कश्मीर एक अंतहीन यातना है और अंतहीन लड़ाई भी
http://mohallalive.com/2010/10/26/freedom-thoughts-struggle-and-tirane/कश्मीर एक अंतहीन यातना है और अंतहीन लड़ाई भी
♦ अजय सिंह
कश्मीर पर अरुंधती रॉय के बयान पर काफी मार-काट मची है – लेकिन सच्चाई ये है कि अरुंधती ने एक भारत की एक कमजोर नस पर उंगली रख दी है। हथियार के दम पर कश्मीर में हुकूमत चाहने वाली भारत सरकार को समझना चाहिए कि जनाकांक्षाएं किसी भी राज्य से ज्यादा ताकतवर होती हैं। अरुंधती के बयान पर एक नजर हम नवभारत टाइम्स की इस रिपोर्ट के जरिये डालते हैं और फिर कश्मीर पर एक किताब के बहाने मसले को आगे बढ़ाते हैं…
अरुंधती रॉय ने सोमवार को कश्मीर में हुई एक विशाल रैली में कहा, कश्मीर को भारत से आज़ादी चाहिए और ठीक उसी तरह भारत को भी कश्मीर से आज़ादी चाहिए। इस रैली के दौरान उन्होंने कहा कि कश्मीर की जनता ने हुक्मरान को अपनी चाहत का बयान साफ-साफ लफ्ज़ों में कर दिया है। अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर की इस आवाज़ को अगर कोई नहीं सुन रहा है तो महज़ इसलिए कि वह सुनना नहीं चाहता है, जबकि यही जनमत है। उन्होंने कहा, कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि कोई उनका प्रतिनिधित्व करे, कश्मीरी खुद अपना प्रतिनिधित्व कर सकते हैं और कर रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, जो भी कश्मीर की रैलियों में मौजूद रहता है, सामान्य कश्मीरी की भावनाओं को समझता है उसकी कश्मीर की आज़ादी की मांग के मुद्दे पर दो राय नहीं हो सकती है। अरुंधती रॉय ने आगे कहा, '1930 से ही कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व करने के मुद्दे पर तमाम बहस और विवाद रहे, चाहे हरि सिंह हों या फिर शेख अब्दुल्ला या फिर कोई और लेकिन इस बहस का अंत नहीं हुआ। यही बहस आज भी जारी है चाहे हुर्रियत हो या कोई और, लेकिन कश्मीरियों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा नहीं सुलझा। लेकिन मुझे लगता है कि आज आम कश्मीरी ही खुद का प्रतिनिधि है।
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मार्च, 1990 में अंग्रेजी व हिंदी में एक पुस्तिका आयी थी, 'इंडियाज कश्मीर वार' (भारत की कश्मीर जंग)। कमेटी फॉर इनीशिएटिव ऑन कश्मीर, दिल्ली से छपी इस पुस्तिका को, जो मुश्किल से पचास पेज थी, गौतम नवलखा, दिनेश मोहन, सुमंत बनर्जी और तपन बोस ने मिलकर लिखा-तैयार किया था। तब कश्मीर समस्या नयी करवट ले रही थी और कश्मीर में अपनी किस्मत अपने हाथ में लेने के इरादे से 'आजादी की लड़ाई' शुरू हुए (अक्टूबर 1989) कुछ ही महीने हुए थे। पुस्तिका के शीर्षक से जाहिर था कि भारत ने कश्मीर में कश्मीर की जनता पर सैनिक लड़ाई छेड़ रखी है। कश्मीर में भारतीय फौज व अर्द्ध सैनिक बलों का आक्रामक अभियान शुरू हो चुका था और उनके अत्याचार व नृशंसता के कारनामे धीरे-धीरे सामने आने लगे थे। उस दौर में यह संभवतः ऐसी पहली पुस्तिका थी, जिसने कश्मीर समस्या के विभिन्न पहलुओं और जटिलताओं की तरफ ध्यान खींचा, जिसे आमतौर पर 'मुख्यभूमि भारत' कहा जाता है।
पुस्तिका के लेखकों ने कश्मीर में भारत सरकार की सैनिक कार्रवाई का दृढ़तापूर्वक विरोध किया था और कहा था कि कश्मीरी जनता से बिना शर्त बातचीत से ही समस्या का समाधान निकल सकता है। तब केंद्र में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन सरकार थी। उसने कश्मीर को पूरी तरह सेना के हवाले कर देने में जरा भी हिचक नहीं दिखायी। नतीजा : अनवरत कत्लेआम, बलात्कार, लोगों का अपहरण और उनका गायब हो जाना, गैर कानूनी हत्याएं, फर्जी मुठभेड़ें और यातना… कश्मीर अंतहीन यातना व अंतहीन लड़ाई की अंधेरी सुरंग में प्रवेश कर रहा था।
तब से बीस साल बीत चुके हैं। कश्मीर में भारत सरकार की खूनखराबा नीति खौफनाक रूप ले चुकी है। कश्मीर समस्या और भी ज्यादा जटिल व विकराल हो चली है। कश्मीरी जनता में भारत से 'आजादी की चाह' व 'आजादी की लड़ाई' नये धरातल पर पहुंच चुकी है, और भारत से कश्मीरी जनता का अलगाव अपने चरम रूप में मौजूद है। कश्मीर की जनता पर सुरक्षा बलों (फौज व अर्द्धसैनिक बल) द्वारा किये गये व किये जा रहे अत्याचार की भीषणता और बर्बरता ने कई पुराने रिकार्ड ध्वस्त कर दिये हैं। कश्मीर आज जिस मुकाम पर है, वहां से भारत की ओर उसकी वापसी लगभग नामुमकिन हो चली है। इसके लिए भारत की कश्मीर नीति को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
इस संदर्भ में, कश्मीर समस्या को समग्रता में समझने के लिहाज से, वरिष्ठ पत्रकार, शोधार्थी व मानवाधिकार कार्यकर्ता रामरतन चटर्जी की काफी मेहनत से तैयार की गयी अंग्रेजी किताब 'कश्मीर : फ्रीडम थॉट्स, स्ट्रगल एंड टिरैनी' (जून 2009, 'कश्मीर: आजादी के खयालात, संघर्ष व अत्याचार') पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह किताब पाठक को बेचैन करती है और उसे कुछ सोचने व बहस करने के लिए प्रेरित करती है। यह कई अखबारी लेखों, टिप्पणियों, खबरों व स्वतंत्र रूप से लिखे गये लेखों का संकलन है, जिसमें रामरतन की अपनी संपादकीय टिप्पणियां शामिल हैं। यह कश्मीर पर संदर्भ सामग्री का जबरदस्त खजाना – लगभग कश्मीर विश्वकोश – जैसा है, जिसकी सामग्री का इस्तेमाल कश्मीर की जनता के इतिहास व संघर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखने में किया जा सकता है। यह कश्मीरी जनता की यातना, संघर्ष व जिजीविषा का जीवंत दस्तावेज है।
17 अध्याय और 524 पेज में फैली किताब 'कश्मीर आजादी के खयालात' की प्रस्तावना कश्मीर के जाने-माने वयोवृद्ध पत्रकार व कश्मीर टाइम्स के संस्थापक संपादक वेद भसीन ने लिखा है। द ग्रेटर कश्मीर अखबार के कार्यकारी संपादक रह चुके जहीरूद्दीन ने जो मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं, इस किताब की भूमिका लिखी है। रामरतन चटर्जी ने यह किताब 2005 में तैयार कर ली थी, पर यह छप पायी 2009 में – उन्हें खुद इसे छापना पड़ा। यह उनकी लगभग पांच साल कर मेहनत का नतीजा है, जिस दौरान वह श्रीनगर, जम्मू व अन्य जगहों में रहते हुए विभिन्न स्रोतों से, खासकर अखबारों से, सामग्री जुटाते रहे।
किताब में ऐसे कई लोगों के लेख व टिप्पणियां संकलित हैं, जो कश्मीर से अच्छी तरह वाकिफ हैं और कश्मीर आंदोलन की विभिन्न धाराओं से जुड़े रहे हैं। पंद्रह साल (1989-2004) की अवधि में फैली यह सामग्री कश्मीरी जनता के लगभग सभी तरह के सामाजिक-राजनीतिक विचार, प्रभाव कार्यभार, सक्रियता व अंतर्विरोध को सामने लाती है।
किताब के नौवें अध्याय में, जिसका शीर्षक 'मकबूल भट की शहादत' है, 1984 में मकबूल भट को फांसी दिये जाने से संबंधित अखबारी सामग्री का संकलन खास तौर पर उल्लेखनीय है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल भट को दिल्ली की तिहाड़ जेल में 11 फरवरी 1984 को फांसी दे दी गयी थी। तब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फ़ारूक अब्दुल्ला ने उन्हें फांसी से बचाने के लिए कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। मकबूल भट के वकील कपिल सिब्बल… जी हां, मौजूदा केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की अपील को – कि यह फांसी न दी जाए – सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने 10 फरवरी 1984 को खारिज कर दिया था। मकबूल भट को तिहाड़ जेल में ही दफना दिया गया। उनकी लाश न उनके परिवारवालों को सौंपी गयी, न कश्मीर ले जाने दी गयी। फांसी दिये जाने के विरोध में वेद भसीन ने 14 फरवरी 1984 को 'कश्मीर टाइम्स' में लेख लिखा था। मकबूल भट को फांसी कश्मीर जनता के संघर्ष के इतिहास में निर्णायक घटना बन गयी। इस घटना ने कश्मीरी जनता के दिलों में दिल्ली के प्रति अलगाव व नफरत के बीज बो दिये, जिसने 1989 में 'आजादी की लड़ाई' का रूप ले लिया।
[ कश्मीर : फ्रीडम थॉट्स, स्ट्रगल एंड टिरैनी (अंग्रेजी) : रामरतन चटर्जी; रामरतन चटर्जी, कोलकाता;
पृष्ठ : 524; मूल्य : 200 ]
डेस्क ♦ यह कविता व्योमेश शुक्ल की है। सबद पर छप चुकी है। जैसी भी है, इसमें कला के साथ कहन की कारीगरी भी है। हिंदी हलके में पिछले दिनों जिस किस्म के तांडव हुए, इस कविता में उसकी एक झांकी और एक स्टैंड मिलता है
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
विश्वविद्यालय »
संजीव चंदन ♦ जिन दिनों वर्धा में ब्लागिंग पर अंकुश के लिए आचार संहिता बनाये जाने पर बहस चल रही थी, उन्हीं दिनों वर्धा के पुलिसिया कुलपति विभूति नारायण राय ने हमें धमकी भिजवायी कि अपनी हरकतों से बाज आओ, वरना उनके बापों को उठवा लेंगे। साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि यूपी के कई थानों में उन पर केस करवाएंगे। यदि उन पर किया केस हमने वापस नहीं लिया तो… गौरतलब है कि मैंने और राजीव सुमन तथा भारतीय महिला फेडरेशन की हसोता गोरडे ने विभूति नारायण राय, रवींद्र कालिया, और राकेश मिश्र के खिलाफ मुकदमा किया था, जिसकी सुनवाई वर्धा न्यायालय में हो रही है। दरअसल धमकी और आचार संहिता का पाठ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं…
नज़रिया, मोहल्ला लाइव »
विजय शर्मा ♦ क्या ही अच्छा होता, अगर इसमें अंग्रेजी पढ़ने- पढ़ाने वाले, अर्थनीति, राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र के लोग भी शुमार होते। और भी आगे बढ़कर विज्ञान यानी रसायन शास्त्र, भौतिकी, जीव विज्ञान, गणित, ज्यामिति के लोगों का भी स्वागत होता। कॉमर्स, मैनजमेंट, मार्केटिंग, इंजीनियरिंग, चिकित्सा के लोग भी हमारे बीच उठते-बैठते, तो मजा आ जाता। लेकिन ले दे कर वही कवि-कहानीकार, पत्रकार, आलोचक किस्म का जीव ही हमें नसीब होता है। हिंदी भाषी क्यों सिर्फ हिंदी साहित्य की जद में बंधा रहे, भिन्न विषयों से आने वाले आइएएस, आइपीएस तथा ज्युडिसरी के लोग भी इसमें होते, तो बातचीत का दायरा और भी फैलता।
मोहल्ला रांची, रिपोर्ताज »
अनुपमा ♦ यूं तो पलामू ही झारखंड का अभिशप्त इलाका है, उसमें भी उसका छतरपुर इलाका विचित्र विडंबनाओं से भरा हुआ है। उसे झारखंड का विदर्भ भी कहा जाता है। पिछले साल जब सुखाड़ और उससे उपजी भुखमरी के कारण वहां के 13,400 किसानों ने हस्ताक्षर कर सामूहिक रूप से इच्छामृत्यु का संकल्प लिया था, तो अचानक से यह इलाका सुर्खियों में आ गया था। हर साल यहां भूख से लोग मरते हैं। इतना ही नहीं, यहां लोग जान-पहचान वाली बीमारी से भी हमेशा मौत के आगोश में समाते रहते हैं, कहीं कोई चर्चा नहीं होती। छतरपुर के लुतियाहीटोला में पहुंचने पर ऐसी ही परिस्थितियों से हमारा सामना हुआ, जहां रोजमर्रा की जिंदगी में बेमौत मर जाना किसी को हैरत में नहीं डालता।
नज़रिया, मोहल्ला पटना »
विश्वजीत सेन ♦ जाति या वर्ण को आधार बनाकर रणनीति तय करने का जो बुरा नतीजा सामने आया, वह यह है कि माओवादी संगठन जाति के आधार पर बंटने लगा। केवल वही नहीं, माओवादी नेताओं की मानसिकता भी उसी के अनुरूप ढलने लगी। इसका ज्वलंत उदाहरण तब सामने आया, जब कजरा मामले में माओवादी कमांडर अरविंद यादव ने अभय यादव की जगह लुकस टेटे को मार गिराया। लूकस टेटे आदिवासी थे और ईसाई भी। ये दोनों पहचान वर्ण व्यवस्था के बाहर की है। इस हत्या के विरोध में माओवादी कमांडर बगावत पर उतर आये। दोनो पक्षों के बीच जमकर गोलियां चलीं। इस आपसी संघर्ष को अगर आप 'लोकयुद्ध' कहें तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?
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विनीत कुमार ♦ भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो की तर्ज पर ही दिखाई देता है…
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पवन कुमार वर्मा ♦ संस्कृति के क्षेत्र में उपनिवेशवाद के जो परिणाम हैं, उसे हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। हम "उनकी" तरह बोल-बतिया कर समझ लेते हैं कि हम उनकी तरह हो गये – जबकि उन्हें मालूम है कि आप क्या हैं। जो चीजें हमको नहीं दिखती, वो बाहर वाले बखूबी देखते हैं। एक बार एक गिफ्ट शॉप में गया, जहां कुछ नौजवान वैलेंटाइन कार्ड ले रहे थे। मैंने उन नौजवानों से हीर-रांझा, लौला-मजनूं, कृष्ण रास और कामसूत्र के बारे में पूछा, उन्हें इसका कुछ पता नहीं था। प्रेम की परंपरा हमारे यहां भी रही है लेकिन हम वैलेंटाइन में अपनी भारतीयता को स्थापित कर रहे हैं। संपन्न राष्ट्र होने के बावजूद हम नहीं जानते कि हम क्या हैं। हमारे ही देश में दो अलग अलग दुनिया है, जो हमें नहीं दिखता।
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अनुपमा ♦ यह कहानी सिर्फ नापो की नहीं है। झारखंड में कई-कई नापो हैं। स्वास्थ्य विभाग के यक्ष्मा नियंत्रण कार्यालय संभाग के अनुसार झारखंड में हर 35वें मिनट एक व्यक्ति की मौत टीबी से होती है। जबकि आश्चर्यजनक भी है कि झारखंड देश का एक ऐसा राज्य है, जहां सबसे अधिक एमडीआर के मामले सामने आये हैं। पूर्व जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ प्रसाद कहते हैं – राज्य में करीब 45 हजार मरीज ऐसे हैं, जिनका इलाज जिला यक्ष्मा नियंत्रण केंद्र में हो रहा है। सरकार अपने स्तर से हर संभव सुविधा उपलब्ध कराती है। लेकिन नापो को देखने, समझने के बाद स्पष्ट होता है कि डॉ प्रसाद की बात सैद्धांतिक तौर पर तो सही है, व्यावहारिक तौर पर यह हजम होनेवाली बात नहीं।
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अनुपमा ♦ झारखंड अन्य कई चीजों का हब रहा है। अब टीबी का भी हब है। भारत में सबसे तेजी से टीबी मरीजों की संख्या यहां बढ़ रही हैं। इसमें धनबाद नंबर वन पर है। कोयले की कमाई में टीबी की बात कौन करेगा। सभी माइनिंग एरिया में कमोबेश स्थिति बदतर ही है। तोरपा के पास इटकी अस्पताल में फिलहाल कुल 217 मरीज हैं और सबकी कहानी मार्मिक व बेहद संवेदनशील है। इसमें हर कटेगरी के मरीज शामिल हैं। सब एक सुबह के इंतजार में है – लेकिन राज्य को कारू का खजाना मानकर चाटने में लगे व्यवस्था के कीड़ों को इस अंधेरी हकीकत से भला क्या मतलब।
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
मुंह मीठा करने की बारी है क्योंकि कश्मीर मुद्दे पर अरुंधति राय ने बयान देकर नोबल पुरस्कार की होड़ में शमिल हो गई है. शांति नोबल पुरस्कार का
gilani aur arundhati ke bayan aa chukne ke baad bhi aap log chup baithe the bada aacharya ho raha tha .. and then .. here it went ..
अरुंधति राय को बधाई !
" उनका क्या था इस भूमि पर,भागे पंडित
कायर मुखबिर चुगलखोर थे,भागे पंडित
उन्हें कहाँ था प्यार वतन से भागे पंडित
पैदल भागे, दौड़ लगाते बिना वजह के, भागे पंडित
मंदिर सुने, गलियां सुनी, सन्नाटा है, भागे पंडित
त्योहारों की तिथियाँ सुनीं, जेबें सुनीं, भागे पंडित
घर से भागे, डर से भागे, षड्यंत्रों से भागे पंडित
किसको चिंता, नदियाँ सूखीं, लावारिस हैं, भागे पंडित"…………. अग्निशेखर
कश्मीरी कविता की माँ लल्द्यद एक 'वाख' में कहती हैं :
" अभी जलता हुआ चुल्हा देखा और अभी उसमें न धुआं देखा न आग । अभी पांडवों की माता को देखा और अभी उसे एक कुम्हारिन के यहाँ शरणागता मौसी के रूप में देखा ।" वे आगे कहती हैं :
" दमी डीठुम नद वहवुनी
दमी ड्यूठुम सुम न तू तार
दमी डीठुम ठार फोलुवनी
दमी ड्यूठुम गुल न तु खार"
(अभी मैंने बहती हुई नदी को देखा और अभी उस पर न कोई सेतु देखा और न पार उतरने के लिए पुलिया ही । अभी खिले हुई फूलों की एक डाली देखी और अभी उसपर न गुल देखे और न काँटे । )
कश्मीर और कश्मीरियत के नाम पर केवल अपनी राजनीति की जा रही है।
लल्द्यद ने कहा है "दोद क्या जानि यस न बने
गमुक्य जामु हा वलिथ तने ।
गर गर फीरस फीरस प्ययम कने
ड्यूठुम नु कह ति पननि कने ।।"
(जिस पर दुख न पड़ा हो वह भला दर्द क्या जाने ? गम के वस्त्र पहनकर मैं घर-घर फिरी और मुझपर पत्थर बरसे तथा किसी को भी मेरा पक्ष लेते हुए न देखा ।)
क्या कहूँ, अरुंधति महान हैं !
ऊपर के उद्धरण मैंने श्री भृगुनन्दन त्रिपाठी की टिप्पणी से दिए हैं,कुछ महीने पहले कश्मीर की स्थिति आज से अलग थी, उन्हीं दिनों जनसत्ता में पंकज चतुर्वेदी की एक रपट आई थी, त्रिपाठी जी ने यह टिप्पणी उसी आलेख को सामने रख कर की थी । स्थिति तब से बहुत बदल चुकी है। खासकर उम्र अब्दुल्ला । बहरहाल यहाँ आकर इस पूरी टिप्पणी को पढ़ सकते हैं….
http://parthdot.blogspot.com/search/label/कश्मीर
कश्मीर का सही प्रतिनिधि यह आम आदमी कौन है ये कौन तय करेगा? अरुंधती राय…