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Wednesday, May 9, 2012

आदिवासियों को चाहिए अपना आंबेडकर

आदिवासियों को चाहिए अपना आंबेडकर

Wednesday, 09 May 2012 11:32

अरुण कुमार त्रिपाठी 
जनसत्ता 9 मई, 2012: बस्तर के जंगलों से सुकमा के अगवा कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन को माओवादियों के कब्जे से मुक्त करा कर लौटे डॉ ब्रह्मदेव शर्मा ने जब दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत करनी चाही तो फिर वही- आना गावें आन भवाना गावें आन- वाली स्थिति उपस्थित थी। डॉ शर्मा बार-बार कह रहे थे कि आदिवासियों की नाराजगी का प्रमुख कारण उनसे विधिवत संवाद कायम न किया जाना है। उनके साथ सालों से किए गए वादों को लगातार तोड़ा गया है और जब उनके शोषण में हस्तक्षेप करने दादा लोग (माओवादी) पहुंच गए तो उनका दमन किया जा रहा है। लेकिन उनकी बात समझने के लिए न तो व्यावसायिक मीडिया के लोग तैयार थे, न ही वे लोग जो माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। एक तरफ पत्रकार पूछ रहे थे कि आखिर डील क्या हुई और उससे रमन सिंह क्यों मुकर गए, तो दूसरी तरफ यह पूछा जा रहा था कि क्या इससे आॅपरेशन ग्रीन हंट रुक गया और तेरह दिनों में जो युद्धविराम कायम हुआ उसके कितने समय तक चलने की उम्मीद है। कुल मिला कर हार-जीत और लेन-देन का हिसाब-किताब मांगा जा रहा था। किसी ने पूछा कि आपने आॅपरेशन ग्रीन हंट देखा या नहीं, तो किसी ने पूछा कि आप सलवा जुडूम से मिले क्या? इन हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण सवालों के बीच ये टिप्पणियां भी सुनने को मिलीं कि लगता है अगवा करना ही एक कारगर तरीका है। 
डॉ शर्मा एक मध्यस्थ के नाते तात्कालिक बातों को छिपाते हुए दीर्घकालिक बातों को प्रकट करना चाहते थे और उसके लिए- टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास- जैसी किताब भी बांट रहे थे। लोग किताब देख कर भी उनसे वैसे ही सवाल पूछ रहे थे। इस तरह की किताबें और साहित्य वे लंबे समय से बांट रहे हैं, पर उनकी किसी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसमें दर्ज बुनियादी मुद्दों पर चर्चा नहीं होती। पचहत्तर पार कर चुके बीडी शर्मा मजाक में ही लेकिन दुख के साथ यह कहते रहते हैं कि लगता है लोग मेरे जीते-जी मेरी बात नहीं सुनेंगे और जब सुनेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि आदिवासी इस समय वैश्वीकरण के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और इसमें उनके साथ वास्तव में कोई नहीं है। 
धोती-कुर्ता पहनने वाले बीडी शर्मा देश के उन गिने-चुने आइएएस अधिकारियों में रहे जिनमें ईमानदारी, विद्वत्ता और जन-सरोकारों का अद्भुत समन्वय है। उससे भी बड़ी बात है कि उन्होंने अपने को देश के आदिवासी समाज से उसी तरह एकाकार कर लिया है जिस तरह डॉ भीमराव आंबेडकर ने दलित मसलों के साथ कर लिया था। वे बस्तर के कलेक्टर रहे और उस दौरान उन्होंने आदिवासी लड़कियों के दैहिक शोषण के खिलाफ सामाजिक अभियान चला कर नौकरशाही को चौंका दिया था। उन्होंने एक पंचायत बुला कर उन अफसरों की शादी कराने का फैसला करा दिया था जिन्होंने आदिवासी लड़कियों का शोषण किया था। इसी सिलसिले में 1986 में उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त के तौर पर उसकी 28वीं और 29वीं रपट में भारत को इंडिया, भारत और हिंदुस्तनवा जैसी तीन श्रेणियों में बांट कर देश की आंखें खोल दी थीं। उस तरह की रपटों और उनके सहयोग के कारण ही नर्मदा बचाओ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ और देश में चल रहे पर्यावरण और स्थानीय आबादी के आंदोलन को बल मिला था।
मगर जब देश ने उन सवालों से आंखें मूंद ली हैं और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के मौजूदा अध्यक्ष पीएल पूनिया महज आरक्षण की नीति में ही सारा समाधान देखते हैं तब फिर एक मौलिक दृष्टि की दरकार हो रही है। सबसे पहली जरूरत तो अनुसूचित जातियों के साथ अनुसूचित जनजातियों को संबद्ध करने के नुकसान को पहचानने की है। दलित बुद्धिजीवी ऐसा अक्सर करते हैं। इससे उनका तो फायदा हो जाता है, पर आदिवासियों की स्थिति जस की तस रहती है। एक साथ संबद्ध किए जाने की इस नीति ने पहली श्रेणी यानी दलितों को तो लाभान्वित किया लेकिन आदिवासियों को नुकसान पहुंचाया। बल्कि कई जगहों पर दूसरे की कीमत पर पहली श्रेणी ने तरक्की की है, यह बात कुछ अध्ययनों में सामने आई है। अगर ऐसा न हुआ होता तो आदिवासी वजूद की लड़ाई न लड़ते और दलित देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का सपना न देखते। डॉ आंबेडकर द्वारा लिखे गए भारतीय संविधान और उसके पीछे काम करने वाले आधुनिकतावादी नजरिए ने एक तरफ आदिवासियों से उनकी स्वायत्तता छीनी और दूसरी तरफ उन्हें उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया। यह दिलचस्प है कि आंबेडकर ने अछूतों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे घुमंतू और बसे हुए कबीलों के युद्ध के कारण पैदा हुए। जो लोग हार गए उन्हें बसे हुए कबीलों ने अपनी रक्षा के लिए तैनात कर लिया। इसके उदाहरण के लिए वे महार जाति का उल्लेख करते हैं। उनके वर्णन में आदिवासी समुदाय आपस में लड़ते रहने वाला और लूटपाट करने वाला समुदाय होता है। 
इस नजरिए ने आदिवासियों को सभ्य बनाने और उनके भीतर शांति कायम करने के लिए उन पर बाहर से तमाम कानून थोपने का रास्ता साफ किया। हालांकि वेरियर एल्विन और सबाल्टर्न इतिहासकारों का आदिवासियों के बारे में नजरिया इससे काफी अलग था। एल्विन जहां उन्हें एक सभ्य और व्यवस्थित समाज बताते थे, वहीं सबाल्टर्न उन्हें एक क्रांतिकारी समाज की संज्ञा देते हैं। अपनी इसी क्रांतिकारिता के कारण अंग्रेजों से जितनी लंबी और उग्र लड़ाई आदिवासियों ने लड़ी है उतनी शायद दलित   समुदाय ने नहीं लड़ी। 

एल्विन की इसी व्याख्या को बढ़ाते हुए बीडी शर्मा कहते हैं कि आदिवासियों के सोच और कथित सभ्य समाज के सोच में काफी फर्क है। आदिवासी अपने को नौकर मानने को तैयार नहीं होता, क्योंकि वह तो मालिक रहा है। वह तो कहता है कि धरती भगवान ने बनाई, हम भगवान के बेटे हैं, यह बीच में सरकार कहां से आई। सोच के इन दो छोरों के बावजूद संविधान की पांचवीं अनुसूची में यह व्यवस्था की गई कि अगर राज्यपाल चाहे तो भारत के किसी भी कानून को आदिवासी इलाकों में लागू होने से रोक सकता है, और इसके पीछे उन्हें महत्त्व देने का ही भाव था। लेकिन स्वशासन और स्वायत्तता की उनकी प्रवृत्ति को बचाने की यह कोशिश भी बेकार गई, क्योंकि किसी राज्यपाल ने ऐसा कभी नहीं किया। उलटे उदारीकरण के साथ आई नई खनन और उद्योग नीति ने तो पांचवीं अनुसूची का मजाक बना कर रख दिया। आदिवासी स्वायत्तता को बचाने के लिए नेहरू ने पंचशील की नीति लागू की, लेकिन वह भी जल्द ही दरकिनार कर दी गई। इंदिरा गांधी ने 1975 में जो आबकारी नीति बनाई उसकी भी धज्जियां उड़ रही हैं और आज बाहरी शराब की दुकानें धड़ल्ले से आदिवासी इलाकों में चल रही हैं। 
आदिवासी इसी तरह स्वशासन के लिए भूरिया कमेटी की रपट लागू होने का इंतजार करते रहे और जब 1996 में पेसा कानून बना तो काफी उम्मीद जगी। पेसा कानून के तहत हर ग्रामसभा को अपनी परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया और यह भी माना गया कि वह विवादों का निपटारा अपने पारंपरिक तरीके से कर सकेगी। पेसा कानून ने आदिवासी इलाकों में अद्भुत उत्साह का संचार किया था। नारा लगा, मावा नाटे मावा राज, यानी हमारे गांव में हमारा राज। लोकसभा से ऊंची ग्रामसभा। जगह-जगह जश्न मनाए जाने लगे और तमाम नेता और अफसर पूछने लगे कि अब हमारी क्या जरूरत रह जाएगी? पर बाद में यह कह कर उस कानून को बेकार कर दिया गया कि यह एक केंद्रीय कानून है और संविधान का हिस्सा नहीं, इसलिए इसे ज्यादा दूर तक नहीं खींचा जा सकता। विडंबना देखिए कि आज कभी एनसीटीसी, तो कभी लोकपाल के नाम पर स्वायत्तता का नारा बुलंद कर रहे राज्यों के मुख्यमंत्री कहीं भी आदिवासी स्वायत्तता की मांग नहीं कर रहे हैं। न तो उन्हें पेसा कानून के तहत स्वायत्तता-प्राप्त ग्रामसभा पसंद है, न ही पांचवीं अनुसूची का मजबूत होना। 
इस बारे में भारत को राज्यों का संघ बताने वाले तमाम संविधानविद भी खामोश हैं। आखिर यह कैसी स्वायत्तता है जहां देश के मूल जनों के लिए सम्मान ही नहीं है?
दरअसल, हमारा संविधान आदिवासियों के सोच और उनकी संस्कृति को ध्यान में रख कर बनाया ही नहीं गया है। यही वजह है कि आजादी के पैंसठ वर्षों बाद जब देश की तमाम जातियां फल-फूल रही हैं, तब वे अपने ही देश में अस्तित्व के लिए एक प्रकार का युद्ध लड़ रहे हैं। उनका यह युद्ध बड़ी पूंजी के हित में काम कर रही अपनी सरकारों से है और इस लड़ाई में आज भले माओवादी उनके साथ हैं, लेकिन हकीकत में वे भी उनके साथ लंबी दूरी तक नहीं रहने वाले हैं। उन्होंने तो आदिवासी इलाकों को माओवादी विचारों की प्रयोगशाला बना रखा है जिसे आदिवासी न तो समझता है न ही उस पर लंबे समय तक चलना चाहता है। लेकिन इस बात को समझते हुए भी न समझने में ही हमारी राजनीति की भलाई है। क्योंकि अगर वह आदिवासियों को माओवादियों से अलग कर देगी तो संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति में सफल नहीं हो पाएगी। 
भारतीय संविधान और राजनीतिक प्रणाली की इसी विडंबना को महसूस करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी कहते हैं कि आदिवासियों को अपना आंबेडकर चाहिए। जाहिर-सी बात है कि अगर पहले वाले और दलितों के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से काम चलता तो वे वैसा न कहते। उन्हें वैसा नेता और विद्वान चाहिए जो या तो संविधान को उनके लिए लिखे या फिर उसमें उनके लिए अहम स्थान बनवाए। वैसा व्यक्ति उनके भीतर का होगा या बाहर का, यह तो समय बताएगा। लेकिन उसकी निष्ठा कम से कम इस आधुनिकतावादी सभ्य समाज के प्रति नहीं होनी चाहिए। अगर वैसी होगी तो वह उनके साथ उसी तरह न्याय नहीं कर पाएगा जैसे आंबेडकर सहित हमारे स्वाधीनता संग्राम के तमाम नेता नहीं कर पाए। जाहिर है, आदिवासियों का संघर्ष उस सोच पर गहरे सवाल खड़ा करता है जो संविधान को सबसे पवित्र दस्तावेज मानते हुए उसकी रक्षा की सौगंध लेता है। देश और आदिवासी समाज के हित में हमें इसमें बदलाव करने होंगे और इसमें वेरियर एल्विन और बीडी शर्मा जैसे अध्येताओं और सिद्धांतकारों के उन विचारों का भारी योगदान होगा जो उन्होंने मुख्यधारा से हट कर आदिवासियों के साथ खडेÞ होकर तैयार किए हैं।

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