी लखनऊ आयें तो बतायें, मैं मिलना चाहूंगी. तब हम नये-नये विश्वविद्यालय पहुंचे थे. 


dhirendra-banaras3भाईसाहब हमसे बहुत सीनियर थे. बहुत नाम था उनका. सब इज़्ज़त करते थे. छात्र संघ चुनाव का समय था. हम कुछ दोस्त उनसे मिले और हमने प्रचार में हाथ बंटाने की इच्छा ज़ाहिर की. भाईसाहब का सीधा सा जवाब था- अगर आप पढ़ाई से जी नहीं चुराते तो आपका स्वागत है. इस जवाब ने हमें उनका प्रशंसक बना दिया. हमने उनसे बहुत कुछ सीखा- सादगी से रहना, समाज के बारे में सोचना और सबको अपना बना कर रखना. पता नहीं, अब उन्हें मेरी याद हो या ना हो लेकिन भाईसाहब जब लखनऊ आयें तो कहियेगा कि उनकी प्रशंसिका ने उन्हें घर आने का न्यौता भेजा है.

इसके कुछ ही दिनों बाद तीन दिन की किसी कार्यशाला के सिलसिले में धीरेंद्र जी का लखनऊ आना हुआ. मैंने उन्हें डा. सारिका का संदेशा दिया. छूटते ही बोले तो आज ही शाम को चलते हैं. उस दिन धीरेंद्र जी को सामने देख डा. सारिका इतना निहाल थीं गोया कोई बहुत बड़ी उपलब्धि उनके हाथ लग गयी हो. इतने बड़े आदमी थे अपने धीरेंद्र जी.  

देहरादून में हुई पीस की सिलसिलेवार मूल्यांकन कार्यशाला के बाद गुज़री तीन अप्रैल से जन संघर्ष समन्वय समिति की दो दिन की बैठक भी थी. बैठक के दौरान किसी संदर्भ में छिड़ी बहस के बीच धीरेंद्र जी ने साथियों से पूछा था कि जिस तरह हम चिदंबरम और मनमोहन सिंह की आलोचना करते हैं, क्या उसी तरह मेधा पाटेकर और कविता श्रीवास्तव जैसे लोगों की भी आलोचना कर सकते हैं, इन दो तरह के लोगों के बारे में क्या एक जैसी शब्दावली इस्तेमाल की जानी चाहिए... या कि आलोचना करते समय हमें दुश्मन और दोस्त का पूरा ख़याल रखना चाहिए. आपसी मतभेद का यह मतलब नहीं कि हम बिरादराना रिश्ता भूल जायें.

उनकी चिंता थी कि सत्ता दिनोंदिन निरंकुश और निर्मम होती जा रही है, बहुसंख्य आबादी के सामने जीने का संकट गहराता जा रहा है लेकिन आंदोलनकारियों के बीच आपसी घमासान भी कम नहीं है. वह अपने अहम, इलाक़ेदारी, झंडे, बैनर से बाहर नहीं आ पाते. साझा संघर्षों से दूर भागते हैं या उसमें अपना वर्चस्व स्थापित किये जाने की कोशिशों में रहते हैं. अपने ही संगठन या आंदोलन में आंतरिक लोकतंत्र को तरज़ीह नहीं देते, नेतृत्व की दूसरी क़तार को पनपने का मौक़ा नहीं देते. 

जब भी और जहां भी मौक़ा मिलता, धीरेंद्र जी याद दिलाना नहीं भूलते कि मौजूदा दौर साझा संघर्षों की मांग करता है, कि दमनकारी और अमानवीय हालात को चुनौती दिये जाने का यही इकलौता रास्ता है. न्यूनतम सहमति के बिंदु तय कीजिये और उसमें अधिकतम योगदान दिये जीने को तैयार रहिये. सामूहिक निर्णय हों और सामूहिक ज़िम्मेदारी हो लेकिन जवाबदेही व्यक्तिगत हो. विचारधारा पर बहसें करते रहिये लेकिन साझा दुश्मन के ख़िलाफ़ साथ रहिये. व्यक्ति, समाज और संगठन के लिए संघर्ष सबसे बड़ी पाठशाला होती है.     

बिहान उत्तर प्रदेश के आठ जिलों में सक्रिय सामाजिक संस्थाओं, जन संगठनों और व्यक्तियों का साझा मंच है और जिसके फ़ोकस में सबसे पहले अति वंचित समुदाय हैं. इसका गठन धीरेंद्र जी की अथक कोशिशों का नतीज़ा था. वह मानते थे कि उल्टे हालात की चीरफाड़, उसके कारकों की पहचान और संघर्ष के रास्तों की खोज केवल बौद्धिकों का काम नहीं है; कि यह काम उनके साथ और उनकी अगुवाई में किया जाना चाहिये जो उल्टे हालात के सीधे निशाने पर हैं; कि लोग अनपढ़ या कम जानकार हो सकते हैं लेकिन बेदिमाग़ नहीं. बिहान के गठन की ज़मीन इसी समझ से गुज़र कर तैयार हुई थी. 

इसका हवाला 2007 के आख़ीर में तैयार हुए बिहान के पहले पुस्तिकाकार दस्तावेज़ के पहले पन्ने में दर्ज़ है. धीरेंद्र जी नहीं चाहते थे कि इसमें उनके नाम का ज़िक़ हो लेकिन उसके लेखक के बतौर मेरी दलील थी कि यह कोई महिमा मंडन नहीं, सच का बयान भर है और जिसे दूसरों को भी जानना चाहिये; कि यह तो उन सभी साथियों के लिए प्रेरक प्रसंग है जो हाशिये से बाहर खड़े लोगों को ताक़तवर बनाना चाहते हैं ताकि मुसीबत के मारे अपने भले का रास्ता ख़ुद तय कर सकें. मेरे दूसरे साथी इस दलील में मेरे साथ थे तो धीरेंद्र जी की दादागिरी कैसे चलती. आख़िरकार सामूहिक निर्णय का सम्मान करना उन्होंने ही सिखाया था. बहरहाल, शुरूआत शीर्षक उस एक पन्ने के मजबून पर ग़ौर करें जिसके किनारे की चौड़ी पट्टी एक पेंटिंग है और जिसमें बादलों के बीच उड़ती हुई रंग-बिंरंगी पतंग है.  

'दुनिया के स्तर पर हो रहे तेज़ बदलावों के बरअक़्स जीने के अधिकार पर लगातार बढ़ते संकट की चिंता तीन जनों को क़रीब ले आयी और उनके बीच बातचीत का लंबा सिलसिला शुरू हो गया. यह माज़रा उभरा कि सरकारी नीतियां, कार्यक्रम और प्रक्रियाएं दरिद्रीकरण का दुश्चक्र रच रही हैं. कि ग़ैर सरकारी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा सरकारी धुन पर क़दमताल कर रहा है, ग़रीब-गुरबों को भरमा रहा है. कि संस्था, नेटवर्क और गठबंधन के नाम पर फ़ंडातुर कांव-कांव का शोर है, देशी-विदेशी अनुदानदाताओं की कठपुतली बन जाने की प्रतिस्पर्धा है. कि लगता है जैसे विकास का शब्द अपने विराट अर्थ से बाहर आ गया है, इकहरा और संकुचित हो गया है.

ऐसे में उन सामाजिक संस्थाओं, जन संगठनों और व्यक्तियों को एक मंच पर लाने और उन्हें साझा पहल में उतारे की कोशिश होनी चाहिए जो विकास की तथाकथित मुख्यधारा से सहमत नहीं हैं- खगोलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के विरोधी हैं, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के हिमायती हैं, साझी विरासत और साझी शहादत की परंपरा पर गर्व करते हैं.

इसी समझ ने बिहान के गठन की राह खोली. यह ज़िक़ भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि तीनों किसी संस्था या संगठन के अगुवा नहीं हैं- नब्बन खां और शाहजहां बेगम अनपढ़ मज़दूर हैं जबकि धीरेंद्र प्रताप सिंह सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता.' (आज बस शाहजहां आपा हमारे बीच हैं)

कोई तीन साल तक धीरेंद्र जी का ज़्यादातर समय कौशांबी के करारी इलाक़े में गुज़रा था. दोनों से उनका परिचय उसी दौरान हुआ और जो देखते-देखते दोस्ती में बदल गया. वह दोनों के परिवारों से बहुत घुले-मिले थे और आख़िरी समय तक उनके सुख-दुख के साथी रहे. बिहान के गठन को लेकर आयोजित पहली बैठक में धीरेंद्र जी ने उन दोनों से हमारा परिचय बहुत प्रेम और सम्मान के साथ कराया था.

 

शाहजहां अपनी घरेलू परेशानियों और बीमारी के कारण बाहर बहुत कम निकल पाती थीं लेकिन बिहान की हर बैठक और कार्यक्रम में नब्बन भाई हमेशा हाज़िर रहते थे हालांकि वह भी अक़्सर बीमार रहते थे. ढलती उम्र में मुफ़लिसी सबसे बड़ी बीमारी होती है. धीरेंद्र जी इसे ख़ूब समझते थे और किसी न किसी बहाने जब-तब चुपके से उनकी मदद किया करते थे. किसी दिन उन्होंने मुझसे कहा था- नब्बन भाई को अपने कैमरे में क़ैद कीजिए, मुझे उनकी कुछ बढ़िया तसवीरें चाहिए.   

2007 बिहान के लिए उथल-पुथल भरा रहा. बिहान से कुछ साथी निकाले भी गये. इसमें इलाहाबाद निवासी एक दंपति (यहां उनका नाम देना उनके प्रति धीरेंद्र जी के अथाह प्रेम का अपमान करना होगा) भी थे और उनके विश्वविद्यालय के दिनों के सहपाठी राधाकांत त्रिपाठी भी. दंपति को वह अपने बच्चों की तरह मानते थे और उनके आर्थिक संकटों में हाथ खोल कर उपस्थित रहते थे. 

ख़ास कर इन तीनों को बिहान से अलग किये जाने का फ़ैसला धीरेंद्र जी के लिए बहुत कष्टकारी था लेकिन उनका कहना था कि बड़े मक़सद में व्यक्तिगत संबंधों को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए. हालांकि कार्यकारिणी के इस फ़ैसले में धीरेंद्र जी ख़ुद शामिल नहीं थे लेकिन भरी बैठक में उन्हें अपनी ग़ैर मौजूदगी में दंपति की गालियां मिलीं. तो भी बैठक के बाद वह सीधे दंपति के घर पहुंचे और अपमानित किये गये. लेकिन चूंकि उनका दंपति के दो छोटे बच्चों से बहुत लगाव था, किसी न किसी बहाने उनका दंपति के घर पहुंचना और अपमानित होना कोई एक साल तक जारी रहा. लेकिन संबंधों का पुल दोबारा नहीं जुड़ सका.

फ़तेहपुर के निवासी राधाकांत भाई शायद धीरेंद्र जी को ख़ूब समझते थे. सो, दोनों का याराना बरक़रार रहा. पिछले कुछ महीनों से वह राधाकांत को दोबारा बिहान में लाये जाने की पैरवी कर रहे थे- ठीक है कि कुछ गड़बड़ियां कीं लेकिन वह हमारे कोई दुश्मन भी नहीं. हमें भरोसा रखना चाहिए कि समय के साथ अगर हर चीज़ बदलती है तो आदमी भी बदलता है. धीरेंद्र जी की मौत के बाद राधाकांत भाई का फ़ोन आया- सब कुछ ख़ाली हो गया, बहुत बड़ा नुक़सान हुआ... और रोने लगे. 

धीरेंद्र जी के जीवन में वह इलाहाबादी युगल अपवाद स्वरूप हैं जो बेहद क़रीब आकर उनसे बहुत दूर हो गये. वरना तो जो धीरेंद्र जी से टकराता, उनका हो जाया करता था. बिहान के समन्वयक रविंदर भाई ने संगम में धीरेंद्र जी की अस्थियों को प्रवाहित किये जाने के बाद कहा था- मैं दोबारा अनाथ हो गया कामरेड, पिता की मौत के बाद वही मेरे पिता थे, वही मेरे शिक्षक भी थे और दोस्त भी. उनके मुरीदों की यह सूची बहुत लंबी है... कितनों का ज़िक्र करूं.   

लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए मैंने तारीफ़ों के साथ धीरेंद्र जी का नाम सुना था. उन पत्रकार साथियों से भी उनके बड़प्पन, जुझारूपन और पढ़ाकूपन के क़िस्से सुने जो इलाहाबाद विश्विद्यालय के छात्र रहे हैं. रूबरू मुलाक़ात कब हुई, याद नहीं पड़ता. लेकिन पहली मुलाक़ात करारी में सामाजिक कार्य से जुड़े परवेज़ रिज़वी ने करायी थी.

 

मुझसे यह कहते हुए कि आइये, एक हीरा आदमी से आपकी मुलाक़ात कराऊं. लगा ही नहीं कि उस दढ़ियल आदमी से पहली बार मिल रहा हूं. उस दिन से हम सिगरेटिया साथी भी हो गये. लेकिन मैं धुंआ उगलने में उन्हें पछाड़ नहीं सका. कोई चार साल पहले उनकी तबीयत कुछ ज़्यादा बिगड़ी थी और तब डाक्टरों ने उन्हें सिगरेट से दूर रहने की सलाह दी थी. धूम्रपान थोड़ा रूका, कुछेक महीने बंद भी रहा लेकिन पुरानी आदत ने पीछा नहीं छोड़ा.

धीरेंद्र जी ने कोई तीन साल तक अपना आधा समय करारी इलाक़े में गुज़ारा और परवेज़ भाई की संस्था में सामाजिक कार्यकर्ताओं को दृष्टि और दिशा से जोड़ने का काम किया. दोस्ती निभाने के नाम पर एनजीओ की दुनिया में यह उनका पहला क़दम था. इसके बाद वह वायस आफ़ पीपुल (वीओपी) के महासचिव चुने गये. उनके पहले तक वीओपी मूलत: क्राई से जुड़े एनजीओज़ का मंच हुआ करता था.

 

उत्साह से भरे धीरेंद्र जी ने मंच को वैज्ञानिक विचार, ठोस मक़सद और कारगर रणनीति से लैस करने की कोशिश की लेकिन निजी और टुच्ची महत्वाकांक्षाओं ने उनका रास्ता भी रोकना शुरू कर दिया. नतीज़ा यह निकला कि अभी साल भर भी नहीं गुज़रे कि धीरेंद्र जी इस्तीफ़ा देकर अलग हो गये. इस्तीफ़े की शक़्ल में उनकी लंबी चिठ्ठी मुकम्मल दस्तावेज़ थी कि सामाजिक कार्य नाम की दूकानदारी जनपक्षधरता को किस तरह ठोकर मारती है और अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को पनाह देती है. उनके पीछे मैंने भी पांच पेजी इस्तीफ़ा सौंपा और वीओपी से किनारा कर किनारा कर लिया. जहां धीरेंद्र जी न रह सकें, वहां आदियोग कैसे बना रह सकता था.

बहरहाल, धीरेंद्र जी के वीओपी छोड़ते ही परवेज़ भाई ने उनसे दूरी बरत ली और विरोधियों की जमात में जा बैठे. यह फ़ंडिंग के समीकरणों की मजबूरी थी कि हीरा देखत-देखते कोयले में बदल गया, कि उसकी गली से गुज़रोगे तो कालिख लेकर लौटोगे. लेकिन धीरेंद्र जी करारी और इलाहाबाद के अपने संपर्कों से परवेज़ भाई का हालचाल लेते रहते. अक़्सर मुझसे भी पूछते- करारी के नवाब साहब कैसे हैं, थोड़ा बिगड़ैल है लेकिन नेक आदमी है, फ़ोन तो लगाइये ज़रा. और तब स्पीकर आन होता. धीरेंद्र जी हम दोनों की बातें ग़ौर से सुनते और मुस्कराते रहते. कभी पूछे जाने वाले सवाल भी लिख कर मुझे देते. ऐसा कई बार हुआ जब परवेज़ भाई ने अचानक कहा- क्या सामने धिरेंदरवा बैठा है. ज़ाहिर है कि मेरा जवाब हमेशा साफ़ झूठ होता.

धीरेंद्र जी रिश्ता बनाने और उकी मिठास बनाये रखने के धुनी थे. कोई चार साल पहले परवेज़ भाई पर बड़ी आफ़त आयी जब करारी में आगजनी की घटना हुई. हुआ यह था कि पहले एक स्थानीय गुंडे ने उनके कार्यकर्ता की दिन-दहाड़े हत्या कर दी. इससे भड़क कर बस्तीवालों ने उस गुंडे के घर को घेर लिया और उसमें आग लगा दी. समय रहते आग बुझा ली गयी और बड़ा हादसा होते-होते बचा लेकिन आगजनी के लिए उकसानेवालों में परवेज़ भाई का नाम आ गया. इंटरनेटी आंदोलनकारी उनके पक्ष में अपील जारी कर चुप बैठ गये. सामने आये धीरेंद्र जी. उन्होंने अपने वक़ील दोस्तों को खटखटाया, ख़ूब दौड़धूप की. 

उन दिनों परवेज़ भाई गिरफ़्तारी से बचने के लिए भूमिगत थे और धीरेंद्र जी फ़ौरी राहत के तौर पर दस हज़ार रूपयों की गड्डी के साथ थे. यह देने और न लेने की ज़िद का भावुक सीन था. आख़िरकार परवेज़ भाई ने धीरेंद्र जी की पैंट की जेब में गड्डी ठूंसते हुए कहा- अमां काहे बवाल करते हो. उस दिन झूंसी स्थित पंत इंस्टीट्यूट के आहाते में परवेज़ भाई की आंखें नम थीं. मुझसे बोले- खरा सोना है अपना धिरेंदरवा. अब जाकर परवेज़ भाई ने अपने कहे को दुरूस्त किया था- आख़िर आग में हीरा भस्म हो जाता है लेकिन सोना तो और चमक जाता है. बहरहाल, उसके बाद दोनों के रिश्ते पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत हो गये.dhirendra-banaras meet1   

शुरूआती दौर में बिहान की बैठकों के लिए कोई निश्चित जगह नहीं थी. पहला कार्यालय स्टेशन के पास नुरूल्ला रोड पर खुला था. ख़ासी बड़ी वह जगह बहुत कम किराये में मिली. इसलिए कि यह धीरेंद्र जी के चाहनेवाले राशिद अल्वी का मकान था. सहूलियत यह भी कि गर्मीं के दिनों में घंटी बजाओ और दूसरी मंज़िल पर रह रहे राशिद साहब के घर से पानी की ठंडी बोतलें हाज़िर. बस मोहर्रम को छोड़ कर हल्ला-गुल्ला मचाने पर कोई पाबंदी नहीं. पूरा घर ही धीरेंद्र जी का मुरीद जो था. यह धीरेंद्र जी के गज़ब के व्यक्तित्व का नमूना था कि सर्दियों में साथियों के ओढ़ने-बिछाने का भी बढ़िया बंदोबस्त हो गया. पास में ही कोई टेंटवाला है और वह भी धीरेंद्र जी का चाहनेवाला निकला. उसने तीस-चालीस रजाई-गद्दे-तक़िया-चादर कार्यालय के एक कमरे में जमा कर दिये- अरे, यहीं पड़े रहेंगे, समझिये गोदाम में हैं, आराम से इस्तेमाल कीजिये, माल की कमी पड़ेगी तो उठवा लिया करूंगा कामरेड. ख़ैर, कोई साल भर बाद बिहान कार्यालय झूंसी पहुंच गया.         

धीरेंद्र जी ने बिहान को तिनका-तिनका जोड़ कर खड़ा किया था. बैठकों और कार्यक्रमों की व्यवस्था के लिए अपने संबंधों को और अपनी जमा पूंजी को भी ख़ूब निचोड़ा था. लेकिन कभी उसकी लगाम थामने की कोशिश नहीं की. वह मंच पर लगभग नहीं रहे, परदे के पीछे का सबसे ज़रूरी कामकाज संभालते रहे- साथियों की राय जानना, उनकी समस्याओं को समझना, उनकी दुख-तक़लीफ़ों से जुड़ना, उससे निपटने की तजवीज़ सुझाना, उनका हौसला बढ़ाना, उनकी ख़ासियतों की सार्वजनिक तारीफ़ करना, किसी कोने में ले जाकर उनकी कमज़ोरियों पर हाथ रखना... सबको अपनी भूमिकाओं को याद दिलाते रहना. 

धीरेंद्र जी ने एक बार अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा था- हम केवल अपने काम तक, अपने साथियों तक सिमटे रहते हैं, अपने साथी के परिवार से रिश्ता नहीं बनाते. यह आंदोलन के हित में ठीक नहीं. इसी कड़ी में उन्हीं के प्रस्ताव पर देवां (बाराबंकी) में बिहान के साथी तीन दिन एक साथ रहे थे. बिना एजेंडे के- खाओ, पियो, घूमो और जी भर कर बतियाओ. अगली बार परिवार के सदस्यों के साथ यही आयोजन करने की योजना बनी थी जो पूरी नहीं हो सकी.         

जो धीरेंद्र जी ने चाहा, उसमें बहुत कुछ नहीं हो सका या अधूरा रह गया. आर्थिक तंगी के चलते बिहान का दस्तावेज़ प्रकाशित नहीं हो सका और साथियों के बीच उसकी फ़ोटोकापी ही बंटी. इधर धीरेंद्र जी का आग्रह था कि उसमें ताज़ा संदर्भों और बिहान की अब तक की गतिविधियों को जोड़ कर उसे नया बनाया जाये, कहा था कि छपाई के ख़र्च का जुगाड़ किया जायेगा. उनके जीते जी मैं उनका यह आग्रह पूरा नहीं कर सका. अब नहीं किया तो ज़िंदगी भर ख़ुद को माफ़ नहीं कर सकूंगा. हालांकि यह बहुत मुश्किल काम होगा. 

पिछला दस्तावेज़ धीरेंद्र जी के साथ हुई चर्चाओं से निकला था और अब बिहान में उन जैसा क़ाबिल कोई नहीं. लेकिन कुम्हला रहे बिहान को सींचना तो अब हमारा काम है जिसे धीरेंद्र जी ने बहुत त्याग-तपस्या से रोपा था और आख़िरी दम तक उसकी सिंचाई की थी. जन संघर्ष समन्वय समिति (जेएसएसएस) उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में मुख्यत: ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ जारी जन संघर्षॉं का साझा मंच है जिसके गठन के लिए उन्होंने पैरों में जैसे फिरकी बांध ली थी, थकान जैसे अहसास को डपट कर चुप करा दिया था. यों वह किसी भी क़िस्म की ज़्यादती के ख़िलाफ़ थे लेकिन उनकी असमय मौत ख़ुद से की गयी ज़्यादती का नतीज़ा ज़्यादा थी.       

धीरेंद्र जी अक़्सर मुझसे यह गीत सुनाने की फ़रमाइश करते थे-

हम जियें या न जियें

जो लोग कल को आयेंगे

उन्हें क्या दे के जायेंगे.

ये बात दिल में है अगर

ऐ दोस्त, कुछ भी कर गुज़र

कुछ भी कर गुज़र...

बिहान के और जन संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े साथियों को भी इस जज़्बे को और वज़नी बनाना होगा. धीरेंद्र जी को हमेशा याद करते रहने का यही मुनासिब तरीक़ा है. इसके लिए धीरेंद्र जी बनना होगा और इसका मतलब हुआ- विचार और आचरण के तराज़ू में सबसे पहले ख़ुद को तौलते रहने का साहस पैदा करना. दुआ करें कि हमारे बीच कई धीरेंद्र प्रताप सिंह पैदा हों.

    

 adiyogकला और सामाजिक आंदोलनों से जुड़े आदियोग पत्रकारिता की परम्परा से आते हैं. 

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