Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, December 22, 2016

गुलाम गिरि मुबारक! ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन! फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है। पलाश विश्वास


गुलाम गिरि मुबारक!

ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन!

फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है।

पलाश विश्वास

कहना ही होगा,संघ परिवार के फासिज्म के राजकाज के खिलाफ पढ़े लिखे ब्राह्मण जितने मुखर हैं,उसके मुकाबले तमाम शूद्र,आदिवासी,आरक्षित पढ़े लिखे पिछडे़,दलित,आदिवासी और पढ़ी लिखी काबिल स्त्रियां मौन,मूक वधिर हैं।

ब्राह्मणों को गरियाने में समाज के प्रतिप्रतिबद्धता जगजाहिर करने वाले ज्यादातर लोग ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व पुनरूत्थान के साथ हैं और नरसंहारी अश्वमेध अभियान के तमाम सिपाहसालार,सूबेदार,मंसबदार,जिलेदार,तहसीलदार और पैदल सेनाएं भी उन्हीं बहुजनों शूद्रों अछूतों आदिवासियों की हैं।

बजरंगी भी वे ही हैं और दुर्गावाहिनी में भी वे ही हैं।

सलवा जुड़ुम के सिपाही,सिरपाहसालार भी वे ही हैं।

यह ब्राह्मणविरोधी अखंड पाखंड,पढ़े लिखों मलाईदारों का अंतहीन विश्वासघात ही ब्राहमणधर्म का पुनरूत्थान का रहस्य है।अपने लोगों का साथ कभी नहीं देंगे तो बामहणों को गरियाकर अपने लोगों को खुश कर देंगे।मौका मिलते ही गला रेंत देंगे।बहुजनों का आत्समर्पण है।यही दरअसल  बहुजनों की गुलामी का सबसे बड़ा आधार है और इसमें किसी ईश्वर या किसी ब्राह्मण का कोई हाथ नहीं है।

सोशल मीडिया पर अब लाखों बहुजन हैं।

करोडो़ं फालोअर जिनके हैं।

कई तो बाकायदा कारपोरेट सुपरस्टार हैं।

कई दिग्गज संघी सिपाहसालार हैं।

सैकडो़ं रंगे सियार कारपोरेट भी हैं।

बहुजन विमर्श कहां है गाली गलौज के अलावा ,बतायें।

हमें वोट नहीं चाहिए।हमें हैसियत भी कभी नहीं चाहिये थी।

बुरा मानो या भला,अब सर से ऊपर पानी है।सच का सामना अनिवार्य है।

अब कहना ही होगा,बहुजनों की गद्दारी से ही यह हिंदुत्व  का नरसंहारी साम्राज्य बहुजनों का नस्ली कत्लेआम कर रहा है निरंकुश।लेकिन पढ़ा लिखा न बोल रहा है और न कहीं लिख रहा है।सिर्फ अपनी अपनी खाल बचाने में लगे हैं बहुजन पढ़े लिखे।

नागरिक और मानवाधिकारों के बारे में बहुजन खामोश हैं।

रोजगार और आजीविका के बारे में बहुजन चुपचाप हैं।

निजीकरण,उदारीकरण,ग्लोबीकरण,मेहनतकशों के कत्लेआम,किसानों की थोक आत्महत्या,खेती के बाद कामधंधों,व्यापार से आम जनता और बहुजनों की बेदखली,

विनिवेश,छंटनी,तालाबंदी,विदेशी पूंजी,मुक्तबाजार,बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अखंड कारपोरेट राज से  बहुजनों के पेट में दर्द नहीं होता और ब्राह्मण धर्म के सारे कर्मकांड,सारे महोत्सव,सारे अवातार,भूत प्रेत,सारे कसाईबाड़ा उन्ही  के हैं और सूअरबाड़ा में सत्ता के साझेदार सबसे मजबूत वे ही हैं।

जलजंगलजमीन की लड़ाई में बहुजन कहीं नहीं हैं।

आदिवासी भूगोल में सिर्फ संघी हैं,बहुजन कहीं नहीं हैं।

पिछडो़ं और दलितों के बीच अलग महाभारत है।

पिछड़ों का मूसलपर्व अलग है तो दलितों में अनंत मारामारी है।

सलवा जुड़ुम के सैन्यतंत्र के खिलाफ बहुजन मूक वधिर हैं।

नोटबंदी के बारे में बहुजन बुद्धिजीवी फासिज्म के राजकाज के पक्ष में हैं और हर मुद्दे पर डाइवर्ट कर रहे हैं,नोटबंदी के खिलाफ मोर्चे में बहुजन कहीं नहीं हैं।

फासिज्म के राजकाज के पक्ष में खड़े होकर अपनी खाल मलाईदार करने के अलावा अब अंबेडकर मिशन का कोई दूसरा मतलब नहीं रह गया है।

बहुजनों के तमाम राम बलराम कृष्ण कन्हैया पूरा का पूरा यदुवंश अब केसरिया कारपोरेट साम्राज्यवाद के हनुमान और वानरसनाएं हैं।सीता मइया,लक्ष्मी,दुर्गा काली कामाख्या विंध्यवासिनी.चंडी के सारे अवतार और उनके सारे भैरव भी उन्हीं के साथ हैं।राधा भी उन्हीं की हैं।मठों,मंदिरों और धर्मस्थलों के कर्मकांडी ब्राह्मणों के मुकाबले राम से बजरंगी बने बहुजन ब्राह्मणधर्म के सबसे बड़े समर्थक हो गये हैं।जिहादी हो गये हैं कारपोरेट हिंदुत्व के नरसंहारी कार्यक्रम के सारे दलित पिछड़े बहुजन,यही सच है।

ब्राह्मण भले विरोध,प्रतिरोध करें,शूद्रों,अछूतों और आदिवासियों को हर हाल में चाहिए मनुस्मृति शासन!


हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,राजघराना भौते नाराज भयो!

राजघराना मतबल राजकाज का सिरमौर अपना देशभक्त आरएसएस!

बलि,आरएसएस बगुलाभगतों के कारपोरेट लाटरी आयोग से सख्त खफा है!

बलि,अश्वमेधी घोड़ों की जुबान फिसलने लगी है कि देश का बंटाधार करने लगे बगुला भगतों के कारपोरेट गिरोह!


बलि,आरएसएस बगुलाभगतों के कारपोरेट लाटरी आयोग से सख्त खफा है!

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच की नींद खुल गयी बताते हैं और बगुला भगतों के कब्जे में नीति आयोग की जनविरोधी भूमिका के खिलाफ 10 जनवर को मंच एक सम्मेलन का आयोजन भी करने जा रहा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,कल्कि महाराज के राजकाज से जनविद्रोह की भनक शायद नागपुर के पवित्रतम धर्मस्थल को लग गयी है और जैसे कि हम लगातार हिंदुत्व के एजंडे को कारपोरेट नस्ली नरसंहार बता लिख रहे हैं,आम जनता में भी यह धारणा प्रबल हो जाने से ब्राह्मणधर्म के मठों और महंतो में खलबली मच गयी है।

नोटबंदी से आम जनता जो भयानक नर्क रोजमर्रे की जिंदगी,बुनियादी सेवाओं और बुनियादी जरुरतों के लिए जीने को मजबूर है,जो सुरसामुखी बेरोजगारी और भुखमरी के हालात बनने लगे हैं,उस नर्क की आग में संघ परिवार को भी अपना मृत्यु संगीत सुनायी देने लगा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,संघी सत्ता वर्चस्व और मनुस्मृति राजकाज के लिए दस दिगंत संकट गगन घटा घहरानी है।उनकी जान मगर बहुजन बजरंगी सयानी है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,बगुला भगतों ने संघ साम्राज्य की नींव में बारुदी सुरंगे बिछा दी हैं और स्वयंसेवकों को धमाके रोकने के लिए लगा दिया गया है।आगे पीछे बहुजन सिपाहसालारों की अगुवाई में पैदल केसरिया फौजों की किलेबंदी है।

बहुजन नेतृत्व चौसठ आसनों में पारंगत हैं।किस आसन से कौन सी कवायद,प्राणायम कि कपालभाति भांति भांति लिट्टी चोखा,नीतीश लालू, नायडु, मुलायम,अखिलेश-उत्तर से दक्खिन इनकी, सभी की जुबान कैसे कैसे फिसलती जब तब है।कौन किस छिद्र से नाद ब्रह्म सिरजें,हमउ न जाने हैं।

वाह,उनकी दिलफरेब नादानी है।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,यूपी,उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनावों से अब जाहिर है कि संघ परिवार को बहुत डर लगने लगा है।बहुजन बिखरे एक दूसरे से खूब लड़ रहे हैं,तो क्या हुआ।फिजां कयामत है। नोटबंदी की कयामत भारी है कि ज्वालामुखी सुलग रहे  हैं न जाने कहां कहां।पैंट गीली है तो निक्कर भी गीली है।

हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे के लिए आगे शनि दशा बहुत भारी  है और वास्तुशास्त्र,यज्ञ होम,गृहशांति,ग्रहशांति का कोई कर्मकांड इसका खंडन नही कर सकता।संघ परिवार और उनके कारपोरेट हिंदुत्व एजंडा के तरणहार समझ लीजिये कि इस महादेश का कोई ब्राह्मण करने की हालत में नहीं हैं।यह पुण्यकर्म ओबीसी,दलित और आदिवासी होनहार वीरवान अबेडकरी योद्धा सकल सहर्ष करेंगे।करते रहे हैं।

हड़ि!हुड़ हुड़!संसद में सत्ता के खिलाफ आस्था मत विभाजन का इतिहास देख लीजिये कि केंद्र की डगमगाती सत्ता को हर बार कैसे बहुजन क्षत्रपों ने किस खूबी से किस लिए बनाये रखकर बहुजनों का बंटाधार करते रहे हैं।सत्ता में जो भागेदारी है।करोड़पति,अरबपति,खरबपति गोलबंदी में बहुजन सिपाहसालार काबिल कारिंदे हैं।

मूक वधिर बहुजनों को संघ परिवार के लिए उस मृत्युसंगीत का शोर सुनायी नहीं पड़ रहा है तो समझ लीजिये कि अब भी वे गुलामगिरि की हैसियतें खोने के लिए कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है।उन सबको गुलाम गरि मुबारक।आपको भी।

हड़ि!हुड़ हुड़!बलि,अब फासिज्म के राजकाज से पल्ला झाड़ने की तैयारी स्वदेशी जागरण मंच के हवाले है।कहा जा रहा है कि संघ परिवार की लाड़ली ,दुलारी ग्लोबल हिंदुत्व की हुकूमत कतई नहीं,नहीं नहीं,बल्कि  नीति आयोग के कारपोरेट बगुला भगतों के असर में राजकाज चल रहा है।

हड़ि!हुड़ हुड़!मजे की बात यह है हम भी यही कहत लिखत रहे हैं और अब गुड़ गोबर हुआ तो काफी हद तक मान लिया जा रहा है कि इस फासिज्म के राजकाज से हिंदुत्व के महान पवित्र एजंडा या संघ परिवार का कोई लेना देना नहीं है।

नोटबंदी से हालात सुधरने का इंतजार संघ परिरवार अब जाहिर है, करने वाला नहीं है।अपना नस्ली सत्तावर्चस्व और मनुस्मृति शासन बहाल रखने के लिए अपनी ही सरकार के राजकाज के खिलाफ शेषनाग के अलग अलग फन अलग अलग भाषा में बोलने लगे हैं।झोला छाप बगुला भगतों पर अपनी सरकार के सारे पापों का बोझ लादकर संघ परिवार हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे को पाक साफ साबित करने में लगा है।

ताज्जुब की बात यह है कि इस कारपोरेट एजंडे के मनुस्मृति शासन से बहुजनों को कोई खास तकलीफ होती नहीं दिखायी दे रही है।

अंबेडकर मिशन इस मामले में खामोश है और बहुजन अपनी गुलामगिरि की जड़ें आत्ममुग्ध नरसिस महान की वंदना में मजबूत करने में जी तोड़ जोर लगा रहे हैं।

हर कोई राम बनकर हनुमान बनने की फिराक में हैं।

बजरंगी तो कोई भी बन जावे हैं।

पहले से राम से हनुमान बजरंगी वानर बनी बिरादरी की फजीहत उन्हें नजर नहीं आ रही है।

देशभर में कायस्थ,भूमिहार,त्यागी,पहाड़ की तमाम पिछड़ी जातियां जो नेपाल में मधेशी हैं,बंगाल के तमाम ओबीसी वगैरह वगैरह खुद को बाम्हण से कम नहीं समझते।आधी आबादी की जन्मजात गुलाम,दासी,शूद्र स्त्रियां पिता और पति की पहचान से अपनी अस्मिता जोड़कर अपने को दूसरी स्त्रियों से ऊंची जातियां साबित करते रहने में जिंदगी भर नर्क जीती हैं।रोजरोज मरती हैं।जीती हैं।भ्रूण हत्या से बच गयी तो आनर कीलिंग या दहेज हत्या,बलात्कार सुनामी में बच भी गयी तो घरेलू हिंसा,रोज रोज उत्पीड़न के मारे आत्महत्या,पग पग पर अग्निपरीक्षा,फिर भी सती सावित्री सीमता मइया हैं।पढ़ी लिखी काबिल हुई तो भी नर्क से निजात हरगिज नहीं।फिरभी दुर्गावाहिनी उनकी अंतिम शरणस्थली है।नियति फिर वही सतीदाह है।

मनुस्मृति विधान के मुताबिक ये तमाम जातियां और तमाम स्त्रियां,शूद्र ढोल गवांर और पशु ताड़न के अधिकारी शूद्र हैं।

आदिवासी और दलित भी ज्यादा हिंदू,ज्यादा ब्राह्मण हो गये हैं ब्राह्मणों के मुकाबले।कुछ तो जनेऊ भी धारण करते हैं।साधु संत साध्वी बाबा बाबी बनकर ऋषि विश्वमित्र की तर्ज पर ब्राह्मणत्व हासिल करने का योगाभ्यास करते करते विशुध पतंजलि हैं।अभिज्ञान शाकुंतलम् का किस्सा है।महाभारत तो होइबे करै।

विडंबना है कि तथागत गौतम बुद्ध,बाबासाहेब और महात्मा ज्योतिबा फूले,हरिचांद ठाकूर, पेरियार और नारायण स्वामी के ब्रांड से,फिर अब वाम पक्ष के विद्वान भी अपनी अपनी दुकान चलाने वाले तमाम दुकानदार सिर्फ ब्राह्मणों के गरियाकर ही देश में क्रांति कर देना चाहते हैं।

सामाजिक न्याय और समता के आधार पर समाज बनाने के लिए ब्राह्मण धर्म के मुताबिक मनुस्मृति शासन की पैदल सेना और सिपाहसालार बने तमाम लोगों की पूंजी फिर वही जातिव्यवस्था है।पूंजी ब्राह्मणों के खिलाफ गाली है।

ब्राह्मण इस देश में सिर्फ तीन फीसद हैं।

देश में ब्राह्मणों के वोट सिर्फ यूपी में निर्णायक हैं।

बाकी देश में ब्राह्मण अति अल्पसंख्यक हैं।

बाकी राज्यों में और देश भर में राजकाज बहुजनों के वोट से चलता है और उसमें आधी आबादी जाति धर्म नस्ल निर्विशेष शूद्र स्त्रियों की है तो लिंग निर्विशेष आधी से ज्यादा आाबादी शूद्रों की हैं,जिन्हें हम ओबीसी कहते हैं।

आरक्षण और ओबीसी के बाहर भी शूद्र हैं,जैसे स्त्रियां जाति या धर्म या नस्ल के मुताबिक जो भी हों ,मनुस्मृति विधान के मुताबिक शूद्र हैं।

भूमिहार और त्यागी भले खुद को बाम्हण मानते हों,कायस्थ भले ही उनके समकक्ष हों और वे ओबीसी में नहीं आते हों,मनुस्मृति के मुताबिक वे वर्ण में नहीं आते।

वर्ण के बिना कोई सवर्ण नहीं होता।

ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य के अलावा किसी जाति का कोई सवर्ण हो ही नहीं सकता।

फिरभी बहुत सी शूद्र जातियां खुद को सवर्ण मानती हैं और जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के वे सबसे बड़े समर्थक हैं।

ये तमाम लोग मनुस्मृति बहाल रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

यही फासिज्म के राजकाज का सबसे बड़ा आधार है।

बाबासाहेब डा.भीम राव अंबेडकर के शूद्रों की उत्पत्ति के बारे शोध की रोशनी में शूद्रों की सत्ता में साझेदारी की पहेली काफी हद तक समझ में आती है।लेकिन दलितों और आदिवासियों की भूमिका समझ से परे हैं।

गौरतलब है कि 'शूद्रों की खोज' डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखी पुस्तक 'Who Were Shudras?' का हिंदी संस्करण है। 240 पृष्ठ की इस किताब में डॉ अम्बेडकर ने इतिहास के पन्नों से दो सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है, 1. शूद्र कौन थे? और 2. वे भारतीय आर्य समुदाय का चौथा वर्ण कैसे बने? संक्षेप में पूरी किताब और बाबा साहेब के शोध का निष्कर्ष इस प्रकार है-

1. शूद्र सूर्यवंशी आर्य समुदायों में से थे।

2. एक समय था जब आर्य समुदाय केवल तीन वर्णों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मान्यता देता था।

3. शूद्र अलग वर्ण के सदस्य नहीं थे। भारतीय आर्य समुदाय में वे क्षत्रिय वर्ण के अंग थे।

4. शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों में निरंतर झगड़ा रहता था जिसमें ब्राह्मणों को अनेक अत्याचार और अपमान झेलने पड़ते थे।

5. शूद्रों के अत्याचारों और दमन के कारण उनके प्रति उपजी घृणा के फलस्वरूप ब्राह्मणों नें शूद्रों का उपनयन करने से मना कर दिया।

6. जब ब्राह्मणों नें शूद्रों का उपनयन करने से मना कर दिया तो शूद्र, जो क्षत्रिय थे, सामाजिक स्तर पर अवनत हो गए, वैश्यों से नीचे की श्रेणी में आ गए और इस प्रकार चौथा वर्ण बन गया।


सत्ता और कमसकम सत्ता में साझेदारी के लिए शूद्रों की उत्कट आकांक्षा के बारे में बाबासाहेब के शोध की रोशनी में शूद्र क्षत्रपों की सौदेबाजी, मौकापरस्ती और दगाबाजी की परंपरा साफ उजागर होती है।

इसके विपरीत आदिवासी हड़प्पा मोहंजोदोड़ो समय से वर्चस्ववाद के खिलाफ लगातार जल जंगल जमीन की लड़ाई सामंती तत्वों और साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ लड़ते रहे हैं।द्रविड़ों और अनार्यों के आत्मसमर्पण के बावजूद,शूद्र शासकों और प्रजाजनों के सत्ता वर्ग के साथ हाथ मिलाते रहने के बावजूद उनका प्रतिरोध,हक हकूक की उनकी लड़ाई में कोई अंतराल नहीं है।

आदिवासियों के इस मिजाज और तेवर के मद्देनजर भारत में कदम रखते ही ईसाई मिशनरियों ने विदेशी शासकों के हितों के लिए उनका धर्मांतरण की मुहिम चेड़ दी।जिससे आदिवासियों में शिक्षा का प्रसार हुआ और काफी हद तक उनकी आदिम जीवनशैली का कायाकल्प भी हुआ।लेकिन ईसाई मिसनरियों को आदिवासियों के धर्मांतरण के बावजूद आदिवासियों को सत्ता वर्ग के साथ नत्थी करने में कोई कामयाबी नहीं मिली।

आजादी के बाद संघियों ने आदिवासी इलाकों का हिंदुत्वकरण अभियान छेडा़ और आदिवासियों के सलवाजुड़ुम कार्यकर्म के तहत एक दूसरे के खिलाफ लामबंद कर दिया।आदिवासियों का जो तबका जल जगंल जमीन के हक हकूक के लिए लगातार प्रतिरोध कर रहे हैं,उनका सैन्य दमन हो रहा है।लेकिन आदिवासियों के शिक्षित तबके को बाहुबली क्षत्रिय जातियों और पढ़े लिखे दलितों की तरह बजरंगी बनाने की मुहिम में स्वयंसेवकों ने ईसाई मिशनरियों को मात दे दी है।

दलितों,पिछड़ों की गुलामगिरि को समझने के लिए महात्मा ज्योतिबा फूले की किताब गुलामगिरि अनिवार्य पाठ है।

महात्मा फूले के बारे में आदरणीय शेष नारायण जी का यह मंतव्य बहुजनों के मौजूदा संकट को समझने में मददगार हो सकता हैः

1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।


महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।


महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।


महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।


गुलामगिरिःप्रस्तावना

सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।

उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।

लेकिन अब इन ग्रंथो के बारे में कोई मामूली ढंग से भी सोचे कि, यह बात कहाँ तक सही है, क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं, तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरंत समझ में आ जाएगी। लेकिन इस प्रकार के ग्रंथो से सर्वशक्तिमान, सृष्टि का निर्माता जो परमेश्वर है, उसकी समानत्ववादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है। इस तरह के हमारे जो ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है, क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वे ही लोग अब भी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं। एक भाई द्वारा दूसरे भाई पर जुल्म करना, यह भाई का धर्म नहीं है। फिर भी हमें, हम सभी को उत्पन्नकर्ता के रिश्ते से, उन्हें भाई कहना पड़ रहा है। वे भी खुले रूप से यह कहना छोड़ेंगे नहीं, फिर भी उन्हें केवल अपने स्वार्थ का ही ध्यान न रखते हुए न्यायबुद्धि से भी सोचना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करेंगे। तो उन ग्रंथो को देख कर-पढ़ कर बुद्धिमान अंग्रेज, फ्रेंच, जर्मन, अमेरिकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिए बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रंथो को (ब्राह्मणों ने) केवल अपने मतलब के लिए लिख रखा है। उन ग्रंथो को में हर तरह से ब्राह्मण-पुरोहितों का महत्व बताया गया है। ब्राह्मण-पुरोहितों का शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिलो-दिमाग पर हमेशा-हमेशा के लिए वर्चस्व बना रहे इसलिए उन्हें ईश्वर से भी श्रेष्ठ समझा गया है। ऊपर जिनका नाम निर्देश किया गया है, उनमें से कई अंग्रेज लोगों ने इतिहासादि ग्रंथो में कई जगह यह लिख रखा है कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए अन्य लोगों को यानी शूद्रादि-अतिशूद्रों को अपना गुलाम बना लिया है। उन ग्रंथो द्वारा ब्राह्मण-पुरोहितों ने ईश्वर के वैभव को कितनी निम्न स्थिति में ला रखा है, यह सही में बड़ा शोचनीय है। जिस ईश्वर ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को और अन्य लोगों को अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि की सभी वस्तुओं को समान रूप से उपभोग करने की पूरी आजादी दी है, उस ईश्वर के नाम पर ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों एकदम झूठ-मूठ ग्रंथो की रचना करके, उन ग्रंथो में सभी के (मानवी) हक को नकारते हुए स्वयं मालिक हो गए।

इस बात पर हमारे कुछ ब्राह्मण भाई इस तरह प्रश्न उठा सकते हैं कि यदि ये तमाम ग्रंथ झूठ-मूठ के हैं, तो उन ग्रंथों पर शूद्रादि-अतिशूद्रों के पूर्वजों ने क्यों आस्था रखी थी? और आज इनमें से बहुत सारे लोग क्यों आस्था रखे हुए हैं? इसका जवाब यह है कि आज के इस प्रगति काल में कोई किसी पर जुल्म नहीं कर सकता। मतलब, अपनी बात को लाद नहीं सकता। आज सभी को अपने मन की बात, अपने अनुभव की बात स्पष्ट रूप से लिखने या बोलने की छूट है।

कोई धूर्त आदमी किसी बड़े व्यक्ति के नाम से झूठा पत्र लिख कर लाए तो कुछ समय के लिए उस पर भरोसा करना ही पड़ता है। बाद में समय के अनुसार वह झूठ उजागर हो ही जाता है। इसी तरह, शूद्रादि-अतिशूद्रों का, किसी समय ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के जुल्म और ज्यादतियों के शिकार होने की वजह से, अनपढ़ गँवार बना कर रखने की वजह से, पतन हुआ है। ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए समर्थ (रामदास)[2] के नाम पर झूठे-पांखडी ग्रंथों की रचना करके शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुमराह किया और आज भी इनमें से कई लोगों को ब्राह्मण-पुरोहित लोग गुमराह कर रहे हैं, यह स्पष्ट रूप से उक्त कथन की पुष्टि करता है।

ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रंथो द्वारा, जगह-जगह बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके दिलों-दिमाग में ब्राह्मणों के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही। इन लोगों को उन्होंने (ब्राह्मणों ने) इनके मन में ईश्वर के प्रति जो भावना है, वही भावना अपने को (ब्राह्मणों को) समर्पित करने के लिए मजबूर किया। यह कोई साधारण या मामूली अन्याय नहीं है। इसके लिए उन्हें ईश्वर के जवाब देना होगा। ब्राह्मणों के उपदेशों का प्रभाव अधिकांश अज्ञानी शूद्र लोगों के दिलो-दिमाग पर इस तरह से जड़ जमाए हुए है कि अमेरिका के (काले) गुलामों की तरह जिन दुष्ट लोगों ने हमें गुलाम बना कर रखा है, उनसे लड़ कर मुक्त (आजाद) होने की बजाए जो हमें आजादी दे रहे हैं, उन लोगों के विरुद्ध फिजूल कमर कस कर लड़ने के लिए तैयार हुए हैं। यह भी एक बड़े आश्चर्य की बात है कि हम लोगों पर जो कोई उपकार कर रहे हैं, उनसे कहना कि हम पर उपकार मत करो, फिलहाल हम जिस स्थिति में हैं वही स्थिति ठीक है, यही कह कर हम शांत नहीं होते बल्कि उनसे झगड़ने के लिए भी तैयार रहते हैं, यह गलत है। वास्तव में हमको गुलामी से मुक्त करनेवाले जो लोग हैं, उनको हमें आजाद कराने से कुछ हित होता है, ऐसा भी नहीं है, बल्कि उन्हें अपने ही लोगों में से सैकड़ों लोगों की बलि चढ़ानी पड़ती है। उन्हें बड़ी-बड़ी जोखिमें उठा कर अपनी जान पर भी खतरा झेलना पड़ता है।

अब उनका इस तरह से दूसरों के हितों का रक्षण करने के लिए अगुवाई करने का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यदि इस संबंध में हमने गहराई से सोचा तो हमारी समझ में आएगा कि हर[i]

मनुष्य को आजाद होना चाहिए, यही उसकी बुनियादी जरूरत है। जब व्यक्ति आजाद होता है तब उसे अपने मन के भावों और विचारों को स्पष्ट रूप से दूसरों के सामने प्रकट करने का मौका मिलता है। लेकिन जब से आजादी नहीं होती तब वह वही महत्वपूर्ण विचार, जनहित में होने के बावजूद दूसरों के सामने प्रकट नहीं कर पाता और समय गुजर जाने के बाद वे सभी लुप्त हो जाते हैं। आजाद होने से मनुष्य अपने सभी मानवी अधिकार प्राप्त कर लेता है और असीम आनंद का अनुभव करता है। सभी मनुष्यों को मनुष्य होने के जो सामान्य अधिकार, इस सृष्टि के नियंत्रक और सर्वसाक्षी परमेश्वर द्वारा दिए गए हैं, उन तमाम मानवी अधिकारों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित वर्ग ने दबोच कर रखा है। अब ऐसे लोगों से अपने मानवी अधिकार छीन कर लेने में कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए। उनके हक उन्हें मिल जाने से उन अंग्रेजों को खुशी होती है। सभी को आजादी दे कर, उन्हें जुल्मी लोगों के जुल्म से मुक्त करके सुखी बनाना, यही उनका इस तरह से खतरा मोल लेने का उद्देश्य है। वाह! वाह! यह कितना बड़ा जनहित का कार्य है!

उनका इतना अच्छा उद्देश्य होने की वजह से ही ईश्वर उन्हें, वे जहाँ गए, वहाँ ज्यादा से ज्यादा कामयाबी देता रहा है। और अब आगे भी उन्हें इस तरह के अच्छे कामों में उनके प्रयास सफल होते रहे, उन्हें कामयाबी मिलती रहे, यही हम भगवान से प्रार्थना करते हैं।

दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका जैसे पृथ्वी के इन दो बड़े हिस्सो में सैकड़ो साल से अन्य देशों से लोगों को पकड़-पकड़ कर यहाँ उन्हें गुलाम बनाया जाता था। यह दासों को खरीदने-बेचने की प्रथा यूरोप और तमाम प्रगतिशील कहलाने वाले राष्ट्रों के लिए बड़ी लज्जा की बात थी। उस कलंक को दूर करने के लिए अंग्रेज, अमेरिकी आदि उदार लोगों ने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ कर अपने नुकसान की बात तो दरकिनार, उन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और गुलामों की मुक्ति के लिए लड़ते रहे। यह गुलामी प्रथा कई सालों से चली आ रही थी। इस अमानवीय गुलामी प्रथा को समूल नष्ट कर देने के लिए असंख्य गुलामों को उनके परमप्रिय माता-पिता से, भाई-बहनों से, बीवी-बच्चों से, दोस्त-मित्रों से जुदा कर देने की वजह से जो यातनाएँ सहनी पड़ीं, उससे उन्हें मुक्त करने के लिए उन्होंने संघर्ष किया। उन्होंने जो गुलाम एक दूसरे से जुदा कर दिए गए थे, उन्हें एक-दूसरे के साथ मिला दिया। वाह! अमेरिका आदि सदाचारी लोगों ने कितना अच्छा काम किया है! यदि आज उन्हें इन गरीब अनाथ गुलामों की बदतर स्थिति देख कर दया न आई होती तो ये गरीब बेचारे अपने प्रियजनों से मिलने की इच्छा मन-ही-मन में रख कर मर गए होते।

दूसरी बात, उन गुलामों को पकड़ कर लानेवाले दुष्ट लोग उन्हें क्या अच्छी तरह रखते भी या नहीं? नहीं, नहीं! उन गुलामों पर वे लोग जिस प्रकार से जुल्म ढाते थे, उन जुल्मों, की कहानी सुनते ही पत्थरदिल आदमी की आँखे भी रोने लगेंगी। वे लोग उन गुलामों को जानवर समझ कर उनसे हमेशा लात-जूतों से काम लेते थे। वे लोग उन्हें कभी-कभी लहलहाती धूप में हल जुतवा कर उनसे अपनी जमीन जोत-बो लेते थे और इस काम में यदि उन्होंने थोड़ी सी भी आनाकानी की तो उनके बदन पर बैलों की तरह छाँटे से घाव उतार देते थे। इतना होने पर भी क्या वे उनके खान-पान की अच्छी व्यवस्था करते होंगे? इस बारे में तो कहना ही क्या! उन्हें केवल एक समय का खाना मिलता था। दूसरे समय कुछ भी नहीं। उन्हें जो भी खाना मिलता था, वह भी बहुत ही थोड़ा-सा। इसकी वजह से उन्हें हमेशा आधे भूखे पेट ही रहना पड़ता था। लेकिन उनसे छाती चूर-चूर होने तक, मुँह से खून फेंकने तक दिन भर काम करवाया जाता था और रात को उन्हें जानवरों के कोठे में या इस तरह की गंदी जगहों में सोने के लिए छोड़ दिया जाता था, जहाँ थक कर आने के बाद वे गरीब बेचारे उस पथरीली जमीन पर मुर्दों की तरह सो जाते थे। लेकिन आँखों में पर्याप्त नींद कहाँ से होगी? बेचारों को आखिर नींद आएगी भी कहाँ से? इसमें पहली बात तो यह थी के पता नहीं मालिक को किस समय उनकी गरज पड़ जाए और उसका बुलावा आ जाए, इस बात का उनको जबरदस्त डर लगा रहता था। दूसरी बात तो यह थी कि पेट में पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं होने की वजह से जी घबराता था और टाँग लड़खड़ा‌ने लगती थी। तीसरी बात यह थी कइ दिन-भर-बदन पर छाँटे के वार बरसते रहने से सारा बदन लहूलुहान हो जाता और उसकी यातनाएँ इतनी जबर्दस्त होती थीं कि पानी में मछली की तरह रात-भर तड़फड़ाते हुए इस करवट पर होना पड़ता था। चौथी बात यह थी कि अपने लोग पास न होने की वजह से उस बात का दर्द तो और भी भयंकर था। इस तरह बातें मन में आने से यातनाओं के ढेर खड़े हो जाते थे और आँखे रोने लगती थीं। वे बेचारे भगवान से दुआ माँगते थे कि 'हे भगवान! अब भी तुझको हम पर दया नहीं आती! तू अब हम पर रहम कर। अब हम इन यातनाओं को बर्दाश्त करने के भी काबिल नहीं रहे हैं। अब हमारी जान भी निकल जाए तो अच्छा ही होगा।' इस तरह की यातनाएँ सहते-सहते, इस तरह से सोचते-सोचते ही सारी रात गुजर जाती थी। उन लोगों को जिस-जिस प्रकार की पीड़ाओं को, यातनाओं को सहना पड़ा, उनको यदि एक-एक करके कहा जाए तो भाषा और साहित्य के शोक-रस के शब्द भी फीके पड़ जाएँगे, इसमें कोई संदेह नहीं। तात्पर्य, अमेरिकी लोगों ने आज सैकड़ों साल से चली आ रही इस गुलामी की अमानवीय परंपरा को समाप्त करके गरीब लोगों को उन चंड लोगों के जुल्म से मुक्त करके उन्हें पूरी तरह से सुख की जिंदगी बख्शी है। इन बातों को जान कर शूद्रादि- अतिशूद्रों को अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही ज्यादा खुशी होगी, क्योंकि गुलामी की अवस्था में गुलाम लोगों को, गुलाम जातियों को कितनी यातनाएँ बर्दाश्त करनी पड़ती हैं, इसे स्वयं अनुभव किए बिना अंदाज करना नामुमकिन है। जो सहता है, वही जानता है

अब उन गुलामों में और इन गुलामों में फर्क इतना ही होगा कि पहले प्रकार के गुलामों को ब्राह्मण-पुरोहितों ने अपने बर्बर हमलों से पराजित करके गुलाम बनाया था और दूसरे प्रकार के गुलामों को दुष्ट लोगों ने एकाएक जुल्म करके गुलाम बनाया था। शेष बातों में उनकी स्थिति समान है। इनकी स्थिति और गुलामों की स्थिति में बहुत फर्क नहीं है। उन्होंने जिस-जिस प्रकार की मुसीबतों को बर्दाश्त किया है; वे सभी मुसीबतें ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों द्वारा ढाए जुल्मों से कम हैं। यदि यह कहा जाए कि उन लोगों से भी ज्यादा ज्यादतियाँ इन शूद्रादि-अतिशूद्रों को बर्दाश्त करनी पड़ी हैं, तो इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए। इन लोगों को जो जुल्म सहना पड़ा, उसकी एक-एक दास्तान सुनते ही किसी भी पत्थरदिल आदमी को ही नहीं बल्कि साक्षात पत्थर भी पिघल कर उसमें से पीड़ाओं के आँसुओं की बाढ़ निकल पड़ेगी और उस बाढ़ से धरती पर इतना बहाव होगा कि जिन पूर्वजों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुलाम बनाया, उनके आज के वंशज जो ब्राह्मण, पुरोहित भाई हैं उनमें से जो अपने पूर्वजों की तरह पत्थरदिल नहीं, बल्कि जो अपने अंदर के मनुष्यत्व को जाग्रत रख कर सोचते हैं, उन लोगों को यह जरूर महसूस होगा कि यह एक जलप्रलय ही है। हमारी दयालु अंग्रेज सरकार को, शूद्रादि-अतिशूद्रों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से किस-किस प्रकार का जुल्म सहा है और आज भी सह रहे हैं, इसके बारे में कुछ भी मालूमात नहीं है। वे लोग यदि इस संबंध में पूछ्ताछ करके कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश करेंगे तो उन्हें यह समझ में आ जाएगा कि उन्होंने हिंदुस्थान का जो भी इतिहास लिखा है उसमें एक बहुत बड़े, बहुत भंयकर और बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्से को नजरअंदाज किया है। उन लोगों को एक बार भी शूद्राद्रि-अतिशूद्रों के दुख-दर्दों की जानकारी मिल जाए तो सच्चाई समझ में आ जाएगी और उन्हें बड़ी पीड़ा होगी। उन्हें अपने (धर्म) ग्रंथों में, भयंकर बुरी अवस्था में पहुचाए गए और चंड लोगों द्वारा सताए हुए, जिनकी पीड़ाओं की कोई सीमा ही नहीं है, ऐसे लोगों की दुरावस्था को उपमा देना हो तो शूद्रादि-अतिशूद्रों की स्थिति की ही उपमा उचित होगी, ऐसा मुझे लगता है। इससे कवि को बहुत विषाद होगा। कुछ को अच्छा भी लगेगा कि आज तक कविताओं में शोक रस की पूरी तसवीर श्रोताओं के मन में स्थापित करने के लिए कल्पना की ऊँची उड़ाने भरनी पड़ती थीं, लेकिन अब उन्हें इस तरह की काल्पनिक दिमागी कसरत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि अब उन्हें यह स्वयंभोगियों का जिंदा इतिहास मिल गया है। यदि यही है तो आज के शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिल और दिमाग अपने पूर्वज की दास्तानें सुन कर पीड़ित होते होंगे, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम जिनके वंश में पैदा हुए हैं, जिनसे हमारा खून का रिश्ता है, उनकी पीड़ा से पीड़ित होना स्वाभाविक है। किसी समय ब्राह्मणों की राजसत्ता में हमारे पूर्वजों पर जो भी कुछ ज्यादतियाँ हुईं, उनकी याद आते ही हमारा मन घबरा कर थरथराने लगता है। मन में इस तरह के विचार आने शुरू हो जाते हैं कि जिन घटनाओं की याद भी इतनी पीड़ादायी है, तो जिन्होंने उन अत्याचारों को सहा है, उनके मन कि स्थिति किस प्रकार की रही होगी, यह तो वे ही जान सकते हैं। इसकी अच्छी मिसाल हमारे ब्राह्मण भाइयों के (‌धर्म) शास्त्रों में ही मिलती है। वह यह कि इस देश के मूल निवासी क्षत्रिय लोगों के साथ ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग के मुखिया परशुराम जैसे व्यक्ति ने कितनी क्रूरता बरती, यही इस ग्रंथ में बताने का प्रयास किया गया है। फिर भी उसकी क्रूरता के बारे में इतना समझ में आया है कि उस परशुराम ने कई क्षत्रियों को मौत के घाट उतार दिया था। और उस (ब्राह्मण) परशुराम ने क्षत्रियों की अनाथ हुई नारियों से, उनके छोटे-छोटे चार-चार पाँच-पाँच माह के निर्दोष मासूम बच्चों को जबरदस्ती छीन कर अपने मन में किसी प्रकार की हिचकिचाहट न रखते हुए बड़ी क्रूरता से उनको मौत के हवाले कर दिया था। यह उस ब्राह्मण परशुराम का कितना जघन्य अपराध था। वह चंड इतना ही करके चुप नहीं रहा, अपने पति के मौत से व्यथित कई नारियों को, जो अपने पेट के गर्भ की रक्षा करने के लिए बड़े दुखित मन से जंगलों-पहाड़ों में भागे जा रही थीं, वह उनका कातिल शिकारी की तरह पीछा करके, उन्हें पकड़ कर लाया और प्रसूति के पश्चात जब उसे यह पता चलता कि पुत्र की प्राप्ति हुई है, तो वह चंड हो कर आता और प्रसूतिशुदा नारियों का कत्ल कर देता था। इस तरह की कथा ब्राह्मण ग्रंथों में मिलती है। और जो ब्राह्मण लोग उनके विरोधी दल के थे, उनसे उस समय की सही स्थिति समझ में आएगी, यह तो हमें सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। हमें लगता है कि ब्राह्मणों ने उस घटना का बहुत बड़ा हिस्सा चुराया होगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने मुँह से अपनी गलतियों को कहने की हिम्मत नहीं करता। उन्होंने उस घटना को अपने ग्रंथ में लिख रखा है, यही बहुत बड़े आश्चर्य की बात है। हमारे सामने यह सवाल आता है कि परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रियों को पराजित करके उनका सर्वनाश क्यों किया और उनकी अभागी नारियों के अबोध, मासूम बच्चों का भी कत्ल क्यों किया? शायद इसमें उसे बड़ा पुरुषार्थ दिखता हो और उसकी यह बहादुरी बाद में आनेवाली पीढ़ियों को भी मालूम हो, इसलिए ब्राह्मण ग्रंथकारों ने इस घटना को अपने शास्त्रों में लिख रखा है। लोगों में एक कहावत प्रचलित है कि हथेली से सूरज को नहीं ढका जा सकता। उसी प्रकार यह हकीकत, जबकि उनको शर्मिंदा करनेवाली थी, फिर भी उनकी इतनी प्रसिद्धि हुई कि उनसे कि ब्राह्मणों ने उस घटना पर, जितना परदा डालना संभव हुआ, उतनी कोशिश उन्होंने की, और जब कोई इलाज ही नहीं बचा तब उन्होंने उस घटना को लिख कर रख दिया। हाँ, ब्राह्मणों ने इस घटना की जितनी हकीकत लिख कर रख दी, उसी के बारे में यदि कुछ सोच-विचार किया जाए तो मन को बड़ी पीड़ा होती है क्योंकि परशुराम ने जब उन क्षत्रिय गर्भधारिनी नारियों का पीछा किया तब उन गर्भिनियों को कितनी यातनाएँ सहनी पड़ी होंगी! पहली बात तो यह कि नारियों को भाग-दौड़ करने की आदत बहुत कम होती है। उसमें भी कई नारियाँ मोटी और कुलीन होने की वजह से, जिनको अपने घर की दहलीज पर चढ़ना भी मालूम नहीं था, घर के अंदर उन्हें जो कुछ जरूरत होती, वह सब नौकर लोग ला कर देते थे। मतलब जिन्होंने बड़ी सहजता से अपने जीवन का पालन-पोषण किया था, उन पर जब अपने पेट के गर्भ के बोझ को ले कर सूरज की लहलहाती धूप में टेढ़े-मेढ़े रास्तों से भागने की मुसीबत आई, इसका मतलब है कि वे भयंकर आपत्ति के शिकार थीं। उनको दौड़-भाग करने की आदत बिलकुल ही नहीं होने की वजह से पाँव से पाँव टकराते थे और कभी धड़ल्ले से चट्टान पर तो कभी पहाड़ की खाइयों में गिरती होंगी। उससे कुछ नारियों के माथे पर, कुछ नारियों की कुहनी को, कुछ नारियों के घुटनों को और कुछ नारियों के पाँव को ठेस-खरोंच लग कर खून की धाराएँ बहती होंगी। और परशुराम पीछे-पीछे दौड़ कर आ रहा है, यह सुन कर और भी तेजी से भागने-दौड़ने लगती होंगी। रास्ते में भागते-दौड़ते समय उनके नाजुक पाँवों में काँटे, कंकड़ चुभते होंगे। कंटीले पेड़-पौधों से उनके बदन से कपड़े भी फट गए होंगे और उन्हें काँटे भी चुभे होंगे। उसकी वजह से उनके नाजुक बदन से लहू भी बहता होगा। लहलहाती धूप में भागते-भागते उनके पाँव में छाले भी पड़ गए होंगे। और कमल के डंठल के समान नाजुक नीलवर्ण कांति मुरझा गई होगी। उनके मुँह से फेन बहता होगा। उनकी आँखों में आँसू भर आए होंगे। उनके मुँह को एक एक-दिन, दो-दो दिन पानी भी नहीं छुआ होगा। इसलिए बेहद थकान से पेट का गर्भ पेट में ही शोर मचाता होगा। उनको ऐसा लगता होगा कि यदि अब धरती फट जाए तो कितना अच्छा होता। मतलब उसमें वे अपने-आपको झोंक देती और इस चंड से मुक्त हो जाती। ऐसी स्थिति में उन्होंने आँखें फाड़-फाड़ कर भगवान की प्रार्थना निश्चित रूप से की होगी कि 'हे भगवान! तूने हम पर यह क्या जुल्म ढाएँ हैं? हम स्वयं बलहीन हैं, इसलिए हमको अबला कहा जाता हैं। हमें हमारे पतियों का जो कुछ बल प्राप्त था, वह भी इस चंड ने छीन लिया है। यह सब मालूम होने पर भी तू बुजदिल हो कर कायर की तरह हमारी कितनी इम्तिहान ले रहा है! जिसने हमारे शौहर को मार डाला और हम अबलाओं पर हथियार उठाए हुए है और इसी में जो अपना पुरूषार्थ समझता है, ऐसे चंड के अपराधों को देख कर तू समर्थ होने पर भी मुँह में उँगली दबाए पत्थर जैसा बहरा अंधा क्यों बन बैठा हैं?' इस तरह वे नारियाँ बेसहारा हो कर किसी के सहारे की तलाश में मुँह उठाए ईश्वर की याचना कर रही थीं। उसी समय चंड परशुराम ने वहाँ पहुँच कर उन अबलाओं को नहीं भगाया होगा? फिर तो उनकी यातनाओं की कोई सीमा ही नहीं रही होगी। उनमें से कुछ नारियों ने बेहिसाब चिल्ला-चिल्ला कर, चीख चीख कर अपनी जान गँवाई होगी? और शेष नारियों ने बड़ी विनम्रता से उस चंड परशुराम से दया की भीख नहीं माँगी होगी कि 'हे परशुराम, हम आपसे इतनी ही दया की भीख माँगना चाहते हैं कि हमारे गर्भ से पैदा होनेवाले अनाथ बच्चों की जान बख्शो! हम सभी आपके सामने इसी के लिए अपना आँचल पसार रहें हैं। आप हम पर इतनी ही दया करो। अगर आप चाहते हो तो हमारी जान भी ले सकते हो, लेकिन हमारे इन मासूम बच्चों की जान न लो! आपने हमारे शौहर को बड़ी बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया है, इसलिए हमें बेसमय वैधव्य प्राप्त हुआ है। और अब हम सभी प्रकार के सुखों से कोसों दूर चले गए हैं। अब हमें आगे बाल-बच्चों होने की भी कोई उम्मीद नहीं रही। अब हमारा सारा ध्यान इन बच्चों की ओर लगा हुआ है। अब हमें इतना ही सुख चाहिए। हमारे सुख की आशा स्वरूप हमारे ये जो मासूम बच्चे हैं, उनको भी जान से मार कर हमें आप क्यों तड़फड़ाते देखना चाहते हो? हम आपसे इतनी ही भीख माँगते हैं। वैसे तो हम आपके धर्म की ही संतान हैं। किसी भी तरह से क्यों न हो, आप हम पर रहम कीजिए। इतने करूणापूर्ण, भावपूर्ण शब्दों से उस चंड परशुराम का दिल कुछ न कुछ तो पिघल जाना चाहिए था, लेकिन आखिर पत्थर-पत्थर ही साबित हुआ। वह उन्हें प्रसूत हुए देख कर उनसे उनके नवजात शिशु छीनने लगा। तब ये उन नवजात शिशुओं की रक्षा के लिए उन पर औंधी गिर पड़ी होंगी और गर्दन उठा कर कह रही होंगी के 'हे परशुराम, आपको यदि इन नवजात शिशुओं की ही जान लेनी है तो सबसे पहले यही बेहतर होगा कि हमारे सिर काट लो, फिर हमारे पश्चात आप जो करना चाहें सो कर लो, किंतु हमारी आँखों के सामने हमारे उन नन्हें-मुन्हें बच्चों की जान न लो! 'लेकिन कहते हैं न, कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है। उसने उनकी एक भी न सुनी। यह कितनी नीचता! उन नारियों को गोद में खेल रहे उन नवजात शिशुओं को जबर्दस्ती छीन लिया गया होगा, तब उन्हें जो यातनाएँ हुई होंगी, जो मानसिक पीड़ाएँ हुई होंगी, उस स्थिति को शब्दों में व्यक्त करने के लिए हमारे हाथ की कलम थरथराने लगती है। खैर, उस जल्लाद ने उन नवजात शिशुओं की जान उनकी माताओं की आँखों के सामने ली होगी। उस समय कुछ माताओं ने अपनी छाती को पीटना, बालों को नोंचना और जमीन को कूदेरना शुरू कर दिया होगा। उन्होंने अपने ही हाथ से अपने मुँह में मिट्टी के ढले ठूँस-ठूँस कर अपनी जान भी गँवा दी होगी। कुछ माताएँ पुत्र शोक में बेहोश हो कर गिर पड़ी होंगी। उनके होश-हवास भूल गए होंगे। कुछ माताएँ पुत्र शोक के मारे पागल-सी हो गई होंगी। 'हाय मेरा बच्चा, हाय मेरा बच्चा!' करते-करते दर-दर, गाँव-गाँव, जंगल-जंगल भटकती होंगी। लेकिन इस तरह सारी हकीकत हमें ब्राह्मण-पुरोहितों से मिल सकेगी, यह उम्मीद लगाए रहना फिजूल की बातें हैं।

इस तरह ब्राह्मण-पुरोहितों के पूर्वज, अधिकारी परशुराम ने सैकड़ों क्षत्रियों को जान से मार कर उनके बीवी-बच्चों के भयंकर बुरे हाल किए और उसी को आज के ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सारी सृष्टि का निर्माता कहने के लिए कहा है, यह कितने बड़े आश्चर्य की बात हैं! परशुराम के पश्चात ब्राह्मणों ने इन्हें कम परेशान नहीं किया होगा। उन्होंने अपनी ओर से जितना सताया जा सकता है, उतना सताने में कोई कसर बाकी छोड़ी नहीं होगी। उन्होंने घृणा से इन लोगों में से अधिकांश लोगों के भयंकर बुरे हाल किए। उन्होंने इनमें से कुछ लोगों को इमारतों-भवनों की नींव में जिंदा गाड़ देने में भी कोई आनाकानी नहीं की, इस बारे में इस ग्रंथ में लिखा गया है।

उन्होंने इन लोगों को इतना नीच समझा था कि किसी समय कोई शूद्र नदी के किनारे अपने कपड़े धो रहा हो और इत्तिफाक से वहाँ यदि कोई ब्राह्मण आ जाए, तो उस शूद्र को अपने सभी कपड़े समेट करके बहुत दूर, जहाँ से ब्राह्मण के तन पर पानी का एक मामूली कतरा भी पड़ने की कोई संभावना न हो, ऐसे पानी के बहाव के नीचे की जगह पर जा कर अपने कपड़े धोना पड़ता था। यदि वहाँ से ब्राह्मण के तन पर पानी की बूँद का एक कतरा भी छू गया, या उसको इस तरह का संदेह भी हुआ, तो ब्राह्मण-पंडा आग के शोले की तरह लाल हो जाता था और उस समय उसके हाथ में जो भी मिल जाए या अपने ही पास के बर्तन को उठा कर, न आव देखा न ताव, उस शूद्र के माथे को निशाना बना कर बड़े जोर से फेंक कर मारता था उससे उस शूद्र का माथा खून से भर जाता था। बेहोशी में जमीन पर गिर पड़ता था। फिर कुछ देर बाद होश आता था तब अपने खून से भीगे हुए कपड़ों को हाथ में ले कर बिना किसी शिकायत के, मुँह लटकाए अपने घर चला जाता था। यदि सरकार में शिकायत करो तो, चारों तरफ ब्राह्मणशाही का जाल फैला हुआ था; बल्कि शिकायत करने का खतरा यह रहता था कि खुद को ही सजा भोगने का मौका न आ जाए। अफसोस! अफसोस!! हे भगवान, यह कितना बड़ा अन्याय है!

खैर, यह एक दर्दभरी कहानी है, इसलिए कहना पड़ रहा है। किंतु इस तरह की और इससे भी भयंकर घटनाएँ घटती थीं, जिसका दर्द शूद्रादि-अतिशूद्रों को बिना शिकायत के सहना पड़ता था। ब्राह्मणवादी राज्यों में शूद्रादि-अतिशूद्रों को व्यापार-वाणिज्य के लिए या अन्य किसी काम के लिए घूमना हो तो बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, बड़ी कठिनाइयाँ बर्दाश्त करनी पड़ती थीं। इनके सामने मुसीबतों का ताँता लग जाता था। उसमें भी एकदम सुबह के समय तो बहुत भारी दिक्कतें खड़ी हो जाती थीं, क्योंकि उस समय सभी चीजों की छाया काफी लंबी होती है। यदि ऐसे समय शायद कोई शूद्र रास्ते में जा रहा हो और सामने से किसी ब्राह्मण की सवारी आ रही है, यह देख कर उस ब्राह्मण पर अपनी छाया न पड़े, इस डर से कंपित हो कर उसको पल-दो-पल अपना समय फिजूल बरबाद करके रास्ते से एक ओर हो कर वहीं बैठ जाना पड़ता था। फिर उस ब्राह्मण के चले जाने के बाद उसको अपने काम के लिए निकलना पड़ता था। मान लीजिए, कभी-कभार बगैर खयाल के उसकी छाया उस ब्राह्मण पर पड़ी तो ब्राह्मण तुरंत क्रोधित हो कर चंड बन जाता था और उस शूद्र को मरते दम तक मारता-पीटता और उसी वक्त नदी पर जा कर स्नान कर लेता था।

शूद्रों से कई लोगों को (जातियों को) रास्ते पर थूकने की भी मनाही थी। इसलिए उन शूद्रों को ब्राह्मणों की बस्तियों से गुजरना पड़ा तो अपने साथ थूकने के लिए मिट्टी के किसी एक बरतन को रखना पड़ता था। समझ लो, उसकी थूक जमीन पर पड़ गई और उसको ब्राह्मण-पंडों ने देख लिया तो उस शूद्र के दिन भर गए। अब उसकी खैर नहीं। इस तरह ये लोग (शूद्रादि-अतिशूद्र जातियाँ) अनगिनत मुसीबतों को सहते-सहते मटियामेट हो गए। लेकिन अब हमें वे लोग इस नरक से भी बदतर जीवन से कब मुक्ति देते हैं, इसी का इंतजार है। जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अंदर जिंदगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से बीवी-बच्चों से भाई-बहन से मिलने के लिए या स्वतंत्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इंतजार करता है, उसी तरह का इंतजार, बेसब्री इन लोगों को भी होना स्वाभाविक ही है। ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मत कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आई, इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी के मुक्त हुए। इसीलिए के लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं। ये लोग अंग्रेजों के इन उपकारों को कभी भूलेंगे नहीं। उन्होंने इन्हें आज सैकड़ों काल से चली आ रही ब्राह्मणशाही की गुलामी की फौलादी जंजीरों को तोड़ करके मुक्ति की राह दिखाई है। उन्होंने इनके बीवी-बच्चों को सुख के दिन दिखाए हैं। यदि वे यहाँ न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने इन्हें कभी सम्मान और स्वतंत्रता की जिंदगी न गुजारने दी होती। इस बात पर कोई शायद इस तरह का संदेह उठा सकता है कि आज ब्राह्मणों की तुलना में शूद्रादि-अतिशूद्रों की संख्या करीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? कैसे गुलाम बना लिया? इसका जवाब यह है कि एक बुद्धिमान, चतुर आदमी इस अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग को अपने पास गिरवी रखा सकता है। उन पर अपना स्वामित्व लाद सकता है। और दूसरी बात यह है कि दस अनपढ़ लोग यदि एक ही मत के होते तो वे उस बुद्धिमान, चतुर आदमी की दाल ना गलने देते, एक न चलने देते; किंतु वे दस लोग दस अलग-अलग मतों के होने की वजह से ब्राह्मणों-पुरोहितों जैसे धूर्त, पाखंडी लोगों को उन दस भिन्न-भिन्न मतवादी लोगों को अपने जाल में फँसाने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती। शूद्रादि-अतिशूद्रों की विचार प्रणाली, मत मान्यताएँ एक दूसरे से मेल-मिलाप न करे, इसके लिए प्राचीन काल में ब्राह्मण-पुरोहितों ने एक बहुत बड़ी धूर्ततापूर्ण और बदमाशीभरी विचारधारा खोज निकाली। उन शूद्रादि-अतिशूद्रों के समाज की संख्या जैसे-जैसे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे ब्राह्मणों में डर की भावना उत्पन्न होने लगी। इसीलिए उन्होंने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में घृणा और नफरत बढ़ती रहे, इसकी योजना तैयार की। उन्होंने समाज में प्रेम के बजाय जहर के बीज बोए। इसमें उनकी चाल यह थी के यदि शूद्रादि-आतिशूद्र (समाज) आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे तब कहीं यहाँ अपने टिके रहने की बुनियाद मजबूत रहेगी और हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें अपना गुलाम बना कर बगैर मेहनत के उनके पसीने से प्राप्त कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ाने का मौका मिलेगा। अपनी इस चाल, विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जातिभेद की फौलादी जहरीली दीवारें खड़ी करके, उन्होंने इसके समर्थन में अपने जाति-स्वार्थसिद्धि के कई ग्रंथ लिख डाले। उन्होंने उन ग्रंथों के माध्यम से अपनी बातों को अज्ञानी लोगों के दिलों-दिमाग पर पत्थर की लकीर तरह लिख दिया। उनमें से कुछ लोग जो ब्राह्मणों के साथ बड़ी कड़ाई और दृढ़ता से लड़े, उनका उन्होंने एक वर्ग ही अलग कर दिया। उनसे पूरी तरह बदला चुकाने के लिए उनकी जो बाद की संतान हुई, उसको उन्हें छूना नहीं चाहिए, इस तरह की जहरीली बातें ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हीं लोगों के दिलो-दिमाग में भर दी फिलहाल जिन्हें माली, कुनबी (कुर्मी आदि) कहा जाता है। जब यह हुआ तब इसका परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बंद हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गए। इसीलिए इन लोगों को जीने के लिए मरे हुए जानवरों का मांस मजबूर हो कर खाना पड़ा। उनके इस आचार-व्यवहार को देख कर आज के शूद्र जो बहुत ही अहंकार से माली, कुनबी, सुनार, दरजी, लुहार बढ़ई (तेली, कुर्मी) आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएँ अपने नाम के साथ लगाते हैं, वे लोग केवल इस प्रकार का व्यवसाय करते हैं। कहने का मतलब यही है कि वे लोग एक ही घराने के होते हुए भी आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और एक दूसरे को नीच समझते हैं। इन सब लोगों के पूर्वज स्वदेश के लिए ब्राह्मणों से बड़ी निर्भयता से लड़ते रहे, इसका परिणाम यह हुआ के ब्राह्मणों ने इन सबको समाज के निचले स्तर पर ला कर रख दिया और दर-दर के भिखारी बना दिया। लेकिन अफसोस यह है कि इसका रहस्य किसी के ध्यान में नहीं आ रहा है। इसलिए ये लोग ब्राह्मण-पंडा-परोहितों के बहकावे में आ कर आपस में नफरत करना सीख गए। अफसोस! अफसोस!! ये लोग भगवान की निगाह में कितने बड़े अपराधी है! इन सबका आपस में इतना बड़ा नजदीकी संबंध होने पर भी किसी त्योहार पर ये उनके दरवाजे पर पका-पकाया भोजन माँगने के लिए आते हैं तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से ही नहीं देखते हैं, कभी-कभी तो डंडा ले कर इन्हें मारने के लिए भी दौड़ते हैं। खैर, इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया, उन्होंने उसके अनुसार जातियों में बाँट कर एक तरह से सजा सुना दी या जातियों का दिखावटी आधार दे कर सभी को पूरी तरह से गुलाम बना लिया। ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों सब में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकार संपन्न हो गए, है न मजे की बात! तब से उन सभी के दिलो दिमाग आपस में उलझ गए और नफरत से अलग-अलग हो गए। ब्राह्मण-पुरोहितों अपने षड्यंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहा व्यवहार करने की पूरी स्वंतत्रता मिल गई। इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ' मतलब यह है कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिए और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशोआराम कर रहे हैं।

संक्षेप में, ऊपर कहा ही गया है कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने भी वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई। ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए, यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है। फिर भी हमको यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि अभी भी हमारी दयालु सरकार के, शूद्रादि-अतिशूद्रों को शिक्षित बनाने की दिशा में, गैर-जिम्मेदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ ही रहे। कुछ लोग शिक्षित, पढ़े लिखे बन जाने पर भी ब्राह्मणों के नकली पाखंडी (धर्म) ग्रंथों के शास्त्रपुराणों के अंध भक्त बन कर मन से, दिलो-दिमाग से गुलाम ही रहे।

इसलिए उन्हें सरकार के पास जा कर कुछ फरियाद करने, न्याय माँगने का कुछ आधार ही नहीं रहा है। ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों लोग अंग्रेज सरकार और अन्य सभी जाति के लोगों के पारिवारिक और सरकारी कामों में कितनी लूट-खसोट करते हैं, गुलछर्रे उड़ाते है, इस बात की ओर हमारी अंग्रेज सरकार का अभी तक कोई ध्यान नहीं गया है। इसलिए हम चाहते है कि अंग्रेज सरकार को सभी जनों के प्रति समानता का भाव रखना चाहिए और उन तमाम बातों की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे शूद्रादि-अतिशूद्र समाज के लोग ब्राह्मणों की मानसिक गुलामी से मुक्त हो सकें। अपनी इस सरकार से हमारे यही प्रार्थना है।


No comments:

Post a Comment