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Thursday, May 10, 2012

भारत में आदिवासी प्रश्न रंजीत साउ

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भारत में आदिवासी प्रश्न

रंजीत साउ

दुनिया में लोकतंत्र का पहला फूल सैन्य आविष्कारों के साये में ग्रीस में खिला। हथियारों का विनिर्माण काफी आधुनिक हो चला था। अब राज्यों के पास छोटी फौजी टुकडिय़ों की जगह बड़ी सेनाओं को हथियारों से लैस करने की तकनीक आ चुकी थी। एक बार में हमला करने वाले पुराने जमाने के लड़ाकुओं की जगह राज्यों ने अब भारी-भरकम हथियारों से संपन्न सैन्य बलों को तैनात करना शुरू कर दिया था। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह भूस्वामी हो या किसान, जो खुद को इन हथियारों (होपला) से लैस करने की क्षमता रखता था, वह इस सैन्य टुकड़ी में शामिल हो सकता था। इस नई सेना ने एक नए किस्म की समानता को जन्म दिया।

होपला से लड़े जाने वाले युद्ध की खासियत कंधे से कंधा मिला कर सट कर खड़े होने वाले आठ फौजियों की एक कतार थी, जिसे फैलेंक्स कहते थे। हर सिपाही अपनी वृत्ताकार ढाल को अपनी बाईं ओर रक्षा के लिए रखता था और अपने बगल वाले सिपाही के दाएं कंधे को कस कर पकड़े रहता था। यह जन सेना थी, जिसमें नागरिक ही सैनिक बन चुके थे। होपला ने ग्रीस का रूपांतरण कर डाला और एक सुनियोजित तरीके से गढ़े गए लोकतंत्र की बुनियाद रखी। एक किसान जो अब फैलेंक्स की कतार में राजपरिवार के सदस्य के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होता था, राजशाही को देखने का उसका नजरिया अब बदल चुका था।

ईसा पूर्व 510 में एथेंस पर स्पार्टा का हमला हुआ। एक निरंकुश तानाशाह के पुत्र क्लीस्थेनीज के नेतृत्व में एथेंस की सेना ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया और उसे सिटी मजिस्ट्रेट बना दिया। तीन साल के भीतर ही चौंकाने वाले सुधार लागू किए गए। क्लीस्थेनीज ने अनगिनत पारंपरिक जनजातियों को समाप्त कर के सभी को दस इकाइयों का सदस्य बना दिया और इस तरह एक जनजातीय शहर राज्य का रूप ले सका, जो धीरे-धीरे भूमध्य सागर के पूर्वी तट की सबसे समृद्ध सैन्य, वाणिज्यिक, कलात्मक और बौद्धिक ताकत बन कर उभरा। तकरीबन ऐसे ही सुधारों ने 2000 साल बाद भीतरी एशिया में मंगोलों के लिए कहीं ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे दिए।

लोगों की विधायी परिषद के सदस्यों का चयन हर साल मध्य वर्ग के बीच में से होता था और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में सिर्फ दो बार ही इस पद पर रह सकता था। इस तरह एक ही समय में अधिकतर किसान, शिल्पकार और व्यापारी परिषद के सदस्य होते और इस तरह उनके नागरिक होने की परिभाषा में बिल्कुल नया और सार्थक आयाम जुड़ गया था। अब तक आविष्कृत राजनीतिक प्रणालियों में यह सर्वाधिक समतापूर्ण प्रणाली थी जिसका असर ग्रीक जगत पर रूपांतरकारी था। दुनिया में लोकतंत्र का यह पहला संगठित स्वरूप था। और इसे किसने किया? एथेंस के उन आदिवासियों ने, वह भी आज से 2500 सदी से भी पहले।

आदिवासियों का इतिहास और उनका नृतत्वशास्त्र अधिकांशत: उन लेखकों द्वारा लिखा गया जो औपनिवेशिक शासकों की सेवा में नियुक्त थे। उन्होंने जनजातियों द्वारा किए गए कार्यों के विनाशक पहलुओं पर जोर दिया तथा व्यापार, खोज और राजनीतिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में उनके योगदान की उपेक्षा करते हुए एक ऐसी तस्वीर खींची जो अधूरी और विकृत थी। परिणाम यह हुआ कि आदिवासी जीवन को लेकर आम धारणा आज भी काफी धुंधली और एकपक्षीय है। एक ओर आदर्श तो दूसरे सिरे पर भ्रष्ट।

आज भारत क्रांतिकारी बगावत की चुनौती को झेल रहा है जिसे माओवादी (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) या नक्सल (पश्चिम बंगाल में 1967 में नक्सलबाड़ी में शुरू हुए सशस्त्र संघर्ष से यह नाम आया है) सघर्ष कहा जाता है, जिसका केंद्र वे जंगल हैं जहां अधिकतर आदिवासी रहते हैं। यानी इस संघर्ष को मोटे तौर पर एक आदिवासी उभार मान लिया जाता है, जिससे दुनिया भर में आदिवासियों की दास्तानों का एक नया अध्याय खुलता है। यह अध्याय जमीन जीत लेने के किसी अभियान या उपनिवेश बनाने से नहीं जुड़ा है, बल्कि यह राजनीतिक सत्ता हथियाने और सामाजिक-आर्थिक न्याय सभी को दिलाने का एक महत्वाकांक्षी संघर्ष है।

इस आलेख में हम शुरुआत करेंगे उन आदिवासी समुदायों के वैश्विक परिदृश्य से, जो इस आधुनिक सभ्यता का मार्ग प्रशस्त करने में शामिल रहे हों। अगला परिदृश्य भारत के कुछ आदिवासी समुदायों द्वारा दिए गए योगदानों को दिखाता है, जिनमें कुछ ऐसे समुदाय हैं जो अब अलग-थलग पड़ गए हैं और जिन पर 'आदिवासी' होने का ठप्पा लगा दिया गया है। इस समग्र परिप्रेक्ष्य में ही हमें भारत के आदिवासी असंतोष से पैदा हो रही मौजूदा घटनाओं को देखना होगा। आगे क्या करना है, यह सवाल सरकार, जनता और नक्सल तीनों के लिए खुला है।

सभ्यता के निर्माता

अंग्रेजी में आने वाले शब्द 'ट्राइब' का मूल लैटिन का 'ट्राइबस' है जो रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय जातीय विभाजन के लिए इस्तेमाल होता है। कई नृविज्ञानी इसका प्रयोग उन समाजों के लिए करते हैं जो मोटे तौर पर कुटुंब के आधार पर संगठित हुए। यहां भारत में सरकारी भाषा में एक आदिवासी समुदाय मूलत: प्रशासनिक और राजनीतिक अवधारणा है। इस अवधारणा में आदिवासी होने का सामाजिक और आर्थिक पक्ष गायब है।

आदिवासी समुदायों की प्रकृति को समझने के लिए हमने छह समुदायों के उदाहरण लिए हैं- योरोप से तीन-वाइकिंग, गोथ और वैंडल, एशिया से दो-स्काइथियन और मंगोल तथा अमेरिका से एक-संयुक्त राज्य अमेरिका के मूलवासी (नेटिव)। शुरुआती पांच कोटियां बेहद चतुर, विनाशक और वर्चस्व का प्रतीक रहीं जबकि आखिरी समुदाय बर्बर सत्ता और उत्पीडऩ का शिकार रहा। इनमें इतना अंतर आता कहां से है?

वाइकिंग: इंग्लैंड की स्थापना पांचवी ईसवीं में जर्मैनिक और स्कैंडिनेवियन आदिवासियों ने की। इसका नाम भी जर्मैनिक आदिवासी समुदाय एंगल्स पर पड़ा है। स्कैंडिनेविया के वाइकिंग खोजी, लड़ाकू, व्यापारी और समुद्री लुटेरे थे जिन्होंने आठवीं और ग्यारहवीं सदी के बीच योरोप के विशाल क्षेत्र का औपनिवेशीकरण कर डाला। उन्होंने उत्तरी अटलांटिक की यात्राएं कीं, उत्तरी अफ्रीका, पूर्वी रूस, कस्तुनतूनिया और मध्यपूर्व तक गए। वाइकिंग उत्तरी अमेरिका भी गए और वहां कनाडा में उन्होंने एक अल्पजीवी रिहाइश बनाई। वाइकिंग के वर्चस्व की तीन सदियों को इतिहास में वाइकिंग युग के नाम से याद किया जाता है। भौगोलिक स्तर पर वाइकिंग युग का संबंध सिर्फ स्कैंडिनेवियाई भूमि (यानी आधुनिक डेनमार्क, नॉर्वे और स्वीडन) से नहीं रहा, बल्कि उत्तरी जर्मनी के तहत आने वाले इलाकों से भी रहा।

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