Palah Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

what mujib said

Jyothi Basu Is Dead

Unflinching Left firm on nuke deal

Jyoti Basu's Address on the Lok Sabha Elections 2009

Basu expresses shock over poll debacle

Jyoti Basu: The Pragmatist

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, February 21, 2013

संकट में है कहने की आज़ादी और इंसान!महामहिम का भी नाम हेलीकाप्टर घोटाले में आया!

http://loksangharsha.blogspot.com/

शुक्रवार, 15 फरवरी 2013

महामहिम का भी नाम हेलीकाप्टर घोटाले में आया

नवभारत टाइम्स से साभार 
देश के राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुख़र्जी का नाम हेलीकाप्टर घोटाले में आया है। अगस्ता वेस्टलैंड से 12 वीवीआईपी हेलिकॉप्टरों की खरीद में रक्षा मंत्रालय की सफाई से यूपीए सरकार को भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। अब तक इस मामले में कांग्रेस और यूपीए एनडीए सरकार पर आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ रही थी लेकिन गुरुवार को रक्षा मंत्रालय ने 3546 करोड़ रुपये की इस डील की जो फैक्टशीट जारी की है उसके मुताबिक सौदे पर मुहर सन् 2005 में लगी जब प्रणव मुखर्जी रक्षा मंत्री हुआ करते थे। डील के फाइनल होने के समय एसपी त्यागी एयर चीफ मार्शल, पूर्व आईपीएस अधिकारी व एसपीजी के मुखिया बीवी वांचू और एमके नारायणन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे।
              एनडीए सरकार से लेकर यूपीए सरकार घोटालेबाजों की सरकार रही है। करोडो-करोड़ रुपये के घोटाले हुए हैं और किसी भी घोटाले का न्यायिक विचारण फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में नहीं हो रहा है। व्यक्तिगत अपराधों की सुनवाई फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स में होती है लेकिन बड़े-बड़े घोटालों का विचारण फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स में नहीं होता है। इस घोटाले में राहुल गाँधी के परम मित्र कनिष्क सिंह का भी नाम आया है। इसके अतिरिक्त यह राजनेता राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाखो-लाख करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाते रहते हैं जो घोटाले ही होते हैं। पूर्व वित्त मंत्री, पूर्व रक्षा मंत्री व वर्तमान देश के राष्ट्रपति महामहिम के सम्बन्ध में जनचर्चा के अनुसार धीरू भाई अम्बानी को लाभ पहुँचाने के लिए देश के बजट की नीतियाँ उन्ही अनुरूप तय होती थी जिससे अम्बानी ग्रुप को फायदा हो। 
                 देश के अन्दर अब स्तिथि यह हो गयी है कि कोई भी खरीद अगर होती है तो उसमें घोटाला जरूर होता है। जैसे सरकारी नौकरियों में कोई भी भर्ती होती है तो उसमें भी बगैर घोटाले के भर्ती संभव ही नहीं हो पाती है। राजनेता व राज्य की मशीनरी भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी हुई है कुछ दिन शोर-शराबा होता है और फिर सब खामोश। अधिकारी व राजनेता दण्डित नहीं हो पाते हैं। सफेदपोश अपराधियों को दण्डित करने के लिए लचर कानूनी व्यवस्था भी है। 

सुमन 
लो क सं घ र्ष !  

मंगलवार, 12 फरवरी 2013

संकट में है कहने की आज़ादी और इंसान



मात्र एक माह के अर्से में कला की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जितने आक्रमण हुए उसे विरल ही मानना चाहिए। किसी भी देश के इतिहास में ऐसी घटनाएं कम होती हैं। जयपुर के साहित्योत्सव में सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन की संभावित शिरकत को रोकने के लिए आरंभ हुआ अभियान, आशीष नन्दी के वक्तव्य से पैदा हुई उत्तेजना से शिद्दत इखि़्तयार करता हुआ, कमल हासन की फि़ल्म ,के विरोध में सक्रियता की डरावनी सघनता प्राप्त कर गया। इसका सबसे दर्दनाक पहलू कश्मीर में कुछ उत्साही किशोरियों के पहले राकबैंड ''प्रगाश'' पर प्रतिबन्ध लगाने की माँगों के रूप में सामने आया। यह अत्यंत ख़तरनाक स्थिति है। जिसके फ़लस्वरूप लेखन, दूसरे कला व संस्कृति कर्म से जुड़े लोगों तथा बौद्धिक वर्ग का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। विचार और संवेदना का आहत होना भी उतना ही कु़दरती है। 
    कृतियों पर प्रतिबन्ध लगाने रचनाकारों के बहिष्कार तथा कतिपय फि़ल्मों के किसी गीत या दृश्य को फि़ल्म से निकालने की माँगें पहले भी होती रही हैं। कोर्ट कचहरी भी हुई और जूता लात भी। प्रेमचंद सरीखे कथाकार को यदि घ्रणा का प्रचारक कहा गया तथा उनकी एक कहानी को लेकर मुक़दमा दायर हुआ तो कुछ वर्ष पूर्व ही उनके एक उपन्यास का सार्वजनिक तौर पर दाह संस्कार किया गया। अपनी तरह के अकेले शायर यगाना चंगेज़ी को उनका मुँह काला करके, गले में जूतों की माला पहनाकर यदि गदहे पर बिठा कर जुलूस निकाला तो कहानी संग्रह ''अंगारे'' के कहानीकारों पर मुक़दमा चलाने के लिए चन्दे जमा किए गये। रशीदजहाँ को तेज़ाब से चेहरा बिगाड़ देने,नाक काट लेने की धमकियाँ दी गयीं तथा कहानी संग्रह को प्रतिबन्धित कराने के उद्देश्य से तीखा अभियान छेड़ा गया। संयोग से इस अभियान की शुरुआत रौशन ख़्यालों के शहर अलीगढ़ से हुई तो सआदत हसन मंटो की कुछ कहानियों के कथ्य को लेकर कथाकार के विरूद्ध सख़्त कार्यवाई करने तथा कहानियों के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए कुछ अख़बारों के सम्पादकों ने प्रशासन पर शर्मनाक दबाव बनाया। कुछ विद्वानों प्रशासनिक अधिकारियों, धर्मगुरुओं तथा रचनाकारों के समर्थन के कारण यह दबाव अधिक वज़नदार हो गया। चवालीस साल की मुख़्तसर सी जि़न्दगी में दस वर्षों पर मुहीत मुक़दमें बाज़ी की प्रताड़ना। वहीं नई आशाएं -आकांक्षाएं जगाने वाली इक्कीसवीं सदी के आरंभ ही में दीपा मेहता की फि़ल्म वाटर पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग तो छोडि़ये, उसके निर्माण की प्रक्रिया पर ही वीभत्स, नितांत अश्लील कि़स्म का फासीवादी आक्रमण किया गया। फि़ल्म फ़ायर के विरूद्ध भी अभियान छेड़ा गया। उसके प्रदर्शन में बाधा पहुँचाई गयी। 
    ख़्वाजा अहमद अब्बास को कम से कम अपनी तीन फि़ल्मों के प्रदर्शन के लिए, जिनमें शहर और सपना तथा नक्सलाइट भी शामिल हैं, कठिन संघर्ष करना पड़ा। फि़ल्म ''आँधी'' को आपातकाल के दौरान नायिका मंे इन्दिरा गाँधी की छवि दिखन के कारण प्रतिबन्धित किया गया। अमृतनाहट की फि़ल्म ''कि़स्सा कुर्सी का'' में राजनीतिक भ्रष्टाचार के एक्सपेाज़र के कारण प्रदर्शन से रोका गया, राहुल ढोलकिया की ''गुजरात के दंगों पर आधारित फि़ल्म ''परजानिया'' के विरूद्ध भी उन्माद पैदा किया गया। वो गुजरात में प्रदेर्शन से वंचित रही। गुजरात सरकार के आमिर ख़ान से नाराज़गी के कारण तो नंन्दिता दास की फि़ल्म ''गुजरात दंगांे'' की पृष्ठभूमि के कारण ही गुजरात में दिखाये जाने से रोक दी गयी। आमिर ख़ान का अपराध मात्र इतना था कि वह नर्मदा बचाव आन्दोलन के समर्थन में मेघा पाटकर के साथ धरने पर बैठे थे। वह दंगांे के कारण मुख्यमंत्री की आलेचना भी कर चुके थे। रोक-टोक की इंतिहा यहाँ तक कि राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत होने के बावजूद राकेश शर्मा की फि़ल्म ''द फाइनल साल्यूशन'' रिलीज़ होने से ही वंचित रह गयी। बहुत अर्सा नहीं बीता जब प्रोफे़सर सुमित सरकार तथा के0एन0 पाणिक्कर द्वारा संपादित ''टूवडर््स फ्रीडम'' के खण्डों का प्रकाशन रुकवाने हेतु संाप्रदायिक मानसिकात के लोगों ने हर संभव प्रयास किए। 
    ''राही मासूम रज़ा'' के उपन्यास आधा गाँव, प्रेमचंद की कुछ कहानियों व उपन्यास को पाठ्यक्रम से निकालने के समान ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिखी गयी इतिहास की कुछ पुस्तकों को भी इतिहास की भोतरी समझ का शिकार होना पड़ा। 
    राम के सम्बन्ध में अम्बेडकर के आलोचनात्मक आलेख के विरूद्ध ग़ैर दलितों का विक्षोभ भरा उत्ताप भी बहुत पुराना नहीं है। अंतराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के चित्रकार एम0एफ0 हुसैन के चित्रों तथा स्वयम् उन पर फ़ासीवादी हमलों की आक्रमकता का अनुमान इससे लग सकता है कि उन्हें हमेशा के लिए देश ही छोड़ देना पड़ा। आंध्रप्रदेश, केरल, महाराष्ट्र मंे कई नाटकों को सरकारी दमन का किशार होना पड़ा तो पंजाब में बलवन्त गार्गी के नाटक मंच पर आने से वंचित रहे, देश का सांस्कृतिक, बौद्धिक इतिहास अवसाद और शर्म के हादसों अनेकानेक साक्ष्यों से आहत है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष मंे हुए संघर्षों का भी लम्बा इतिहास है गंभीर ख़तरों के बावजूद लोग कलाकर्म की स्वायत्ता तथा कहने लिखने की आज़ादी के पक्ष में सक्रिय होते रहे हैं। जैसे कि कश्मीरी लड़कियों के राक बैंड ''प्रगाश'' के खिलाफ़ एक मुफ़्ती द्वारा दिये गये फ़तवे के निषेध में न केवल मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह मुखर हैं बल्कि वहाँ का प्रशासन भी बैंड से सम्बद्ध लड़कियों को धमकी देने वाले युवकों के खि़लाफ़ उचित कार्यवाई भी की है। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है। अलगाववादी नेताओं, अनेक धार्मिक गुरूओं, महिला संगठनों तथा बौद्धिक वर्ग ने भी बैंड के, गाने बजाने के अधिकार का समर्थन किया। इस तथ्य को कैसे नज़र अन्दाज़ किया जा सकता है कि न केवल भारतीय उपमहाद्वीप का संगीत बल्कि अनेक एशिया, अफ्रीक़ी व युरोपीय देशों का संगीत भी मुस्लिम महिलाओं के बहुमूल्य योगदान के कारण नये शिखरों की ओर जाते हुए अप्रतिम माधुर्य प्राप्त कर सका है। दरअस्ल हाल की ऐसी सभी घटनाओं को राजनीति प्रेरित मानने में संकोच नहीं होना चाहिए। ऐसी घटनाओं के पीछे निहित स्वार्थ की भी भूमिका रहती ही है। 
    कश्मीर, जहाँ के जीवन में संगीत की व्यापक उपस्थिति है, गायन व नृत्य में पारंगत स्त्रियों का बड़ा समूह है, वहाँ केन्द्रीय मंत्री गु़लाम नबी आज़ाद की पत्नी भी अत्यंत लोकप्रिय गायिका है। संगीत में दक्ष पुरुषों की संख्या भी वहाँ अच्छी ख़ासी है। लोक संस्कृति की नितांत समृद्ध परम्परा वहाँ के संघर्षपूर्ण जीवन को उल्लास व मादकता देती है। हुब्बा ख़ातून को सर पर बिठाने तथा इस्लामी शुद्धतावाद का निषेध करने वाले सूफि़यों, के प्रति, जिन्होंने संगीत को आराधना की उच्चता दी, विराट भक्तिभाव से लबरेज़ समाज के लिए लड़कियों का राक बैण्ड भला असहनीय क्यों होने लगा? कट्टर धार्मिक लोगों के लिए यह स्थिति अवश्य अप्रिय हो सकती है। ध्यान देना चाहिए कि स्त्रियों केप्रति निरन्तर अधिक व्यापाक व क्रूर होती जाती हिंसा के उन्मूलन के लिए कारगर सिफ़ारिशें देने के उद्देश्य से गठित जस्टिस वर्मा समिति की वर्दीधारियों द्वारा की जाने वाली यौन हिंसा को क़ानून के दायरे में लाने की सिफ़ारिश को केन्द्र सरकार द्वारा महत्व न देने पर कश्मीर में असंतोष का वातावरण बना है। वर्दीधारियों द्वारा वीभत्स बलात्कार की अनेकानेक टीस भरी यादें लोगों को विचलित करती हैं। केन्द्र सरकार ने जस्टिस वर्मा की सिफ़ारिश को महत्व न देकर एक तरह से उमर अब्दुल्लाह के विरोधियों को राजनीति करने का आसान अवसर दे दिया है। 
    यदि वह फ़तवे का विरोध या आलोचना करते तो धार्मिक हल्कों मंे पैदा हुए असंतोष व आक्रोश को व्यापक बनाने के जतन किए जा सकते थे और यदि वो फ़तवे के समर्थन में जाते तो उदार व गै़र मुस्लिम कश्मीरियांे सहित समूचे देश मंे उनकी छवि ख़राब होती  यहाँ तक कि उनकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर भी आंच आती, उमर अब्दुल्लाह ने राक बैण्ड, ''प्रगाश'' जिसका अर्थ प्रकाश होता है, के पक्ष में बयान देकर समूचे भारतीय समाज तथा राज्य व केन्द्र सरकारांे  को सकारात्मक संदेश दिया है। ठीक इसी प्रकार जयपुर साहित्योत्सव में बहुधा सलमान रुश्दी तथा तस्लीमा नसरीन को सादर आमंत्रित किए जाने के औचित्य को भी समझा जा सकता है। यह जानते हुए भी कि दोनों उल्लेखनीय लेखक तो हो सकते हैं, परन्तु महान् या एकदम कन्विन्सिंग नहीं। रचनाकार के रूप में दोनों का सम्मान व महत्व है। लेकिन उनके लेखन के कुछ अंशों से मुसलमानों की नाराज़गी एकदम निराधार भी नहीं है। संसदीय जनतंत्र में इस प्रकार की नाराज़गी के राजनैतिक इस्तेमाल की संभावनाएं सदैव बनी रहती हैं। चुनाव निकट हों तो यह संभावना पानी में भीगे चने के समान रोज़बरोज़ अधिक फूलती जाती है। मुम्बई में रूश्दी के उपन्यास पर बनी फि़ल्म के रिलीज़ के अवसर पर उन्हे बुलाएं जाने का औचित्य तो समझ में आता है, परन्तु जयपुर के साहित्योत्सव में इसकी अनिवार्यता औचित्य से परे है। 
    जो लोग इस प्रकार के फैसलों से मुसलमानों के प्रचारित कट्टरपन को निरस्त करने या धुंधलाने की इच्छा पालते हैं, उन्हंे समझना चाहिए कि इससे कट्टरवादी-तत्ववादी शक्तियों ही को लाभ होता है। उन्हें अपना स्पेस व्यापक करने क मौक़ा हाथ आ जाता है। यदि कुछ हिन्दू संगठन ग़ैर भाजपाई सरकारों पर हिन्दुओं के साथ पक्षपात करने तथा उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का उत्तेजक आरोप लगाकर अपना जनाधार बढ़ाने का स्वप्न देख सकते हैं तो आखि़र  कुछ मुस्लिम नेता या संगठन क्यों चुप रहने लगे? भावना का यथार्थ केन्द्रीय तत्व के रूप में उपस्थित है ही। बुख़ारी और उवैसी की राजनैतिक आकांक्षाएं अपनी जगह, उल्लेखनीय मुस्लिम आबादी वाले अधिकांश शहरों-क़स्बों मंे धार्मिक नेताओं और संगठनों की आपसी प्रतिसस्पर्धा के कारण ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा ही रहती हैं। यही कारण है कि वो अधिक से अधिक उग्र होने का प्रदर्शन करते हैं, जैसा कि आजकल तोगडि़या कर रहे हैं। कारणवश सामान्य मुसलमानों के साथ ही देश की जनता के बड़े हिस्से की बुनियादी समस्याएं नेपथ्य में चली जाती है और गै़र जरूरी मुद्दे प्रमुखता प्राप्त कर लेते हैं। लखनऊ को एक बड़े उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। उतना त्रासद यह नहीं है कि कश्मीर में नये संकल्पों के एक राक बैंड की मधुर लहरियां असमय कालातीत हो जायेंगी, बड़ी त्रासदी यह है कि यह स्थिति बहुत सी कश्मीरी लड़कियों के आगे बढ़ने के हौसलों तथा संभव धार्मिक अस्मिता के साथ आधुनिकता को आत्मसात करने के लिए छटपटाते कश्मीरी समाज के लिए सधन कुठाराघात साबित हो सकती है। 
    विश्वरूपम को प्रतिबन्धित करने अथवा उसके कुछ दृश्यों को फि़ल्म से हटाने की शुरूआती माँगें मुख्य रूप से राजनीति प्रेरित थीं। तमिलनाडु मंे दो द्रमुकों की परस्पर राजनैतिक प्रतिस्पर्धा की छवियां इन माँगों में न्यस्त थीं। इन्हें छिपा पाना कठिन है। इस कारण भी कि जिस संेसरबोर्ड ने इस फिल्म के प्रदर्शन की अनुमति दी उसमंे यू0पी0ए0 के सहयोगी, द्रमुक के एक सक्रिय मुस्लिम कार्यकर्ता मियां हसन महमूद जिन्ना महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में मौजूद हंै। फि़ल्म के विरूद्ध आन्दोलन के उग्र होने का मतलब था कि मियाँ हसन महमूद की स्थिति का ख़राब होना, जो बहरहाल द्रमुख के लिए सुखद स्थिति नहीं होती, अन्नाद्रमुक की भी अपनी समस्याएं थीं। फि़ल्म पर प्रतिबन्ध लगाने अथवा उसके कुछ दृश्यों को हटाने की मांग करते  समय सकारात्मक सन्देशों पर आधारित कमल हासन की पूर्व फि़ल्मों, सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध उनकी सक्रियताओं तथा उनकी वैचारिक उदारता को भुलाते हुए जैसा कि आशीष नन्दी के साथ भी हुआ, इस तथ्य को भी नज़र अन्दाज़ कर दिया गया कि उसकी पटकथा तथा संवाद न केवल एक जुझारू दिवंगत माक्र्सवादी नेता के पुत्र अतुल तिवारी ने लिखे जो कि स्वयम् तो कम्युनिस्ट हैं ही, देश के तमाम संघर्षशील दबे कुचले वर्गों के साथ ही मुसलमानों के भी बड़े शुभचिंतक हैं। जन संचार माध्यमों के सोद्देश्य इस्तेमाल का विपुल अनुभव है उनके  पास। अवश्य ही इन उद्देश्यों की सकारात्मकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता, फिर भी चूक या असावधानी तो किसी से भी हो सकती है। चूक की प्रमाणिकता को जांचे बिना फि़ल्म के विरूद्ध दमनात्मक आन्दोलन खड़ा करने से पहले गंभीर विचार विमर्श और संवाद को आवश्यक नहीं समझा गया। आखि़र देश के ज्यादातर हिस्सों के मुसलमानों ने फि़ल्म को मूल रूप में स्वीकार किया। धार्मिक संगठनों ने भी विशेष आपत्ति प्रकट नहीं की। 
    गलत प्राथमिकताओं तथा ग़लत आन्दोलनों के कारण मुसलमानों की बहुत क्षति हुई है। उनकी छवि लगातार धुंधलाती गयी है। मुस्लिम नेता तथा धार्मिक गुरू आखिर सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशें लागू कराने का दबाव क्यों नहीं बना पा रहे हैं? वक़्फ़ बोर्डों तथा अल्पसंख्यक कल्याण निगमों, सम्बन्धित अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरूद्ध वह कोई ठोस पहल करने में असफ़ल क्यों हैं? व्याप्त अशिक्षा को दूर करने के लिए वह कोई सघन परिणामपरक अभियान चला पाने में असमर्थ क्यों साबित हो रहे हैं? 

    -शकील सिद्दीक़ी

बुधवार, 13 फरवरी 2013

गूंगी

भारतीय संस्कृति की संवाहिका गंगा -- यमुना और अदृश्य सरस्वती जनमानस की प्रेरणास्रोत रही है | प्राचीन काल से प्रयाग का संगम तट धर्म , संस्कृति , कला और मानवीय संवेदनाओं का केंद्र रहा है | प्रयाग में भारतीय कला , संस्कृति एवं दर्शन के विविध रूपों का संगम होता है 

त्रिवेणी के तट पर 2013 के महाकुम्भ के अवसर पर उत्तर -- मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र , इलाहाबाद द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम '' चलो मन गंगा जमुना तीर '' 2013 में आजमगढ़ की '' सूत्रधार '' नाट्य संस्था द्वारा 8 फरवरी को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखित कहानी '' गूंगी '' पर आधारित नाटक की प्रस्तुती की गयी |
जिन्दगी बहुत बार ऐसे मोड़ पे ले आती है जहा इंसान के दर्द को समझने वाले एक या दो लोग होते है | ऐसे ही दर्द को समझा था गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने और उस दर्द को अपनी लेखनी से उस दर्द को जिन्दगी के कैनवास पर शब्दों की माणिक -- मोतियों से उकेर कर उसमे रंग भरकर इस दुनिया को अपनी समृद्ध रचना संसार को दिया '' गूंगी '' के रूप में गुरुदेव के समृद्ध रचना संसार में गूंगी सिर्फ एक '' मोती '' के समान है |
कथ्य की दृष्टि से इसका फलक बहुत बड़ा और व्यापक है ....... नदी किनारे के गाँव चण्डीपुर में बाबू वाणीकंठ जिनके दो पुत्रियों के बाद जब तीसरी बेटी पैदा हुई तो उसका नाम उन लोगो ने रखा सुभाषनी | इस नाटक में यही नाम इस कहानी की चरम और मर्म बिंदु है , कारण कि सुभाषनी '' जन्म से ही '' गूंगी '' है ..... ऐसे में वह परिवार के सदस्यों के लिए बोझ है वह इस टीस को लेकर '' गूंगी '' जिए जा रही है |
इस विषाद के साथ ही उसके जीवन में कई छोटी -- छोटी खुशिया समाहित है |
घर के ''बरदउर '' में रहती है उसकी सखिया '' सारो व पारो '' प्रकृति के विराट आगन पे पनप रहा है '' गूंगी '' का अन्तर्मन साथ ही गुसाइयो के लड़के '' प्रताप '' में दिखता है उसे अपने मन का '' मीत |
लेकिन कुदरत का खेल भी बड़ा अजीब होता है उस निरीह '' गूंगी '' का यह सुख ज्यादा दिनों के लिए नही रह जाता |
इस समाज के अलम्बरदारो से डर कर उसके माता -- पिता उसे ब्याह देते है ..... अनजान शहर कलकत्ते में एक अनजान पुरुष के साथ |
विडम्बना यह है कि वह गूंगी है ...................... मौन '' गूंगी '' का दर्द हमारे समाज के अधिकाश बोलती '' गुगियो का भी दर्द है ...... उस दर्द को गुरुदेव ने बड़े सहज और सरल तरीके से उकेरा है | इस नाटक की शुरुआत अभिषेक पंडित द्वारा लिखित गीत से '' सिद्ध सदन हे गजबदन हे गणपति महराज '' से हुआ तीसरी पुत्री गूंगी पैदा होने पर माँ के दर्द को उकेरता यह गीत ''तीन बेर निपूती भइनो तबहु ना कछु कहनो---- कोखिया के काहे कईला गुंग हे विधाता '' की माध्यम से माँ के अभिनय में गीता चौधरी ने अच्छा अभिनय किया '' गूंगी '' के चरित्र में समाज में रह रही बोलती गुगियो के भावनाओं ममता पंडित ने सुभाषिनी के चरित्र में उनकी मन की व्यथा को इन शब्दों में ''' उमड़-- घुमड़ पुरबी बदरिया बुझे ना मन के पीर हो विधाता '' के माध्यम से सम्पूर्ण अभिनय क्षमता का निचोड़ प्रस्तुत कर पूरे पाण्डाल के दर्शको के आँखों को भिगो दिया | और ममता पंडित '' गूंगी ''' की शादी जब हो रही थी तब निर्देशक ने इस गीत से भारतीय परम्परा का अदभुत समावेश से '' काहे के डोलिया हे माई -- आपन गोदिया छोडलईलू हे माई '' से शमा बाँध दिया और नाटक का आखरी दृश्य जिसमे गूंगी '' ने अपने मन की '' व्यथा को सोहन लाल गुप्ता के इस गीत से '' विधना कउने कलमईया से लिखला -- करमवा के पाति हमार '' से नाटक के अंतिम दृश्य से पूरे समाज की व्यथा को सार्थकता प्रदान की ....... इस नाटक का सबसे मजबूत पक्ष संगीत रहा इसके साथ ही इस नाटक के पात्रो ने अपने अभिनय क्षमता का पूरा परिचय दिया निर्देशक द्वारा पूरे नाटक को बाँध के रखा गया | इस नाटक में हरिकेश मौर्य , विवेक सिंह , लक्ष्मण प्रजापति यमुना , अंगद , अमन तिवारी , सलमान , जयहिंद ने अभिनय किया इसके साथ ही संगीत दिया अभिषेक पंडित ने गायकी जमुना मिश्र , दीपक विश्वकर्मा नाटक का आलेख व संगीत परिकल्पना अभिषेक पंडित द्वारा किया गया और निर्देशन ममता पंडित द्वारा किया गया ..............................-सुनील दत्ता
पत्रकार

बृहस्पतिवार, 14 फरवरी 2013

फ़ैज़: इंकलाब का शायर या मुहब्बत का ?

               "फ़ैज़ के जन्म दिवस पर विशेष"

फ़ैज़ अहमद फै़ज़ ;13 फरवरी - 20 नवम्बर 1984द्ध की जन्मशती पिछले साल मनायी गई। फै़ज़ इस महाद्वीप के ऐसे कवि रहे हैं जो भाषा व देश की दीवारों को तोड़ते हैं। वे ऐसे शायर हैं जिन्होंने अपनी शायरी से लोगों के दिलों में जगह बनाई। हमारे अन्दर इंकलाब का अहसास पैदा किया तो वहीं मुहब्बत के चिराग भी रोशन किये। दुनिया फ़ैज़ को इंकलाब के शायर के रूप में जानती है लेकिन वे अपने को मुहब्बत का शायर कहते थे। इंकलाब और मुहब्बत का ऐसा मेल विरले ही कवियों में मिलता है। यही कारण है कि फ़ैज़ जैसा शायर मर कर भी नही मरता। वह हमारे दिलों में धड़कता है। वह उठे हुए हाथों और बढ़ते कदमों के साथ चलता है। वह हजार हजार चेहरों पर नई उम्मीद व नये विश्वास के साथ खिलता है और लोगों के खून में नये जोश की तरह जोर मारता है।
फ़ैज़ उर्दू कविता की उस परंपरा के कवि हैं जो मीर, गालिब, इकबाल, नज़ीर, चकबस्त, ज़ोश, फि़राक, मखदूम से होती हुई आगे बढ़ी है। यह परंपरा है, आवामी  शायरी की परंपरा। उर्दू की वह शायरी जो माशूकों के लब व रुखसार ;चेहरा, हिज्र व विसाल ;ज़ुदाई-मिलन, दरबार नवाजी, खुशामद और केवल कलात्मक कलाबाजियों तक सीमित रही है, इनसे अलग यह परंपरा आदमी और उसकी हालत, अवाम और उसकी जिन्दगी से रू ब रू होकर आगे बढ़ी है। फ़ैज़ इस परंपरा से यकायक नहीं जुड़ गये। उन्होंने अपनी शुरुआत रूमानी अन्दाज में की थी तथा 'मुहब्बत के शायर' के रूप में  अपनी इमेज बनाई थी।
1930 के बाद वाले दशक के दौरान फैली भुखमरी, किसानों-मजदूरों के आंदोलन, गुलामी के विरुद्ध आजादी की तीव्र इच्छा आदि चीजों ने हिंदुस्तान को झकझोर रखा था। इनका नौजवान फ़ैज़ पर गहरा असर पड़ा। इन चीजों ने उनकी रुमानी सोच को नए नजरिये से लैस कर दिया। नजरिये में आया हुआ बदलाव शायरी में कुछ यूँ ढ़लता है:
'पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 
लौट आती है इधर को भी नजर क्या कीजे 
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवा
 मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग'
इस दौर में फ़ैज़ यह भी कहते हैं - 'अब मैं दिल बेचता हूं और जान खरीदता हूं'। फ़ैज की शायरी में आया यह बदलाव 'नक्शे फरियादी' के दूसरे भाग में साफ दिखता है। हालत का बयान कुछ इस कदर होता है:
'जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पर जंजीरें हैं
फिक्र महबूस (बन्दी) है, गुफ्तार पे ताजीरें (प्रतिबंध) हैं'
साथ ही यह विश्वास भी झलकता है - ये स्थितियां बदलेंगी, ये हालात बदलेंगे। शायर कहता है:
'चन्द रोज और मिरी जान ! फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
...........लेकिन अब जुल्म की मी'याद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र, कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।'
फ़ैज़ का यह विश्वास समय के साथ और मजबूत होता गया। कविता का आयाम व्यापक होता गया। कविता आगे बढ़ती रही। यह जनजीवन और उसके संघर्ष के और करीब आती गई। इस दौरान न सिर्फ फ़ैज़ की कविता के कथ्य में बदलाव आया, बल्कि उनकी भाषा भी बदलती गयी है। जहां पहले उनकी कविता पर अरबी और फारसी का प्रभाव नजर आता था, वहीं बाद में उनकी कविता जन मानस की भाषा, अपनी जमीन की भाषा के करीब पहंुचती गई है। ऐसे बहुत कम रचनाकार हुए हैं, जिनमें कथ्य और उसकी कलात्मकता के बीच ऐसा सुन्दर संतुलन दिखाई पड़ता है। फ़ैज़ की यह चीज तमाम कवियों-लेखकों के लिए अनुकरणीय है, क्योंकि इस चीज की कमी जहां एक तरफ नारेबाजी का कारण बनती है, वहीं कलावाद का खतरा भी उत्पन्न करती हैं।
फ़ैज़ की खासियत उनकी निर्भीकता, जागरुकता और राजनीतिक सजगता है। फ़ैज़ ने बताया कि एक कवि-लेखक को राजनीतिक रूप से सजग होना चाहिए तथा हरेक स्थिति का सामना  करने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। अपनी निर्भीकता की वजह ही उन्हें पाकिस्तान के फौजी शासकों का निशाना बनना पड़ा। दो बार उन्हें गिरफ्तार किया गया। जेलों में रखा गया। रावलपिंडी षडयंत्र केस में फँसाया गया। 1950 के बाद चार बरस उन्होंने जेल में गुजारे। शासकों का यह उत्पीड़न उन्हें तोड़ नहीं सका, बल्कि इस उत्पीड़न ने उनकी चेतना, उनके अहसास तथा उनके अनुभव को और गहरा किया। फ़ैज़ की कविताओं पर बात करते समय उनके उस पक्ष पर भी, जिसमें उदासी व धीमापन है, विचार करना प्रासंगिक होगा। यह उदासी व धीमापन फ़ैज़ की उन रचनाओं में उभरता है जो उन्होंने जेल की चहारदीवारी के अन्दर लिखी थीं। एक कवि जो घुटन भरे माहौल में जेल की सींकचों के भीतर कैद है, उदास हो सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या कवि उदास होकर निष्क्रिय हो जाता है ? धीमा होकर समझौता परस्त हो जाता है ? फ़ैज़ जैसा कवि हमेशा जन शक्ति के जागरण के विश्वास के साथ अपनी उदासी से आत्म संघर्ष  करता है और यह आत्म संघर्ष फ़ैज़ की कविताओं में भी दिखाई देता है। फ़ैज़ उन चीजों से, जो मानव को कमजोर करती हैं, संघर्ष करते हुए जिस तरह सामने आते है, वह उनकी महानता का परिचायक है। वे कहते हैं -
'हम परवरिशे-लौहो कलम करते रहेंगे/जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।'
या और भी:-
'मता-ए-लौह-औ कलम छिन गई तो क्या गम है/कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने/जबाँ पे मुहर लगी है तो क्या रख दी हैं/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबाँ मैंने'
इन पंक्तियों में एक कवि के रचना कर्म की सोद्देश्यता झलकती है।
वैसे फ़ैज़ ने 'मुहब्बत के शायर' के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। इस नजरिये से हम उनकी पूरी कविता यात्रा पर गौर करें तो पायेंगे कि फ़ैज़ का यह रूप अर्थात मुहब्बत के एक शायर का रूप समय के साथ निखरता गया है तथा उनके इस रूप में और व्यापकता व गहराई आती गई है। शुरुआती दौर में जहां उनका अन्दाज रूमानी था, बाद में समय के साथ उनका नजरिया वैज्ञानिक होता गया है। जहाँ पहले शायर हुस्न-ओ-इश्क की मदहोशियों में डूबता है, वहीं बाद में सामाजिक राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा से भरी उस दरिया में डूबता है, जिस दरिया के झूम उठने से बदलाव का सैलाब फूट पड़ता है। जहाँ पहले माशूक के लिए चाहत है, समय के साथ यह चाहत शोषित पीडि़त इन्सान के असीम प्यार में बदल जाती है। इसी अथाह प्यार का कारण है कि दुनिया में जहां कहीं दमन-उत्पीड़न की घटनाएं घटती हैं, फ़ैज़ इनसे अप्रभावित नहीं रह पाते हैं। वे अपनी कविता से वहाँ तुरन्त पहुँचते हैं। जब ईरान में छात्रों को मौत के अंधेरे कुएँ में धकेला गया, जब साम्राज्यवादियों द्वारा फिलस्तीनियों की आजादी पर प्रहार किया गया, जब बेरूत में भयानक नर संहार हुआ - फै़ज़ ने इनका डटकर विरोध किया तथा इन्हें केन्द्रित कर कविताएँ लिखीं। इनकी कविताओं में उनके प्रेम का उमड़ता हुआ जज़्बा तथा उनकी घृणा का विस्फोट देखते ही बनता है। जनता के इसी अथाह प्यार के कारण ही फ़ैज़ अपने को 'मोहब्बत का शायर' कहते थे, जब कि सारी दुनिया उन्हें इंकलाब के शायर के रूप में जानती है। दरअसल, फ़ैज़ के मोहब्बत के दायरे में सारी दुनिया समा जाती है। उनका इंकलाब मुहब्बत से अलग नहीं, बल्कि उसी की जमीन पर खड़ा है। उनकी कविता में मुहब्बत नये अर्थ, नये संदर्भ में सामने आती है जिसमें व्यापकता व गहराई है।

-कौशल किशोर
मो - 08400208031
        09807519227

शनिवार, 16 फरवरी 2013

अयोध्या फिर चुनावी रणभूमि में




भाजपा के नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने एक बार फिर राम मंदिर का मुद्दा उछाला है। विहिप से जुड़े हुए साधु.संतों ने भी कहा है कि राम मंदिर उनके एजेन्डे पर है। संघ परिवार के सभी शीर्ष नेता महाकुंभ में पहुंच रहे हैं और पवित्र गंगा में डुबकी लगाकर यह घोषणा कर रहे हैं कि सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा उनके चुनाव अभियान का केन्द्र बिन्दु होगा। 
यह सचमुच चिंतनीय है कि राम मंदिर का मुद्दा इस तथ्य के बावजूद उठाया जा रहा है कि इलाहबाद हाईकोर्ट यह निर्णय दे चुका है कि विवादित भूमि को तीन बराबर भागों में बांटकर,तीनों पक्षकारों.सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान. को सौंप दिया जाए। इस निर्णय को उच्चतम न्यायलय में चुनौती दी गई है और यह अपील देश के सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इलाहबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद आरएसएस ने कहा था कि बहुसंख्यकों की भावनाओं का आदर करते हुए मुसलमानों को अपने हिस्से की भूमि छोड़ देनी चाहिए। जहां मस्जिद थी, उस भूमि के मालिकाना हक के विवाद का मसला न्यायालय में लंबित होने के बावजूद विहिप आदि यह कह रहे हैं कि अयोध्या में कहीं भी मस्जिद का निर्माण नहीं होने दिया जाएगा। विहिप के अनुसार, मस्जिद का निर्माण अयोध्या की शास्त्रीय सीमा के बाहर किया जा सकता हैए जिसका वर्णन तुलसीदास की रामचरितमानस में किया गया है। कुल मिलाकर, विहिप का यह कहना है कि अयोध्या केवल हिन्दुओं की धर्मस्थली है। यहां यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि अयोध्या का अर्थ है युद्धया अर्थात युद्धमुक्त क्षेत्र। अयोध्या केवल हिन्दुओं के लिए पवित्र नहीं है। बौद्ध व जैन धर्मों की भी यह पवित्र स्थली रही है। पांचवी सदी ईसा पूर्व से अयोध्या में बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने बसना शुरू किया। यद्यपि बौद्ध धर्म को पहली सहस्त्राब्दी में विकट हमलों का सामना करना पड़ा तथापि इस धर्म के धर्मस्थलों के कुछ अवशेष अब भी अयोध्या में बचे हुए हैं। बौद्ध मान्यताओं के अनुसारए पहले और चैथे तीर्थंकंर का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या में जो सबसे पहले जो हिन्दू पूजास्थल बने वे शैव व वैष्णव पंथों के थे। विष्णु के अवतार के रूप में राम की पूजा तो बहुत बाद में शुरू हुई। राम की मूर्तियों की चर्चा छठी शताब्दी ईसवी के बाद ही सुनाई देती है। अयोध्या के सबसे बड़ा मंदिर हनुमानगढ़ी, जिस भूमि पर बना है वह अवध के नवाब ने दान दी थी। 
इस सिलसिले में यह मांग भी की जा रही है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण सरकार उसी तरह करवाए जिस तरह सोमनाथ मंदिर का निर्माण करवाया गया था। आडवानी और कई अन्य यह दावा करते रहे हैं कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माणए नेहरू मंत्रिमंडल के निर्णयानुसार करवाया गया था। यह सफेद झूठ है। चूंकि आमजन बहुत समय तक सार्वजनिक मसलों को याद नहीं रखते इसलिए इसका लाभ उठाकर झूठ को बार.बार दोहराकर उसे सच की शक्ल देने की कोशिशें चलती रहती हैं। यह वही कला है जिसमें हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स अत्यंत सिद्धहस्त थे। अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो एक बिल्कुल अलग चित्र सामने आएगा। भारत सरकार का सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से कोई लेनादेना नहीं था। यह झूठ है कि नेहरू सरकार ने सोमनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था या निर्माण कार्य में किसी भी प्रकार की सहायता या सहभागिता की थी। यह दुष्प्रचार केवल इस आधार  पर किया जा रहा है कि नेहरू मंत्रिमंडल के दो मंत्री अपनी व्यक्तिगत हैसियत से सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के कार्य में शामिल हुए थे। सच यह है कि जब सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का मसला सरदार पटेल द्वारा उठाया गया थाए तब महात्मा गांधी ने यह राय व्यक्त की थी कि हिन्दू अपने मंदिर का निर्माण करने में पूर्णतः सक्षम हैं और उन्हें न तो सरकारी धन और ना ही सरकारी मदद की जरूरत है। सरकार को ऐसी कोई मदद करनी भी नहीं चाहिए और ना ही मंदिर के निर्माण के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल होना चाहिए। 
सरदार पटेल की मृत्यु के बाद, नेहरू सरकार के दो मंत्रियों के. एम. मुंशी और एन. व्ही. गाडगिल ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से मंदिर के पुनर्निर्माण में हिस्सेदारी की। केबिनेट ने सोमनाथ मंदिर के संबंध में कभी कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया, जैसा कि साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा दावा किया जा रहा है। मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को उसका उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने पंडित नेहरू के कड़े विरोध के बावजूद यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया। पंडित नेहरू का यह मत था कि उच्च संवैधानिक, सार्वजनिक पदों पर विराजमान व्यक्तियों को किसी भी धर्म या उसके तीर्थस्थलों से संबंधित सार्वजनिक समारोहों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। 
बाबरी विध्वंस को बीस साल गुजर चुके हैं। हम आज पीछे पलटकर देख सकते हैं कि राम मंदिर आंदोलन ने देश की राजनीति और समाज को कितना गहरा नुकसान पहुंचाया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अयोध्या मामले में अदालत ने आस्था को अपने फैसले का आधार बनाया। परंतु इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय मंे चुनौती दी गई है। क्या कारण है कि अपने एजेन्डे की घोषणा करने के पहले आरएसएस, उच्चतम न्यायालय के निर्णय का इंतजार नहीं कर सकता इसका असली कारण राजनैतिक है। मंदिर आंदोलन का हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं है। संघ परिवार ने मस्जिद तोड़ी और उससे उसकी राजनैतिक ताकत बढ़ी। सन् 1984 के चुनाव में भाजपा के केवल दो उम्मीदवार लोकसभा में पहुंच सके थे। परंतु इसके बादए संघ परिवार ने ज्योंही इस मुद्दे का पल्लू थामा, भाजपा की लोकसभा में सदस्य संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। सन् 1999 के चुनाव में भाजपा के 183 उम्मीदवार  जीते। इस आंदोलन के कारण ही एक छोटे से दल से भाजपा सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन सकी। परंतु शनैः.शनैः इस मुद्दे का जुनून जनता के सिर से उतरने  लगा और 1999 के बाद से भाजपा की लोकसभा में उपस्थिति लगातार घटती गई। राम मंदिर मुद्दे को पुनर्जीवित करने की वर्तमान कोशिशए एक सोची.समझी रणनीति का हिस्सा है। भाजपा शायद यह सोच रही है कि राम मंदिर के मुद्दे को हवा देकर वह एक बार फिर भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकती है। 
परंतु इस रणनीति की सफलता संदिग्ध है। दो दशकों की अवधि में मतदाताओं का मिजाज बदल गया है। कम उम्र के युवाओं की मंदिरों आदि में बहुत कम रूचि है। वे अन्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। फिर भी, समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसकी भावनाओं को भड़काया जा सकता है। संघ परिवार अपने विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए इस मुद्दे को हवा देने की भरपूर कोशिश कर रहा है। आरएसएस जैसे संगठन केवल पहचान पर आधारित मुद्दों की दम पर जिन्दा रहते हैं। उनके लिए राम मंदिर का मुद्दाए तुरूप का इक्का है। बार.बार दोहराए गए इस तर्क कि राम मंदिर का संबंध भारतीय राष्ट्रीयता से है, ने कई लोगों को भ्रमित कर दिया है। हम सब यह जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीयताए मंदिरों और मस्जिदों के इर्दगिर्द नहीं घूमती। भारतीय राष्ट्रीयताए धार्मिक राष्ट्रीयता नहीं है। प्रजातंत्र में राष्ट्रीयता को सैकड़ों वर्ष पहले हुए राजाओं के धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता। वैसे भीए सभी धर्मों के राजाओं के प्रशासनिक तंत्र में दोनों धार्मिक समुदायों के सदस्य रहते थे। हमें भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को एक बार फिर याद करना होगा। स्वाधीनता संग्राम ने ही भारत को एक राष्ट्र की शक्ल दी.एक ऐसे राष्ट्र की जो प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है। आईए,हम मंदिर.मस्जिद के मुद्दों को दरकिनार करें और उन मसलों पर ध्यान दें जिनका संबंध हमारे देश के करोड़ों नागरिकों की रोजी.-रोटी, रहवास और मूल समस्याओं से है।

 .-राम पुनियानी

रविवार, 17 फरवरी 2013

अरब जगत का इत्र भी मोदी दाग नहीं मिटा सकता

प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने लिखा, सविंधान के मुताबिक भारत केवल हिंदुओं का देश नहीं है। यह समान तौर पर मुस्लिमों, सिख, ईसाइयों, पारसियों, जैनियों का भी देश है। और इस देश में हिंदू फर्स्ट रेट सिटिजन और दूसरे समुदाय के लोग सेकेंड या थर्ड रेट सिटिजन नहीं हो सकते हैं। सभी नागरिक एक समना हैं। गुजरात में मुस्लिमों की हत्याएं और दूसरे ज्यादतियां न तो भुलाई जा सकती हैं और न ही इन्हें माफ किया जा सकता है। पूरे अरब जगत का इत्र भी मोदी का इन हत्याओं से कनेक्शन के दागों को नहीं मिटा सकता है।

देश का एक बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी को देश के अगले पीएम के तौर पर देखना चाहता है। उन्हें लगता है कि मोदी हताश और निराश देश में दूध और शहद की नदियां बहा देंगे। यह आवाज बीजेपी, आरएसएस के बीच से ही नहीं कुंभ मेले से भी आ रही हैं। इसमें देश के तथाकथित पढ़े-लिखे नौजवान भी शामिल हैं जो मोदी के इस प्रोपेगैंडा में शामिल हैं। काटजू आगे लिखते हैं कि आज गुजरात में मुस्लिम डर के साये में जी रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे 2002 के खिलाफ बोलेंगे तो उन्हें निशाना बनाया जाएगा। काटजू कहते हैं कि देश के सभी मुस्लिम आज मोदी के खिलाफ हैं हालांकि इसमें से कुछ ही लोग यह विरोध किसी ठोस कारण से करते हैं। मोदी के समर्थक दावा करते हैं कि गुजरात में जो हुआ वह गोधरा में एक ट्रेन में 59 हिंदुओं की हत्या की प्रतिक्रिया थी। गोधरा में क्या हुआ यह तो आज भी रहस्य है। गोधरा के हत्यारों को सख्त कानूनी सजा दी जानी चाहिए थी। पूरे मुस्लिम समुदाय पर हुए हमले को ठीक नहीं कहा जा सकता है जो राज्य में केवल 9 फीसदी हैं। 2002 में मुस्लिमों का जनसंहार किया गया, उनके घर जलाए, उन पर भयानक अत्याचार हुए।
काटजू ने गोधरा दंगों पर लिखा था कि, गोधरा में क्या हुआ यह अब भी रहस्य बना हुआ है। वे इस पर भरोसा नहीं कर सकते कि 2002 में जो हुआ उसमें मोदी का हाथ नहीं था। जेटली ने उन पर निशाना साधा कि नॉन-कांग्रेस सरकार के खिलाफ उनके बयान से लगता है कि वे रिटायरमेंट के बाद नौकरी देने पर अहसान चुका रहे हों। जेटली ने कहा कि एक जज के तौर पर काटजू हमेशा फेल रहे हैं चाहे वह सिटिंग जज रहें हो या रिटायर्ड।
 काटजू ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर भी हमला करते हुए कहा था कि बिहार में प्रेस की आजादी नहीं है।
 साभार :भास्कर .कॉम 

सोमवार, 18 फरवरी 2013

गड़बड़झाला------उद्भ्रांत


                            
    डा. उदयभानु पाण्डे से कभी भेंट नहीं हुई- फ़ोन पर हुई एक-आध बार की बातचीत को छोड़कर। गत वर्ष 'अकार' में प्रकाशित उनका लेख अच्छा लगा था और 'कथादेश' की मौजूदा मैराथन बहस में भी उनका हस्तक्षेप सार्थक था- सिर्फ़ मेरे लिए प्रयुक्त विशेषण को छोड़कर, जिस कारण ख़ामखाँ उन्हें इन पंक्तियों के लेखक के 'शीर्ष' पर रखकर चलाई गई अर्चना वर्मा की बंदूक का सामना करना पड़ा! मैंने तो पहले ही अपनी सम्बन्धित हतप्रभता से उन्हें टेलीफ़ोन पर अवगत कराया था। 
    गत लगभग पूरे दिसम्बर माह जब मैं पत्नी की अस्वस्थता के कारण नोएडा के एक निजी अस्पताल में रहा तो किसी दिन उन्होंने फ़ोन पर यह सूचना दी थी, तब मैने सेक्टर-34 के समाचारपत्र विक्रेता से उक्त अंक मँगवाया । ये वही दिन थे जब राजधानी में हुई गैंगरेप की दुर्दांत घटना के चलते देश दुःख और गुस्से की समवेत आग में जल रहा था और मेरी इकाई भी उसी का हिस्सा थी। लिखना तो कहां हो सकता था-अश्लीलता के पक्ष में लिखे उस गरिष्ठ लेख को पढ़ना भी, एन्टीबायोटिक दवाओं के प्रभाव से पत्नी के सोने के बाद, टुकड़ों-टुकड़ों में कई रात्रियों से छनकर मिले समय में ही संभव हो सका। स्थिति सामान्य होने के बाद अब जाकर नये वर्ष के इस पहले महीने के मध्य में यह टिप्पणी लिख पा रहा हूँ।
    क्योंकि सच कहूँ तो इस बहस को इतना लम्बा खींचने की सुश्री वर्मा की अप्रासंगिक भूूमिका से मुझे अफ़सोस हुआ है। वरना, न तो उनसे, न संदर्भित कवि-द्वय से मेरी कोई लाग-डाँट है। शालिनी के लेख पर सबसे पहली स्वतःस्फूर्त टिप्पणी भी मैने इसी कारण लिखी थी, जिसके सन्दर्भ में उन्होंने पत्रकारिता की नैतिकता के विरूद्ध कार्य किया। इन्हीं सब बातों ने मुझे दोबारा कलम उठाने को विवश किया है । 
लेकिन अपना क्षोभ व्यक्त करने से पहले उसके कारक बने तीन प्रमुख किरदारों का जि़क्र ज़रूरी है। जैसा कि संकेत किया है, अर्चना जी को सूरत से कम, 'प्रसंगवश' सीरत से अधिक पहचानता हूँ। 16-17 वर्ष पूर्व राजेन्द्र यादव ने 'हंस' कार्यालय में मन्नू जी के साथ बैठीं एक भद्र महिला के बारे में कहा था कि ये अर्चना वर्मा हैं। मैं गोरखपुर से स्थानान्तरित होकर उप कार्यक्रम नियंत्रक के रूप में दूरदर्शन महानिदेशालय आया ही था और वर्ष 1970 से प्रारम्भ सम्बन्धों के चलते हमेशा की तरह दिल्ली आते ही उनसे मिलने पहुँच गया था। तब शायद रस्मी दुआ-सलाम ज़रूर हुआ होगा। बस उसे छोड़कर उनसे कभी एक शब्द का भी आदान -प्रदान नहीं हुआ। सुश्री अनामिका का नाम पहली बार तब सुना था, जब वर्ष 1984 में कानपुर के मित्र प्रकाशक साहित्य रत्नालय के श्री महेश त्रिपाठी ने मेरे तीन काव्यसंग्रहों के साथ उनका एक उपन्यास छापा था। दिल्ली आगमन के बाद इस सम्बन्ध में याद दिलाने पर उन्होंने उसे किशोरावस्था की कृति बताते हुए ख़ास महत्व नहीं दिया था- यद्यपि बाद में शायद किसी अन्य नाम से वह दिल्ली से भी छप गया था। प्रारम्भ में उनकी कुछ कविताओं ने मुझे आकर्षित किया था, मगर इधर लगता है कि वे अति आत्मविश्वास, अहंकार और गुरूडम का शिकार होकर क्षेत्रीय और भाषायी राजनीति करने के साथ साथ स्वयं को 'शीर्ष कवयित्री' कहने-कहलाने में अपनी शान समझती हैं। वरिष्ठों की अवमानना और कनिष्ठों से चरणस्पर्श की कांक्षा उनके व्यवहार में नज़र आती है। यहां उनकी शालीन चुप्पी श्रेयस्कर होती-उस प्रतिक्रिया की तुलना में-जो उन्होंने अपनी मित्र के कहने पर दी । अकारण नहीं है कि उनके पक्ष में नियोजित की गईं दो-तीन दलीलें इसीलिए बेहद कमज़ोर हैं-उनकी सबसे बड़ी पैरोकार के साथ, जो व्यवहार में उन्हीं की राह की बगलगीर हैं। जबकि हम आज से नहीं, सदियों से जानते हैं कि कविता का पथ अनंत का पथ है। चरैवेति, चरैवेति। वर्ष 1959 से प्रारम्भ इस यात्रा में फि़लहाल तो आधी सदी ही पार हुई है। और वर्ष 1960 में ही पहली कविता छपने के कारण प्रकाशन- यात्रा में भी उतनी अवधि बीत चुकी है। पोर्न कवितायें  लिखने और उनकी अर्चना करने वाले उसी के आसपास इस धरा पर अवतरित हुए होंगे, इसलिए उन्हें मुझसे शिकायत है तो वह स्वाभाविक ही है। लेकिन वे इतना तो जान ही लें कि इस यत्किंचित लम्बी यात्रा के बाद और कुल सत्तर पुस्तकों में कविता की ही तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित होने के बाद भी मुझे स्वयं को सामान्य कवि मानने तक में पसोपेश होता है-'शीर्ष स्तर' तो बहुत दूर की कौड़ी है। ऐसे विशेषण उन्हीं को मुबारक़! पाण्डेय जी ने ठीक ही गोस्वामी जी की मदद ली है- खल परिहास होहि हित मोरा! अंतिम किरदार 'कथादेश' सम्पादक तो मेरे तब के मित्र हैं, जब वे आगरा से एक मासिक पत्रिका 'रूप कंचन' निकालते थे और वर्ष 1975 में उसके प्रस्तावित कहानी विशेषांक में मेरी कहानी आमंत्रित करते हुए उन्होंने, तब कानपुर निवासी, मुझे एकाधिक पत्र लिखे थे। ज़ाहिर है कि तब वे सीधे, सरल इंसान थे- आज की तुलना में -जो कथा-प्रकाशन की दृष्टि से मार्च 1974 में 'कहानी पत्रिका' में जनमे एक उद्भ्रांत कथाकार से भी कहानी मांगने में संकोच नहीं करते थे! खैर! 
अब अपने क्षोभ का खुलासा: 
1.    पाण्डेय जी ने लिखा था कि ''उद्भ्रांत ने सटीक टिप्पणी की है,  लेकिन लगता है उसमें कुछ छूट गया है''। अर्चना वर्मा ने 'मौनं स्वीकृति लक्षणम्' के अनुसार इसे ठीक क़रार दिया है (अन्यथा वे इसका खंडन ज़रूर करतीं), और दिसम्बर 2012 की उनकी सफाई के अनुसार यह प्रकट है कि 'कुछ छूटा' नहीं था। दरअसल उन्होंने जानबूझ कर उसे काट दिया था- श्री हरिनारायण की निस्पृहता का बेजा लाभ लेकर उनके सम्पादकीय अधिकार का स्वयं इस्तेमाल करते हुए । सवाल है कि उन्होंने मेरे लेख को देखने के तुरंत बाद संदर्भित कवियों से और अन्यों से भी बचाव जैसी कार्यवाही  के लिए क्यों कहा? स्वाभाविक रूप से उनकी प्रतिक्रिया आती तो कुछ भी ग़लत नहीं था, मगर यहां दबाव डालकर लिखवाने की कोशिशें हुईं। आखिर इस दुरभिसंधि में वे क्यों शामिल हुईं? मेरे लेख को एक महीने इसीलिए विलंबित किया गया, ताकि उनके कार्टेल को उतना समय अपनी तैयारी के लिए मिल जाये! फिर वह कौन सा डर था कि अगस्त 2012 में अधोहस्ताक्षरी के लेख को प्रकाशित तो किया गया - यह दिखाने के लिए कि हम बडे़े 'लोकतांत्रिक' है(!)-मगर उसके ज़रूरी बड़े हिस्से को काट दिया गया? यह जर्नलिस्टिक एथिक्स के खिलाफ़ था, जिसके अंर्तगत सम्पादक उभयपक्षीय रहने के लिए बाध्य होता है। शायद इसीलिए हरि नारायण ने उसका पालन किया। मगर तब सवाल है कि उन्होंने अपनी सहयोगी को उनके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति क्यों दी? पत्रकारिता की नैतिकता का सवाल उठाने का अधिकार कम से कम मुझे तो इसलिए भी है कि मैं वर्ष 1970 में 'युगप्रतिमान' पाक्षिक और वर्ष 1974-'77 में अनियतकालीन पत्रिका 'युवा' का सम्पादन कर चुका हूँ-दैनिक 'आज' के कानपुर संस्करण के सम्पादकीय विभाग में कार्य के अलावा। 
2.    मेरा जो चार पृष्ठीय लेख 13 मई 2012 को ईमेल से और 15 मई 2012 को कूरियर से मिल चुका था, उसे जुलाई 2012 के अंक में क्यों नहीं दिया गया और अगस्त अंक में अन्यों के साथ दिया भी गया तो उसके सबसे ज़रूरी बाद के उन ढाई पृष्ठों को किस सम्पादकीय विवेक से काटा गया (उन्होने शालिनी माथुर को फ़ोन पर ऐसा कहा था), जहां से मैंने बिन्दुवार शालिनी के लेख की मीमांसा शुरू की थी? किस सम्पादकीय विवेक से अपने 'प्रसंगवश' के छह और आशुतोष कुमार के पांच पृष्ठों को उसी अंक में दिया गया, जबकि आशुतोष के लेख के दो पृष्ठों में उन्हीं कविताओं का पुनर्मुद्रण था जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी? 
3.    इसका रहस्य विद्वान पाठकों के समक्ष मैं उजागर कर देता हूँ। दरअसल लेख के जानबूझकर छोड़े या काटे गये हिस्से में ही मेरी वह भविष्यवाणी भी थी कि सम्बन्धित कार्टेल जिसने इतनी जोड़-तोड़ के बाद ऐसी उपलब्धि हासिल की है-चुप नहीं बैठेगा। अब आप पाठक साक्षी हैं कि भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। यह देखना दिलचस्प है कि सुश्री वर्मा ने अपने दिसंबर के सुदीर्घ ग्यारह पृष्ठीय 'बयान' में सुश्री अनामिका पर दबाव डालकर लिखवाने की बात कहकर उसे मान भी लिया है। ज़ाहिर है कि औरांे से भी ऐेसे ही कहा होगा, तभी अगस्त अंक में अपने सिपहसालारों के साथ वे बचाव पक्ष में प्रकट र्हुइं और दिसंबर अंक में उसकी स्वघोषित कुतार्किक परिणति के साथ ही उन्होंने ठंडी साँस ली। मेरा लेख जुलाई 2012 में ही छपता तो वे अपने कार्टेल को कैसे सक्रिय कर पातीं! अगस्त में भी वह पूरा छपता तो सब बेनक़ाब हो रहे थे। लेकिन सप्ताह भर के अन्दर ही पचासों ब्लाॅग्स में और महीने के अंत तक 'दुनियाँ इन दिनांे' (संः सुधीर सक्सेना) में इस साजि़श के खुलासे के साथ पूरा लेख छपने के कारण अंततः वे बेनक़ाब तो हो ही गये। 
4.    उन्होंने पक्ष-विपक्ष भी रेखांकित कर दिया है, मगर यहाँ गड़बड़झाला हो गया है। वादी को प्रतिवादी और प्रतिवादी को वादी कहा जा रहा है। स्वयं वे पहले तो आरोपी के बचाव पक्ष की भूमिका में प्रकट होती हैं और अंत में अच्छी कविता के बचाव के लिए जिरह करने वाली शालिनी माथुर को जवाब देने का मौक़ा दिये बिना मनमाने ढंग से प्रबुद्ध जनता को न्यायाधीश की कुर्सी से उतार कर स्वयं काबिज़ हो, फ़ैसला लिखने लग जाती हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि 'कथादेश' में प्रकाशित अधूरी टिप्पणी के दूसरे ही पैरा में मैंने इस पूरे प्रसंग को 'अदालत का रूपक' दिया था, जिसमें पाठक को न्यायाधीश कहा गया था (पहले में 'आपरेशन थियेटर' का)। वहीं से प्रेरित होकर सुश्री वर्मा ने बैरिस्टर जनरल की भूमिका अखि़्तयार कर ली।  
5.    किसी कृति पर फ़ैसला देने का अधिकार सिर्फ पाठक का होता है। दुनियाँ का कोई लेखक उसे मूर्ख मानने की हिमाक़त नहीं करता, जिसे अर्चना जी कर रही हैं। उनकी गूढ़ भाषा भी इसकी चुगली करती है। अपनी नातिदीर्घ रचना-यात्रा में दुरूहतम भाषा लिखने वाले आलोचकों तक से पाला पड़ने के कारण मैं तो येन-केन-प्रकारेण द्रविड़ प्राणायाम करके उनकी बात का मर्म निकाल लेता हूँ, लेकिन अधिकांश पाठक वर्ग को वह समझ में नहीं आती। और पाठक तो सभी तरह के है, जिनमें विद्वानों की संख्या भी कम नहीं। 
6.    बहस को जो प्रारम्भ करता है, वही उसका समापन करता है, यह मामूली -सी बात भी वे नहीं जानतीं। शालिनी के उत्तर के बिना यह बहस किसी तार्किक परिणाम तक नहीं पहुँच सकेगी। आशा है उसके समापन की घोषणा भी सम्पादक महोदय ही करेंगे, कोई अन्य नहीं!
मो0 09818854678 

-उद्भ्रांत

कट्टरपंथी नहीं समझते शांति और तार्किकता की भाषा

हाल में समाचारपत्रों में एक अत्यंत दुःखद और चिंताजनक खबर छपी, जिसके अनुसार पाकिस्तान में कट्टरपंथियों ने उनमें से कई महिलाओं को जान से मार दिया जो बच्चों को पोलियो की दवा पिला रहीं थीं। कट्टरपंथियों का मानना है कि पोलियो उन्मूलन अभियान, दरअसल, मुसलमानों की आबादी कम करने का अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र है। वे ऐसा सोचते हैं कि पोलियो की दवा पीने से लड़के नपुंसक हो जाएंगे। भारत में भी कुछ मुसलमान और इमाम ऐसा ही सोचते हैं और जु़मे की नमाज के बाद होने वाली तकरीरों में कई इमामों ने मुसलमानों से यह अपील की कि वे सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने की इजाजत न दें। 
परंतु भारत में यह मुद्दा केवल चंद इमामों की अपीलों तक सीमित रहा। किसी व्यक्ति को कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाया गया-कत्ल तो दूर की बात है। पाकिस्तान के कट्टरपंथी हिंसा की संस्कृति में विश्वास रखते हैं और उनके पास उनकी आज्ञा को न मानने वाले के लिए एक ही सजा है-मौत। मलाला को इसलिए मार डालने की कोशिश की गई क्योंकि उसने तालिबान की बात नहीं सुनी और बच्चियों की शिक्षा की वकालत करती रही। जो लोग इस्लाम के नाम पर दूसरों को मारते हैं वे सच्चे मुसलमान तो हैं ही नहीं, बल्कि वे तो मुसलमान कहलाने के लायक भी नहीं हैं।धर्मपरायण मुसलमान होने के लिए व्यक्ति को न्याय करने वाला होना चाहिए। कुरान कहती है ''न्याय करो: यही धर्मपरायणता के सबसे नजदीक है। अल्लाह से डरते रहो, निःसंदेह, जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी खबर रखता है'' (5ः8)।  
कोई भी ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की जान लेता है स्वयं को न्याय करने वाला कैसे कह सकता है? न्याय करना वैसे भी बहुत कठिन काम है। हत्यारे को सजा देने के लिए कम से कम दो धर्मपरायण और ईमानदार गवाहों की आवश्यकता होती है। और बलात्कार को साबित करने के लिए कम से कम चार ऐसे गवाह चाहिए होते हैं। शरीयत कानून के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की गवाही स्वीकार  करने के पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह व्यक्ति ईमानदार, पवित्र और धर्मपरायण है। हर किसी की  गवाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी को मारने की इजाजत तभी है जब उस व्यक्ति ने कत्ल किया हो और वह भी कत्ल-ए-अमत (जानबूझकर व सोच-समझकर)। अल्लाह तो यही चाहता है कि कातिल को मुआवजा लेकर या बिना मुआवजा लिए माफ कर दिया जाए। 
किसी भी व्यक्ति को बिना उचित कारण के जान से मारना एक बहुत बड़ा पाप है। कुरान कहती है ''जिसने किसी व्यक्ति का, किसी के खून का बदला लेने या जमीन में फसाद फैलाने के सिवाए, किसी और कारण से कत्ल किया तो मानो उसने समस्त मनुष्यों की हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो समस्त मनुष्यों को जीवन प्रदान किया'' (5ः32)। यह कुरान की सबसे महत्वपूर्ण आयतों में से एक है। जीवन पवित्र है और किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अन्य व्यक्ति का जीवन अकारण ले ले। किसी की जान लेने के लिए बहुत महत्वपूर्ण कारण होना चाहिए। अगर हम मनुष्य एक-दूसरे को अकारण और जब चाहे मारने लगेंगे तो इस धरती से मानव जाति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
सामान्यतः, हथियारों का इस्तेमाल स्वयं की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए। किसी की जान लेने के लिए नहीं। क्या कोई यह बता सकता है कि शरीयत में कहां यह लिखा है कि पोलियो की दवा पिलाने की सजा मौत है? पोलियो की दवा तो उस समय थी ही नहीं जब शरीयत लिखी गई थी। कट्टरपंथी धार्मिक नेता वैसे तो शरीयत कानून में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का कड़ा विरोध करते हैं-फिर चाहे वह कितना ही औचित्यपूर्ण क्यों न हो-परंतु अपनी सुविधानुसार वे शरीयत कानून में कुछ भी जोड़-घटा लेते हैं या शब्दों और वाक्यों के ऐसे अर्थ निकाल लेते हैं जो उनके हितों और लक्ष्यों के अनुरूप हों। पोलियो की दवा पिलाने वाली महिलाओं की हत्या इसी तरह के किसी बेहूदा तर्क के आधार पर की गई। यह शरीयत कानून में मनमाना परिवर्तन है जिसे किसी भी हालत में औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता।
ये वही कट्टरपंथी हैं जिन्हें नारकोटिक ड्रग्स का उत्पादन करने और उन्हें बेचने से कोई गुरेज नहीं है। वे इन ड्रग्सं को बेचकर अकूत धन कमाते हैं और उससे खरीदे गए हथियारों का इस्तेमाल युवाओं की जान लेने के लिए करते हैं। इस्लाम में शराब सहित सभी नशीले पदार्थों पर कड़ा प्रतिबंध है परंतु यह सर्वज्ञात है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान, बड़े पैमाने पर ड्रग्स का उत्पादन करते हैं, उन्हें तस्करी के जरिए दूसरे देशों में ऊँची कीमत पर बेचते हैं और उस धन से हथियार खरीदते हैं। मैंने अफगानिस्तान में कई ड्रग-विरोधी सम्मेलनों में भाग लिया है और मैं जानता हूं कि हथियार और असलाह की अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए तालिबान ने हजारों जिंदगियां तबाह कर दी हैं। अफगानिस्तान में महिलाएं तक ड्रग्स लेने की आदी हैं। यह है तालिबान का इस्लाम।  
तालिबान से हम यह भी जानना चाहेंगे कि यह उन्हें किसने बताया कि पोलियो की दवा से पुरूष नपुंसक हो जाते हैं। क्या वे किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर इस नतीजे पर पहुंचें हैं? या वे केवल अफवाहों के आधार पर किसी भी विषय पर अपना मत बना लेते हैं? किसी भी बात पर उसकी सत्यता का पता लगाए बिना विश्वास कर लेने की कुरआन सख्त शब्दों में निंदा करती है। कुरान की आयत 48ः9, 48ः12, 49ः12 और 53ः23 में इस प्रवृत्ति की आलोचना की गई है। कुरान कहती है कि कई मामलों में ऐसा करना गुनाह करने जैसा है और कई बार हम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऐसी बातों को सच बताने लगते हैं जो सही नहीं हैं। कुरान इस तरह की प्रवृत्ति को घोर अनुचित करार देती है। अगर तालिबान केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर पोलियो की दवा पिलाने वाली महिलाओं का कत्ल कर रहे हैं तो यह कुरान की दृष्टि में गुनाह है। और यदि वे अनुसंधान या किसी और तरीके से इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पोलियो की दवा नपुंसकता को जन्म देती है तो उन्हें इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए। क्या वे यह चाहते हैं कि छोटे-छोटे बच्चे पोलियो के कारण अपना पूरा जीवन अपाहित के तौर पर बिताने पर मजबूर हों? जीवन अल्लाह की एक सुंदर भेंट है। क्या वे चाहते हैं कि हजारों-लाखों बच्चे ईश्वर की इस भेंट का आनंद न ले पाएं और वह भी केवल तालिबान की गलतफहमी या कमअक्ली के कारण? 
पल्स पोलियो अभियान को संयुक्त राष्ट्र संघ ने शुरू किया है और इसका लक्ष्य है धरती के माथे से पोलियो के कलंक को मिटाना। इस अभियान का उद्धेश्य हमारी पृथ्वी के निवासियों को अधिक स्वस्थ और प्रसन्न बनाना है। यह दवा केवल मुसलमानों को नहीं पिलाई जा रही है। पूरी दुनिया में सभी धर्मों के बच्चे इस दवा का सेवन कर रहे हैं। पूरी मानवता इस अभियान से लाभान्वित हो रही है, विशेषकर अफ्रीका और एशिया के वे इलाके जहां गरीबी, बदहाली और भूख ने अपने पांव पसार रखे हैं। ऐसा लग रहा है कि पल्स पोलियो अभियान का विरोध, दरअसल, तालिबान का एक षड़यंत्र है जिसका लक्ष्य मुसलमानों की आने वाली पीढि़यों को अपाहित बनाना है ताकि वे तालिबान की दया और दान पर निर्भर रहें। 
कुरान और हदीस में इल्म पर बहुत जोर दिया गया है। इसके चलते होना तो यह था कि मुसलमान, विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मामले में पूरी दुनिया में सबसे आगे होते। परंतु यह दुःखद है कि मुस्लिम कटट्रपंथी इतने अज्ञानी और अंधविश्वासी हैं और वे बंदूक के बल पर मुसलमानों को अज्ञानता के अंधेरे में कैद रखना चाहते हैं। मुसलमानों का यह कर्तव्य है कि वे अज्ञानता का नाश करें और ज्ञान के युग का आगाज करें। तालिबान आधुनिक शिक्षा के विरोधी हैं। वे महिलाओं को शिक्षित और स्वतंत्र देखना नहीं चाहते। यहां तक कि वे आधुनिक दवाओं तक के विरोधी हैं। वे केवल बंदूकों की खेती कर रहे हैं। क्या यह इस्लाम है? हमें युवा मुसलमानों को प्रेरित करना होगा कि वे तालिबान के अभिशाप के खिलाफ खुलकर खड़े हों। यह अभिशाप उतना ही खतरनाक है जितना कि पोलियो।
-डा. असगर अली इंजीनियर

No comments:

Post a Comment