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Sunday, May 13, 2012

वह एक चूक थी

वह एक चूक थी


Sunday, 13 May 2012 14:35

मंगलेश डबराल 
जनसत्ता 13 मई, 2012: कायदे से यह होना चाहिए था कि 'भारत नीति प्रतिष्ठान' में मेरे जाने की तथाकथित घटना के बारे में दो-एक फेसबुक ठिकानों पर चली बहस के आधार पर लंबी और लगभग चरित्र-हनन करने वाली टिप्पणी लिखने से पहले 'जनसत्ता' के कार्यकारी संपादक ओम थानवी मुझसे अपनी सफाई देने के लिए कहते, क्योंकि इस बहस में मैं पीड़ित पक्ष (एग्रीव्ड पार्टी) था। लेकिन उन्होंने एक जीवित मनुष्य और कवि के बजाय फेसबुक की आभासी दुनिया पर विश्वास करना बेहतर समझा और पत्रकारिता की बुनियादी नैतिकता को धता बताते हुए मुझे कठघरे में घसीट लिया। हद तो यह है कि उन्होंने फेसबुक पर ही मेरे कुछ मित्रों द्वारा जारी किए गए एक स्पष्टीकरण को भी अत्यंत सुविधाजनक ढंग से अनदेखा कर दिया, जिसमें मैंने स्वीकारोक्ति के साथ यह बताने की कोशिश की थी कि मैं किस भ्रांति के कारण वहां चला गया। थानवी के आलेख से लगता है कि वे चतुर सुजान की तरह हर चीज का बारीक ब्योरा सहेज कर रखते हैं, लेकिन जब मैंने उन्हें फोन पर इस सफाई की जानकारी दी तो वे एकदम अनजान बन गए। मेरा स्पष्टीकरण इस तरह था: 
'पिछले कुछ दिनों से कुछ फेसबुक ठिकानों पर यह सवाल पूछा जा रहा है कि मैं 'भारत नीति प्रतिष्ठान' नामक एक ऐसी संस्था में समांतर सिनेमा पर वक्तव्य देने के लिए क्यों गया, जिसके मानद निदेशक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक राकेश सिन्हा हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि यह एक चूक थी, जो मुझसे असावधानी में हो गई। समांतर सिनेमा की एक शोधार्थी पूजा खिल्लन को मैंने कभी इस विषय में कुछ सुझाव दिए थे और एक दिन उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि एक कार्यक्रम में उनके पेपर-पाठ के दौरान मैं कुछ बोलने के लिए आऊं। दफ्तर में काम की व्यस्तता के बीच मैंने इंटरनेट पर इस संस्था के बारे में कुछ सूचनाएं देखीं कि यह एक दक्षिणपंथी संस्था है, लेकिन उसमें रामशरण जोशी, अभयकुमार दुबे, कमर आगा, ज्ञानेंद्र पांडे, नीलाभ मिश्र, अरविंद केजरीवाल आदि कई लोग वक्ता के रूप में शामिल हुए हैं। इससे यह भ्रम हुआ कि दक्षिणपंथी और हिंदुत्ववादी विचारधारा की ओर झुकाव के बावजूद यह पेशेवर संस्थान है। मुझे यह भी सूचित किया गया था कि संस्थान की भूमिका सिर्फ जगह उपलब्ध कराने तक सीमित है। कुल मिला कर मैं इस पर ज्यादा गंभीरता से विचार नहीं कर पाया।' 
'सुश्री खिल्लन का पर्चा और मेरा वक्तव्य, दोनों सेक्युलर और प्रगतिशील दृष्टिकोण के थे। मैंने अपने व्यक्तव्य में अन्य कई मुद्दों के साथ फिल्मों में हाशिये के लोगों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के चित्रण के सवाल पर भी बात की, जिसमें 'गर्म हवा', 'नसीम', 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' और 'मैसी साहब' आदि की खासतौर से चर्चा थी। खिल्लन के पर्चे में मकबूल फिदा हुसेन की फिल्म 'गजगामिनी' के कलात्मक दृश्यों पर बात की गई थी। लेकिन गोष्ठी में क्या कहा गया, बहस इस पर नहीं, बल्कि वहां जाने के सवाल पर है, जिसका अंतिम जवाब यही है कि यह एक चूक थी।' 
'अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के स्तर पर मेरा रिकॉर्ड साफ ही रहा है। मैंने साहित्य अकादेमी मिलने पर उत्तराखंड- तब उत्तरांचल- के मुख्यमंत्री के हाथों प्रेस क्लब देहरादून से सम्मानित होना अस्वीकार किया, फिर भाजपा शासन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क का निमंत्रण अस्वीकार किया और तीन साल पहले बिहार सरकार का प्रतिष्ठित राजेंद्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार भी नहीं लिया, क्योंकि उस सरकार में भाजपा शामिल थी। प्राय: कुछ न छोड़ने, कुछ न त्यागने के इस युग में मेरे ये कुछ विनम्र 'अस्वीकार' थे।' 
'यह भी सच है कि एक मनुष्य का इतिहास उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और उसके साथ चलता रहता है।' 
इस स्पष्टीकरण में मैं अब यह भी जोड़ दूं कि ताकतवर, सांप्रदायिक, निजी पूंजी के स्वार्थों से संचालित और फासिस्ट विचार वाले संस्थानों और लोगों से दूर रहने की आत्मश्लाघा-विहीन कोशिशों के कड़ी में मेरा एक कदम 2011 के जयपुर साहित्य उत्सव में न जाना भी था, क्योंकि उत्सव के प्रायोजकों में हमारे देश का प्राकृतिक जल सुखाने और प्रदूषित करने वाली कोकाकोला, खनिज संपदा के खनन और लोगों के विस्थापन की जिम्मेदार रियो तिंतो और बिल्डर माफिया डीएससी जैसी कंपनियां शामिल थीं और इसमें शिरकत करने वाले लेखक श्रीलंका के गाले साहित्य समारोह में भी जाने वाले थे, जहां उन्हीं दिनों तमिलों का व्यापक संहार करने के बाद एक क्रूर विजय हासिल की गई थी। 
गंदगी और ताकत की दुनिया में सफाई करना और सफाई देना एक मानवीय काम है (पूरी दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए- मुक्तिबोध)। लिहाजा कुछ और सफाइयां:
1) मैं वरिष्ठ कवि विष्णु खरे के साथ नामदेव ढसाल की कविताओं के हिंदी अनुवाद का लोकार्पण करने इसलिए गया था कि नामदेव ढसाल अपने जीवन के उत्तरार्ध में शायद आजीविका के लिए एक जनविरोधी राजनीतिक दल से जोड़-तोड़ करने के बावजूद मराठी में मर्ढेकर के बाद सबसे बड़े कवि माने जाते हैं, उनकी कविता ने मराठी की सवर्ण कविता का किला ढहा दिया और उनके 'दलित पैंथर' आंदोलन की भारतीय कविता में वैसी ही भूमिका है, जो अमेरिका में ब्लैक पोएट्री की है। उस आयोजन में मैंने ढसाल की राजनीति के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया और बताया कि मैंने अपने कुछ मित्रों से मुंबई में उनके द्वारा आयोजित कविता समारोह में न जाने के लिए कहा था। 
2) फेसबुक (थोबड़ा-पुस्तक?) पर मौजूद होने के बावजूद मैं उससे दूर   रहता हूं और कभी-कभी 'जग का मुजरा' के अंदाज में उसे देख लेता हूं। फेसबुक, ब्लॉग की बढ़ती हुई राजनीतिक भूमिका के खिलाफ अमेरिकी व्यवस्था द्वारा समर्थित माध्यम बन चुका है, क्योंकि ब्लॉगों के कारण अमेरिकी सरकार को कई शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। इसलिए मैं उदय प्रकाश की वह घृणा से बजबजाती अमानुषिक भाषा नहीं पढ़ पाया, जो इस टिप्पणी में उद्धृत है। मैं इस तरह की भाषा को- गांधीजी के शब्द उधार लूं तो- चिमटे से भी नहीं छूना चाहूंगा। यह जरूर साफ करना चाहता हूं कि उदय प्रकाश के विरुद्ध मैंने जीवन में कोई मोर्चेबंदी नहीं की।


उन्हें योगी आदित्यनाथ द्वारा सम्मानित किए जाने पर हुए विरोध का जो मसविदा मेरे पास आया उस पर मैंने हस्ताक्षर भर किए थे। इसके बाद जब एक लेखक के जन्मदिन की दावत में मैंने सहज ढंग से उनसे हाथ मिलाया तो उन्होंने तुरंत मुझे अपमानित करते हुए कहा कि मैं उनके विरुद्ध षड्यंत्र करना बंद कर दूं। इससे पहले जब एक क्रांतिकारी कवि-मित्र की एक निजी समस्या को सुलझाने के उद्देश्य से कुछ मित्र लोग उदय के घर बातचीत करने गए तो वहां भी उन्होंने मौके के मुताबिक अपमानजनक वाक्य कहने से गुरेज नहीं किया और अंतत: वह समस्या अनसुलझी रही। एक पहलू यह भी है कि कुछ वर्ष पहले उदय प्रकाश की कई कहानियों और मेरी करीब पंद्रह कविताओं का अनुवाद करने वाले एक अमेरिकी विद्वान रॉबर्ट हक्स्टहेड के साथ जब वे मिले तो उनका व्यवहार खूब दोस्ताना था और उन्होंने मुझे रॉबर्ट को हवाई अड््डे छोड़ने के लिए निमंत्रित किया। मुझे लगता है कि उदय उन लेखकों में हैं, जो अपनी आलोचना का जरा भी सामना नहीं कर पाते। मुझसे उनकी नाराजगी कई वर्ष पहले शुरू हो गई थी जब मैंने उन्हें कहा था कि आपको कॉमरेड गोरख पांडेय जैसे मासूम, वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन में अद्भुत योगदान करने वाले, लेकिन प्राय: सभी सुविधाओं से वंचित और संतापित कवि के जीवन पर 'रामसजीवन की प्रेमकथा' नामक कहानी नहीं लिखनी चाहिए थी। बहुत से लोग जानते हैं कि गोरख पांडेय को इस कहानी ने कितना विचलित किया था और अंतत: उन्होंने एक कारुणिक ढंग से संसार से विदा ली। 
यहां मैं यह अंतिम रूप से साफ कर देना चाहता हूं कि उदय प्रकाश की और मेरी राहें बिलकुल अलग हैं। हमारे अगर कहीं कुछ साहित्यिक स्वार्थ हों भी तो वे आपस में कहीं टकराते नहीं। मैं कहानियां नहीं लिखता और मेरी कविता चाहे जैसी हो, उनसे कतई अलग है। एक लेखक के रूप में मैं राजनीतिक और सांस्कृतिक सत्ताओं से एक निश्चित दूरी बनाए रखता हूं और सिर्फ अपने श्रम के बल पर अब तक चलता आया हूं। यहां तक कि मैं उत्तराखंड में अपने इलाके के सांसदों और विधायकों को भी नहीं जानता और स्वर्गीय सुदीप बनर्जी जैसे नेक, आदिवासियों के हितैषी और कैंसर से जूझते रहे कवि-अफसर को छोड़ कर किसी भी आला अफसर से मेरी गहरी मित्रता नहीं रही। साहित्य में जिनकी भी सत्ताएं चल रही हों, मैं उनसे बचता फिरता हूं। 
3) एक बार 'जनसत्ता' में ही जब उदय प्रकाश ने रंगकर्मी हबीब तनवीर के बारे में कुछ भ्रामक जानकारियां दीं तो मैंने एक जागरूक बुद्धिजीवी के कर्तव्य के रूप में और निहायत शालीन भाषा में लिखा कि मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने किस तरह इस महान कलाकार का जीना और काम करना दूभर किया। त्रिलोचन जी के बारे में भी उदय प्रकाश द्वारा प्रयुक्त 'वामपंथी संगठन से निकाले जाने, हिंदू तीर्थस्थल हरिद्वार भेज दिए जाने और अत्यंत विषम परिस्थितियों में मृत्यु होने' जैसे शब्द पूरी तरह गलत, दुर्भाग्यपूर्ण और संसार से विदा ले चुके उस बड़े कवि के लिए अपमानजनक हैं। त्रिलोचन जी हरिद्वार भगवद्भजन के लिए नहीं, बल्कि अपनी पुत्रवधू के घर रहने के लिए गए थे और इन पंक्तियों के लेखक सहित कई रचनाकारों ने उनसे कई बार देहरादून के कंबाइंड मेडिकल इंस्टीट्यूट में भेंट की थी, जहां उनका यथासंभव अच्छा इलाज हुआ और निधन के समय उनकी आयु बानबे वर्ष थी।
4) मैंने अज्ञेय जन्मशती आयोजनों का बहिष्कार बिलकुल नहीं किया। सचाई यह है कि उन आयोजनों के सूत्रधारों ने मुझे निमंत्रित किया ही नहीं। संभव है, इसका कारण यह रहा हो कि मैंने अज्ञेय की काव्य सीमाओं पर एक आलेख में टिप्पणी की थी कि परवर्ती पीढ़ियों और खासकर हमारी पीढ़ी पर उनकी कविता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैं अज्ञेय के ऐतिहासिक योगदान को स्वीकार करता हूं, लेकिन इसके लिए उनकी कविता का प्रशंसक होना जरूरी नहीं है। जहां तक मैं जानता हूं, उन आयोजनों में जन संस्कृति मंच के महासचिव और आज के एक प्रमुख आलोचक प्रणय कृष्ण को भी आमंत्रित नहीं किया गया, हालांकि उनका शोधकार्य अज्ञेय पर केंद्रित है। क्या अज्ञेय संबंधी आयोजनों में मेरे जैसे लोगों की अनुपस्थिति आयोजकों की लोकतांत्रिक आवाजाही वाली मनोवृत्ति पर कोई टिप्पणी है? 
5) ओम थानवी ने लिखा है कि 'मंगलेश जी के विपरीत विचार-मंच पर चले जाने से उनके अचानक उदारचेता लोकतांत्रिक हो जाने का आभास होता है।' मैं पहले ही कह चुका हूं कि 'विपरीत विचार मंच' पर मेरे जाने का न कोई औचित्य था और न यह मेरे उदारचेता लोकतांत्रिक होने का प्रमाण है। उदारता और लोकतांत्रिकता के मुखौटे नहीं होते, बल्कि ये चीजें स्वभाव में बसी हुई होती हैं। इस लिहाज से मैं अपने को प्रसन्नता के साथ लोकतांत्रिक कहता हूं, जिसका एक प्रमाण विष्णु खरे ने ओम थानवी को लिखे गए अपने एक पत्र में दिया है कि 'सन 1984 में   'समाजवादी-लोहियावादी' विजयदेव नारायण साही की एक पुस्तक पर उनकी विस्तृत समीक्षा मंगलेश डबराल ने जनसत्ता में प्रकाशित की थी।' एक ताजा प्रमाण यह है कि मैं जिस पत्रिका में कार्यरत हूं, वहां ओम थानवी की पुस्तक 'मुअनजोदड़ो' की चर्चा दो बार प्रकाशित हुई: एक बार डॉ नामवर सिंह के 'सबद निरंतर' में और दूसरी बार सन 2011 में प्रकाशित पुस्तकों में से बीस पुस्तकों के चयन के रूप में। जाहिर है कि उदारचेता लोकतांत्रिक होने के प्रमाण कहीं ज्यादा पुराने हैं। 
6) ओम थानवी ने साहित्य के स्तर पर आवाजाही के लिए जो तर्क दिए हैं, उन्हें शायद तथ्यों के आधार पर मंजूर या खारिज किया जा सके, लेकिन अब तक के तमाम अनुभव बताते हैं कि साहित्य का वामपंथ हमेशा साहित्य के दक्षिणपंथ की तुलना में ज्यादा उदार, ज्यादा लोकतांत्रिक, ज्यादा समावेशी और कम वैशिष्ट्यवादी रहा है। साहित्य में आवाजाही की उदारता के मुखौटे ज्यादा काम नहीं आते। ऐसे मुखौटों की जरूरत तभी होती है जब गठबंधन सरकारों की तरह साहित्य भी गठबंधन की एक सत्ता हो, जिसके अपने निहित स्वार्थ लेनदेन के कारोबार में लगे रहते हों। फिलहाल साहित्य गठबंधन सरकारों से मुक्त है, इसलिए विभिन्न मंचों पर बेधड़क आने-जाने की कुछ सीमाएं भी बनी रहेंगी।

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