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Sunday, August 26, 2012

क्या स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों की यही नियति है? अगर सरकार देश से निकालती है तो करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

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क्या स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों की यही नियति है? अगर सरकार देश से निकालती है तो करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

क्या स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों की यही नियति है? अगर सरकार देश से निकालती है तो करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

By  | August 26, 2012 at 2:09 pm | No comments | मुद्दा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों बंगालियों ने अपने जीवन का बलिदान इस आशा के साथ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में कम से कम उनकी अगली पीढ़ियां सुख से रह सकेंगी। किसे मालूम था कि लाखों जिंदगियों (हमारे माता पिता, भाई- बहनों और रिश्तेदारों की) की कुर्बानी की बदौलत हासिल स्वतंत्रता हमारी मातृभूमि का विभाजन करके हमसे हमारी पुश्तैनी संपत्ति से हमें बेदखल करके हमें अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर कर देगी! ममला बस इतना नहीं है। अब तो स्वतंत्रता सेनानियों के इन वंशजों को स्वतंत्र भारत में विदेशी घुसपैठिया नाम की एक नयी पहचान दी जा रही है आजादी के पैसठ साल बाद। विदेशी अंगेजों से अपने गुलाम देश को आजाद कराने के एवज में आज हम ही विदेशी करार दिये गये! अगर हमारे पूर्वजों की कुर्बानियों के एवज में आजादी ने हमें यह सिला दिया तो हमें इस तोहफे को मंजूर करने, न करने के बारे में दुबारा सोचना ही होगा।

खास बात यह है कि उन समुदायों, जो भारत में आर्थिक प्रयोजन या आजीविका कमाने की गरज से आये और जो धर्म, जीवन और संपत्ति पर हमला होने की परिस्थितियों में इनकी रक्षा के लिए, में बुनियादी फर्क हैं। हालांकि विभाजन के बाद सारे लोग पूर्वी बंगाल से आते रहे और ये तमाम लोग बांग्ला में ही बात करते हैं, लेकिन हम बंगाली हिंदू शरणार्थी विभाजन पीड़ित धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हैं, अन्य नहीं। विभिन्न राज्यों में बसाये गये शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान से ही आये हैं। इसलिए सभी बंगाली शरणार्थियों और सभी बंगालियों को घुसपैठिया बतौर चिन्हित करना सरासर गलत है। हम मीडिया और आम जनता से अपील करते हैं कि पूर्वी बंगाल से आये वहां के अल्पसंख्यक विभाजन पीड़ित और धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हिंदू बंगाली शरणार्थियों को कतई घुसपैठिया न कहें।

यह विडंबना ही है कि हम लोग धर्म आधारित दो राष्ट्र सिद्धांत के बलि हो गये। जिसके कारण विभाजन के वक्त व्यापक पैमाने पर दंगा, मारकाट और आगजनी की घटनाएं घटीं। भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के दूसरे वंशजों के मुकाबले स्वतंत्रता हमारे लिए भारी दुःखों और मुश्किलों का सबब बन गयी। पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से भी धार्मिक उत्पीड़ने के चलते विताड़ित, अपने ही गृहदेश में शरण लेने को मजबूर हमारे लोगों को सीमा पार करते हुए अपनी नागरिकता, पहचान, संपत्ति के साथ साथ अपने सगे संबंधियों को भी खोना पड़ा। विभाजन के वक्त राष्ट्रीय नेताओं महात्मा गांधी, डा. राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरु, सरदार बल्लभ भाई पटेल के दिये गये आश्वासन हवा में गायब हो गये जिन्हें विस्थापन का अभिशाप झेलना पड़ा, वे घुसपैठिया और शरणार्थी नाम से बदनाम हो गये। क्या यह देश राष्ट्र नेताओं के तब कहे गये शब्द भूल गया है, `हिंदी, ईसाई, बौद्ध समुदायों के अल्पसंख्यक जो लोग भारत आने को इच्छुक हैं, उनका स्वागत है और उनके सामाजिक आर्थिक हक हकूक की हिफाजत करना हमारी जिम्मेवारी है'? इन्हीं नेताओं ने तब अविभाजित भारत की २६ फीसदी जमीन २४ प्रतिशत आवादी वाले एक समुदाय को दो दिया, जिस पर पूर्वी पाकिस्तान बना, जो बाद में बांग्लादेश हो गया। दुर्भाग्य से वह हमारी पुश्तैनी जमीन थी, जो हमारी सहमति के बिना हमारी कीमत पर एक नया देश बनाने के लिए दे दी गयी।

क्या सरकार की यह नैतिक जिम्मेवारी नहीं थी कि हमें हुई क्षति का समुचित मुआवजा दिया जाता? जो कुछ हमें अपने विस्थापन इलाके में छोड़कर आना पड़ा उसके लिए? इसके बजाय सरकार नागरिकता संशोधन कानून, २००३ पास करके एक दफा फिर हमें शरणार्थी बनाने में लगी है। ऐसा भेदभाव केवल हिंदू बंगाली शरणार्थियों के साथ हो रहा है। क्यों?

अगर भारतीय संस्कृति पिता के वचन निभाने की परंपरा निभाते आ रही है तो क्यों राष्ट्रपिता के आश्वासन का उल्लघंन हो रहा है? विभाजन के बंदोबस्त के तौर पर २६ फीसद जमीन पाकिस्तान में मुसलमानों के लिए दे दी गयी और जनसंख्या स्थानांतरण का फैसला हुआ। चूंकि विभाजन की शर्त के मुताबिक पाकिस्तान को जमीन मुसलमानों के लिए दे दी गयी और बाकी बची जमीन दूसरे समुदायों के लिए चिन्हित हो गयी, तदनुसार डा. भीम राव अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने जनसंख्या स्थानांतरण की मांग की। लेकिन तब यह देखा गया कि अगर सारे हिंदू एक मुश्त भारत चले आयें तो उन्हें पुनर्वास देना मुश्किल हो जायेगा। तब नेहरू ने अपने दो मंत्रियों को  पूर्वी पाकिस्तान भेजा कि वे पूर्वी बंगाल के बंगाली हिंदुओं को आश्वस्त करें कि वे जब चाहें भारत आते रह सकते हैं बशर्ते कि एक मुश्त कतई न आयें। इसीलिए पश्चिम पाकिस्तान के विपरीत पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू देरी से चरणबद्ध ढंग से आते रहे और भारत सरकार उन्हें विभिन्न पुनर्वास परियोजनाओं में बसाती रही।

अब इसी अल्पसंख्यक समुदाय को नागरिकता संशोधन कानून के तहत कैसे विदेशी घुसपैठिया कहा जा सकता है? जबकि पाकिस्तान को दे दी गयी अविभाजित भारत की २४ प्रतिशत जमीन सिर्फ मुसलमान भाइयों के लिए तय कर दी गयी? क्या बाकी बची भारत की जमीन पर हमारा हिस्सा नहीं है? क्या हमारी जमीन पाकिस्तान को नहीं दे दी गयी?   यदि हमारे हिस्से की जमीन भारत सरकार के हवाले कर दी गयी, तो हमें घुसपैठिया कैसे कहा जा सकता है?

कैसे कोई आधार वर्ष तय करके आगे पीछे भारत आये तमाम हिंदू बंगाली शरणार्थियों को घुसपैठिया करार दिया जा सकता है?

पंडित नेहरु ने तब कहा था,`इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि ये विस्थापित, जो भारत में रहने आये हैं, उन्हें बारत की नागरिकता अवश्य मिलनी चाहिए।अगर इसके लिए कानून अपर्याप्त है, तो कानून बदल देना चाहिए।'(Refugees and other Problems, Jawaharlal Nehru speeches. Vol. 2, P.8 (P 10) published in June 1967). वे विस्थापित यानी हम आज भी कानून बदलने का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि आज भी देश का कानून अपर्याप्त है और राष्ट्र नेताओं के वे वायद पूरे नहीं हो सकें। हम अपने देश में निर्भय जीवन निर्वाह करना चाहते हैं। मामला यहीं खतम नहीं होता। कानून बदलते जरूर रहे, पर एलमं इस सच को नजरअंदाज कर दिया गया कि किस भयावह दुःस्वप्न जैसे माहौल में रातों रात अपने घर से बेदखल होकर सीमा पार करके हमें अपने ही गृहदेश में शरमार्थी बनना पड़ा। अविभाजित भारत के मूलनिवासी अब अपने ही देश में विदेशी हो गये। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि विभाजन के वक्त कोई समयसीमा जनसंख्या स्थानांतरण के लिए तय नहीं की गयी जिससे विभाजन पीड़ित अल्पसंख्यकों को बेहद सांप्रदायिक धार्मिक उन्माद के माहौल में निरंतर और ज्यादा उत्पीड़न, दमन का शिकार होना पड़ा।बाद में हुए कानून में सुधार के तहत तो हमें विदेशी घुसपैठिया करार देकर हमारे खिलाफ देश निकाले का फतवा जारी हो गया जैसे कि बांग्लादेश हमें अपने नागरि बतौर पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करने को तैयार बैठा हो!

क्या पंडित नेहरु के कथन कि अपर्याप्त कानून विभाजनपीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए बदल दिया जाना चाहिए, का आशय यही था?

    अगर भारत सरकार हमें देश से निकालती है तो हम करोड़ों हिंदू बंगाली शरणार्थी कहां जायेंगे?

क्या ६४ वर्ष बाद बांग्लादेश हमें अपने नागरिक बतौर स्वीकर कर लेगा अगर आधार वर्ष १९४८ मान लिया जाये?

  जब कोई इस देश में किसी भिखारी की नागरिकता पर सवाल उठा नहीं सकता, तब ऐसा हमारे साथ ही क्यों हो रहा है?

क्या  हमारी हैसियत इस देश में किसी भिखारी से भी कमतर है हमारे बलिदान के मद्देनजर?

अगस्त, १९४७ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के सम्मेलन में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि `हम अपनी स्वतंत्रता का अहसास नहीं कर सकते जब तक पूर्वी और उत्तर बंगाल के हिंदुओं को इसका हिस्सा न दें। विदेशी गूलामी से देश को आजाद करने के लिए उनकी कुर्बानियों और तकलीफों को जिन्हें उन्होंने हंसते हंसते जिया, को हम कैसे भुला सकते हैं? उनके भविष्य का सचेत निर्माण अब सरकार और इस देश की जनता की जिम्मेवारी है।'

क्या अब देश में ऐसे महापुरुष नहीं हैं जो अपने राष्ट्रनेताओं की करोड़ों विभाजनपीड़ितों के प्रति व्यक्त की गयी भावनाओं से अपने को जोड़ सकें?

हमारे राष्ट्र नेता १९४७ में जिन्हें स्वतंत्रतासेनानी कह रहे थे, २०१२ में वही लोग विदेशी कैसे हो गये?

जब १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में हुए दंगों में अल्पसंख्यक हिंदुओं की हालत नाजुक हो गयी, स्थितियां बिगड़ती गयी और अत्याचार असहनीय हो गये तब भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने दो मंत्रियों को बुलाया औप पूर्वी पाकिस्तान के हालात का जायजा लेने के बाद वहां के अल्पसंख्यकों को  फिर दोनों मंत्रियों एके चांद और चारु चंद्र विश्वास  के जरिये संदेश भेजा,ताकि हम पूर्वी बंगाल में बने रहे क्योंकि एक मुश्त इतनी भारी तादादा में शरणार्थियों के आने के बाद उनके पुनर्वास का इंतजाम करना मुश्किल हो जाता।उनहोंने यह भरोसा दिलाया कि अगर हम पूर्वी बंगाल में अपनी जान माल और इज्जत की सुरक्षा से मोहताज हो गये, हमारी सामाजिक आर्थिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाये तो हम भारत में स्वागत हैं और हम कभी भी चरणबद्ध तरीके से भारत आ सकते हैं।नेहरु ने यह वायदा भी किया कि पूर्वी बंगाल से आने वाले विस्थापितों की चाहे वे जब आयें, की सुरक्षा और उनकी आजीविका का बंदोबस्त करना भारत सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होगी।उन्हें भारत के दूसरे नागरिकों की तरह समान अधिकार मिलेंगे।इस वायदे के बाद पूर्वी बंगाल में लगातार धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हो रहे अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोग जो तत्काल भारत आने को तत्पर थे, उन्हें वहीं वापस रुक जाने को मजबूर हो जाना पड़ा। इस उम्मीद के साथ कि भारत सरकार के वायदा मुताबिक वे कभी भी भारत आ सकते हैं। उस वक्त संकटट इतना गहरा था और सीमा पर इतनी अफरा तफरी मची थी कि जो लोग उस वक्त सीमा पार चले आये, वे भी न कोई वीसा या वैध दस्तावेज हासिल कर सकें। बस, जान और इज्जत बचाने की फिराक में अजीब सी जीजिविषा के मारे इस पार चले आये।
तो असहनीय परिस्थितियों में पूर्वी पाकिस्तान में देर तक रुके रहने और बाद में सीमा पार करने के लिए कौन जिम्मेवार हैं? और इससे जो परिस्थितियां और बिगड़ती चली गयीं, उसके लिए?
अब छह सात दशक के बाद कैसे १९४८ को आधार वर्ष घोषित किया जा सकता है , जबकि भारत सरकार के कहे मुताबिक ही शरणार्थी देर तक आते रहे?

इस पर खास तौर पर गौर करना चाहिए कि पूर्वी पाकिस्तान से ज्यादातर शरणार्थी तो विभाजन के तुरंत बाद १९४७ से लेकर १९५१ के बीच सीमा पार कर चुके थे, जबकि तब शरणार्थियों के लिए देश में कोई कानून नहीं बना था और न ही पूर्वी बंगाल के शरणार्थियो का बतौर भारतीय नागरिक पंजाब के विभाजन पीड़ितों की तरह पंजीकरण करने का कोई बंदोबस्त था। उस वक्त संकट और मानवीय तकाजे के मद्देनजर दुर्बाग्यवश इस महती कार्यभार की अनदेखी कर दी गयी, जिसका खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं। तब न  नागरिकों की ओर से और न निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ओर से इन्हें बतौर नागरिक पंजीकृत कराने की कोई मांग करने की आवश्यकता महसूस की गयी और बतौर उनका भारतीय़ नागरिक भूमिपुत्र स्वागत किया गया। लेकिन भारत सरकार को जब यह महसूस हुआ कि इस संकट की आड़ में तमाम तरह के लोग भारत में घुसे चले आयेंगे, तब जाकर कहीं नागरिकता कानून १९५५ पास हुआ। १९५० में पूर्वी पाकिस्तान में दंगों और उसके नतीजतन भारत में  पहुंच चुके शरणार्थी सैलाब के कम से कम चार साल बाद। इस तरह राष्ट्रीय नेतृत्व ने सामाजिक,धार्मिक उत्पीड़न के शिकार विभाजन पीड़ितों के पुनर्वास की जिम्मेवारी तो बखूबी निभायी, लेकिन इस अफरा तफरी में उन्हें नागरिकता का मौलिक संवैधानिक अधिकार देना भूल गये जबकि पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले लोगों की तरह बतौर शरणार्थी पंजीकरण के वक्त ही इन लोगों की नागरिकता का भी पंजीकरण हो जाना चाहिए था।फिर जब नागरिकता कानून में संसोधन की नौबत आयी तो मूल मकसद से हटकर जनप्रतिनिधियों ने पूर्वी बंगाल से आये विभाजनपीड़ित हिंदुओं को उनके जन्मगत और संवैधानिक नागरिकता का अधिकार उनसे छीन लिया।लेकिन हाल ही में इसी कानून के तहत अब भी पश्चिमी सीमा से भारत में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों का बारत में स्वागत हो रहा है, जबकि इसके विपरीत विभाजन के तुरंत बाद आये धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों  की नागरिकता छीनी जा रही है। स्वतंत्रतासेनानियों के वंशजों के साथ यह भेदभाव क्यों? जबकि पश्चमी सीमा से आये लोगों को इसी कानून की तमाम धाराओं उपधाराओं में छूट दी जा रही है?
इसी बीच असम सरकार ने विदेशी अधिनियम, २००५ लागू कर दिया।यह  कानून ब्रिटिश सरकार ने १९४६ में  इस कानून के सेक्शन ९ के तहत चीनी और जापानियों के भारत में प्रवेश निषिद्ध करने के लिए लागू किया था।अब इस कानून के तहत असम में बसे करीब पांच लाख विभाजनपीड़ित हिंदू बंगाली शरणार्थियों का असम में उत्पीड़न हो रहा है।मोरीगांव जिले के राजामोयंग पोसट के  कासा शिला गांव के आठ साल के एक बालक को २२ अक्तूबर , २०१० से   Foreigners (Tribunal) Act case No. 137/06 WP(c)4190/10 के तहत कोकराझाड़ डिटेंशन कैंप में गैर कानूनी ढंग से बंद रखना इस कानून के दुरुपयोग का उदाहरण है।जबकि इस सिलसिले में न्यायिक या अन्य कोई जांच पड़ताल नहीं की गयी।यह एक नाबालिग के विरुद्ध मानवअधिकार का सरासर उल्लंघन है।दुर्बाग्य तो यह है कि ऐसा सिर्फ असम में नहीं हो रहा है, हिंदू बंगाली शरणार्थियों के साथ देश भर में ऐसा ही  सलूक किया जा रहा है।
संकलन

              सुबोध विश्वास

               राष्ट्रीय अध्यक्ष

                  अनुवादक

   एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता

सूचना भाषा समन्वय                                                                                           प्रकाशक
                                                                                                परमानंद घरामी
प्रसेन रप्तन                                                                                                               महासचिव
कार्यकारी सचिव

                 कापीराइट @ निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                               
   निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु समिति                               
मुख्य कार्यालय: ३, बजरंग नगर, जादूमहल रोड, नागपुर- ६, महाराष्ट्र, भारत। मोबाइल नंबर: 9422128897
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संदर्भ संख्या: NIBBUSS/      /2012

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