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Saturday, November 15, 2014

लापता पिता की खोज में एक कैमरा तोपची का करिश्मा

लापता पिता की खोज में एक कैमरा तोपची का करिश्मा

पलाश विश्वास

अभी हाल में मैंने लिखा है कि दस साल पहले एक दिन अचानक हमारे मित्र कमल जोशी के कोटद्वार के घर से उनके पिता गायब हो गये।फिर वे लौटकर घर आये नहीं।हिमालयके उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों में कही हमेशा के लिए खो गये विस्मृति के शिकार पिता और कमल की एक अनंत यात्रा जारी है उस खोये हुए पिता की तलाश में जो दरअसल उसकी फोटोग्राफी है।


कमल हो सकता है कि ऐसा न सोचता हो,लेकिन मेरा मानना यही है।उसकी यायावर जीवनयात्रा को मैं इसी तरह देखता हूं जिसमें उनके पिता ,मेरे पिता और सुंदरलाल बहुगुणा एकाकार हो गये हैं।इसमें एकाकर हैं इसे देश के सारे जनपद और हर वह आदमी और औरत जिसकी धड़कनें प्रकृति और पर्यावरण में रची बसी हों।


नई पीढ़ी के लोग जिनके लिए पिता एक अमूर्त पहेली हो,उनके लिए यह वक्तव्य समझ में भले न आये,लेकिन हमारी पीढी के लिए समझना उतना मुश्किल भी नहीं,अगर पिता की कोई तस्वीर उनकी आंखों में बसती हो जो मुक्त बाजार में बेदखल हैं जैसी हमारी नई पीढ़ियां और हमारे पुरखों की सारी विरासत और यह सारी कायनात।



मुझे फोटोग्राफी आती नहीं है और बेहद खूबसूरत अंतरंग पलों को हमेशा के लिए खो देने का अपराधी भी मैं हूं।जैसे इस बार सुंदरलाल बहुगुणा जी की कोई तस्वीर मैं न निकाल सका और न उनसे हुई बातचीत रिकार्ड कर सका।यह जो आलाप प्रलाप का सिलसिला है,वह दरअसल उन खोये हुए पलो को जीने का अभ्यास ही है।


कमल की तस्वीरें देखते हुए मैं खूबसूरती और फोकस के सौंदर्यबोध से मंत्रमुग्ध होता हूं लेकिन बारीकियां समझ नहीं पाता।जैसे चित्रकला के बारे में या संगीत के बारे में मैं निरा गधा हूं।


वैसे भाषा,विधाओं,माध्यमों,साहित्य, संस्कृति के संदर्भ में जिनमें मेरी रुचि ज्यादा है,जिन्हें साधने में मैंने पूरी की पूरी एक जिंदगी बिना मोल खर्च कर दी है,मेरा गधापन कितना कम बेशी है,उसका भी मुझे कोई अंदाजा नहीं है।


कमल के हर फ्रेम में मुझे एक तड़प महसूस होती है,जो सत्यजीत रे के कैमरे में महसूस नहीं करता,लेकिन ऋत्विक घटक की हर फिल्म के फ्रेम दर फ्रेम महसूस करता हूं।


फ्रेम दर फ्रेम जिंदगी से लबालब यह कला है,जिसे मैं विश्लेषित तो कर नहीं सकता,लेकिन महसूस कर सकता हूं।जैस कत्थक का तोड़।


जैसे संगीत को कोई पाथर यकीनन नहीं समझ सकता ,लेकिन सारी कायनात संगीतबद्ध है और सुर ताल लय में छंदबद्ध है मसलन जैसे दिन रात,धूप छांव,पहाड़ समुंदर अरण्य और रेगिस्तान,रण, तमाम नदियां और जलस्रोत तमाम,जलवायु,मौसम,सूर्योदय सूर्यास्त,वगैरह वगैरह।संगीत प्रेमी होने के लिए सुर ताल लय की विशेषज्ञता लता मंगेशकर,गिरिजा देवी,कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी की तरह हो,ऐसा भी नहीं है।


कमल की खींची तस्वीरें और उसकी अथक यायावरी को देखकर मुझे पता नहीं हर वक्त क्यों लगता है लगता है कि प्यासी लेंस एक पिता की खोज में है और उस खोज में इस पृथ्वी और पर्यावरण की भारी चिंता है। सरोकार भी है।दृष्टि तो है ही।


उसकी यायावरी से तो कभी कभी उसके चेहरे पर मेरे पिता का चेहरा भी चस्पां होजाता है,लेकिन मेरे पिता कमल की तरह इतने खूबसूरत कभी न थे।लेकिन मेरे पिता और उसके लापता पिता हर बिंदु पर जब एकाकार हो जाते हैं।


इसलिए इस महाविध्वंस के मध्य अब भी  मुझे लगता है कि इस कायनात में नवनाजी महाविनाश के कारपोरेट उपक्रमों के बावजूद अभी मनुष्यता बची रहनी है जबतक कि हमारे रगों में खून बहना है और दिलों में धड़कनों का होना है।


मैं कमल के कैमरे को गिरदा के मशहूर हुड़के से जोड़कर देखता हूं तो सारे हिमालय का भूगोल हमारे सामने होता है,जहां से कमल और हमारी दोनों की यात्रा शुरु होती है और खत्म भी वहीं होनी चाहिए।जिसके कितने आसार हैं,हैं भी नहीं,कह नहीं सकते।


खासकर तब जब महानगर कोलकाता में बैठकर भी मैं उसीतरह भूस्खलन के मध्य हूं जैसे हम पहाड़ों में होते हैं।पहाड़ जैसे खिसकते हैं ,टूटते बगते गायब होते है,वैसे ही सारे महानगर,नगर और जनपद गायब होने को हैं।अनंत भूस्खलन है अनंत भूमिगत आग की तरह अनवरत,अविराम और हमें अहसास तलक नहीं।


जैसे सुंदर लाल बहुगुणा बार बार कहते हैं कि कृषि केंद्रित भूमि इस्तेमाल के बदले कारपोरेट भूमि उपयोग उपाय मनुष्यता के सर्वनाश का चाक चौबंद इंतजाम है।यह विकास के नाम पर चप्पे चप्पे पर अंधाधुंध निर्माण विनर्माण,यह सर्वग्रासी हीरक चतुर्भुज मनुष्यता,सभ्यता,प्रकृति पर्यावरण मौसम और जलवायु के विरुद्ध है।


रोज इस महानगर कोलकाता के अंतःस्थल से तमाम जलस्रोतों के अपहरण और अनंत माफिया बिल्डर सिंडिकेट राज के तहत जमीन नीचे खिसक रही है। जलस्तर सूख रहा है। रोज रोज।पल छिन पल छिन।उत्सवों महोत्सवों कार्निवाल के मध्य।


रोज महानगर के सीने में राजमार्ग में जमील धंसने से सारा महामनगर स्तब्ध सा हो रहा है,लेकिन होश किसी को नहीं है।


सियालदह तक फैला मैंग्रोव फारेस्ट अब अभयारण्य में भी कब तक बचा रहेगा ,कहना मुश्किल है क्योंकि कोलकाता और उपनगरों की क्या कहें नगरों,गांवो,कस्बों तक में विकास के नाम पर प्रोमोटरी की ऐसी गवर्नेंस है,जहां खेती सिरे से खत्म है और जमीन में पेयजल के अलावा किसी को किसी जलाशय,नदी,झील,पोखर की सेहत की कोई फिक्र ही नहीं है।न सेहत की परवाह है,न मनुष्यता की,न प्रकृति और पर्यावरण की।


यह फिक्र भी नहीं कि खरीदे जाने वाला मिनरल वाटर और शीतल पेय भी आखिर किसी न किसी जलस्रोत से निकलना है।


पहाडों में तो इंच दर इंच जमीन बेदखल है और कृषि कहीं है ही नहीं।


कारपोरेट कारोबार है।


कारपोरेट धर्म है।



कारपोरेट राजनीति है।


नतीजा फिर वही केदार जलप्रलय है।


नतीजा फिर वहीं भूंकप,बाढ़ और भूस्खलन है।


नतीजा फिर वही ग्लेशियरों का मरुस्थल बन जाना है।


खतरे की बात तो यह है कि ऐसा सिर्फ हिमालय में नहीं हो रहा है।


समुंदरों और बादलों में भी,पाताल में भी घनघोर जलसंकट के आसार है इस कारपोरेट केसरिया दुस्समय में जहां धर्म के नाम पर अधर्म ही राष्ट्रीयता का जनविरोधी, प्रकृतिविरोधी ,पर्यावरणविरोधी आफसा है,सलवाजुड़ुम है,गृहयुद्ध है,आतंक के खिलाफ अमेरिका और इजरायल के साथ ग्लोबल हिंदुत्व का महायुद्ध है।जनविरुद्धे कुरुक्षेत्र है।


गुगल ने फिर मेरा एक एकाउंट डीएक्टीवेट कर दिया है।


मैंने रिइंस्टाल करने का आवेदन किया तो जवाब आया कि चूंकि आपने शर्तों का उल्लंघन किया है और हम ऐसी स्थिति में कभी भी किसी भी एकाउंट को खत्म कर सकते हैं,इस खाते को फिर खोला नहीं जा सकता।


मैंने फिर आवेदन किया कि अगर हमने शर्तों का उल्लंघन किया है तो कृपया आप हमें चेतावनी देते जैसा कानूनन किया जाता है।तब हम नहीं मानते तो आप बाशौक बंद कर देते हमारा खाता।हमारा सरोकार प्रकृति पर्यावरण और मनुष्यता से है।हम पेशेवर पत्रकार हैं कोई स्पैमर हैं नहीं।हम शुरु से गुगल के यूजर हैं और गुगल की महिमा से ही विश्वव्यापी मेरा नेटवर्क  है।और निवेदन किया कि फिर मेरा खाता चालू कर दिया जाये।इसका कोई जवाब नहीं आया।


मजबूरन मुझे कल रात एक और नया खाता खोलना पड़ा है।


ऐसा नहीं है कि हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों हो रहा है।


फेसबुक या ट्विटर पर फर्जी एकाउंट के मार्फते जो जबर्दस्त धर्मोन्माद,कारपोरेट ईटेलिंग, पोर्नोग्राफी और नस्ली दुश्मनी फैलायी जा रहीं है,कानून उसपर कोई अंकुश नहीं लगाता। उसे बल्कि प्रोमोट किया जाता है रसीले अंदाज में।वीडियो बेरोकटोक।

डिजिटल देश के फ्री सेनस्कसी मुक्त बाजार में सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम,चुंबन और सहवास के अधिकार रोटी कपड़ा रोजगार सिंचाई खाद्य सूचना स्त्री मुक्ति बचपन बचाओ प्रकृति पर्यावरण बचाओ जल जंगल बचाओ मुद्दों के बजाय खास मुद्दे हैं और मीडिया में उन्हीं की धमक गरज है।


हो न हो,गुगल एक प्लेटफार्म ऐसा है जहां विविध भाषाओं में विमर्श का ,मुद्दों को संबोधित करने का.और सारी दुनिया से संवाद का सबसे बेहतरीन इंतजाम है।


बाकी भारतीय सर्वरों में तो संवाद का कोई इंतजाम है ही नहीं।याहू में तो अब मेलिंग भी असंभव है।


इसलिए हम गुगल के भरोसे हैं लेकिन उसे चुनिंदे खाते क्लोज करने के जो राजकीय आदेश भारत में कारोबार चलाने के लिए मानने होते हैं,उसके पीछे धर्मांध कारपोरेट वर्चस्ववाद है जो अभिव्यक्ति की आजादी देता नहीं है,छीनने का चाक चौबंद इतंजाम करता है।यही न्यूनतम राजकाज है।


पोर्नोग्राफी मीडिया पेज का राजस्व है ईटेलिंग है और जो तेजी से जनांदोलन भी बनती जा रही है,मुक्तबाजारी संस्कृति तो वह है ही।अनंत बाजार है और सर्वशक्तिमान बाजार।बाकी सबकुछ नमित्तमात्र है।देश निमित्त है तो सरकारे,राजनीति भी निमित्तमात्र।निमित्तमात्र।


सिर्फ विचारों पर पहरा है।

कोई विचार वाइरल बनकर कारपोरेट राज की सेहत खराब न करें,इसकी फिक्र में सूचना प्रसारण और मानवसंसाधन मंत्रालय हैं,भारत की सरकार है और अमेरिका की सरकार भी है।


सपनों पर पहरा है कि कोई सपना न देखें।सपनों की हत्या सबसे जरुरी है क्योंकि आखिरकार सपनों से भी जनमती है बदलाव की आग।पाश बहुत पहले लिख गये हैं,सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना।


हमारे न विचार हैं और न हमारे सपने हैं और न हमारी कोई स्मृति है और न हमारी कोई मातृभाषा है।हर हाथ में विकास कामसूत्र और हर कोई डिजिटल बायोमेट्रिक रोबोट नियंत्रित नागरिक।


पाठ से शायद हम ज्यादा दिनों तक शब्दों को जिंदा करने का खेल रच नहीं सकते अबय़छपे हुए शब्दों से हम पूरी तरह बेदखल हो गये हैं और इलेक्ट्रानिक दुनिया तो बाजार के निमित्त,बाजार के लिॆए,बाजार द्वारा स्रवशक्तिमान सबसे बड़ा मुक्तबाजार है।बाकी जो इंटरनेट है,जो माइक्रोसाप्ट फ्री भी कर रहा है,जनता के पक्ष में उसके इस्तेमाल की इजाजत है नहीं।यही है हमारा डिजिटल देश महान केसरिया।

इसीलिए कमल जोशी जैसे कैमरातोपचियों की जरुरत है।ऐसे माध्यमों की जरुरत है जिनके जरिये हम विचारों,सपनों और विमर्श संवाद का सिलिसिला जारी रख सकें।


यही कमल जोशी होने का मतलब भी है।



हमारे जानेजिगर खासमखास दोस्त कमल जोशी का कैमरा कमाल पेश करते हुए भाई शिरीष अनुनाद ने क्या खूब लिखा हैः


तस्वीर खींचना तकनीकी कुशलता से ज़्यादा एक कलाकार मन का काम है - वह मन अपने जन पहचानता है, अपनी प्रकृति जानता है, उसे मालूम है कि दृश्य किस पल में सबसे ज़्यादा अर्थवान होगा - कब उसके आशय चमकेंगे। मेरे लिए कोई भी कला अपने जन-सरोकारों में निवास करती है, वही उसका उजाला होते हैं। फोटोग्राफी में बरसों से यह उजाला हमारे आसपास Kamal Joshi के रूप में मौजूद है - जब हम बच्चे थे तब से अब प्रौढ़ेपन की कगार पर खड़े होने तक कमल दा उसी ऊर्जा से हमारे साथ बने हुए हैं - हमें हमारा संसार दिखाते। 2008 मैं मैंने ख़ुद देखा है हिंदी के ज़िद भरे मद भरे अदबी चेहरों के बीच हाथ में कैमरा संभाले एक मनुष्य इस तरह हड़बड़ाता हुआ गुज़रता है कि उस बज़्म में उस क्षण मनुष्यता के नाम पर वही भर दिपता है।

वो जो दुनिया की हर कमीनगी को शर्मिन्दा करता अच्छाई और भोलेपन का महान आख्यान हैं आज भी - दिल उनके लिए सलामो-आदाब से हमेशा भरा है।





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