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Friday, May 4, 2012

बीती ताहिं बिसार दे?

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बीती ताहिं बिसार दे?

बीती ताहिं बिसार दे?

By  | May 4, 2012 at 1:30 pm | No comments | आपकी नज़र | Tags: ,,

डाॅ. असगर अली इंजीनियर

गुजरात को दस वर्ष गुजर गए हैं परंतु वहां के दंगा पीडि़तों को आज तक न्याय नहीं मिल सका है। इस सिलसिले में पिछले कुछ समय से एक नई बहस प्रारंभ हुई है। कुछ लोगों का कहना है कि गुजरात के मुसलमानों को वह सब भूल जाना चाहिए जो उन पर गुजरा, दोषियों को माफ कर देना चाहिए और गुजरात में हो रहे विकास में हिस्सेदार बन आगे बढ़ना चाहिए। आखिर कब तक मुसलमान 2002 के नाम पर रोेते-झींकते रहेंगे? चाहे वह कितना ही भयावह अनुभव क्यों न रहा हो, वह अब गुजर चुका है और उसकी कटु स्मृतियों को भुला देना ही श्रेयस्कर है। कुछ माह पहले, मौलाना वस्तानवी, जो कई मदरसे और धर्मनिरपेक्ष उच्च शिक्षण संस्थान चलाते हैं, ने भी इस आशय का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि मुसलमानों को गुजरात की विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाहिए और उससे पूरा लाभ उठाना चाहिए।
मेरा मानना है कि यह एक बहुत महत्वपूर्ण बहस है जिसके सभी निहितार्थों और पहलुओं पर गौर किया जाना जरूरी है। इस मुद्दे के गंभीर नैतिक और कानूनी पहलू हैं। यह विचार नैतिक दृष्टि से अत्यंत तार्किक, उचित और आकर्षक प्रतीत होता है कि गुजरात के मुसलमानों को अपने प्रियजनों के हत्यारों को माफ कर देना चाहिए और पूरे घटनाक्रम को एक दुःस्वप्न की भांति भूल जाना चाहिए। परंतु ऐसे किसी कदम के कानूनी और संवैधानिक पहलुओं पर विचार भी परम आवश्यक है।
सबसे पहले हमें "भूल जाने" और "माफ कर देने" के बीच के अंतर को समझना होगा। अक्सर ये दोनों शब्द (फारगेट एण्ड फारगिव) एक साथ इस्तेमाल किए जाते हैं परंतु ये समानार्थी नहीं हैं। इनमें महत्वपूर्ण अंतर हंै। क्षमा करना जहां नैतिक मूल्यों की श्रेणी में आता है वहीं भूल जाना एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। क्षमा करना (सिवाय उनके जो खून का बदला खून के सिद्धांत में आस्था रखते हैं) आसान है, भूल जाना कहीं मुश्किल।
गुजरात के कत्लेआम जैसी लोमहर्षक घटनाओं को भूल जाना लगभग असंभव है। क्या गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा पाटिया, अहमदाबाद के कुछ हिस्सों और उत्तर व केन्द्रीय गुजरात के मुस्लिम निवासी उन आतंक भरे दिन-रातों को भूल सकते हैं? कई महिलाओं के साथ उनके परिजनों के सामने बलात्कार किए गए, बच्चों को उनके माता पिता की आंखों के सामने मौत के घाट उतार दिया गया। बिलकिस बानो अपने रिश्तेदारों की क्रूर मौत की चश्मदीद थीं। क्या इस तरह की आपबीती को कोई भूल सकता है?
किसी महिला के लिए एक साधारण बलात्कार को भी जीवन भर भुलाना मुश्किल होता है। फिर हम कैसे यह अपेक्षा कर सकते हैं कि कोई महिला उस बलात्कार और बर्बर व्यवहार को भुला सकेगी जो उसके परिवारजनों के सामने उसके साथ किया गया। हम क्या भूलते हैं और क्या याद रखते हैं यह कई मनोवैज्ञानिक अध्ययनों का विषय रहा है। कई बार किसी चीज को याद रखना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लाभप्रद होता है तो कभी भूल जाने से आदमी अपने मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रख पाता है। कुछ यादंे ऐसी होती हैं कि अगर वे हमारा पीछा न छोड़ें तो हमारा पूरा जीवन नर्क हो जाए। इसके विपरीत, कई चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें याद रखने से हमें प्रेरणा और संतोष प्राप्त होता है। अतः याद रखना और भूल जाना, एक अत्यंत जटिल परिघटना है।
दूसरी ओर, क्षमा करना एक जानते-बूझते लिया जाने वाला नैतिक निर्णय है। यह निर्णय लेने के पहले व्यक्ति को गहरे अतंद्वंद से गुजरना होता है। बदला लेने की इच्छा, मानव की मूल प्रकृति का हिस्सा है। हर व्यक्ति स्वयं को अपमानित करने या नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्ति का अपमान करने या उसे नुकसान पहुंचाने की प्रबल इच्छा रखता है। जाहिर है कि यह प्रक्रिया हिंसा के एक अनवरत चक्र को जन्म देती है। इसी चक्र को तोड़ने के लिए सभी धर्मों के ग्रंथ हमें अपने शत्रुओं को क्षमा करने की शिक्षा देते हैं। बाईबल तो यहां तक कहती है कि अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तो अपना दूसरा गाल उसके सामने कर दो। यह एक अत्यंत कठिन नैतिक निर्णय है जिसे लेने का साहस और धैर्य बहुत कम लोगों में होता है। दूसरा गाल सामने कर देने का उद्धेश्य है हमलावर को उसकी हरकतों के लिए शर्मसार करना।
क्षमा करने के साथ कई अन्य शर्तें जुड़ी हुई हैं। क्षमा करने के बाद दोनों पक्षों के बीच मेल-मिलाप हो जाना चाहिए और उनके दिलों में एक-दूसरे के प्रति तनिक सी भी कड़वाहट नहीं बचनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो ऐसी क्षमा का महत्व काफी कम हो जाता है यद्यपि उसकी कुछ उपयोगिता फिर भी बाकी रहती है। जहां तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का सवाल है, उन्होंने गुजरात दंगों की जिम्मेदारी आज तक नहीं ली है। कुछ लोगों का कहना है कि नरेन्द्र मोदी ने दंगों को रोकने में असफल रहकर स्वयं को मुख्यमंत्री के पद के लिए अयोग्य सिद्ध कर दिया है। कुछ लोग इससे भी आगे जाकर कहते हैं कि मोदी ने न सिर्फ दंगे नहीं रोके वरन् दंगे कराने के पीछे भी वही थे।
कई क्षेत्रों से यह सुझाव भी आया था कि दक्षिण अफ्रीका की तरह गुजरात में भी ट्रुथ एण्ड रिकन्सियीलिएशन कमीशन (सत्य एवं मेलमिलाप आयोग) का गठन किया जाए। परंतु गुजरात सरकार ने इस सुझाव को एक सिरे से नकार दिया। इसका अर्थ यही है कि दंगा कराने वालों को अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। वे एक राजनैतिक विचारधारा विशेष से प्रभावित हैं और उन्होंने सन् 2002 में गुजरात के मुसलमानों के साथ जो व्यवहार किया, वह उसे अपनी हिन्दुत्ववादी सोच के अनुरूप मानते हैं और वे यह भी मानते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया वह पूरी तरह उचित था। अतः यह साफ है कि अगर उनकी क्रूरता के शिकार हुए लोग, गुजरात के दंगाईयों को क्षमा भी कर दें तो भी उससे उनके मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और उनका ह्दय परिवर्तन होने की संभावना तो लगभग शून्य है।
इस तरह, गुजरात के दंगाईयों को क्षमा करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वे तो पहले से ही यह मानते हैं कि चूंकि उनकी पार्टी सत्ता मंे है इसलिए वैसे भी उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। बेस्ट बेकरी और बिलकिस बानो मामले,  उच्चतम न्यायालय की अनुमति से, गुजरात के बाहर के न्यायालयों में इसलिए चलाने पड़े क्योंकि गुजरात में पीडि़तों को न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं थी। उल्टे, दंगाई, पीडि़तों को डराते-धमकाते रहे हैं। उन्हें उनके घरों में लौटने नहीं दिया जा रहा है और उनपर यह दबाव है कि वे पुलिस में की गई अपनी रिपोर्टों को वापिस ले लें और अगर मामला अदालत तक पहुंचे तो पक्षद्रोही साक्षी बन जावें।
अगर इन अपराधियों ने जरा सा भी पश्चाताप दिखाया होता तो उन्हें क्षमा करने और उनके साथ फिर से मेलमिलाप करने का कोई अर्थ होता। जब अपराधी के मन में पश्चाताप हो, वह शत्रुता खत्म करने के लिए इच्छुक दिखेे तब उसे क्षमा कर देना, पीडि़त के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। इससे उसकी बदला लेने की इच्छा खत्म हो जाती है और चोट पहुंचाने वाले को पीड़ा न पहुंचा सकने की मजबूरी से उत्पन्न बैचेनी और अवसाद से वह मुक्त हो जाता है। एक तरह से क्षमा करने से व्यक्ति को उसके खिलाफ की गई हिंसा या उसके अपमान का आध्यात्मिक और नैतिक मुआवजा मिल जाता है।
आईए, अब हम न्याय के मुद्दे पर विचार करें। इस मुद्दे के महत्व को हम कम करके नहीं आंक सकते। शायद यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। शक्तिशाली और प्रभुत्वशाली वर्ग को कमजोर वर्गों के खिलाफ हिंसा करके, उन पर अत्याचार करके, बच निकलने नहीं दिया जा सकता। प्रजातंत्र का आधार ही है कानून का राज। और जब किसी राज्य का प्रशासनिक मुखिया, जो कि संविधान के आधार पर शासन को चलाने के लिए जिम्मेदार है और कानून-व्यवस्था बनाए रखना जिसके कर्तव्यों में शामिल है, वही व्यक्ति जब अपने कर्तव्यों के पालन में असफल हो जाए और न्यूटन के गतिकी के तीसरे नियम को उद्धत कर हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराए, तब न्याय का मुद्दा और महत्वपूर्ण बन जाता है।
किसी भी संवैधानिक प्रजातंत्र में सबके साथ न्याय, प्रजातंत्र की सफलता की आवश्यक शर्त है। यद्यपि न्याय को सामन्यतः कानून से जोड़ा जाता है तथापि उसका एक नैतिक पक्ष भी है-विशेषकर पीडि़त की दृष्टि से। अगर मेरे साथ अन्याय करने वाले व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है तो इससे मुझे एक आतंरिक संतुष्टि प्राप्त होती है और व्यवस्था में मेरी आस्था मजबूत होती है।
साफ है कि यदि न्याय नहीं होता तो इससे संवैधानिक प्रजातंत्र के स्थायित्व पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। न्याय पाने के लिए अनिश्चित काल का इंतजार व्यवस्था में आस्था को कमजोर करता है और व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। पीडि़तों को ऐसा लगने लगता है कि इस व्यवस्था में केवल शक्तिशाली व्यक्तियों के साथ ही न्याय होता है। अगर उच्चतम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता तो गुजरात हिंसा के जिन चन्द मामलों में न्याय हुआ है, वह भी नहीं हो पाता।
गुलबर्ग सोसायटी का घटनाक्रम तो दिल को हिला देने वाला था। अहसान जाफरी और 61 अन्य लोगों को जिन्दा जला दिया गया। उनकी लाशों को भी अपमानित किया गया। हरचंद कोशिशों के बावजूद अहसान जाफरी की पत्नि को आज तक न्याय नहीं मिल सका है। उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल ने भी मोदी को क्लीन चिट दे दी। यद्यपि एमीकस क्यूरे (न्यायालय के मित्र) राजू रामचन्द्रन ने कहा है कि एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट देकर गलती की है।
इस सबके बावजूद जाफरी की पत्नि ने हौसला नहीं खोया है। उनका लंबा और कठिन संघर्ष इस तथ्य को रेखांकित करता है कि किसी भी अपराध या अत्याचार के पीडि़त मंे न्याय पाने की जबरदस्त उत्कंठा होती है। इसे बदला लेने की इच्छा नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि बदला लेने के अन्य तरीके भी उपलब्ध हैं। यदि पीडि़तों को न्याय मिलता है और आक्रांताओं को सजा, तो इससे न केवल ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर रोक लगती है वरन् पीडि़त भी इस अपराधबोध से मुक्त हो जाते हैं कि उन्होंने हिंसा के शिकार हुए अपने निर्दोष प्रियजनों के लिए कुछ नहीं किया।
इस संदर्भ में गुजरात एकमात्र उदाहरण नहीं है। सन् 1984 में निरपराध सिक्खों पर जो बीती वह भी उतनी ही पीड़ादायक थी। सिक्ख-विरोधी दंगों के अपराधियों को भी आज तक सजा नहीं मिल सकी है। उनमें से अधिकांश शक्तिशाली राजनेता हैं। हाशिमपुरा में सन् 1987 में जो कुछ हुआ था वह इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण था। लगभग 40 युवा लड़कों को उनके घरों से खींचकर ट्रक में भर, मेरठ के बाहरी हिस्से में ले जाया गया। वहां उन सबको गोली मारकर उनके मृत शरीर एक नहर में फेंक दिए गए। इस घटना को 25 साल गुजर चुके हैं परंतु एक भी अपराधी को सजा नहीं मिली है।
यह सब देख-सुनकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारे प्रजातंत्र में कानून का राज है भी है या नहीं। हमारी प्रशासनिक मशीनरी का पूर्वाग्रहपूर्ण रूख और न्यायपालिका की सुस्त चाल हमारी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। हमारे देश का कानून और व्यवस्था लागू करने वाले तंत्र का पूरी तरह साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है। इससे भी दुर्भाग्यजनक यह है कि हमारे सियासी आका इस तथ्य से वाकिफ होने के बावजूद, हालात को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। कुछ राजनैतिक दल खुलेआम जातिगत और साम्प्रदायिक हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता।
अगर ईमानदारी और तत्परता से न्याय हो तो राजनेता और पुलिसकर्मी मनमानी नहीं कर सकेंगे और कम से कम गुजरात जैसी व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा भविष्य में नहीं होगी। यही कारण है कि साम्प्रदायिक हिंसा  के पीडि़तों के साथ न्याय होना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे प्रजातंत्र को घुन लग जाएगा और कानून और व्यवस्था पूरी तरह ठप्प हो जाएगी।
जो लोग बीती ताहिं बिसार दे की बात कह रहे हैं उन्हें उसके दूरगामी परिणामों पर विचार करना चाहिए। हमें उनकी मंशा पर संदेह नहीं है। हो सकता है कि उनका लक्ष्य मात्र इतना हो कि मुस्लिम समुदाय पुराने घावों को भूलकर आधुनिक शिक्षा पाए और प्रगति करे। यद्यपि शिक्षा, प्रगति और समृद्धि महत्वपूर्ण हैं तथापि न्याय की उपेक्षा घातक सिद्ध होगी। न्याय पाने की कोशिशों को हिकारत की दृष्टि से देखना खतरनाक होगा।
अगर पीडि़तों को न्याय मिल जाता है तो वे जिस मानसिक त्रास से रोज गुजर रहे हैं उससे उन्हें मुक्ति मिलेगी और उनकी खुशहाली की राह प्रशस्त होगी।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म  के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)

डॉ. असगर अली इंजीनियर (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। बकौल असगर साहब- "I was told by my father who was a priest that it was the basic duty of a Muslim to establish peace on earth. ... I soon came to the conclusion that it was not religion but misuse of religion and politicising of religion, which was the main cause of communal violence.")

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