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Thursday, January 26, 2012

रायबरेली को गांधी परिवार छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ थामना नहीं

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/16-highlight/9710-2012-01-25-04-42-25

Wednesday, 25 January 2012 10:10

पुण्य प्रसून वाजपेयी 
लखनऊ के मुगलिया स्थापत्य को मायावती ने लाल पत्थरों और नीली रोशनी से  बदल दिया है। लेकिन रायबरेली को जो पहचान पचास के दशक में बजरिए फिरोज गांधी, गांधी परिवार से मिली उसको बदलने के लिए न तो कभी मुलायम ने कोशिश की और न ही मायावती ने। उल्टे सियासी बिसात पर गांधी परिवार की विरासत रायबरेली के लिए कितनी त्रासद हो सकती है, यह रायबरेली के वोटरों के दर्द से समझा जा सकता है।
1981 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली को चौबीस घंटे रोशनी देने के लिए जिले के ऊंचाहार में फिरोज गांधी विद्युत ताप्ती परियोजना स्थापित की थी। घाटे के बाद भी बिजली उत्पादन बंद न हो, इसके लिए 1992 में एनटीपीसी ने इस परियोजना को अपने हाथ में ले लिया। रायबरेली की जगह एनटीपीसी की प्राथमिकता लखनऊ हो गई।  
इंदिरा गांधी के बाद रायबरेली का भाग्य सोनिया गांधी के राजनीति में आने के बाद
जागा।  2008 में ऊंचाहार से दो किलोमीटर दूर अमावा में रायबरेली के लिए 220 मेगावाट की परियोजना लगी। लेकिन मायावती ने झटके में अमावा से निकलने वाली बिजली को लखनऊ पहुंचाने का निर्देश दे दिया, जिससे नीली रोशनी के साए में लखनऊ नहाता हुआ दिखे। और एक बार फिर रायबरेली अंधेरे में समा गया।   
दरअसल रायबरेली के लिए गांधी परिवार की विरासत कितनी सुविधापूर्ण है, या कितनी महंगी, यह लखनऊ से रायबरेली जाने के रास्ते में सबसे पहले इंदिरा गांधी लार के भीतर घुसते ही समझ में आ सकता है। इंदिरा गांधी लार यानी रायबरेली शुरू हो गया। चंद फलांग के बाद ही बछरांवा में दाहिने तरफ महात्मा गांधी की मूर्ति के ठीक पीछे श्री गांधी स्कूल और उससे महज एक किलोमीटर के बाद ही कस्तूरबा गांधी प्राथमिक स्कूल। शहर में कदम रखते ही फिरोज गांधी लार और शहर के सबसे व्यस्त चौक को पार करते ही सोनिया गांधी के नाम का तकनीकी स्कूल।
यानी शहर में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां से आंखों के सामने कहीं किसी दीवार पर गांधी परिवार का नाम न लिखा हो। फिरोज गांधी से सोनिया गांधी तक के दौर को महसूस करते रायबरेली की त्रासदी यही है कि बीते 22 बरस में जो भी लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुआ, उसके संबंध कांग्रेस से छत्तीस के रहे और रायबरेली को जुबान लखनऊ से न मिलकर दिल्ली से मिलती रही। आलम यह भी हुआ कि जिस बिजली परियोजना से रायबरेली के अंधियारे को दूर करने का प्रयास गांधी परिवार ने किया, उस परियोजना से महज ढाई किलोमीटर की दूरी पर मौजूद गांव मजहरगंज में आजादी के 64 बरस बाद महज दो महीने पहले बिजली के खंबे पहुंचे हंै।
मजहरगंज में लगे बिजली के खंबों का खर्चा भी लखनऊ ने नहीं उठाया, बल्कि राजीव गांधी ग्रामीण बिजली योजना के तहत ऊंचाहार से सटे मजहरगंज के लोगों ने गांव में जलते हुये बल्ब को देखा। और अब घर में रोशनी के लिए 700 से डेढ़ हजार की घूस देनी पड़ रही है। इसके बाद ही बिजली के तार और मीटर घर तक पहुंचेंगे। लेकिन तब तक चुनाव निपट जाएगा तो फिर घूस की रकम भी बढ़ सकती है, जबकि इस गांव के लोगों ने पचास के दशक में ही नेहरू से लेकर फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी को देखा था।
वे यादें आज भी गांव के सबसे बुजुर्ग मकसूद अंसारी आंखों में समेटे हंै। आंखों में गांधी परिवार को लेकर इतनी चमक है कि इतने बरस गांव अंधेरे में रहा। लेकिन अफसोस किसी पर नहीं है। सिवाय यह कहने के, कि सियासी चालों से तो गांधी परिवार के रायबरेली को खत्म नहीं किया जा सकता। लेकिन रायबरेली के रास्ते इलाहाबाद जाने वाली सड़क के आखिर में रायबरेली का ही एक गांव


कटरा भी है। वहां आज तक गांधी परिवार के किसी सदस्य ने कदम नहीं रखा। अब गांधी परिवार की
पहुंच से कटरा दूर रहा तो कोई नेता भी इस गांव में नहीं पहुंचता। इसका असर कटरा बहादुर तहसील पर सीधा पड़ा। कभी घाघरा नदी के पानी से कटरा में नहर बनी जो अब सूख चुकी है। लेकिन इस नहर पर राजनीतिक पैसा आज भी खर्च होता है। सात महीने पहले ही कागज पर आठ लाख रुपए खर्च हुए, जिससे नहर में पानी आ जाए। लेकिन नहर का आलम यह है कि अब नहर शौचालय में तब्दील हो चुका है। जाहिर है, ऐसे में जमीन के नीचे से पानी निकाल कर सिंचाई होती है। गांव में बिजली रात में तीन से चार घंटे रहती है तो पानी के लिए लगी मोटर डीजल पर टिकी है, जिससे गांव के लोग डीजल खरीदने के लिए शहर जाकर मजदूरी करते हैं। इस तहसील में आने वाले छह गांव में कोई ऐसा गांव नहीं जहां पक्की सड़क हो। लेकिन इस बेबसी में भी गांधी परिवार के साथ खडेÞ होने का रुतबा कोई खोना नहीं चाहता है,  इसलिए जब सवाल यह पूछा जाता है कि रायबरेली आकर भी प्रियंका गांधी गांव में क्यों नहीं आईं तो गांव वाले ठहाका लगाकर कहते हंै कि प्रियंका बिटिया की गाड़ी गांव की सड़क पर कैसे चलती, इसलिए वह शहर में ही मुंह दिखाकर लौट जाती है। लेकिन बिना मुंह देखे ही हम कांग्रेस को जिताकर मुंह दिखाई हर बार दे देते हैं।
गांधी परिवार से यह प्रेम रायबरेली के बुनकरों में भी खूब है। केंद्र में देश के लिए
बनाई गई कांग्रेस की कपड़ा नीति ने बुनकरों के हुनर को खत्म कर उन्हें   मजदूर बना दिया। लेकिन कोई गिला-शिकवा गांधी परिवार से यहां के बुनकरों को भी नहीं है। राहुल गांधी के पैकेज का पैसा तो किसी बुनकर के पास अब तक नहीं पहुंचा है। लेकिन बुनकरों की हालत यह है कि कमोबेश हर घर में महिलाएं धागे को कात कर जोड़कर उसे रस्सी की तरह मोटा बनाती हैं। फिर रंगती हैं। बुनकर उस घागे से चारपाई बुनता है। एक किलो रस्सी बनाने के एवज में महज 40 रुपए मिलते हंै और महीने भर में कमाई हर दिन दस घंटे काम करने के बाद भी डेढ़ हजार रुपए पार नहीं कर पाती।
मनरेगा यहां कागज पर भी नहीं पहुंचा है। तो हर दिन सौ रुपये कैसे कमाए जाते हैं, यह भी रायबरेली के गांववालों को नहीं पता। लेकिन शहरी रायबरेली का मिजाज थोड़ा अलग है। शहर में सीमेंट फैक्टरी से लेकर पेपर मिल और कपड़ा मिल से लेकर कार्पेट फैक्टरी तक है। करीब 23 उद्योग पहले से हैं और लालगंज में बन रही रेलवे कोच फैक्टरी पूरी होने को है। लेकिन रायबरेली का मिजाज इतना शहरी भी नहीं कि उघोग चलते रहें और गांव प्रभावित न हों। पावर प्लांट से निकलती राख अगर छह गांव की खेती चौपट करती है तो पेपर मिल और सीमेंट कारखाने से निकलते कचरे से दर्जनों गांव के सैकड़ो लोग सांस की बीमारी को गले की खराश मान कर जी रहे हैं।  सफेद घूल से नहाए गांव के घरों को देखकर अगर सवाल प्रदूषण का करें तो उलट में गांधी परिवार के रुतबे तले हर कोई यह कहने से नहीं चूकता कि उनकी बदौलत उद्योग तो रायबरेली में आए। लेकिन लखनऊ की सरकार को भी तो कुछ करना चाहिए। और अब लालगंज की कोच फैक्टरी भी जब रोजगार देने को तैयार है तो फिर उससे प्रभवित किसानी की फिक्र क्या मायने रखती है। शायद इसीलिए गांधी परिवार रायबरेली छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ की सियासत रायबरेली को थामना नहीं चाहती, क्योंकि चुनाव के वक्त भी रायबरेली का आम वोटर तो  प्रियंका गांधी को बिना देखे ही मुंह दिखाई देने को तैयार है।

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