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Thursday, May 17, 2012

क्या यह इस्‍लाम को बदनाम करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश है?

http://bhadas4media.com/vividh/4457-2012-05-17-05-14-12.html

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Details Category: [LINK=/vividh.html]पालिटिक्स-इलेक्शन[/LINK] Published Date Written by सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुसलमानों की ओर से कहा जाता रहा है कि इस्‍लाम विरोधी ताकतें उसके बारे में गलत बातें फैलाकर उसे बदनाम करने की कोशिश करती हैं। पश्चिमी देशों पर इस तरह के इल्जाम लगाए जाते रहे हैं। यह सब सच प्रतीत होता लग रहा है। इंटरनेट पर कहा जा रहा है कि मोरक्को के एक काजी जमजमी अबुल बारी ने पिछले साल मई में फतवा दिया था कि इस्‍लाम के अनुसार पत्नी की मौत के बाद भी शादी बरकरार रहती है और पति, पत्नी के देहांत के छह घंटे के अंदर उसके शव के साथ सहवास कर सकता है। बात यहीं खत्म नहीं होती, अब कहा जा रहा है कि मिस्र की संसद में ऐसा कानून बनाने का प्रस्ताव लाया गया है, जो पत्नी की मौत के बाद उसके साथ हमबिस्तर होने की इजाजत दे। जो बात सुनने में ही खराब लगे, उसके बारे में कानून बनाने की बात हास्यास्पद ही नहीं लगती, बल्कि घृणा भी होती है। शव के साथ सहवास करने की बात, चाहे वह पत्नी ही क्यों न, कोई सोच भी नहीं सकता। विकृत मानसिकता का शख्स ही ऐसा कर सकता है।

मिस्र की महिलाओं ने इस तरह का कानून बनाने जाने विरोध किया है, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन किसी उलेमा का कड़ा ऐतराज अभी तक नजरों से नहीं गुजरा है। इतना तय है कि फतवे का इस्‍लाम से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। यह जरूर उनकी चाल लगती है, जो किसी भी प्रकार इस्‍लाम को बदनाम करने की साजिश करते रहे हैं। इस्‍लाम में कई फिरके हैं, लेकिन उनमें तमाम तरह के मतभेद होने के बावजूद इसका जबरदस्त विरोध की करेंगे। जिस बात का कुरआन और हदीस में कोई जिक्र नहीं है, उसे सही ठहरकार उसके मुताल्लिक कानून बनाने की बात करना निहायत शर्म की बात है। दुनिया का कोई भी धर्म या संस्कृति इस तरह की कुंठित हरकत को सही नहीं ठहरा सकता। शरीयत के किसी भी मामले में दखअंदाजी पर सख्त ऐतराज जताने वाले दुनियाभर के उलेमा क्यों खामोश हैं, यह समझ नहीं आया है? ऐसा नहीं है कि उलेमा आधुनिक दूर-संचार के साधनों से अनजान हैं। दारुल उलूम देवबंद की वेबसाइट है। फतवा भी ऑन लाइन दिया जाता है। कई पत्रिकाओं में इस बारे में छप चुका है। यह खबर इंटरनेट पर तैर रही है, लेकिन हमारे उलेमाओं की नजर इस पर क्यों नहीं पड़ी?

द सैटेनिक वर्सेज के लेखक सलमान रुश्दी पर मौत का फतवा लगाने और तसलीमा नसरीन पर तलवार भांजने वाले उलेमा क्या कर रहे हैं? हम इस बात के हिमायती नहीं कि किसी पर मौत का फतवा लगाया जाए, लेकिन बेसिर-पैर की बात करके जो भी इस्‍लाम को बदनाम करने का काम कर रहा है, उसकी निंदा करने और फतवे को खारिज करने के लिए तो उलेमाओं को सामने आना ही चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। यदि इसका जबरदस्त विरोध नहीं किया गया, तो यही कहा जाएगा कि बात सही ही होगी और इसे भी इसी तरह इस्‍लाम का हिस्सा मान लिया जाएगा, जिस तरह कुछ अफ्रीकी मुस्लिम देशों में लड़कियों के खतना करने को माना जाने लगा है। किसी तरह का फतवा कुरआन और हदीस की रोशनी में दिया जाता है, लेकिन आम मुसलमान भी बता देगा कि इस तरह के कुकृत्य की इजाजत न तो कुरआन दे सकता है और न ही हदीस।

जिस मिस्र की संसद में पत्नी के शव के साथ सहवास करने की इजाजत देने वाला कानून बनाने का प्रस्ताव लाने की बात कही जा रही है, वहां शव को ममी के रूप में शताब्दियों तक सुरक्षित रखने की परंपरा रही है, लेकिन इतिहास में ममी के साथ सहवास करने का कोई उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता। अगर मिलता भी, तो वह इस्‍लाम का हिस्सा नहीं होता। ममियों का इतिहास इस्‍लाम के वजूद में आने से पहले का है। इस्‍लाम ममी संस्कृति को ही खारिज कर चुका है। मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर ने एक बार मिस्र की ममी संस्कृति पर गर्व होने की बात की थी, लेकिन उलेमाओं ने उनकी निंदा की थी और राष्ट्रपति को अपने शब्द वापस लेने पड़े थे। सवाल यह है कि आखिर काजी जमजमी अबुल बारी किसका हित साध रहे हैं और किसको बदनाम करना चाहते हैं?

अभी पिछले दिनों ही खबर आई थी कि अमेरिकी सैन्य पाठ्यक्रम में इस्‍लाम के विरुद्ध युद्ध करने का पाठ पढ़ाया जा रहा था। जब एक छात्र ने इस पर आपत्ति जताई, तो पेंटागन ने उस पर पाबंदी लगा दी है। अमेरिका का यह शगल नया नहीं है। वह अपनी सुविधानुसार पाठ्यक्रम तैयार करता रहा है। जब वह तालिबान के साथ मिलकर अफगानिस्तान से रूसियों को खदेड़ने में लगा था, तब वह तालिबान को जेहाद का पाठ पढ़ा रहा था। जब जेहाद का पाठ उसी पर भारी पड़ा तो अब इस्‍लाम के विरुद्ध युद्ध करने का सबक दिया जाने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अबुल बारी जैसे लोग अमेरिका जैसे देशों के एजेंट हों, जिनका काम इस्‍लाम को बदनाम करना ही हो। यदि ऐसा है, तो उनकी कोशिशों को नाकाम करने लिए दुनियाभर के उलेमाओं को आगे आना ही होगा। बहुत बेहतर हो कि दुनिया के सबसे बड़े इस्‍लामिक केंद्र दारुल उलूम देवबंद से इसकी शुरुआत हो।

[B]लेखक सलीम अख्‍तर सिद्दीकी वरिष्‍ठ पत्रकार और ब्‍लॉग हैं. इन दिनों वे मेरठ में दैनिक जनवाणी के साथ जुड़े हुए हैं. [/B]

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