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Saturday, December 7, 2013

अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून

अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


पलाश विश्वास

http://antahasthal.blogspot.in/

अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


मेरी दादी शांति देवी थीं बहती हुई मधुमती अबाध जो बहती रही अबाध जैशोर के कुमोर डांगा में छोड़े हुए गांव और खेतो से लेकर  नैनीताल की तराई में बसे शरणार्थी गांव में,तब तक जबतक वे जीती रहीं सन सत्तर तक।जबकि तेभागा की लड़ाई आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों के जनज्वारों के मार्फत अपनी निरंतरता में कहलाने लगा नक्सलबाड़ी आंदोलन।भूमि युद्ध लेकिन खत्म है दोस्त।


दादी की झोली में अनंत किस्से थे,जिसमें से लहकती थी,बहकती थी मधुमती के दियारे में उपजी खून सिंची फसलें तमाम। हमारे दादा लोग चार थे भाई और वे थे भूमियुद्ध के अपूर्व योद्धा। जमींदारों और पुलिस के मुकाबले,बंदूक से दागी गयी गोलियों के मुकाबले लड़ी गयी हर युद्ध का ब्यौरा बताती थीं वे सिलसिलेवार।यहां तक कि कैसे वे घर की दूसरी औरतों के साथ वर्गशत्रुओं के विरुद्ध करती थी किलेबंदी मर्दों की गैरहाजिरी में। चारों भाइयों की मंत्रसिद्ध लाठियां जब तब निकल पड़ती थीं उनकी झोली से। उन लाठियों की सोहबत में जी रहा हूं आज भी। लालकिताब से ज्यादा ताकतवर हैं वे लाठियां हमारे लिए,जिनमें बसी हैं हजारों साल से जारी जल जमीन जंगल की लड़ाई में लड़ते मरते खपते अश्वेत हमारे पुरखों के खून की सोंधी महक विशुद्ध काली माटी से सराबोर,जो मृत पीढ़ियों के लिए जाहिर है कि है संजीवनी।


यकीनन हमारे सारे लोग,सारे योद्धा,अश्वेत रक्तबीज की संतानें तमाम

नहीं होंगे दूसरा कोई नेल्सन मंडेला या डा.भीम राव अंबेडकर या मार्टिन लूथर किंग या बीरसा मुंडा या सिधू कान्हो या टांट्या भील या रानी दुर्गावती या हरिचांद ठाकुर या महात्मा ज्योतिबा फूले माता सावित्री फूले।मृत लोग लौटकर नहीं आते।न उनकी आत्माएं बोधिसत्व या ईश्वरत्व में समाहित कोई मदद करेंगी हमारी इस निरंकुश युद्ध समय में जब इंच इंच जमीन के लिए हर हाल में अनिवार्य है युद्ध।अपरिहार्य है युद्ध।इस कुरुक्षेत्र से भागने के के तमाम रास्ते अब बंद हैं।इस वध स्थल में मारे जाने के लिए ही यह युद्ध।


हम ढिमरी ब्लाक की लड़ाई के गवाह नहीं हैं।लेकिन ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह से जुड़े हर चेहरे से चस्पां है हमारा चेहरा।जिस आग में फूंक दिये गये किसानों के सैंतालीस गांव,वह आग हमने देखी नहीं लेकिन वह आग हमारे सीने में कैद है और मुक्ति के लिए कसमसा रही है तबसे जबसे हमने होश संभाला है।जबसे हमने गिरफ्तारियं का सिलसिला देखा है।हमने मणिपुर में सैन्य कार्रवाइयां देखी हैं तो हमने तराई के रायसिख परिवारों के यहां निरंकुश दबिश देखी है। देखा है हमने स्कूली साथियों को मुठभेड़ में मारे जाते हुए।या गायब हो गये जो चेहरे अचानक,वे चोहरे मेरे चेहरे पर काबिज हैं।साठ के दशक में


तराई में भूमि संघर्ष हजारों बेदखल किसानों की गिरफ्तारियां देखी हैं।देखा हैं ढिमरी ब्लाक के महाविद्रोही बाबा गणेशा सिंह को जेल में सड़ सड़ कर मरने के बाद बसंतीपुर की बेनाम नदी के पार अर्जुनपुर में उनके खेत में चिता पर जलते हुए।बदलाव के सपनों की मौत थी नहीं वह यकीनन।क्योंकि जागते सोते हर वक्त हम बसंतीपुर के उन बुजुर्गों को देखते रहे गांव छोड़ने से पहले तक,जो आजीवन बने रहे भूमि योद्धा और जो एक साथ शाश्वत विशा्राम में हैं।चूंकि वे लोग अब नहीं है, इसीलिए बसंतीपुर में अब मेरे लिए कुछ भी नहीं है वीरानगी के सिवाय।सोते जागते अब भी ख्वाबों में है वही बसंतीपुर,जहां हर शख्स के हाथों में जलती हुई मसाल हुआ करती थी कभी।


हमने अड़तालीस घंटे से लेकर ह्तों तक चलने वाला ग्रामीम विमर्श देखा है। लंबी बहस के मार्फत बिना थाना पुलिस बिना अदालत कचहरी दूर दराज के गांवो के आपसी विवादों को निपटाते देखा है पिता को जब मैं उनके साथ हुआ करता था ऐसी तमाम मैराथन बैठकों में। वे आवाजें,वे बहसें,भाई चारे की वह जज्बात हर वक्त चुनौती देती रहती मुझे कि क्यों देहात को एक सूत्र में पिरोने के लिए कोई पहल नहीं कर पाये हम। हमारे पढ़े लिखे होने को धिक्कार कि अपने लोगों की लड़ाई जारी रखने के लिए पूरे परिवार का पेट काटकर,खेत गिरवी पर रखकर पिता ने जो सपना रचा था,उन सपनों के कत्लेआम के दोषी हमीं तो।हमारे पुरखों,महापुरुषों की अनंत भूमि युद्ध की विरासत को वर्ण वर्चस्वी नस्ल भेदी कारपोरेट साम्राज्यवाद के अमेरिकी उपनिवेश में विदेशी पूंजी और कालाधन के हवाले करने वाले हमींतो। बाबासाहेब का नाम भुना अकूत संपत्ति बेहिसाब काली कमाई  से मुटियाये कामयाब नव ब्राह्मणों के गुलाम भी तो हमीं तो।


हमारी ताई हरिचांद गुरुचांद वंशज की कन्या और वे ही दरअसल मेरे बचपन में सर्वव्यापी। मां के आंचल से बड़ा था उनका आंचल।मां गांव चोड़कर गयी नहीं कहीं बसंतीपुर उन्हीं के नाम बसाने के बाद। बसंतीपुर के बाकी लोगों में हम बच्चे भी शामिल थे उनके लिए,इसके अलावा कोई सोच अपने लिए नहीं थी उनकी।बसंतीपुर के पार कोई दुनिया बसती है,ऐसा उन्हें देखकर लगता ही न था। पूरे परिवार की अभिभावक थीं ताई हमारी।दादी जी की जीवितदशा में भी। पिता , ताउजी और चाचाजी हम सब उन्हीं के मार्फत क्योंकि ठाकुर बाड़ी का खून था उनकी रगों में।वही खून अब भी हमारे रगों में जिंदा है बेचैन।


ओड़ाकांदी से सन 1964 को उनकी मां प्रभादेवी चली आयी बसंतीपुर और साथ लायी भूमि संघर्षों की अलग कहानियों की पोटली संभाले।ओड़ाकांदी फरीदपुर की उस नानी ने हमें सीधे बिठा

दिया टाइम मशीन पर और यकीन मानिये कि साठ सत्तर दशक के शैसव कैशोर्य में हम जब अंबेडकर अनुयायी पिता से सुनते थे अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल की कहानियां और पढ़ते थे लाल किताब,जिसे पढ़ने की आजादी दे दी थी किसान अपढ़ पिता ने,ढिमरी ब्लाक के किसान विद्रोह के नेता ने तभी अपने बेटे पर अघोषित निषेधाज्ञा लागू कर दी थी कैरियरिस्ट ख्वाबों पर अलिखित।



जो महात्वांकाक्षाएं बाकी बची थीं, नैनीताल डीएसबी परिसर से गिरदा के डेरे पर,फिर गिरदा के डेरे से नैनीताल समाचार के दफ्तर तक,जिंदा दफन हो गयी जाने अनजाने। नैनीताल क्लब जब जल रहा था वनों की नीलामी में उस वक्त मेरी आंखों में तिर गये जलते हुए ढिमरी ब्लाक के पूरे के पूरे सैंतालीस गांव।किसानों के ख्वाब।


हम कैसे कामयाब कारपोरेट मैनेजरों की जमात में शामिल होकर कह सकते हैं कि जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का यह वधमहूर्तों का कालखंड भूमंडलीकरण यानी ग्लोब बनाकर मनुष्यता और प्रकृति से कारपोरेट बलात्कार निरंकुश,कृषि समाज का चौतऱफा सत्यानाश उदारीकरण सुदारों के बहाने, विकास के नाम धर्मोन्मादी कारपोरेट राज का यह समय निजीकरण का स्वरण युग है,नहीं कह सकते।मरे हुए खेतों की लाशें चारों तरफ।

हर गली मोहल्ले से निकलता कबंधों का जुलूस गुलाम गुलाम।


शायद हम डफर हैं या आम भारतीयों की तरह बुरबक रह गये हम कि देश बेचो जमात के खिलाफ बसंतीपुर कीतर्ज पर पूरे के पूरे एक देश रचने का ख्वाब देखते हैं हम आज भी एकदम फुटपाथ पर खड़े होकर।

क्योंकि ज्योतिबा फूले और नारायम लोखंडे को जानने के बजाय तब हम मार्क्स लेनिन चेग्वारा माओ स्टालिन और चारु मजुमदार को पढ़ने के साथ साथ पेरियार और नारायणगुरु को न जानने के बावजूद

नानी की कहानियों के जरिये जी रहे थे नील विद्रोह हर वक्त और मतुआ युगपुरुष हरिचांद ठाकुर और उनके पुत्र गुरुचांद ठाकुर के चंडाल आंदोलन के मध्य थे हम बिना किसी जाति विमर्श के तब भी।


राष्ट्र का चरित्र बदल गया है। नयी महाजनी सभ्यता के एफडीआई विनिवेश ठेका हायर फायर समय के हम बेनागरिक डिजिटल बायोमेट्रिक। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में किसानों और मजदूरों की जो जगह थी,वह उच्च तकनीक कंप्यूटर,आईटी,आटोमेशन और रोबोटिक्स ने ले ली है। हर गांव के साने पर चढ़ बैठा है इंफ्रा दैत्य और मुक्त बाजार हमारे खून में बहने लगा है।प्लास्टिक मनी के हम कारोबारी डालर के दल्ला हम सब लोग।नीले उपभोक्ता हैं हम लोग।


अंबेडकर समय में जनता की निगरानी नहीं हुई होगी ड्रोन या प्रिज्म से। इस बदले हुए सामाजिक यथार्थ में किस्सों के दम पर कैसे कोई लड़ सकता है भूमि युद्ध वीडियो गेम की तर्ज पर वर्च्यु्ल। लेकिन हर जनांदोलन दरअसल भारत रत्न सचिन तेंदुलकर समय में मुकम्मल वीडियो गेम है।जहां जमीन के योद्धाओं के लिए कोई जगह है ही नहीं।जहां हजारों साल से जारी जल जंगल जमीन की कोई लड़ाई है ही नहीं।जमीनदल्ला हैं हम सारे।प्रकृति के बलात्कारी हैं सारे के सारे।


यहां तक कि बाबासाहेब के मूल मंत्र जाति उनमूलन की कोई गूंज भी नहीं है।तमाम आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों की गौरवशाली विरासत के विपरीत भूमि सुधार की मांग छोड़कर लोग मुआवजे और नौकरी के सौदे में सेज महासेज नगर महानगर स्वर्णिम राजमार्ग बड़े बांध डूब ऊर्जा परियोजनाएं और परमाणु संयंत्र खरीद रहे हैं लोग इन दिनों।हर शख्स कमीशनखोर,घोटाला बाज इनदिनों।


चैत्यभूमि में मेला लगाने वालों की कोई प्रतिबद्धता है नहीं बाबासाहेब के संविधान के प्रति।आजतक किसी अंबेडकर अनुयायी शामिल नहीं हुआ पांचवीं छठीं अनुसूचियों के लिए। कोई नहीं बोला सशस्त्र बस विशेषाधिकार कानून के खिलाफ। वामपंथी ट्रेड यूनियनों के विश्वासघात की खूब हुई है चर्चा लेकिन इतिहास और विरासत के कारोबार का खुलासा भी तक नहीं हुआ।जिसकी चर्चा बेहद जरुरी है।


एक विकलांग मलाईदार तबके की सत्ता में भागीदारी की कीमत पर कृषि समाज जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से हो रहा निरंतर बेदखल और उन्हीं के बिना शर्त समर्थन से हर वह  कानून बदल रहा है ,जिसे आकार दिया हुआ है बाबा साहेब ने। भूमि युद्ध के मोर्चे से बेदखल है कामयाब कारपोरेट मैनेजरों और प्लेसमेंट हायर फायर की पीढ़ियां।बिन मां बाप की बेशर्म पीढ़ियों का देश है यह अब।


कयामत के मुहाने पर खड़े बाजार के हर जश्न में शामिल हम फिर भी हमें शर्म नहीं आती इतिहास और विरासत,महापुरुषों के अवतारत्व की दावेदारी से।बुद्ध के शील गैरप्रासंगिक जिनके लिए,बोधिसत्व में निष्णात वे।बाबासाहेब का नाम लेकर रोज अंबेडकर मार रहे हैं वे।मजे की बात तो यह कि वही लोग बहस ला रहे हैं बाबा साहेब के मृत्युरहस्य पर ,जिन्होंने बाबा साहेब का आंदोलन बेच खाया।अब देश बेचने वालों की जमात में शामिल हो गये हैं वे धंधेबाज लोग।


भारत रत्न नेलसन मंडेला के अवसान पर बाबरी विध्वंस की बरसी पर पांच दिनों का राष्ट्रीय शोक है और शोक संदेश जारी कर रहे हैं भारत में रंगभेद जारी रखने वाले वर्णवर्चस्वी जायनवादी कर्णदार तमाम,तमाम युद्ध अपराधी मनुष्यता के शोक मग्न हैं।पूरा देश अब सलवा जुड़ुम है।कृषि समाज की चिताएं सज रही हैं महानगरों और राजधानियों में।


अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून। लेकिन इस महासंग्राम में अपनी अपनी खाल बचा लेने की शुतुरमुर्ग भूमिका  के सिवाय हमारी कोई हरकत है ही नहीं। आज भी मंडेला मंडल ही है इस वर्णवर्चस्वी भारतीय रंगभेदी कारपोरेट मुक्त बाजार में।



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